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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

तीसरा साधन है-बुद्धि-विकास। अपनी बुद्धिके बलपर ही मनुष्य अन्य प्राणियोंसे उच्च स्तरपर है। बुद्धिके विकासके लिये सतत प्रयत्न करते रहो। ज्ञानकी पिपासा उत्तरोत्तर बढ़ाते रहो। बुद्धि-विकासके दो साधन है-अध्ययन तथा महापुरुषोंका सत्संग। उच्चकोटिकी पुस्तकें समीप रखकर मनुष्य ऐसे विद्वानोंके साथ रहता है, जो दिन-रात उसे कुछ-न-कुछ ज्ञान देनेको प्रस्तुत रहते है। स्वयं विचार और चिन्तन करो। अपनी भूलोंसे लाभ उठाओ। प्रत्येक भूल हमारी शिक्षिका है, जो किसी-न-किसी दृष्टिसे हमें ऊँचा उठाती है। स्मरण रखो, हम जो कुछ पढ़ते है उससे नहीं, परंतु जो पढ़कर स्मरण रखते हैं और जिन आदर्शोंपर काम करते है, उनसे समुन्नत बनते हैं।

अन्तिम साधन आत्मज्ञान है, जो आत्मभावसे प्राप्त होता है। वास्तवमें हम हाड़-मासके शरीर नहीं हैं, बल्कि अजर-अमर आत्मा है। इस क्षणभंगुर संसार में आत्मतत्त्व ही सत्य, स्थिर तथा स्थायी है। सांसारिक दुःखोंकी प्रतीति उन व्यक्तियोंको विशेष रूपसे होती है, जो निम्न स्तर पर रह जाते हैं।

दुःखभोगकी क्षमता हमारे शरीरका प्रत्येक भाग रखता है, परंतु सच्चे आनन्दका मार्ग केवल आत्मा ही है, आत्मज्ञान एवं आत्म-सम्मानको प्राप्त करना और उसकी रक्षा करनेके लिये मनुष्योचित मार्ग अपनाना-यह जीवनका सत्त्वगुणी? विकासक्रम है आत्मा महान् तत्त्व है। वस्तुतः हमें यह अधिकार नहीं कि हम अपने-आपको दीन, तुच्छ, अयोग्य और असमर्थ समझें।

आत्मदृष्टि जाग्रत् करते रहिये। सबमें आत्माके ही दर्शन कीजिये। सहयोग, प्रेम, आत्मीयता, संतोष, आनन्द एवं प्रसन्नता ऐसी दिव्य विभूतियाँ है, जिनसे जीवनका सत्त्वगुणी क्रम ठीक रहता है। 'मैं पवित्र, अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा हूँ।' इस महान् सत्यको हृदयमें ग्रहण कीजिये और तदनुकूल आचरण करते चलिये। आत्मवाद वह महाविज्ञान है, जिसके प्रयोगके बिना भूतलके समस्त वैभव फीके हैं।

आत्ममार्गके पथिक! सावधान! दूसरेको उपदेश देनेकी मूर्खता मत करना। जबतक अपना सुधार न हो जाय और हम दूसरोंके समक्ष सर्वांगपूर्ण दृष्टिसे आदर्श उपस्थित करने योग्य न हो जायँ तबतक पथ-प्रदर्शन करनेका हमें कोई अधिकार नहीं है।

एक-एक कर अपने चरित्र और व्यक्तित्वकी निर्बलताओंपर प्रहार करो। जिस प्रकार कोमल शय्यामें पड़े हुए कटि मनुष्यको बड़े खटकते है और जबतक वह उन्हें दूर नहीं कर देता, तबतक वे उसे कष्ट पहुँचाते रहते है। उसी प्रकार हमारे दुर्गुण, व्यसन, चरित्र एवं स्वभावगत निर्बलताएँ हमारे असंतोष एवं कष्टके कारण हैं।

अपनी इन्द्रियोंको वशमें करना सीखो। शारीरिक वासनाओंकी तृप्तिमें जीवनका निम्नकोटिका सुख है। 'खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ' यह विकारी निम्नकोटिके व्यक्तियोंका उद्देश्य हो सकता है। ऐसा विकारी व्यक्ति परमेश्वरकी इस दुनियामें कलंकमात्र है। परमात्मीय दैवी सम्पदाओंको लेकर भी वह पशु-समान नीच वृत्तियोंमें फँसा हुआ है। तुम्हारा मार्ग परमात्माका दिव्य आदर्श मार्ग है। तुम्हें अपनी पाशविक वृत्तियोंपर विजय प्राप्त करना है। जिस प्रकार एक दृढ़ राजा अपने अनिष्टकर तत्त्वोंको मजबूतीसे दबाकर रखता है, जिससे राज्य में उत्पात न हो, उसी प्रकार तुम्हें समस्त विषय वासनाओं पर कड़ा निग्रह एवं सुशासन रखना है।

तुम अपने शरीर के स्वामी बनो। विवेक् की सहायतासे अपनी आसुरी प्रवृत्तियोंको काबूमें रखो। देवत्वकी शक्तियोंको फैलाओ, देवत्वका ही विकास करते चलो। सच्चा रसायनशास्त्री वही है जो विषय-वासनाओंके लोहेको आध्यात्मिक शक्तियोंद्वारा मानसिक शक्तियोंके सोनेमें बदल देता है। तुम देवत्वके अंश हो। उसीका विकास तुम्हारा सच्चा विकास है। देवता बनो। ऊंचे उठो।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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