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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

डाकूके मनपर इस उपदेशका गहरा प्रभाव पड़ा। उसने इसपर जितना सोचा, वह उतना ही गहरा उतरता चला गया। ज्ञान, विवेक, बुद्धि, सम्मति धीर-धीरे सभी शक्तियों खुलने लगीं। उसका अज्ञानतिमिर नष्ट हुआ और वह पापसे छूट गया। यह है सदुपदेशका प्रत्यक्ष चमत्कार!

गंगाजलसे जिस प्रकार शरीर शुद्ध होता है, वैसे ही सदुपदेशसे मन, बुद्धि और आत्मा पवित्र होती है। धर्मात्मा मनुष्योंकी शिक्षा एक सुदृढ़ लाठीके समान है, जो गिरे हुए पतितोंको सहारा देकर ऊँचा उठाती रही है और बुरे अवसरोंपर गिरनेसे बचा लेती है। जो शिक्षित है, उनके लिये सैकड़ों, एक-से-एक सुन्दर अनुभवपूर्ण ग्रन्थ विद्यमान हैं। कवियों, विचारकों, तत्त्व-दर्शकोंकी वाणियाँ है। दोहे, भजन, सूक्तियाँ है। इनका मनन और आचरण करना चाहिये। जो अशिक्षित है, वे लोग भी धर्मात्माओंके सत्संग से इतनी शक्ति प्राप्त कर सकते है, जिससे अपने-आपको सँभाल सकें और विपत्तिके समय अपने पैरोंपर खड़े हो सकें। स्वयं भगवान् गीतामें कहते हैं-

नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।
(४। ३८)
अर्थात् 'इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कोई भी पदार्थ नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।'

ये मानवा हरिकथाश्रवणास्तदोषाः
कृष्णंघ्रिपद्यभजने रतचेतनाश्च।
ते वै पुनन्ति च जगन्ति शरीरसंगात्
सम्माषणादपि ततो हरिरेव पूज्यः।।
हरिपूजापरा यत्र महान्तः शुद्धबुद्धयः।
तत्रैव सकलं भद्रं यथा निम्ने जल द्विज।।

जो मानव भगवान् की कथा श्रवण करके उससे सदुपदेश ग्रहण कर अपने समस्त दोष-दुर्गुण दूर कर चुके है और जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकी आराधनामें अनुरक्त है, वे अपने शरीरके संग अथवा सम्माषणसे भी संसारको पवित्र करते हैं। अतः सदा श्रीहरिकी ही पूजा करनी चाहिये। ब्रह्मन्! जैसे नीची भूमिमें इधर-उधरका सारा जल सिमिट-सिमिटकर एकत्र हो जाता है, उसी प्रकार जहाँ भगवत्पूजापरायण शुद्धचित्त महापुरुष रहते हैं, वहीं सम्पूर्ण कल्याणका वास होता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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