गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
'तुम्हारे पास जो कुछ छिपा हुआ है, अपनी जान बचाना चाहते हो तो सब यहाँ निकालकर रख दो। देखते हो यह कुल्हाड़ी, अभी गर्दन साफ कर दूँगा।'
नारदजी बोले, 'मुझ मुनिके पास कुछ नहीं है! दया करो, मुझे छोड़ दो।'
'है कैसे नहीं? जरूर तुम मुझसे छिपा रहे हो। यह देखो, तेज कुल्हाड़ी। अभी तुम्हारे सिरको धड़से पृथक् करता हूँ। मैं अगर इस प्रकार लोगोंको दया करता रहूँ तो अपने परिवारका उदर-पोषण कैसे करूँ।'
नारदजी बोले-'यह तो ठीक है कि तुम यात्रियोंकी हत्या कर उनका माल लूटकर अपने परिवारका उदर-पोषण करते हो; पर इन अनेक हत्याओंका पाप भी क्या वे बाँटकर आधा ले लेंगे? क्या वे तुम्हारे पाप, हिंसा, नरकमें भी हिस्सा बटायेंगे?'
यह सुनकर वाल्मीकि कुछ सोचने लगा। फिर एकाएक बोला, 'मैं तुम्हें यहीं वृक्षसे बाँध देता हूँ और फिर परिवावालोंसे पूछकर आता हूँ कि क्या वे मेरे पाप-कर्मोंके भी हिस्सेदार होंगे? मैं उन्हींके निर्वाहके लिये तो ये हत्याएँ करता हूँ।' थोड़ी देर तक नारदजी रस्सीसे बँधे रहे। उन्हें तो अपने ज्ञानका तेज तर्क और बुद्धिका चमत्कार प्रदर्शित कर भ्रान्त व्यक्तिको सन्मार्गपर लाना था।
कुछ काल पश्चात् वाल्मीकि लौटकर आया और बोला-'उन्होंने तो स्पष्ट नकारात्मक उत्तर दे दिया।' वे कहते है कि 'हमारा कार्य तो केवल खाना है। तुम किस प्रकार भोजन लाते हो, इससे हमें कोई सरोकार नहीं। यदि तुम पाप, हत्या या हिंसासे जीविका उपार्जन करते हो, तो इसका पाप तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।'
नारद बोले, 'तो तुम मिथ्या इस मायाजालमें क्यों पड़े हो?' जिन व्यक्तियोंके लिये तुम इतना पाप-भार उठा रहे हो, वे तो तुमसे दूर हट जानेवाले हैं। अपने पापकी सजा स्वयं तुम्हींको भुगतनी है। सजामें कोई भी हिस्सा बँटानेको प्रस्तुत नहीं है। घरके लोग केवल अपने स्वार्थकी सिद्धिका सत्कार करते हैं। किसीका कोई सम्मान या सत्कार नहीं करता। सर्वत्र स्वार्थ-ही-स्वार्थ है। तुम अपने अन्तःकरणमें स्थित ईश्वरकी ध्वनिका संकेत क्यों नहीं पालन करते? जो आदमी अपने अन्तःकरणके दिव्य संकेतोंके अनुसार चलते है, उनकी विवेकशक्ति अथवा भले-बुरेके पहचाननेकी शक्ति बढ़ती रहती है। तुम्हारे अन्दर देवत्व है, ईश्वरत्व है। उसके संकेतोंको पहचानकर दिव्यताकी ओर बढ़ो।
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