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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

'तुम्हारे पास जो कुछ छिपा हुआ है, अपनी जान बचाना चाहते हो तो सब यहाँ निकालकर रख दो। देखते हो यह कुल्हाड़ी, अभी गर्दन साफ कर दूँगा।'

नारदजी बोले, 'मुझ मुनिके पास कुछ नहीं है! दया करो, मुझे छोड़ दो।' 

'है कैसे नहीं? जरूर तुम मुझसे छिपा रहे हो। यह देखो, तेज कुल्हाड़ी। अभी तुम्हारे सिरको धड़से पृथक् करता हूँ। मैं अगर इस प्रकार लोगोंको दया करता रहूँ तो अपने परिवारका उदर-पोषण कैसे करूँ।'

नारदजी बोले-'यह तो ठीक है कि तुम यात्रियोंकी हत्या कर उनका माल लूटकर अपने परिवारका उदर-पोषण करते हो; पर इन अनेक हत्याओंका पाप भी क्या वे बाँटकर आधा ले लेंगे? क्या वे तुम्हारे पाप, हिंसा, नरकमें भी हिस्सा बटायेंगे?'

यह सुनकर वाल्मीकि कुछ सोचने लगा। फिर एकाएक बोला, 'मैं तुम्हें यहीं वृक्षसे बाँध देता हूँ और फिर परिवावालोंसे पूछकर आता हूँ कि क्या वे मेरे पाप-कर्मोंके भी हिस्सेदार होंगे? मैं उन्हींके निर्वाहके लिये तो ये हत्याएँ करता हूँ।' थोड़ी देर तक नारदजी रस्सीसे बँधे रहे। उन्हें तो अपने ज्ञानका तेज तर्क और बुद्धिका चमत्कार प्रदर्शित कर भ्रान्त व्यक्तिको सन्मार्गपर लाना था।

कुछ काल पश्चात् वाल्मीकि लौटकर आया और बोला-'उन्होंने तो स्पष्ट नकारात्मक उत्तर दे दिया।' वे कहते है कि 'हमारा कार्य तो केवल खाना है। तुम किस प्रकार भोजन लाते हो, इससे हमें कोई सरोकार नहीं। यदि तुम पाप, हत्या या हिंसासे जीविका उपार्जन करते हो, तो इसका पाप तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।'

नारद बोले, 'तो तुम मिथ्या इस मायाजालमें क्यों पड़े हो?' जिन व्यक्तियोंके लिये तुम इतना पाप-भार उठा रहे हो, वे तो तुमसे दूर हट जानेवाले हैं। अपने पापकी सजा स्वयं तुम्हींको भुगतनी है। सजामें कोई भी हिस्सा बँटानेको प्रस्तुत नहीं है। घरके लोग केवल अपने स्वार्थकी सिद्धिका सत्कार करते हैं। किसीका कोई सम्मान या सत्कार नहीं करता। सर्वत्र स्वार्थ-ही-स्वार्थ है। तुम अपने अन्तःकरणमें स्थित ईश्वरकी ध्वनिका संकेत क्यों नहीं पालन करते? जो आदमी अपने अन्तःकरणके दिव्य संकेतोंके अनुसार चलते है, उनकी विवेकशक्ति अथवा भले-बुरेके पहचाननेकी शक्ति बढ़ती रहती है। तुम्हारे अन्दर देवत्व है, ईश्वरत्व है। उसके संकेतोंको पहचानकर दिव्यताकी ओर बढ़ो।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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