गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
जैसे समुद्रमें जहाजों को उचित मार्ग-निर्देश करनेके लिये 'प्रकाश-स्तम्भ' बनाये जाते हैं। विद्वानोंके ये उपदेश ऐसे ही प्रकाश-स्तम्भ है। हम यह नहीं कहते कि आप आँखें मूँदकर ही इन्हें ग्रहण करें। आप अपनी बुद्धि और तर्कसे खूब काम लीजिये, किंतु उपदेशोंमें व्यक्त आधारको अवश्य ग्रहण कीजिये। आपको विवेकवान् बननेमें ये प्रचुरतासे सहायता देनेवाले है। सत्य, प्रेम और न्यायका पथ इनसे स्पष्ट हो जाता है।
आपको कोई दूसरा अच्छी सलाह दे, उसको सुनना आपका कर्तव्य है; परन्तु आपके प्रास अन्तरात्मा का निर्देश है, आप अपनी आत्माकी सलाहसे काम करते रहिये, कभी धोखा नहीं खायेंगे।
जिन्होंने बहुत सदुपदेश सुने है; वे देवतारूप है। कारण, जब मनुष्यकी प्रवृत्ति अच्छाई की ओर होती है, तभी वह सदुपदेशों को पसन्द करता है। तभी सत्संग में बैठता है। तभी मनमें और अपने चारों ओर वैसा शुभ सात्त्विक वातावरण निर्मित करता है। किसी विचारके सुननेका तात्पर्य चुपचाप अन्तःकरणद्वारा उसमें रस लेना, उसमें रमण करना भी है। जो जैसा सुनता है, कालान्तरमें वैसा ही बन भी जाता है। आज आप जिन सदुपदेशोंको ध्यानपूर्वक सुनते हैं, कल निश्चय ही वैसे बन भी जायेंगे। सुनने का तात्पर्य अपनी मानसिक प्रवृत्तियों को देवत्वकी ओर मोड़ना है।
एक विद्वान्ने कहा है, 'जल जैसी जमीनपर बहता है, उसका गुण वैसा ही बदल जाता है।' मनुष्यका स्वभाव भी अच्छे-बुरे विचारों या लोगोंके सत्संगके अनुसार बदल जाता है। इसलिये चतुर मनुष्य बुरे लोगोंका संग करनेसे डरते हैं, किन्तु मूर्ख व्यक्ति बुरे आदमियोंके साथ घुल-मिल जाते हैं और उनके सम्पर्कसे अपने-आपको भी दुष्ट ही बना लेते हैं। मनुष्यकी बुद्धि तो रहती है, किन्तु कीर्ति उस स्थानपर निर्भय रहती है, जहाँ वह उठता-बैठता है। आदमीका घर चाहे जहाँ हो, पर वास्तवमें उसका निवासस्थान वह है, जहाँ वह उठता-बैठता है और जिन लोगों या विचारोंका संग उसे पसन्द है। आत्माकी पवित्रता मनुष्यके कार्योंपर निर्भर है और उसके कार्य संगति पर निर्भर है। बुरे लोगोंके साथ रहने वाला अच्छे काम करे, यह बहुत ही कठिन है। धर्मसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है, किन्तु धर्माचरण करनेकी बुद्धि सत्संग या सदुपदेशों से ही प्राप्त होती है। स्मरण रखिये; कुसंग से बढ़कर कोई हानिकर वस्तु नहीं है तथा सत्संगति से बढ़कर कोई लाभ नहीं है।
जब आप सदुपदेशोंकी संगतिमें रहते हैं, तब गुप्तरूपसे अच्छाईमें बदलते भी रहते हैं। यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया स्थूल नेत्रोंसे दीखती नहीं है, किन्तु इसका प्रभाव तीव्र होता रहता है। अन्ततः मनुष्य उन्हीं के अनुसार बदल जाता है।
वाल्मीकि डाकू थे। लूट-मार, हत्या और हिंसासे अपना और अपने परिवारका उदर-पोषण किया करते थे। एक दिन संयोग से नारद मुनि उधर से आ निकले। वाल्मीकिको उपदेश देनेकी उनकी इच्छा बलवती हो आयी।
वे सामनेसे निकले तो डाकू वाल्मीकिकी दृष्टि उनपर पड़ी। उसने सोचा, अवश्य ही इस मुनिके पास कुछ धन होना चाहिये।
'खड़े रहो!' वह कर्कश स्वरमें चीख उठा।
नारद मुनि विनीत भावसे खड़े रह गये।
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