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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

पाप से छूटने के उपाय

पाप प्रायः तीन प्रकारके होते हैं। मनसे दूसरेका अहित सोचना, वचनसे दूसरेके प्रति कुशब्दोंका उच्चारण कर देना तथा शरीरसे दूसरेको किसी प्रकारकी हानि पहुँचा देना। पाप किसी प्रकारका हो, अपने मनमें अशान्ति उत्पन्न करता है। मनुष्य अन्दर-ही-अन्दर घबराता है। मनुष्य अपने पापको जबतक मनमें छिपाये रहता है, तबतक आत्मग्लानिका शिकार रहता है।

मनुष्यमें कई व्यक्तित्व है। उच्च पवित्र व्यक्तित्व है जिसे आध्यात्मिक व्यक्तित्व कह सकते हैं। आध्यात्मिक व्यक्तित्व सांसारिक संकीर्णताओंसे परे है। इसका रूप सूक्ष्म और विशाल है। द्वेष-ईर्ष्यारहित है। यह सांसारिक विषय-वासनाओंपर नियन्त्रण करनेवाला है। मनुष्य जब पाप करता है तो उसका वही आध्यात्मिक व्यक्तित्व कचोटता है। बुरा-बुरा कहता है, इसलिये पाप और विकारमय व्यक्तित्व डरता रहता है। मन सदा बेचैन बना रहता है। आध्यात्मिक व्यक्तित्वकी सजा मनुष्य अन्दर-ही-अन्दर भुगतता रहता है। उसके अंकुशकी पैनी मार उसे व्यथित किया करती है। कोलरिज नामक एक अंग्रेजीके कविने काव्यमें एक अपराधीकी कहानी लिखी है। वह एक जहाजपर सफर कर रहा था। उस जहाजपर एक चिड़िया रहती थी। यह चारों ओर उड़कर फिर वापिस जहाजपर आ जाया करती थी। एक दिन उसे न जाने क्या सूझी कि वह अपनी तीर-कमान लाया और उसने चिड़ियाका वध कर डाला। चिड़ियाका मरना था कि उसका मन पापकी अकथित गुप्त वेदनासे भर गया। 'मैंने बड़ा बुरा कर्म किया है। मैं कैसे इससे मुक्त होऊँ?' वह भारी मन किये इधर-उधर उद्विग्न फिरता रहा। उस पापकी भावनाने उसे पागल-सा बना दिया। उसके लिये इस पापकी वेदनाका भार असह्य हो गया। जब उससे न रहा गया तो उसने उस जहाजपर यात्रा करते हुए कविको बरबस रोककर अपने पापकी सारी कहानी कही, पश्चात्ताप प्रकट किया और पाप प्रकटकर आत्मग्लानिसे मुक्ति प्राप्त की।

पाप क्या है? पुण्य किसे कह सकते है? साधारणतः यह कहा जा सकता है कि जिन कर्मोंसे मनुष्य नीचे गिरता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, उसे पाप कहते हैं। इसकी विपरीत जिन शुभ कर्मोंके करनेसे बुद्धि स्वच्छ एवं निर्मल होने लगती है और आत्मा सन्तुष्ट रहती है, वे पुण्य हैं। पापसे मनमें कुविचार और कुकर्मोंके प्रति वृत्ति उत्पन्न होती है, पुण्यसे अन्तःकरण शुद्ध होता है।

यों तो मनुष्यको पाप करते ही स्वयं मालूम हो जाता है कि मुझसे पाप हो गया है; किन्तु फिर भी शास्त्रोंके अनुसार ऐसे पाप हैं, जिनसे सदा-सर्वदा बचना चाहिये। पाँच महापातक हैं-(१) ब्रह्महत्या अर्थात् वेदज्ञ-तपस्वी ब्राह्मणकी हत्या करना। (२) सुरापान, मद्यपान ऐसा पाप है, जिससे मनुष्य पतनकी ओर झुकता है, कुविचार और कुकर्मकी ओर उसकी प्रवृत्ति होती है। (३) गुरु-पत्नीके साथ अनुचित सम्बन्ध। (४) चोरी करना-इसमें हर प्रकारकी चोरी सम्मिलित है। चोरीका माल स्वयं नष्ट हो जाता है और घरमें जो धर्मकी कमाई होती भी है, उसे नष्ट कर डालता है। (५) महापातकियोंके साथ रहना एक पाप है; क्योंकि उनके संसर्गसे कुप्रवृत्ति पैदा होती है। इनके अतिरिक्त अनेक उपपातक अर्थात् छोटे-छोटे पाप हैं, जिनसे सावधान रहना चाहिये। ये बहुत-से हो सकते है, पर मुख्यरूपसे इस प्रकार हैं-(१) गोवध, (२) अयोग्यके यहाँ यज्ञ करना, (३) व्यभिचार और परस्त्री-गमन, (४) अपनेको बेच देना, (५) गुरु, माता, पिताकी सेवा न करना, (६) वेदाध्ययनका त्याग, (७) अपनी सन्तानका भरण-पोषण न करना, (८) बड़े भाईके अविवाहित होते अपना विवाह करना, (९) कन्याको दूषित करना, (१०) सूदपर रुपया लगाना, (११) ब्रह्मचर्य-व्रतका अभाव, (१२) विद्याको बेचना, (१३) निरपराधी जीवोंका वध करना-जैसे भोजनके लिये चिड़ियों, मछलियों इत्यादिको मारना, (१४) ईंधनके लिये हरे वृक्षको काट डालना। वृक्षमें जीव है। हरा वृक्ष काट डालना एक प्रकारसे हत्या करनेके समान ही है। (१५) अभक्ष्य पदार्थोंको खाना। मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन, अण्डा इत्यादि खानेसे बुद्धि विकारमय होती है और पापमें प्रवृत्ति होती है। अतः सदा सात्त्विक आहार ही खाना चाहिये, (१६) अग्रिहोत्र न करना, (१७) अपने ऊपर चढ़ा हुआ कर्ज न चुकाना, (१८) गन्दी पुस्तकें पढ़ना। इससे मनुष्य मानसिक व्यभिचारकी ओर अग्रसर होता है, खुराफातोंसे मन भर जाता है। मनके समस्त पाप इस प्रकारके कुचिन्तनसे ही प्रारम्भ होते हैं। परद्रव्य, परस्त्री, परायी वस्तुओंको लेनेकी  इच्छा, व्यर्थका अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष आदि सब कुचिन्तनके ही पाप हैं। मनमें अनिष्ट-चिन्तन होनेसे मनुष्य वाणीसे पाप करता है, असत्य-भाषण, चुगली, असम्बद्ध प्रलाप और कठोरताभरी वाणी बोलता है, इसी प्रकार शरीरसे होनेवाले अनेक पाप हैं-जैसे हिंसा, परदारासेवन, दूसरेकी वस्तुओंपर बलपूर्वक अधिकार आदि। इनमेंसे प्रत्येककी उत्पत्ति तब होती है, जब मनुष्यके मनमें कुविचारका जन्म होता है। बीजमें वृक्षकी तरह शरीरमें वासनाएँ छिपी रहती हैं। तनिक-सा प्रोत्साहन पाकर ये उद्दीप्त हो उठती हैं और  गन्दगीकी ओर प्रेरित करती हैं। मनके गुप्त प्रदेशमें छिपी हुई ये गन्दी वासनाएँ ही हमारे गुप्त शत्रु हैं। वासना बन्धनका, नाशका, पतनका और अवनतिका प्रधान कारण है। कामवासनाएँ अठारह वर्षकी आयुसे उत्पात मचाना प्रारम्भ करती हैं और ४५ वर्षकी आयुतक भयंकर द्वन्द्व मचाती रहती हैं, दुष्कर्मकी ओर प्रवृत्त करती हैं। विवेकी पुरुषको वासनाकी भयंकरतासे सदा सावधान रहना चाहिये। वासना ही सांसारिक चिन्ताओंको उत्पन्न करनेवाली विभीषिका है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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