गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
सहानुभूति और दया
जुल्म और निर्दयता पशुत्व है। बेरहमीका बर्ताव करना मनुष्यको किसी प्रकार भी शोभा नहीं देता। जुल्म करना तो उन दानवोंका दुष्कर्म है, जिन्हें उचित-अनुचित तथा भलाई-बुराईका विवेक नहीं होता। आप मानव हैं। बुद्धि, विवेक, विद्या, सदाचारके ज्योतिर्मय पिण्ड हैं। क्या आप दूसरोंपर जुल्मकर असुरोंकी कोटिमें जाना पसन्द करेंगे? कदापि नहीं। यह दुष्कर्म, यह अन्याय, अनाचार, बेईमानी, धोखेबाजी, चोरी आप कदापि नहीं करेंगे। यह आपके योग्य काम नहीं है। आप मनुष्य होकर शोषण नहीं कर सकते। आप किसी मानवके प्रति अन्यायी नहीं हो सकते। भारतकी निरक्षर, पिछड़ी-पीड़ित और मिथ्या विश्वासमें पिसनेवाली जनताको जाग्रत् समुन्नत, सुशिक्षित करनेमें ही आपकी शक्तियोंका उपयोग होना चाहिये।
सद्व्यवहार करना शोभनीय है
मनुष्य अपने सद्व्यवहारोंसे देवता बन जाय या मानवसे दानव। हमारे पूर्वपुरुषों, ऋषियों-मुनियोंने सद्व्यवहार, उदारता, प्रेम, मित्रता, परस्पर उचित सहकार और सहानुभूतिको मानवताके महत्त्वपूर्ण अंग माना है। मनुष्य यदि सच्चे मानवका जीवन जीना चाहे तो उसे मानवधर्मका आश्रय लेना ही पड़ेगा।
सत्सगंति
सत्संग मानव-धर्मका एक आवश्यक गुण है। जो सत्य है, उसकी ओर आकृष्ट होनेसे; उत्तमोत्तम विचारों, मन्तव्यों, धारणाओंवाले ज्ञानी, महात्माओं, विद्वानों, सद्ग्रन्थोंका संग करनेसे हमारे बुरे विचारों एवं वासनाओंका नाश होता है। और शुभ संस्कार पड़ते हैं। चाहे कुछ कालतक सत्संगका प्रभाव प्रकट न हो, किन्तु थोड़े दिनों पश्चात् मानवोचित शुभ संस्कार प्रकट होने लगते है। सत्संगसे अज्ञान और अविवेकका क्षय होता है।
गुणग्राहिता चाहिये
आज स्वार्थके स्थानपर दूसरोंके गुणोंके प्रति प्रीति तथा गुणग्राहिताको विकसित करनेकी अतीव आवश्यकता है। यदि हम दूसरेके उन्नत गुणोंकी प्रतिष्ठा करेंगे, उनके सद्गुणोंकी प्रशंसा करेंगे तो मित्रभाव, सौहार्द, बन्धुत्वकी शुभ भावनाओंकी वृद्धि होगी, संसार प्रेम-सम्बन्धोंसे परिपूर्ण होकर शत्रुभावसे मुक्त हो जायगा।
श्रद्धा
श्रद्धा मानवीय हृदयका मेरुदण्ड है। हमें श्रद्धाभावकी निरन्तर अभिवृद्धि करते रहना चाहिये। जो अपनेसे विद्या, आयु, बुद्धिमें बड़े है, उनके प्रति हमें श्रद्धा-भाव रखना चाहिये। विद्यार्थी-समुदायको गुरुजनोंकी प्रतिष्ठा, मान एवं गुरुत्वका सदैव ध्यान रखना चाहिये। शास्त्रोंकी उक्ति है-'आचार्यदेवो भव' अर्थात् गुरु देवताओंके समान श्रद्धाका पात्र है। वृद्धजनोंके प्रति भी श्रद्धालु होनेकी परम आवश्यकता है। 'श्रद्धाका दूसरा अर्थ है भगवान्में, सन्तोंमें तथा उनकी वाणीमें श्रद्धा।' यह भी अवश्य चाहिये।
ईश्वरभक्ति
मनुष्यके विकासमें सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान ईश्वरभक्तिका है। मनुष्यमें स्वयं ईश्वरका निवास है। हम अपना जितना निकट सम्बन्ध परमात्मासे लगाते हैं, ईश्वरको सम्मुख एवं सदा हमारे साथ रहनेवाला समझकर कार्य करते हैं, उतना ही हमारी मानवताका विकास होता है। सिर्फ मानव-मूर्तियोंमें ही नहीं, जीवमात्रमें ईश्वरकी परछाईं देखकर उनकी सेवा, उपकार, विकासके कार्यमें प्रवृत्त होनेसे हम मानवताकी सेवा करते हैं।
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- निवेदन
- आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
- हित-प्रेरक संकल्प
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- रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
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- एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
- सुख किसमें है?
- कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
- समस्त उलझनों का एक हल
- असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
- हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
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- भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
- सात्त्विक आहार क्या है?
- मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
- तामसी आहार क्या है?
- स्थायी सुख की प्राप्ति
- मध्यवर्ग सुख से दूर
- इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
- जीवन का स्थायी सुख
- आन्तरिक सुख
- सन्तोषामृत पिया करें
- प्राप्त का आदर करना सीखिये
- ज्ञान के नेत्र
- शान्ति की गोद में
- शान्ति आन्तरिक है
- सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
- आत्मनिर्माण कैसे हो?
- परमार्थ के पथपर
- सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
- गुप्त सामर्थ्य
- आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
- अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
- पाप से छूटने के उपाय
- पापसे कैसे बचें?
- पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
- जीवन का सर्वोपरि लाभ
- वैराग्यपूर्ण स्थिति
- अपने-आपको आत्मा मानिये
- ईश्वरत्व बोलता है
- सुखद भविष्य में विश्वास करें
- मृत्यु का सौन्दर्य