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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

पारस्परिक सद्भाव

मित्रो! प्रभुने मनुष्यको इसलिये इस आनन्दमयी सृष्टिमें नहीं भेजा कि वे आपसमें लड़ें-झगड़ें, छीना-झपटी करें, शोषण-कर्म, दण्ड, अत्याचार, दुःख, बेचैनी और पीड़ामें फँसे, रक्तकी होली खेलें। हम बालकोंका यह दुष्कर्म देखकर परमपिता परमेश्वरको बहुत मन:क्लेश होता है। अतः यह उलटी चाल छोड़कर दूसरोंकी सुख-सुविधाका खूब ध्यान रखना चाहिये। परमात्माको प्रसन्न करनेकी सबसे सीधी चाल यह है कि प्रत्येक व्यक्ति 'मुझे नहीं चाहिये, आप लीजिये' की निःस्वार्थ नीतिको ग्रहण करे। इस नीतिकी शिक्षा  स्वयं अपने जीवनमें उतारें और पड़ोसियोंको दें। जहाँतक सम्भव हो प्रेम, न्याय भ्रातृ-भावका दिव्य सन्देश पहुँचाना चाहिये। सबको सुखी बनाकर सुखी भविष्यकी आशा और आश्वासन दिलाना चाहिये।

दूसरोंके प्रति शुभ भावनाएँ

हमें चाहिये कि दूसरोंके विषयमें बुरे या दुर्बल विचार त्यागकर सदा सद्भाव बनाये रखें और उन्हें बढ़ावें। हमें उनके प्रति वही व्यवहार करना चाहिये, जो हम अपने प्रति उनसे कराना चाहते हैं। हमारी आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक उन्नतिमें दूसरोंके प्रति किये गये अत्याचार, दुष्टता, धोखेबाजी, लूट, कालाबाजार, चोरी इत्यादि बाधक है। हमारा दुष्कर्म कभी छिप नहीं सकता। हम दुनियाकी आँखोंमें धूल झोंककर, झूठ बोलकर अथवा धोखा देकर रिश्वत, पक्षपात या भ्रष्टाचारसे ऊँचे उठ भी जाते हैं, पर अन्तर्यामी भगवान् से हम कुछ भी छिपाकर नहीं रख सकते और यहाँ भी कुछ समयमें हमारी कलई अवश्य खुल जायगी। वास्तविकता प्रकट होनेपर जो आत्मग्लानिकी पीड़ा सहन करनी पड़ती है, उसकी कसक सैकड़ों बिच्छुओंकी काटी हुई पीड़ासे भी अधिक है। अतः अपाहिज, दीन, शोषित, दुःखी, कोढ़ी, पीड़ित, पद-दलित, पशु-पक्षी, जगत्-वनस्पति-किसीके प्रति भी कभी भी निर्दयता नहीं करनी चाहिये।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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