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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

आवश्यकताओंपर नियन्त्रण

प्रत्येक व्यक्तिको निजी आवश्यकताओंको कम करना चाहिये तथा दूसरेकी सेवा-सहायताका ध्यान रखना चाहिये। स्वार्थके स्थानपर परमार्थ; अपनेके स्थानपर दूसरेकी आवश्यकताओंका ध्यान रखना चाहिये।

हमलोग तुच्छ स्वार्थोंको अपना ध्येय मानकर अनर्थ करते रहे है। 'अमुक वस्तु मुझे चाहिये, मुझे सबसे अधिक हिस्सा प्राप्त हो, मैं लूँगा, दूसरे को कुछ न दूँगा। मेरी आवश्यकताएँ पहले पूर्ण होनी चाहिये'-यह दूषित विचारधारा हममेंसे प्रत्येक मानवको त्याग देनी चाहिये। हमें स्वार्थके स्थानपर दूसरोंके प्रति आत्मीयताकी भावनाएँ विकसित करनी चाहिये।

दूरकी न सोचनेवाला लालची नष्ट हो जाता है और जो यह कहता है कि 'मुझे नहीं चाहिये आप लीजिये-उसे प्रकृतिके कोष तथा भगवान्के भण्डार से बहुत मिलता है। जिसे न्याय और अन्यायका ज्ञान है, जो लेने योग्य और न ध्यै योग्यका भेद समझता है, ऐसे श्रेष्ठ पुरुषका घर ढूँढ़ती-ढूँढ़ती लक्ष्मी स्वयं उनके पास पहुँच जाती है। उदार दृष्टिकोणवाला प्रेमी व्यक्ति दूसरोंको भी अपना समझता है, उनसे प्रेमपूर्ण उदार व्यवहार करता है-ये भावनाएँ उसकी सुख-समृद्धिका कारण हैं। आत्मीयताकी भावनाएँ मनमें होनेके कारण वह थोड़ेमें ही गुजारा कर लेता है और कहता है-बस, मेरे लिये इतना ही पर्याप्त है, मुझे और कुछ नहीं चाहिये।'

'मुझे नहीं चाहिये, आप लीजिये'-यह नीति ऐसी है, जिसके आधार पर मानवताकी रक्षा और विकास हो सकता है, इस नीतिका पुराना महत्त्वपूर्ण इतिहास है। एक दृष्टिपात कीजिये-

'मैं लूँगा, आपको न दूँगा'-इस नीतिका पालन रामायणयुग में कैकेयी के द्वारा हुआ था, इस स्वार्थमयी नीतिके कारण सम्पूर्ण अयोध्या नरकधाम बन गयी थी। दशरथने प्राण त्याग दिये थे; रामको चौदह वर्षका वनवास मिला था। किन्तु जब भरतने 'मुझे नहीं चाहिये, आप लीजिये' की नीति अपनायी, तब दूसरे ही दृश्य उपस्थित हो गये थे! रामने राज्याधिकारको त्यागते हुए भरतसे कहा-'बन्धु! तुम्हें राज्यका सुख प्राप्त हो; मुझे यह नहीं चाहिये।' सीतादेवीने कहा-'नाथ! यह राज्य-भवन मुझे नहीं चाहिये, मैं तो आपके साथ रहूँगी।' सुमित्राने लक्ष्मणसे निर्देंश किया-'यदि सीताजी रामचन्द्रजीके साथ वनमें जा रही है, तो हे पुत्र! उनकी सेवाके लिये तुम भी वनमें जाओ!' भरतने इस नीतिको और भी सुन्दर रीतिसे चरितार्थ किया। उन्होंने राजपाटको लात मारी और भाईके चरणोंमें लिपटकर वे बालकोंकी तरह रोने लगे।

वे बोले-'भाई! मुझे राज्य नहीं चाहिये। राजपाट मेरे लिये नहीं है; इसे तो आप ले लीजिये।'

मानवरत्न श्रीरामने कहा-'भरत! मेरे लिये तो वनवास ही श्रेष्ठ है। राज्यका सुख तुम भोगो।'

ऊपरके प्रसंग में हमें दूसरोंके लिये आत्मबलिदान करनेके अनेक भव्य उदाहरण मिल जाते हैं। यह त्यागका, दूसरोंकी सुख-सुविधा-उन्नतिका अधिक ध्यान रखनेका सुनहरा नियम आज जगत्में व्याप्त बेचैनी, पीड़ा, छीना-झपटी और युद्धको दूर कर सकता है। 'मैं लूँगा' के स्थानपर 'आप लीजिये' वह महामन्त्र है, जो विश्वमें शान्ति स्थापित कर सकता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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