गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
हानिकर रूढ़ियाँ दूर कीजिये
मानवता की रक्षा का एकमात्र उपाय यह है कि मानव के सर्वांगीण विकास में जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक या अन्य बाधाएँ है, उनको दूर कर दिया जाय। प्रत्येक मानव यह कार्य करे। अत्याचार, अविचार और अनाचार का निर्भीकता से डटकर सामना किया जाय। यदि हमें अन्य राष्ट्रोंकी प्रतियोगिता में जीवित रहना है तो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जागृत करना होगा, उसे शिक्षित कर आचार-विचार, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य का विवेक सिखाना होगा, सबकी जिम्मेदारी स्वयं अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। इस प्रकार सबको समुन्नत-संगठित कर आगे बढ़ाना होना। हम भावी मानवके लिये निष्कण्टक, आलस्यहीन, प्रमादरहित, आडम्बरविहीन, सरल-सादा, उच्च विचारोंवाला जीवन चाहते है। पाश्चात्त्य सभ्यता एवं विदेशी संस्कृतिसे हमें आँखें मूँद कर प्रभावित नहीं होना है। हमें भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि पर मनुष्यत्वका विकास करना है। हमारा अन्तिम ध्येय तो वह सांस्कृतिक स्वराज्य है, जिसमें सब सुखी हों, सब सम्पन्न, शिक्षित प्रकाशमान हों, हमारी जरूरी माँगें पूर्ण हों, साहित्य-कला, ज्ञान-विज्ञानकी वृद्धि हो और स्वास्थसुख एवं शान्तिके सब साधन मानवमात्रके लिये सुलभ हों।
संवेदनशील हृदयकी आवश्यकता
मानवताकी वृद्धि एवं विकासकी एक बड़ी आवश्यकता है-संवेदनशील हृदय (दर्द-दिल), दृढ़ प्रतिज्ञता और सद्भावना। संवेदनशील जो मानवमात्रकी कसक, पीड़ा-उल्लास, हर्ष, सिसक, रोदनको अपने दिलमें महसूस करता है। जब दीन-गरीब मानवपर अत्याचार होता है, तब संवेदनशील मानवके हृदयमें टीस उठती है; जब विधवाके ऊपर लात-घूँसोंका प्रहार होता है, तब उसकी चोट उसके मनपर आघात करती है; जब लूटमार, डाकेजनी, कालाबाजार, रिश्वतसे मानवता कलंकित होती है, तब वह मन-ही-मन रोया करता है। वह शोषित-पीड़ित मानवताके प्रति सदा सद्भावना रखता है। जबतक दूसरोंपर होते हुए अत्याचार हमें तिलमिला नहीं देते, जबतक हम अपने संकुचित स्वार्थों के दायरेमें बन्द हैं, तबतक हम मानवतासे दूर हैं। अतः हमें यह स्मरण रखना चाहिये-
दर्दे दिल, पासे वफा जजबए ईमाँ होना।
आदमीयत है, यही और यही इन्सा होना।।
यम-नियम
हमारे शास्त्रोंमें मानवताकी वृद्धिके लिये यम-नियमोंका विधान रखा गया है। (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य और (५) अपरिग्रह। ये दूसरों से व्यवहार करनेके लिये हैं। आत्मसुधारके लिये इसी प्रकार (१) शौच, (२) सन्तोष, (३) तप, (४) स्वाध्याय और (५) ईश्वर-भक्ति आदि साधन माने गये। कहनेको ये छोटे-छोटे शब्द हैं, किन्तु इनका पालन कठिन है। 'कठिन' कहकर दूर हट जाना कायरता है। हमें यथाशक्ति इनकी साधना करनी चाहिये। आत्मचिन्तन द्वारा हममेंसे प्रत्येक अपनी त्रुटियोंको जाने और दृढ़तासे उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करे।
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- सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
- गुप्त सामर्थ्य
- आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
- अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
- पाप से छूटने के उपाय
- पापसे कैसे बचें?
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- ईश्वरत्व बोलता है
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- मृत्यु का सौन्दर्य