गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
'स नो मुञ्चत्वंहसः' (अथर्ववेद ४। २३। १)
'वह ईश्वर हमें पापसे मुक्त करे।'
'पाप एक वृक्षके समान है, उसका बीज है लोभ। मोह उसकी जड़ है। असत्य उसका तना और माया उसकी शाखाओंका विस्तार है। दम्भ और कुटिलता पत्ते हैं, कुबुद्धि फूल है और नृशंसता उसकी गन्ध तथा अज्ञान फल है। छल, पाखण्ड, चोरी, ईर्ष्या, क्रूरता, कूटनीति और पापाचारसे युक्त प्राणी उस मोह-मूलक वृक्षके पक्षी हैं, जो मायारूपी शाखाओंपर बसेरा लेते हैं। अज्ञान उस वृक्षका फल है और अधर्मको उसका रस बतलाया गया है। तृष्णारूप जलसे सींचनेपर उसकी वृद्धि होती है। अश्रद्धा उसके फूलने-फलनेकी ऋतु है। जो मनुष्य उस वृक्षकी छायाका आश्रय लेकर सन्तुष्ट रहता है, उसके पके हुए फलोंको खाता है और उन फलोंके अधर्मरूप रससे पुष्ट होता है, वह ऊपरसे कितना ही प्रसन्न क्यों न हो, वास्तवमें पतनकी ओर ही जाता है। इसलिये पुरुषोंको चिन्ता छोड़कर लोभका त्याग कर देना चाहिये। स्त्री, पुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। कितने ही विद्वान् भी मूर्खोंके मार्गका अवलम्बन करते हैं। कितने दिन-रात मोहमें डूबे रहकर निरन्तर इसी चिन्तामें पड़े रहते हैं कि किस प्रकार मुझे अच्छी स्त्री मिले और कैसे मैं बहुत-से पुत्र प्राप्त करूँ?'
चाहे आप किसी अत्यन्त एकान्त गुफामें कोई पापकर्म, असुन्दर कृत्य, घृणास्पद काम कर लें, रात्रिके गहन अन्धकारमें उसे छिपानेका प्रयत्न करें, किंतु विश्वास रखिये, पाप ऐसा कुटिल है कि वह स्वयं पुकार-पुकारकर अपना ढोल पीटता है। आपके पैरोंके नीचेकी घास खड़ी होकर आपके पापके विरुद्ध साक्षी देगी; आपके इर्द-गिर्द खड़े हुए वृक्ष भी जिह्वा खोलकर आपके विरुद्ध कहेंगे, उनके पत्ते-पत्ते उद्बोधन कर उठेंगे कि आप प्रकृतिको, इस कुदरतको धोखा नहीं दे सकते।
प्रकृतिके, परमेश्वरके, उस जगत्-नियन्ताके पापकर्मको देखकर सजा देनेके लिये सहस्रों नेत्र, असंख्य कान तथा अनगिनत हाथ हैं। वह दिन-रात चौबीसों घण्टे आपकी विभिन्न लीलाएँ-मुद्राएँ निहारा करता है और आपको पापसे बचनेकी प्रेरणा दिया करता है। पापकी सजा अवश्य मिलती है। ईश्वर दुष्कर्मकी सजा देनेमें किसीसे रू-रियायत नहीं करता!
पाप एक ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है, जो नाना रूपों, आकृतियों और अवस्थाओंमें मनुष्यपर आक्रमण किया करती है और जिससे सावधान रहनेकी बड़ी आवश्यकता है। कहते हैं, मनुष्यके दिव्य मनके किसी अज्ञात कोनेमें मैल और कूड़े-करकटकी तरह शैतानका भी निवास है। जहाँ पुष्पोंसे सुरभित काननका सुन्दर स्थल है, वहाँ काँटोंसे भरे बीहड़ वन भी हैं। जहाँ सद्ज्ञानका दिव्य प्रकाश है, वहीं कहीं-कहीं घनघोर अन्धकार भी है। यही अन्धकार पापकी ओर प्रवृत्त कर मनुष्यके अधःपतनका कारण बनता है।
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