गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
पाप की ओर खींचनेवाला मनुष्य का अज्ञान है। क्षणिक वासना या थोड़े लाभके अन्धकारमें उसे उचित-अनुचितका विवेक नहीं रहता; वह अपना स्थायी लाभ नहीं देख पाता और किसी-न-किसी पतनके ढालू मार्गपर आरूढ़ हो जाता है।
पाप पशुत्व है। मनुष्यके शरीर, मन और आत्माका मैल है। दुःखदायी नरकमें ले जानेवाला दैत्य है। वास्तवमें पापका प्रयोजन यह है कि इसके द्वारा मनुष्यकी परीक्षा होती रहे और इन प्रलोभनोंको पार कर वह स्थायी कीर्तिका अर्जन करे।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा-मनुष्यमें रहनेवाले ये बारह दोष तनिक-सा अनुकूल प्रोत्साहन पाते ही घास-कूड़ेकी भाँति उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं और वर्षोंकी कीर्तिको क्षय कर डालते हैं। सावधान!
मुनि सनत्सुजातके अनुसार, 'जैसे व्याघ्र मृगोंको मारनेका अवसर देखता हुआ उनकी टोहमें लगा रहता है, उसी प्रकार हमारे समस्त विकार मनुष्योंके छिद्र (कमजोर स्थल) को देखकर आक्रमण करते है।'
अपनी बहुत बड़ाई करनेवाला, लोलुप, अहंकारी, क्रोधी, चञ्चल और आश्रितों की रक्षा न करनेवाला-ये छः प्रकारके मनुष्य पापी है। महान् संकटमें पड़नेपर भी ये निडर होकर इन पाप-कर्मोंका आचरण करते हैं। कामवासनाकी तृप्ति अथवा सम्भोगमें ही मन रखनेवाला, विषमता रखनेवाला, अत्यन्त भारी दान देकर पश्चात्ताप करनेवाला, कंजूस, कामकी प्रशंसा करनेवाला तथा स्त्रियोंका द्वेषी-ये सात और पहलेके १३ प्रकार के मनुष्य 'नृशंस' वर्गके कहे गये है। इनसे सदा सावधान रहकर पवित्र कर्म करने चाहिये।
मनुष्य प्रायः तीन अंगोंसे पापमें प्रवृत्त होता है-शरीर, वाणी और मन। इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मोंके नाना रूप हो सकते है, विभिन्न अवस्थाएँ और स्तर हो सकते हैं। इनमें से प्रत्येक का दुरुपयोग हमारा अधःपतन करनेमें समर्थ है। तीनों प्रकार के पाप-कर्मोंसे बचे रहें अर्थात् शरीर, मन और वाणी का उपभोग करते हुए बड़े सचेत रहें। कहीं ऐसा न हो कि आत्म संयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पर पग बढ़ जाय। प्रायः हमें स्वयं विदित नहीं होता कि कब हम गलत रास्ते पर चले गये है। गुपचुप रूपमें पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी शोचनीय अवस्थाका ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो चुके होते हैं।
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