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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

पाप की ओर खींचनेवाला मनुष्य का अज्ञान है। क्षणिक वासना या थोड़े लाभके अन्धकारमें उसे  उचित-अनुचितका विवेक नहीं रहता; वह अपना स्थायी लाभ नहीं देख पाता और किसी-न-किसी पतनके ढालू मार्गपर आरूढ़ हो जाता है।

पाप पशुत्व है। मनुष्यके शरीर, मन और आत्माका मैल है। दुःखदायी नरकमें ले जानेवाला दैत्य है।  वास्तवमें पापका प्रयोजन यह है कि इसके द्वारा मनुष्यकी परीक्षा होती रहे और इन प्रलोभनोंको पार कर वह स्थायी कीर्तिका अर्जन करे।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा-मनुष्यमें  रहनेवाले ये बारह दोष तनिक-सा अनुकूल प्रोत्साहन पाते ही घास-कूड़ेकी भाँति उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं और वर्षोंकी कीर्तिको क्षय कर डालते हैं। सावधान!

मुनि सनत्सुजातके अनुसार, 'जैसे व्याघ्र मृगोंको मारनेका अवसर देखता हुआ उनकी टोहमें लगा रहता है, उसी प्रकार हमारे समस्त विकार मनुष्योंके छिद्र (कमजोर स्थल) को देखकर आक्रमण करते है।'

अपनी बहुत बड़ाई करनेवाला, लोलुप, अहंकारी, क्रोधी, चञ्चल और आश्रितों की रक्षा न करनेवाला-ये छः प्रकारके मनुष्य पापी है। महान् संकटमें पड़नेपर भी ये निडर होकर इन पाप-कर्मोंका आचरण करते हैं। कामवासनाकी तृप्ति अथवा सम्भोगमें ही मन रखनेवाला, विषमता रखनेवाला, अत्यन्त भारी दान देकर पश्चात्ताप करनेवाला, कंजूस, कामकी प्रशंसा करनेवाला तथा स्त्रियोंका द्वेषी-ये सात और पहलेके १३ प्रकार के मनुष्य 'नृशंस' वर्गके कहे गये है। इनसे सदा सावधान रहकर पवित्र कर्म करने चाहिये।

मनुष्य प्रायः तीन अंगोंसे पापमें प्रवृत्त होता है-शरीर, वाणी और मन। इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मोंके नाना रूप हो सकते है, विभिन्न अवस्थाएँ और स्तर हो सकते हैं। इनमें से प्रत्येक का दुरुपयोग हमारा अधःपतन करनेमें समर्थ है। तीनों प्रकार के पाप-कर्मोंसे बचे रहें अर्थात् शरीर, मन और वाणी का उपभोग करते हुए बड़े सचेत रहें। कहीं ऐसा न हो कि आत्म संयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पर पग बढ़ जाय। प्रायः हमें स्वयं विदित नहीं होता कि कब हम गलत रास्ते पर चले गये है। गुपचुप रूपमें पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी शोचनीय अवस्थाका ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो चुके होते हैं।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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