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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

शरीरमें व्यभिचार जनित रोगोंकी संख्या सर्वाधिक है। अप्राकृतिक तथा अति वीर्यपातसे मूत्रनलिकासम्बन्धी अनेक ऐसे गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं, जिन्हें न डाक्टर ठीक कर सकता है, न रुपया-पैसा इत्यादि ही सहायक हो सकता है। वेश्या-गमनके पापसे मानव-शरीर अशक्त हो जाता है और स्थायीरूपसे निर्बलता, सिरदर्दी बदहजमी, रीढ़का दुःखना, मिरगी, नेत्रोंकी कमजोरी, हृदयकी धड़कन, बहुमूत्र, पक्षाघात, प्रमेह, नपुंसकता और पागलपन आदि शारीरिक रोग उत्पन्न होकर जीवितावस्थामें ही नरकके दर्शन करा देते हैं। व्यभिचारके दोनों रूप पर-स्त्रीगमन तथा पर-पुरुष-गमन त्याज्य हैं। सावधान! यह मनमें चिन्ता, अधैर्य, अविश्वास, ग्लानि आदिकी सृष्टि करनेवाला महाराक्षस है। यह पाप समाजसे चोरी-चोरी किया जाता है। अतः मन छल, कपट, मूर्खता, मायाचार, प्रपञ्च आदिसे भर जाता है। ये कुवासनाएँ कुछ समय लगातार प्रविष्ट होनेसे अन्तर्मनमें गुप्त मानसिक ग्रन्थियोंकी सृष्टि कर देती हैं। ऐसे व्यक्तियोंमें यौवन-सम्बन्धी बातोंमें निरन्तर दिलचस्पी, गन्दे शब्दोंका प्रयोग, बात-बात में गाली देना, गुह्य अंगोंका पुनः-पुन स्पर्श, परायी स्त्रियोंको पापमय कुदृष्टिसे देखना, मनमें गन्दे विचारों, पापमयी कल्पनाओंके कारण खींचतान, अस्थिरता, आकर्षण-विकर्षण आदि मनःसंघर्ष निरन्तर चलते रहते हैं। यही कारण है कि विकारी पुरुष प्रायः चोर, निर्लज्ज, दुःसाहसी, कायर, झूठे और ठग होते हैं, अपने व्यापार तथा व्यवहार में समय-समय पर अपनी इस कुप्रवृत्ति का परिचय देते रहते हैं। लोगोंके मनोंमें उनके लिये विश्वास, प्रतिष्ठा और आदरकी भावना नहीं रहती,

समाज से उन्हें सच्चा सहयोग प्राप्त नहीं होता और फलस्वरूप जीवन-विकास के महत्त्वपूर्ण मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।

व्यभिचारी की मनःस्थिति अशान्त, सलज्ज, दुःखपूर्ण होती है। उसमें द्वन्द्व चलता रहता है और उसका अन्तःकरण कलुषित हो जाता है। मनुष्यकी प्रतिष्ठा एवं विश्वस्तता स्वयं अपनी ही दृष्टिमें कम हो जाती है। प्रत्येक क्षेत्रमें सच्ची मैत्री या सहयोग-भावनाका अभाव मिलता है। ये सब मानसिक दुःख नरककी दारुण यातनाके समान कष्टकर है। व्यभिचारीको अपने कुकमकि दुष्परिणाम रोग-व्याधि, सामाजिक बहिष्कार आदिके रूपमें इसी जीवनमें भुगतने पड़ते हैं।

मनमें पापमय विचार रखना घातक है। आपका मन तो निर्मल शुद्ध देव-मन्दिर-स्वरूप होना चाहिये। काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, चिन्ता आदि वे दुष्ट मनोभाव हैं, जो मनुष्यका प्रत्यक्ष नाश करनेवाले हैं।

महर्षि जैमिनिके अनुसार जो द्विज लोभसे मोहित हो पावन ब्राह्मणत्वका परित्यागकर कुकर्मसे जीविका चलाते है वे नरकगामी होते हैं।

जो नास्तिक है, जिन्होंने धर्मकी मर्यादा भंग की है, जो कामभोगके लिये उत्कण्ठित, दाम्भिक और कृतग्न है, जो ब्राह्मणोंको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, चुगली खाते, अभिमान रखते और झूठ बोलते है, जिनकी बातें परस्पर विरुद्ध होती है, जो दूसरोंका धन हड़प लेते है, दूसरोंपर वृथा ही कलंक लगानेके लिये उत्सुक रहते है और परायी सम्पत्तिको देखकर जलते है, वे नरकमें जाते हैं।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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