गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
जो मनुष्य सदा प्राणियों के प्राण लेने में लगे रहते हैं या परायी निन्दामें प्रवृत्त होते हैं, कुएँ बगीचे, पोखरे या सार्वजनिक धर्मशालाओं आदिको दूषित करते हैं वे नष्ट हो जाते हैं।
वाणीसे कुशब्द, गाली, अपमानजनक कटु वचन उच्चारण करना भी पाप है। मनमें गन्दे भाव, षड्यन्त्र, प्रतिशोध, वासना, पाप इत्यादिकी भावना रखना खतरनाक है। अग्नि को वस्त्रमें छिपाकर रखिये तो अन्दर-ही-अन्दर वह सुलगती रहती है। धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओंको जला डालती है। सम्भव है, इस अग्नि का धुआँ उस समय दिखायी न दे, किन्तु अदृश्यरूप में वह वातावरण में सदा वर्तमान रहता है। गुनाह या पाप ऐसी ही अग्नि है, जो अन्दर-ही-अन्दर मनुष्यमें विकार उत्पन्न करती है, इस आन्तरिक पापकी काली छाया अपराधीके मुख, हाव-भाव, नेत्र, चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है। अपराधी या पापी चाहे यह समझता रहे कि वह अपराधको छिपा सकता है; परन्तु वास्तवमें पाप छिपता नहीं। मनुष्यका अपराधी मन उसे सदा व्यग्र, अशान्त और चिन्तित रखता है।
पाप पानी की तरह है। यह हमें नीचे की ओर खींचता है। इसी प्रकार चरित्र में दुर्गुण कोई क्यों न हो, मनुष्यको नीचेकी ओर ले जाता है। यह नीचाई चरित्रके अनेक कार्योंद्वारा निरन्तर प्रकट होती रहती है। आप चाहे कितना भी प्रयत्न करें, किन्तु आन्तरिक पापसे कलुषित मन स्पष्ट प्रकट हो जाता है। अवगुणसे मनुष्यकी उच्च सृजनात्मक शक्तियों पंगु हो जाती हैं, बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है।
पाप वह दुर्भाव है, जिसके कारण हमारे आन्तरिक मन तथा अन्तरात्मापर ग्लानिका भाव आता है। जब हम कोई गन्दा कार्य करते है; तो हृदयमें एक गुपचुप पीड़ाका अनुभव होता रहता है। हमारे मनका दिव्य भाग हमें प्रताड़ित करता रहता है, बुरा-बुरा कहता रहता है। इस आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चात्ताप करनेकी बात सोचता है। निष्कर्ष यह है कि पाप और दोषकी प्रवृत्ति हर दृष्टिसे बुरी और त्याज्य है।
यों तो किसी-न-किसी दोषसे हम सभी परिपूर्ण है; किन्तु दोषमुक्त होना हम सबका धर्म है। जो व्यक्ति जितने अंशोंमें दोषमुक्त है, उतने ही अंशोंमें दूसरोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ और उच्चतर है। ईश्वरके दिव्य अंश होनेके कारण हमें हर प्रकारके दोषसे सदा-सर्वदा मुक्त रहना चाहिये। निरन्तर अपने मन, वचन तथा कार्योंद्वारा हर प्रकारके दोषोंसे मुक्त रहनेका प्रयत्न करना चाहिये।
जनसाधारणका यह गलत विश्वास है कि पापका प्रतीकार सजा है। जिसने अपराध किया है, उसे सजा मिलनी चाहिये; उसपर जुर्माना हो या शारीरिक दण्ड दिया जाय। ऐसा करनेसे पुनः पापमें प्रवृत्ति नहीं होगी; मारने-पीटने, कोड़े लगाने से लोग चोरी, झूठ, रिश्वत, पापाचारसे मुक्त हो जायँगे, ये सब थोथी दलीलें है। जबतक अपराधी या पापीके गुप्त मनसे पापके प्रति स्वयं ग्लानि उत्पन्न नहीं होती, तबतक उसका सुधार सम्भव नहीं है। अपराधियोंको सहानुभूति, प्रेम तथा उचित मानसिक चिकित्सा द्वारा सुधारना चाहिये।
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