गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
सच्चे मनसे प्रायश्चित्त के द्वारा भी पापका शमन हो सकता है। प्रायश्चित्तकी योजना बनाते समय हमें एक क्षण भी यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि हम सब सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप परमात्मा के दिव्य अंश हैं। इसलिये परमेश्वरके सब दिव्य गुण बीजरूप में हमारे गुप्त मनमें विद्यमान हैं। हमारा निकट सम्बन्ध इस अच्छाई से है। हमें अपने इन्हीं दिव्य गुणोंको विकसित करनेका सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये। अपने सद्गुणोंके विकास द्वारा ही हम दोषमुक्त हो सकते हैं। सवोंत्तम प्रायश्चित्त वह है, जिसमें मनुष्यकी पाप-प्रवृत्तियाँ फीकी पड़कर सद्गुणों तथा उच्चतर गुणोंका विकास होता है।
गलतीकी दुरुस्ती आन्तरिक मनसे होनी चाहिये। ऊपरी ताड़नासे वह थोड़ी देरके लिये दब जायगी। जब उसे दबा दिया जाता है, तब अवसर पाते ही वह फोड़ेमें पीबकी भांति फूट निकलती है और पतन भी बुरा होता है। अतः मनमें अच्छी तरह बैठा लेना चाहिये कि पाप बुरा है और हमारा उससे कोई निकट सम्बन्ध नहीं है।
प्रत्येक पापका प्रतीकार पुण्यसे होता है। प्रायश्चित्त करनेके दो ढंग हैं-१-आत्मभर्त्सना, अर्थात् अपने किये बुरे कर्मपर हार्दिक दुःख प्रकट करना और भविष्यमें न करनेका दृढ़ संकल्प करना। २-पुण्यकर्मों तथा शुभ विचारों में अपने मनको एकाग्र करना अर्थात् अपनी प्रवृत्तियोंको ऊर्ध्वगामी बनाना। यह मानसिक शक्तिका शोध एवं उदात्तीकरण हैं।
यदि आपसे कोई पाप जाने या अनजाने हो गया है तो उसपर हार्दिक दुःख प्रकट कीजिये। पश्चात्ताप करना सात्त्विक मनका प्रतीक है। यह इस बातका सूचक है कि आपके अन्दर शिवत्वकी दैवी भावना निवास करती है। सच्चे पश्चात्तापकी अग्निमें आपकी समस्त गन्दी वासनाएँ दग्ध हो जायँगी और आप निर्मल सोनेके सदृश चमकने लगेंगे। किन्तु यही सुधार नहीं है। आपको अब उधरसे ध्यान छोड़ देना चाहिये। जहाँ आपकी गलती हुई थी, उसका व्यर्थ ही चिन्तन मत करते रहिये। जब गलती समझमें आ गयी, तो उस मार्गको बिलकुल त्यागकर सही मार्गपर चलना-यही पापका प्रतीकार है।
पुराने किये पापपर झींकनेकी अपेक्षा यह उत्तम है कि आप नये, उत्पादक, ऊँचे उठानेवाले पुण्यकार्योंमें लगें। समाजसेवा, श्रमदान, कलाके नाना उत्पादक क्षेत्र आपके पास पड़े है, जिनमें लगनेसे मानसिक शक्तिका शोध होकर दूषित वृत्तियोंका उदात्तीकरण हो जाता है। पुण्य वह कार्य है, जिससे मनुष्यकी निम्न प्रवृत्तियोंका परिष्कार होता है, अधोगामी प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी बनती हैं और वासनाके स्थानपर शिवत्वकी जागृति होती है। पवित्र स्थानोंका निवास, सत्सक्, स्वाध्याय और समाजसेवाके पवित्र कार्योंसे प्रवृत्तियाँ उच्च बनती हैं।
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