गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
सुखद भविष्य में विश्वास करें
स्वर्ग-युग, सत्ययुग, नवीन युग द्रुतगतिसे, बड़ी शानसे दौड़ता हुआ चला आ रहा है। यह असंदिग्ध सुखद भविष्य विद्वान् आत्मदर्शी संत पुरुष सूक्ष्मदृष्टिसे ही नहीं, स्थूल नेत्रोंसे भी देख सकते हैं।
संसारमें अच्छाई, सच्चाई तथा शिवत्वका बुराईकी अपेक्षा अब भी आधिक्य है। हम मानते हैं कि इस युगमें मानवका नैतिक एवं आत्मिक पतन हुआ है, किंतु इतनेपर भी उसमें दिव्यता और ईश्वरत्वके अंश अधिक है। मिथ्या-भाषणकी अपेक्षा सत्य-भाषण झूठ, अपेक्षाकृत अधिक है। झूठ कपट, अन्यायकी अपेक्षा अधिकांश मनुष्योंमें सत्य, न्याय, नैतिकता ही अधिक है। रोग-शोक और मानसिक वेदनाकी अपेक्षा स्वास्थ्य और आनन्दकी मात्रा अधिक है। संक्षेपमें यों कहें कि अशुद्ध मनोव्यापारकी अपेक्षा शुद्ध, पवित्र और सुन्दर मनोव्यापार अधिक है। यदि अच्छाई अधिक न रहती और बुराई उसके ऊपर चढ़ बैठती तो यह संसार ही नष्ट हो जाता। संसारकी अन्य कोई भी शक्ति उसे न बचा पाती। अच्छाईने, मनुष्यके शिवत्वने ही संसारको समाप्त होनेसे बचा रखा है। इस संसारमें अधिक संख्या पवित्र आत्माओं, सज्जनों, सत्कार्योंमें संलग्न साधु पुरुषों, आत्मदर्शी ज्ञानवानों तथा पुण्यात्माओंकी ही है। उन्हींके पुण्य-प्रताप, सद्भावनाओं और शुभ संकल्पोंपर हम सुखद भविष्यकी आशा कर सकते हैं।
वास्तवमें विश्वव्यापी आत्मा एक ही है। इस अनन्त ब्रह्मास्त्रके खण्ड-खण्डमें एक ही ईश्वर-तत्त्व व्याप्त है। हम सब प्राणी विशेषतः सत्-चित्-आनन्दस्वरूप मनुष्य उसी विश्वव्यापी ईश्वरके अंश है। हम सब खण्ड-खण्डमें विभक्त होकर भी एक ही है। एक ही सूत्रमें बँधे हुए है। 'हम', 'तुम' पृथक्-पृथक् न होकर एक ईश्वरके पूर्ण अंश है। मनुष्योंकी विभिन्नताओंमें भी अन्ततः आन्तरिक एकता ही है। वर्षाके उपरान्त पत्तियोंपर ठहरी हुई पानीकी बूँदोंपर सूर्यका प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब नाना प्रतिमूतियाँ दिखायी पड़ती हैं। हर एक बिन्दुमें सूर्यकी मूर्ति दिखायी पड़ती है। लाखों सूर्य दिखायी देने लगते हैं, किंतु वास्तविक सूर्य तो एक ही है। इसी प्रकार इस समाजमें हमें नाना वर्गों, वर्णों, पेशों और आयुके स्त्री-पुरुष दिखायी देते है, किंतु वे सब अन्तःस्थिति ईश्वरकी प्रतिमामात्र है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सबके हृदयमें अच्छाईका केन्द्रबिन्दुमात्र ईश्वर है। हम सब उसकी दिव्यताओंके समीप हैं।
इस विश्वमें आत्मा केवल एक ही है और वही हम-तुम तथा संसारके अन्य समस्त प्राणियोंके शरीरमें प्रतिबिम्बित होती है और वही भिन्न-भिन्न आत्माओंके रूपमें प्रदर्शित होती है। अपनी इस धारणाके कारण ही हम कह सकते हैं कि इस विश्वका, मनुष्यजातिका भविष्य सुखद है। हम जैसे-जैसे विकसित होंगे हमारे ईश्वरत्वका ही प्रसार होगा। दिव्य गुणोंके फैलनेसे संसारमें प्रेम, सुख-शान्ति और विवेकका राज्य फैलेगा।
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