गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
एक महोदय लिखते हैं, 'मैंने आपके अनेक लेख और पुस्तकें पढ़ी है, पर एक चीज मेरे दिलमें हमेशा यह खटकती रहती है कि बेईमानी क्यों फलती-फूलती है।' आप कहते है- 'लक्ष्मी उसीकी दासी है, जो ईमानदारीसे व्यापार या सच्चे मनसे परिश्रम करते है।' मैं परिश्रम करता हूँ सदा ईमानदार रहता हूँ पर इन दोनोंके बावजूद न मुझे लक्ष्मी मिली है और न शान्ति ही, सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त नहीं हुई। आखिर बतलाइये मैं अब क्या करूँ? ईमानदारीके रास्तेमें भूख, विवशता, गरीबी है। परिश्रम और ईमानदारीसे काम कर-करके मैंने अपना स्वास्थ्य खो दिया और साथ ही लक्ष्मीकी कृपा भी; अब प्रार्थना यह है कि मेरी गुत्थी सुलझा दें कि चोरी, बेईमानी, कालाबाजार, घूसखोरी और दूसरोंकी आंखोंमें धूल झोंकनेसे क्यों महल खड़े होते जाते है और इसके विपरीत सच्चे मजदूर, नेकनियत इन्सान और ईमानदारको क्यों दाने-दानेके लिये तरसना पड़ता है? किसको सच्चा मानूँ? आपके लेखोंको या समाजके इस उत्थान-पतनको?
ईमानका सम्बन्ध मनुष्यके गुप्त मनसे है। हमारी अन्तरात्मा जिस कार्यको उचित कहती है या स्वीकार करती है, उस आचरणको करनेवाला ईमानदार कहलाता है। ईमानदारीसे कार्य करनेमें हमें अन्दरसे ही एक गुप्त शान्ति और सन्तोषका अनुभव होता है। इसके विपरीत आत्माका हनन कर बेईमानीसे कार्य करनेपर हमारा गुप्तमन हमें अन्दर-ही-अन्दर कचोटता रहता है। हमें शान्ति नहीं मिलती। हमेशा यह गुप्त भय रहता है कि हमारी बेईमानी या चोरी किसीको किसी दिन किसी भी अवसरपर प्रकट न हो जाय। जैसे जलसे शरीर शुद्ध होता है, उसी तरह सत्याचरण से मन और बुद्धि पवित्र हो जाते है।
हनन की हुई आत्मा ही हमें बेईमानीकी ओर जाने देती है और दुष्कर्म कराती है। असत्य या बेईमानीके कार्यद्वारा असत्य कार्य करने, रिश्वत, चोरबाजार आदि चोरियाँ करनेसे धीर-धीरे हमारी अन्तरात्मा मर जाती है। हनन की हुई आत्मामें सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, उचित-अनुचितका विवेक नहीं रहता। अतः बहुत-से व्यक्ति चोरी करते हुए भी बाहरसे संतुष्ट-से प्रतीत होते है, पर बुरे कार्योंकी सूक्ष्म रेखाएँ अन्तश्चेतनाके ऊपर अंकित होती रहती है और मनपर सदा आघात करती है। एक-न-एक दिन पाप प्रकट होता ही है और करनीका फल मिलता ही है।
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