गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
प्रायश्चित्त कैसे करें?
प्रायश्रित्त करनेकी योजना बनाते समय हमें एक क्षण भी यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि हम सब सत्-चित्-आनन्दमय परमात्माके दिव्य अंश है, इसलिये परमेश्वरके सभी दिव्य गुण बीजरूपमें हमारे गुप्त मनमें विद्यमान है।
यदि हम अपने व्यक्तित्वसे दैवी तत्वोंकी अभिवृद्धि करते रहनेका विचार कर लें और निरन्तर उसके लिये प्रयत्नशील रहें तो सद्रुणके विकासद्वारा दोषमुक्त हो सकते है। सर्वोत्तम प्रायश्चित्त यही है कि हमारे उच्चतर गुण विकसित हों; दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं फीकी पड़ जायँगी।
गलती और पापकी आदत तब मिटती है, जब आन्तरिक मनसे उसकी दुरुस्ती की जाय। ऊपरी ताड़नासे उसे दबा देना व्यर्थ है। उसे जब दबा देते है, तब फोड़ेमें पीबकी भांति वह फूट निकलती है और भयंकर रूप ले लेती है।
प्रत्येक गलतीको दबानेके लिये उसके विरोधी सद्गुणको विकसित करनेकी आवश्यकता है। यदि आप चोरी करनेकी आदतका प्रायश्चित्त करना चाहते है तो सचाईको विकसित करना प्रारम्भ कर दीजिये; यदि कपट और मिथ्याचारसे मुक्ति चाहते हैं तो सदाचरण, सहयोग, सत्य और सेवाकी भावनाको बढ़ाते रहिये। यदि हिंसासे मुक्ति पाना है तो प्रेम, सहानुभूति और महत्त्वका दायरा बढ़ाइये।
महर्षि वाल्मीकि प्रारम्भिक जीवनमें बड़े भयंकर डाकू थे। अनेकोंको लूट-मारकर जीवनके लिये आवश्यक वस्तुओंका संग्रह किया करते थे। एक दिन उन्हें अपने पापमय जीवनका ज्ञान हुआ। प्रायश्चित्त कैसे करें? वाल्मीकि विद्या-प्राप्ति, ज्ञानार्जन तथा शुभ-चिन्तनमें संलग्न हो गये। राम-नामका आश्रय लिये एक विद्वान्के रूपमें वे प्रसिद्ध हुए।
अंधा वह नहीं, जिसकी आँखें फूट गयी है। अंधा वह है, जो अपने दोषोंको ढँकता है। दोष ढँके नहीं जा सकते, सद्गुणोंके विकासद्वारा उन्हें फीका किया जा सकता है। सद्गुणोंके विकासका मार्ग भी उतना ही सरल है, जितना दुर्गुणोंकी फैलती हुई कँटीली झाड़ीका। यदि हमारी दृष्टि अपनी प्रवृत्तियोंको थोड़ा-सा संयत करनेकी ओर रहे तो विकास सही दशामें हो सकता है।
सद्गुण दैवी सम्पत्ति है, जिसे अपने चरित्रमें धारण करनेसे मनुष्य उच्चस्थितिमें प्रविष्ट होता है। प्रत्येक सद्रुणसे मनुष्य सुवासित और प्रकाशमय हो जाता है।
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