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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

प्रायश्चित्त कैसे करें?

प्रायश्रित्त करनेकी योजना बनाते समय हमें एक क्षण भी यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि हम सब सत्-चित्-आनन्दमय परमात्माके दिव्य अंश है, इसलिये परमेश्वरके सभी दिव्य गुण बीजरूपमें हमारे गुप्त मनमें विद्यमान है।

यदि हम अपने व्यक्तित्वसे दैवी तत्वोंकी अभिवृद्धि करते रहनेका विचार कर लें और निरन्तर उसके लिये प्रयत्नशील रहें तो सद्रुणके विकासद्वारा दोषमुक्त हो सकते है। सर्वोत्तम प्रायश्चित्त यही है कि हमारे उच्चतर गुण विकसित हों; दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं फीकी पड़ जायँगी।

गलती और पापकी आदत तब मिटती है, जब आन्तरिक मनसे उसकी दुरुस्ती की जाय। ऊपरी ताड़नासे उसे दबा देना व्यर्थ है। उसे जब दबा देते है, तब फोड़ेमें पीबकी भांति वह फूट निकलती है और भयंकर रूप ले लेती है।

प्रत्येक गलतीको दबानेके लिये उसके विरोधी सद्गुणको विकसित करनेकी आवश्यकता है। यदि आप चोरी करनेकी आदतका प्रायश्चित्त करना चाहते है तो सचाईको विकसित करना प्रारम्भ कर दीजिये; यदि कपट और मिथ्याचारसे मुक्ति चाहते हैं तो सदाचरण, सहयोग, सत्य और सेवाकी भावनाको बढ़ाते रहिये। यदि हिंसासे मुक्ति पाना है तो प्रेम, सहानुभूति और महत्त्वका दायरा बढ़ाइये।

महर्षि वाल्मीकि प्रारम्भिक जीवनमें बड़े भयंकर डाकू थे। अनेकोंको लूट-मारकर जीवनके लिये आवश्यक वस्तुओंका संग्रह किया करते थे। एक दिन उन्हें अपने पापमय जीवनका ज्ञान हुआ। प्रायश्चित्त कैसे करें? वाल्मीकि विद्या-प्राप्ति, ज्ञानार्जन तथा शुभ-चिन्तनमें संलग्न हो गये। राम-नामका आश्रय लिये एक विद्वान्के रूपमें वे प्रसिद्ध हुए।

अंधा वह नहीं, जिसकी आँखें फूट गयी है। अंधा वह है, जो अपने दोषोंको ढँकता है। दोष ढँके नहीं जा सकते, सद्गुणोंके विकासद्वारा उन्हें फीका किया जा सकता है। सद्गुणोंके विकासका मार्ग भी उतना ही सरल है, जितना दुर्गुणोंकी फैलती हुई कँटीली झाड़ीका। यदि हमारी दृष्टि अपनी प्रवृत्तियोंको थोड़ा-सा संयत करनेकी ओर रहे तो विकास सही दशामें हो सकता है।

सद्गुण दैवी सम्पत्ति है, जिसे अपने चरित्रमें धारण करनेसे मनुष्य उच्चस्थितिमें प्रविष्ट होता है। प्रत्येक सद्रुणसे मनुष्य सुवासित और प्रकाशमय हो जाता है। 

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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