गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
एक बार एक महात्मा भिक्षाके लिये एक धनी व्यक्तिके द्वारपर पहुँचे और बोले-'बच्चा! हमें अपनी ताजी कमाई में से कुछ भिक्षा दो।' धनिक कुछ न समझा। उसने महात्माको आदरसे बैठाया। अदरसे एक बर्तनमें भिक्षा लाया और बोला-'महाराज! लीजिये। भिक्षा।'
महात्माने उसे देखा और उत्तर दिया, 'बच्चा मैं तो तेरी ताजी कमाईसे भिक्षा माँगता हूँ।'
धनिक-'महाराज! ताजी कमाईसे आपका क्या तात्पर्य है?'
महाराज-'बच्चा! यह तो तुम्हारे बाप-दादाकी कमाई है। उनकी भुजाओंने इसे कमाया था। उनके परिश्रमसे यह अर्जित हुई। उनके स्वर्गवासी होनेपर यह तुम्हारे हाथमें चली आयी। जबतक उनके हाथमें थी, यह ताजी कमाई थी। तुम्हारे हाथमें आकर यह बासी, निष्प्राण हो गयी। इसमें तुम्हारा समय, भुजाओंका बल या मानसिक परिश्रम-कुछ भी तो नहीं लगा। गृहस्थको स्वयं धनोपार्जन करना चाहिये और अपनी पाँच उँगलियोंकी कमाईसे ही दान करना चाहिये। अपनी धर्मकी कमाईसे ही दान करना चाहिये। अपनी धर्मकी कमाईसे ही दान देनेसे पुण्य-फल प्राप्त होता है। नीति कहती है कि 'धनको धर्मसे ही कमाये। अनुचित पैसा। कदापि न ले। कमाये हुए धनकी धर्मसे ही रक्षा करे और रक्षा किये हुए धनका धर्ममें यथाशक्ति व्यय करे।'
यह कहकर महात्मा चले गये। धनिकको सोचनेके लिये एक नयी दिशा मिली। वह समझता था कि दूसरोंसे उसके पास आयी हुई कमाईके दानसे उसे पुण्य-फल मिलेगा, पर उसकी यह धारणा निर्मूल निकली। अपने पसीनेकी कमाई करनेकी उसे प्रेरणा मिली।
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- परमार्थ के पथपर
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