गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
वेदमें कहा गया है-
'देवी देवेषु बनते ही वार्यम् (ऋग्वेद ६। ११२)
धन उन्हींके पास ठहरता है, जो सद्रुणी है। दुर्गुणीकी विपुल सम्पदा भी स्वल्पकालमें नष्ट हो जाती है।
'रमन्तां पुण्याः लक्ष्मीः' (अथर्ववेद ७। ११५। ४)
ईमानदारीकी कमाईका धन ही ठहरता है। बेईमानीकी आयसे कोई फूलता-फलता नहीं।
संग्रह करने या विलासिताके लिये धन नहीं है। सबका कल्याण, सबकी सहायता और सबको आगे बढ़ानेके लिये धन कमानेका विधान है।
'नराय दानाय चोदय'
(अथर्ववेद ३। २०। ५)
हे मनुष्यो! धनका दानमें विनियोग करो।
'कस्य स्विद्धनम्।'
(यजुवेंद ४०। १)
धन किसी व्यक्तिका नहीं सम्पूर्ण राष्ट्रका है। धनपर कब्जा जमाकर मत बैठो, वरं उसका सदुपयोग करो।
ईमानदारी और धर्मकी कमाईसे ही हमें आन्तरिक सुख और शान्ति मिल सकती है। बेईमानीकी कमाई चाहे एक पीढ़ीतक टिक जाय, पर फिर कुसंतानद्वारा नष्ट हो जाती है। दुराचारी अमीरोंकी संतान निकम्मी, आलसी और दुश्चरित्र होती है। वह सारी संचित सम्पत्ति नष्ट कर देती है। अधर्मके पाप संस्कार ही उसे नष्ट कर देते हैं।
आज मनुष्य संकटमें है। अर्थशौचके अभावमें हम मनुष्यत्वकी कुछ भी परवा नहीं करते। असत्य व्यवहार, झूठ, कपट, मिथ्याचार द्वारा अधिक रुपया लूटनेकी पाशविक इच्छा हमें मानवके दिव्य गुणोंका संग्रह नहीं करने देती। हम अपने परिचित बन्धुतक को ठगकर किसी प्रकार धन सम्पन्न हो जाना चाहते है। रिश्वत, खाद्य पदार्थों में मिलावट, कपट और धोखेबाजी तभी दूर की जा सकती है, जब अर्थशौचकी भावना हमारे मन और सामाजिक आचार-व्यवहारमें रहे। पापकी कमाईके प्रति हम घृणा करें। जिसपर हमारा श्रम या शक्ति नहीं लगी है, ऐसी कमाईको हम स्पर्शतक न करें। यदि कोई इस प्रकारकी कोई वस्तु या रुपया हमें दे भी तो हमें उसका विरोध करना ही उचित है। जितना हम ईमानदारीसे कमायें, -उसीमें हमारी आवश्यकताएँ पूर्ण होती रहें-यही हमारा प्रयत्न होना चाहिये। अर्थशौचके नियमके पालनसे ही हमारे मनुष्यत्वकी रक्षा हो सकती है। उसके अभावमें तो हम पिशाच ही बन सकते है, मनुष्य नहीं!
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- निवेदन
- आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
- हित-प्रेरक संकल्प
- सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
- रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
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- जीवन मृदु कैसे बने?
- मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
- अपने विवेकको जागरूक रखिये
- कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
- बेईमानी एक मूर्खता है
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- भगवदर्पण करें
- प्रायश्चित्त कैसे करें?
- हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
- मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
- पाठ का दैवी प्रभाव
- भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
- दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
- एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
- सुख किसमें है?
- कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
- समस्त उलझनों का एक हल
- असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
- हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
- भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
- भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
- सात्त्विक आहार क्या है?
- मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
- तामसी आहार क्या है?
- स्थायी सुख की प्राप्ति
- मध्यवर्ग सुख से दूर
- इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
- जीवन का स्थायी सुख
- आन्तरिक सुख
- सन्तोषामृत पिया करें
- प्राप्त का आदर करना सीखिये
- ज्ञान के नेत्र
- शान्ति की गोद में
- शान्ति आन्तरिक है
- सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
- आत्मनिर्माण कैसे हो?
- परमार्थ के पथपर
- सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
- गुप्त सामर्थ्य
- आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
- अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
- पाप से छूटने के उपाय
- पापसे कैसे बचें?
- पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
- जीवन का सर्वोपरि लाभ
- वैराग्यपूर्ण स्थिति
- अपने-आपको आत्मा मानिये
- ईश्वरत्व बोलता है
- सुखद भविष्य में विश्वास करें
- मृत्यु का सौन्दर्य