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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

४-गीताजी के वचनामृत का पान

श्रीगीताजीकी शरणमें जाने और निरन्तर मनोयोगपूर्वक श्रीमद्भगवद्रीताका स्वाध्याय करनेसे प्रबल मानसिक रोग शान्त हो जाते हैं और मनमें शान्तिका प्रादुर्भाव होता है। गीता नैतिक पतनसे रक्षा करनेवाली माता है। श्रीगीताके निम्न श्लोकोंको बार-बार पढ़ना और उनके अर्थपर विचार करना चाहिये। ये श्लोक रामबाणके समान प्रत्यक्ष चमत्कार दिखानेवाले है। इन्हें पुनः-पुनः रटना चाहिये, यहाँतक कि ये मानसिक संस्थानका एक अक् बन जायँ-
ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेपजायते।
संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
(२। ६२)
अर्थात् विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है और आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहाज्यतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
(२। ६३)
क्रोधसे अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है और अविवेकसे स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। फिर बुद्धि-ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है। बुद्धिनाश होनेसे वह पुरुष अपने श्रेयःसाधन से गिर जाता है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्क्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंञ्जिदपि चिन्तयेत्।।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वंश नयेत्।।
(६। २४-२६)
अर्थात् मनुष्यको चाहिये कि संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंको निःशेषरूपसे अर्थात् वासना और आसक्तिसहित त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सब ओरसे अच्छी तरह वशमें करके क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ वैराग्यको प्राप्त हो। धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें स्थिर करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे। परंतु जिसका मन वशमें न हुआ हो, उसे चाहिये कि वह स्थिर न रहनेवाला चञ्चल मन जिस कारणसे सांसारिक पदार्थोंमें विचरता है, उस-उससे मनको रोककर बारंबार परमात्मामें ही निरुद्ध करे।

अपि चेन्सदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साखुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
(९। ३०)

तथा-

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तप्सुखं राजसं स्मृतम्।।
(१८। ३८)

इन श्लोकोंके अर्थका स्वाध्याय, मनन, चिन्तन करने और श्रद्धा-भक्तिसहित अभ्यास करनेसे विषय-वासनाओंसे मुक्ति मिल जाती है। इनके अक्षर-अक्षरमें परम रहस्य भरा हुआ अनुभवनिहित है। इनके अतिरिक्त गायत्री-जपसे भी अन्तःकरण निर्भय, निर्मल और वासनारहित बनता है। उच्च चिन्तन तथा ईश्वरीय शक्तियोंके ध्यानके बलसे ही प्रत्येक ऋषि-मुनिने अध्यात्म-जगत्में उन्नति की है। संसार वैसा ही बन जाता है, जैसा आप दृढ़तासे चिन्तन करते हैं-

The world is what you make it,
The sky is green or blue
Just as your soul may paint it,
It's not the world, it's you.

'आकाश आपको अपने मनकी स्थितिके अनुरूप ही हरा या नीला दिखायी देता है। वास्तवमें परिवर्तन संसारमें नहीं, हमारे मानसिक दृष्टिकोणमें होते रहते है। हमारा संसार वैसा ही बन जाता है, जैसा वस्तुतः हम चाहते है।'

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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