गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
जगत्में कितने ही ऐसे व्यक्ति है जो अल्पसुखविशेषको ही पूर्ण सुख मानकर उसमें निमग्र हो जाते है। थोड़े दिनोंके लिये उसीमें आत्म-विस्मृति कर बैठते है। मकान, ठाट-बाटके सामान, जेवर, कपड़े, घोड़ा-गाड़ी, मोटर, स्त्री-बच्चे, भाई-बहिनमें ही रम जाते हैं। उन्हें इनसे दूर अन्य कुछ दृष्टिगत ही नहीं होता। किसी बड़ी ठेस या दुःखसे हमारे हृदय-चक्षु खुल जाते है और हमें ज्ञात होता है कि इस क्षुद्र सुखमें चिन्ताकी कड़वाहट अन्तर्निहित है। चिन्ता ही हमें भस्मीभूत कर रही है। हमें भोजनकी चिन्ता है, मुकदमेकी चिन्ता है, नौकरीकी चिन्ता है, लड़कीके विवाहकी चिन्ता है, व्यापार बढ़ानेकी चिन्ता है, दूसरोंको पीछे रखकर आगे निकल जानेकी चिन्ता है और न जाने किन-किनकी चिन्ता है। इन चिन्ताओंसे मुक्त होनेकी फिक्रमें हम आगे बढ़ते हैं। अपनी इन प्रलोभनोंसे भरी यात्रामें कभी पथभ्रष्ट, कभी हताश तो कभी पुनः लौट आनेकी कल्पना करते हैं।
इस संसारको अनित्य वस्तुओंके पीछे अधिष्ठानरूप जो एक सत्य छिपा है, जो सदा एकरस और अव्यय है, वही सुखका भण्डार है-उसी परमपदार्थकी ओर हमें चलना है। उसीसे एकत्व स्थापित करना है और अन्तमें उसीमें विलीन हो जाना है। यह परम सनातन पदार्थ हमारी आत्मामें इसी प्रकार निवास करता है, जैसे पुष्पमें गन्ध। अतः जो व्यक्ति सच्चे सुखकी साधना करता है, उसे आत्माका परिचय तथा उसका अभ्युदय करना चाहिये। आत्मोद्धारकी स्पृहाद्वारा ही हमें परमानन्दकी प्राप्ति हो सकती है।
हम क्षुब्ध, चञ्चल, परेशान इसी कारण है; क्योंकि त्रिकालव्यापी परमात्माके स्वरूप अपने आत्माको भूल गये है। सच्चे सुख-शान्ति और परमानन्दके इस अक्षय भण्डारको छोड़ दिन-रात तेलीके बैलकी तरह वासनापूर्तिके निमित्त चक्कर लगा रहे है, झूठी मान-बड़ाईके झमेलोंमें लिप्त रहकर चिन्तित रहते है। हममेंसे धर्म उठ रहा है, धर्मके प्रति हमारा अविश्वास होता जाता है। हमारे पतनका एक कारण हमारी धर्मके प्रति अश्रद्धा है; क्योंकि बिना धर्म-कर्मके आत्मोद्धार असम्भव है।
उफ! हमारा कितना पतन हुआ है। आज हमारी पूजा, भक्ति, सामयिक व्रत, उपवास, दान, शील, तप किसीमें भी धर्मका लेशमात्र भी अवशेष नहीं रहा है। हमारी धार्मिक क्रियाएँ केवल नाममात्रको ही रह गयी हैं-उनमें प्राण नहीं, जीवन नहीं, यथार्थता नहीं, हमारा धर्म-कर्म नुमाइश की चीज रह गया है। जैसे रूमाल और फाउन्टेन-पेन द्वारा आप अपने सूटको धारण कर शरीरकी शोभा बढ़ाते है, उसी प्रकार जनेऊ, रुद्राक्ष की माला या रामनामी अँगोछा लेकर हम थोथे लोक दिखावे या यश-कीर्तिके लिये धर्मकी क्रियाएँ करते हैं। उनके मूलमें प्रायः अज्ञान-भाव, लोक दिखावा, रूढ़ि-पालन और विज्ञापन का भाव छिपा रहता है। जो क्रियाएँ सम्यक् ज्ञान और भावसे शून्य तथा अपना आत्मीय अंग समझकर नहीं की जातीं, वे सब असत् हैं।
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- निवेदन
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- सुख किसमें है?
- कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
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- भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
- सात्त्विक आहार क्या है?
- मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
- तामसी आहार क्या है?
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- जीवन का स्थायी सुख
- आन्तरिक सुख
- सन्तोषामृत पिया करें
- प्राप्त का आदर करना सीखिये
- ज्ञान के नेत्र
- शान्ति की गोद में
- शान्ति आन्तरिक है
- सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
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- परमार्थ के पथपर
- सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
- गुप्त सामर्थ्य
- आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
- अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
- पाप से छूटने के उपाय
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- पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
- जीवन का सर्वोपरि लाभ
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- ईश्वरत्व बोलता है
- सुखद भविष्य में विश्वास करें
- मृत्यु का सौन्दर्य