गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
थियोसोफिकल सोसाइटीके प्रसिद्ध नेता महात्मा लेडबीटरने 'वस्तुकी आन्तरिक दशा' नामक एक बहुत ही खोजपूर्ण पुस्तक इस विषयपर लिखी है। उसमें उन्होंने एक स्थलपर लिखा है, 'जो कुछ भोजन हम खाते हैं, वह पाचनके उपरान्त शरीरका एक भाग बन जाता है। उस भोजनपर जिस प्रकारके सूक्ष्म प्रभाव अंकित हो जाते है, वे भी हमारे शरीरमें बस जाते है। लोग खाद्य वस्तुओंकी केवल बाहरी सफाईपर ध्यान देते है-कितु वे यह भूल जाते हैं कि बाहरी सफाईपर ध्यान देना जितना आवश्यक है; उससे कहीं अधिक आवश्यक उसकी आन्तरिक स्वच्छतापर ध्यान देना है।'
भारतवर्षमें भोजनकी आन्तरिक स्वच्छताको अधिक महत्त्व दिया जाता है। हिंदूलोग अपनेसे नीच विचारके लोगोंके हाथका बना हुआ या उनके साथ बैठकर खाना इसलिये नापसंद करते है कि उनके गुप्त, हीन विचारोंसे प्रभावित होनेसे भोजनकी पवित्रता जाती रहेगी। विलायतमें लोग बाहरी सफाईको ही पर्याप्त समझते है। वे नहीं जानते कि केवल इतनेसे ही भोज्य पदार्थ उत्तम गुणवाले नहीं बन जाते।
भोजनपर सर्वप्रथम तो बनानेवाले व्यक्तिका बहुत प्रभाव पड़ता है। अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हिंसावृत्तियुक्त, अधिक निम्न जातिका या गंदा रसोइया अपने सम्पर्कसे ही भोजनको दूषित कर देता है। एक तो वह शरीर या वस्त्रोंसे स्वच्छ नहीं होता और उसके शरीर या वस्त्रोंकी अस्वच्छता ही भोजनको दूषित कर देती है। दूसरे उसकी लालची मनोवृत्ति, स्वयं भोजन ग्रहण करनेकी इच्छा निरन्तर भोजनपर विषैला प्रभाव डाला करती है। बाजारू भोजन, दूकानोंपर बिकनेवाली मिठाइयों नमकीन, दूध इत्यादिपर असंख्य अतृप्त भूखे व्यक्तियोंकी लुब्ध दृष्टियाँ पड़कर उन्हें दूषित बना देती है। अतः वे न पचती है, न शरीरको ही लाभ पहुँचता है। होटलोंमें रसोइया या परोसनेवाले व्यक्ति मशीन-जैसे सहानुभूति-शून्य बन जाते हैं। अतः इस बाजारू भोजनसे कोई लाभ नहीं।
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