गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
सावधान रहिये, भोजन सात्त्विक वृत्तिके व्यक्तिका बनाया हुआ हो। वह तृप्त तथा स्वच्छ हो। निर्विकार हो अर्थात् रोगी न हो। वह स्नानकर, शरीरको स्वच्छकर, स्वच्छ वस्त्र धारण किये रहे और प्रेमपूर्ण मनःस्थितिमें भोजन तैयार करे। माता, पत्नी, बहिनोंके द्वारा बनाये हुए भोजनमें प्रायः ये शुभ वृत्तियाँ मिल जाती हैं।
भोजन स्वच्छ स्थानपर शान्तिपूर्वक प्रसन्न मुद्रासे ग्रहण करे। जो कुछ रूखा-सूखा प्राप्त हुआ है, उसे भगवान्का प्रसाद मानकर ग्रहण करें। भोजन जब सामने आये, तब नेत्र मूँदकर ईश्वरका चिंतन करते हुए धीरे-धीरे इस मन्त्रका उच्चारण करे-
तेजोऽसि सहोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामासि विश्वमसि विश्वायुः। (वेद)
अर्थात् हे अन्न! तुम (तेज) वीर्य हो। तुम उत्साह हो। तुम बल हो। तुम दीप्ति हो। तुम ही चराचर विश्वरूप हो। तुम ही विश्वके जीवन हो।
ॐ द्यौस्त्वा परिददातु ॐ पृथिवी गृह्वातु।
अर्थात् हे अन्न! आकाश तुझे देता है और पृथ्वी तुझे ग्रहण करती है।
ॐ अन्नपतेऽन्नस्थ नो धेह्यनमीवस्य शुष्मिणः प्र प्रदातारं तारिष ऊर्जा नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।
अर्थात् हे अन्नपते अग्ने! इस यज्ञका भाग हमें दीजिये। यह अन्न (जो हम ग्रहण कर रहे है) नीरोग और बलयुक्त हो। हे अन्नपते! हमारे परिवारके लिये और गो आदि पशुओंके लिये बलकारी अन्न दो।
अन्नं ब्रह्मा रसो विश्वर्भोक्ता देवो महेश्वरः।
अर्थात् अन्न ब्रह्म है, रस विष्णु है और भोक्ता महेश्वर देव हैं।
इस प्रकार मनमें शुभ भाव धारणकर ब्रह्मार्पण करके जो भोजन किया जाता है, वह मनमें शुद्ध, सात्त्विक संस्कार उत्पन्न करता है। ईश्वरत्वके तत्त्वोंका समावेश करनेसे साधारण रूखा-सूखा भोजन भी आश्चर्यजनक शक्ति उत्पन्न करता है। ईश्वरीय वातावरण तथा मनमें सात्त्विक मनोभाव रखनेसे शुद्ध रक्त और पौष्टिक तत्त्व चारों ओर पहुँचता रहता है। यदि ईश्वरीय चिन्तन साथ है तो रूखे-सूखे भोजनमें ही सुख है, आनन्द है और सब कुछ है।
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