लोगों की राय

संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

15 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


मेरे पिता अन्त तक पौर्वात्य तथा पाश्चात्य शिक्षा के ललित, आडम्बरमुक्त समन्वय का प्रतीक बने रहे। शुरू में वे राजकुमार कॉलेज में पढ़ाते रहे, फिर अपने राजसी शिष्यों की राजगद्दी पाने पर वे उनके दीवान बने। वे देखने में भी दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे। अंग्रेज़ी पर अद्भुत अधिकार था। व्यंग्य-शर ऐसे छोड़ते कि सुननेवाला फिर बोलने का दुःसाहस न करे। एक घटना स्मरण हो आती है। हमारे प्रत्येक गृहोत्सव पर एक 'लछी ढोली' ढोल बजाने आता था। पिता के रंग-बिरंगे साफों पर वह मुग्ध था। कई बार कह चुका था-लाल सैब (मेरे पिता को लाल साहब कहकर ही तब हमारा सेवक-वृंद बुलाता था)। एक ऐसा ही 'टाँका' (साफा) मेरे लिए भी ला दो।


कुछ दिनों तक वह रट लगाता रहा था तब पिता की एक ही गर्जना उसे चुप कर गई-साले साफा तो ला दूंगा पर सिर कहाँ से आएगा? उनकी बात कड़वी थी, पर कहीं उसमें सत्य का पुट भी था। साफे की असली शोभा उसे वहन कर रहे सिर की शालीन प्रज्ञा से ही तो होती है। इस युग का एक अभिशाप यह भी है कि कई अयोग्य सिरों को साफे तो मिल गए हैं, पर भीतर से उनका भार सहने योग्य, मन-मस्तिष्क इतने वर्षों में भी नहीं मिल पाए।

इस युग में, एक ओर तो हमारे देश का पूरा सामाजिक व्याकरण ही बदल गया है, दूसरी ओर हमारी संस्कृति, शिक्षा, ओढ़ना-पहनना पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति द्वारा अभिभूत कर लिए गए हैं। स्थानीय सन्दर्भविहीन आयातित संस्कृति ने, योग्य सिरों और साफों को एक-दूसरे से सदा-सर्वदा के लिए विलग कर दिया है। किन्तु कुछ संस्कार हमसे अभी भी विलग नहीं हो पाए। आज भी विश्व में हम अलग राष्ट्र हैं, हमारा अलग राष्ट्रीय व्यक्तित्व है। ग्रामीण धरा पर हमारा मूल सांस्कृतिक ब्लड ग्रुप न बदला है, न बदलेगा। आज भी भारत के किसी सुसंस्कृत प्रभावशाली बुद्धि के स्वामी की भाषा में, वह अंग्रेज़ी हो या हिन्दी, जादुई शक्ति है। यह सत्य पूरे विश्व में स्वीकार्य हो चुका है।

मेरे पिता लिखते जितना सुन्दर थे, उतने ही ओजस्वी वक्ता भी थे। लिखते अंग्रेजी में थे-किन्तु जैसा उनके अनन्य मित्र मि, हैनरी ने हमसे कहा था-तुम्हारे पिता हम अंग्रेजों से कहीं सुन्दर अंग्रेज़ी लिखते हैं, तुम भी उनसे सीखो, हमने, जितना सीख सकते थे उतना उनसे सीखा अन्धकार पर भी मनुष्य विजय पा सकता, दो पैसे का दीया, थोड़ा-सा तेल और बाती-वे कहते-कभी अँधेरे से मत डरना। पिता की विस्तृत मित्र-मंडली के अधिकांश सदस्य विदेशी थे--किन्तु सच्चे अर्थ में मित्र। विपत्ति के क्षणों से लेकर श्मशान तक साथ निभानेवाले। बंगलौर में उनकी मृत्यु पर पठनीय लेख लिखकर वहाँ के प्रधान समाचार पत्र ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी थी। अंग्रेजी साहित्य का उन्होंने फैशन की तहत नहीं, गहन व्यापक धरातल पर अध्ययन किया था। उनके अगाध पांडित्य में हर भाषा में एक-सी सहजता दिखाई देती थी। यह गुण उन्हें अनायास ही बंगलौर के बुद्धिजीवी जनहृदयों में प्रतिष्ठित कर गया था।

हिमालय को सदैव हमारी भौतिक एवं विद्वत्ता का उत्स माना गया है। हिमालय ने साहित्य को बेजोड़ वाङ्मय तो दिया ही है, ऐसे पर्वतपुत्र एवं पुत्रियाँ भी दी हैं। कभी-कभी लगता है, उस युग के विवेकशील, हमारे पूर्वपुरुष आज यदि जीवित होते तो उत्तरांचल का नाम सार्थक होता। आज हम उत्तराखंड की चर्चा करें या उत्तरांचल की, पहाड़ की अनेक जटिल समस्याओं का समाधान करने में क्या हम सफल होंगे? हालत तो वही है कि मिल गया कोड़ा अब क्या चाहिए-जीन, लगाम और घोड़ा?

बीसियों संघर्षों को झेल, उत्तराखंडवासियों को कोड़ा मिला भी है, तो साथ में न छोड़ा मिला, न जीन, न लगाम। अभी देहरादून से आया एक उत्साही युवादल अराजकता की कहानी मेरे गृह आकर दोहरा गया-भ्रष्टाचार की छूत वहाँ भी लग गई है। मंत्रीपुत्रों को वृहस्पति की दशा आ गई है, उन्होंने बताया। पिता की कार तीव्र वेग से भगाते, वे कुपुत्र क्या कभी उत्तरांचलवासियों की समस्याओं को भी आत्मसात कर पाएँगे? जब तक इस विलक्षण धरणी को कुशल सवार नहीं जुटेगा, वह अनाड़ी अनुभवहीन सवार को धरा पर पटकती रहेगी। पहाड़ की स्त्रियों को भी इन बेमौसमी नेताओं की ही तरह नारेबाजी से काफी आगे आना होगा। पहाड़ की नारी अपने को कितना ही जागरूक क्यों न मानती हो, अपना निर्णय लेने में अभी भी वहाँ की एक सामान्य स्त्री असमर्थ ही है। कुछ ने दुःसाहस से, समाज से बैर मोल ले अन्तर्जातीय विवाह भले कर लिया हो, हम देख रहे हैं कि मैदान के पितृसत्ताक परिवारों की चहारदीवारी में उसका पहाड़ी मेरुदंड प्रायः सहज झुका ही रह जाता है। उधर, पति का सर्वथा भिन्न पारिवारिक परिवेश भी उसे शायद ही कभी पूर्णरूप से स्वीकार कर पाता हो। इधर बेमेल विवाहों की अनेकों कहानियाँ इस बारे में परिजनों और पाठकों से मैं सुन चुकी हूँ।

-मेरे पुत्र ने एक तमिलभाषी लड़की से विवाह किया है। उसे हमारे अदब-कायदे नहीं सुहाते, न हमें उसके। वह ढेर सारी मिर्च, इमली डाल साँबर बनाती है, और हमारे चौके में पहाड़ी 'भट्ट' (काला सोयाबीन) का रस बनता है, तो वह अंडा-डबलरोटी खाकर दफ्तर चली जाती है। एक दिन हमने बड़े परिश्रम से भरे बैंगन बनाए तो बोली-ममी 'It looks like a dead rat'। यही इन विचित्र विवाहों की विडम्बना है, मेरी एक परिचिता ने मुझसे कहा। स्वयं उनके पति पुलिस विभाग के उच्चपदस्थ अफसर रह चुके हैं। अवकाश-प्राप्ति के पश्चात् भव्य कोठी भी बनवा ली थी। इकलौते पुत्र के लिए कई खानदानी गृहों से रिश्ते आते पर उसे कोई पसन्द ही नहीं आती। अन्त में हमने कहा-बेटा, तुम यदि किसी से शादी करना चाहो तो हमारी अनुमति है, सोचा वंश तो चलेगा। बस मल्टिनेशनल में शाही वेतन पानेवाला बेटा, तीसरे ही दिन, बम्बई से अपनी संगिनी ढूँढ़ लाया।

पहले बच्चों के वैवाहिक जीवन के निर्णय माता-पिता ही लिया करते थे। हमारे माता-पिता ने, हम सबका विवाह, अपनी पसन्द से किया और प्रायः सब ही सुखी रहे। मुझे गर्व है कि उनकी दूसरी पीढ़ी तक हम सबने अपनी सन्तान को वैसे ही अनुशासन में रखा। फिर भी आज लगता है, कहीं हमारी सन्तान हमसे भिन्न अवश्य है। मृत्यु की ही भाँति परिवर्तन भी जीवन का अपरिहार्य सत्य है। आज की पीढ़ी धन को अधिक वजनदार वस्तु मान उसको अधिक प्रश्रय देने लगी है। कभी रक्षितव्या गाय के लिए जीवन त्यागने के इच्छुक राजा दिलीप को सिंह ने बेवजह प्राण देनेवाला 'विचार मूढ़' कहा था। आज वैसे ही अकृपण निःस्वार्थ व्यक्ति को नई पीढ़ी विचार-मूढ़ मानने लगी है।

पहले जिसे अनुशासन में पले परिवार बुजुर्गों के प्रति अपना कर्तव्य मानते थे, उन मर्यादाओं को उसे अब नई पीढ़ी द्वारा मूर्खता माना जाता है। उचितानुचित जानते हुए भी हम कभी-कभी स्वार्थवश अपने कर्तव्य का समुचित पालन करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। लाख समाज बदल जाए, पर सच पूछिए तो हमारे यहाँ कितने ऐसे माता-पिता होंगे, जो पुत्र के स्वेच्छा से किए गए प्रेम-विवाह को उल्लसित होकर अपनी स्वीकृति दे पाते हैं? बाहर से हम कितने ही आधुनिक क्यों न हों, पुत्र या पुत्री जब उनसे वर या वधू चयन का अधिकार छीन लेती है तो हम मन ही मन विष का पूँट पीते रहते हैं। विवाह के पश्चात् हर पुत्र की अपनी विवशताएँ होती हैं। पर पहले वे उसे माता-पिता के प्रति सिर्फ कुछ उदासीन बना देती थीं, आज तो ब्याह हुआ तो अधिकांश स्वेच्छा से जनक, जननी तथा जन्मभूमि का ही त्याग कर सीधे प्रवासी बन जाते हैं। मैंने खुशवंत सिंह के एक अखबार के स्तम्भ में एक रोचक घटना के विषय में पढ़ा था। अमरीकी दूतावास में वीसा के लिए लम्बी कतार के सामने बैठी एक वृद्धा आँचल फैलाए शृगाली का-सा रोदन कर रही थी-अरे, तुममें से कोई लन्दन में होगा, कोई कैनेडा में। कभी बूढ़े माँ-बाप का ध्यान आया है तुम्हें? क्या छोड़ गए हो उनके लिए?

देखते ही देखते, दूरदर्शी याचिका की व्यावसायिक बुद्धि, सिक्कों से उसका आँचल भर गई थी। किन्तु सन्तान को आँखों के आगे रखने को छटपटाती किसी-किसी माँ का आँचल वैभव की गरिमामात्र से नहीं भरता, यह आज की बेचारी सन्तान नहीं जानती। या जानना नहीं चाहती।

मेरे एक जर्मन अध्यापक डॉ. ऐलेक्स एरेनसन ने मुझे इजराइल से पत्र लिखा था-तुम्हारा पत्र मिला, दुख हुआ कि तुम्हारा एकान्त, अब तुम्हें दुर्वह लगने लगा है। एकान्त के प्रति रुचि को जगाना पड़ता है। ऐसा नहीं करोगी, तो स्वयं को ही दुखी करोगी। 'Solitude is an art, you have to cultivate it...'

सच ही कहा था उन्होंने। एकान्त साधना भी एक कला है। उसकी मन्त्रणा से बहुत नहीं, तो थोड़ी सफलता तो कला के इस क्षेत्र में मैंने पा ही ली है। उलटे अब तो हालात यह हैं कि कभी-कभी अपने एकान्त में सामान्य-सा व्याघात भी मैं नहीं सह पाती। वर्षों तक भाई-बहनों के भरे-पूरे सम्मिलित परिवार में रही हूँ। कभी-कभी बड़ी रात तक मायके आई बहनों से बातें करते पौ फट जाती थी। लेकिन समय के साथ मैं भी बदली हूँ। वैभव का वह विलक्षण रूप, जब भाग्य लक्ष्मी पैर काटकर बरसों तक हमारे गृह में विराजती रही और फिर भयानक शतमुखी विनिपात का वह दौर, मैं सोचती हूँ ऐसे उतार-चढ़ाव जीवन में न रहें तो फिर जीवन का सार तत्त्व ही कहाँ रह जाता है?

तुलसी या धरा को प्रमान यही
जो फरा सोझरा, जो जरा सो बुताना!

घर का जब कोई बुजुर्ग अन्तिम विदा लेता है तो अपने साथ, बहुत कुछ समेटकर ले जाता है-मान-मर्यादा, संस्कार, पूर्वार्जित यश एवं बचे-खुचे गृह के सदस्यों का विवेक! मेरे इस सुदीर्घ जीवन में मेरे साथ भी यही हुआ। माँ की श्रवणकुमार की भाँति सेवा करनेवाले बड़े भाई त्रिभुवन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अंग्रेज़ी में उनकी तत्काल सौनेट रचने की प्रतिभा निश्चय ही देवदत्त थी। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी की कोई भी पठनीय पुस्तक उनसे नहीं छूटी। सुदर्शन भव्य व्यक्तित्व के स्वामी। एक-एक कर उन्होंने सब बहनों का विवाह किया। पर उनकी प्रतिभा, पुलिस विभाग के छक्के-पंजे भरे वातावरण के एकदम विपरीत थी। उसी तनाव से या दुर्भाग्य से न जाने कैसे पीने की लत पड़ गई, तिस पर छोटी उम्र में पूरे परिवार का दुर्वह बोझ तो कन्धों पर आ ही गया था। अकाल मृत्यु ने असमय ही उनके प्राण ले लिए। विधाता भी शायद ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति को अपने पास समय से पूर्व ही बुला लेता है। भाई का विवाह कविवर सुमित्रानन्दन पंतजी की भतीजी से हुआ।
<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book