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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


कन्यादान स्वयं कविवर पंतजी ने ही किया था। भाभी के पिता बहुत पहले ही दिवंगत हो गए थे, वे ननिहाल में पलीं और बड़े सरल, शान्त-संयत, सहिष्णु व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। एक वर्ष पूर्व उनका देहान्त हुआ, तो लगा उदारमना भाभी जाने कितनी वेदना हृदय में ही लिए चली गई। पर न किसी से शिकवा न शिकायत। उनको भुला पाना मेरे लिए बहुत श्रमसाध्य रहा। आज भी मुझे उनके विवाह का बार-बार स्मरण हो आता है--वधू-रूप में उनका देहरी पूजना, मासूम भोला चेहरा और सहमी-सहमी-सी मुद्रा। उम्र ही क्या थी? यही कोई सोलह वर्ष की रही होंगी-ननिहाल में माँ, मामा, मामी ने बड़े लाड़-दुलार से ही लालन-पालन किया था। फिर भी मामी के सुन्दर सुकुमार चेहरे पर एक डरी-डरी-सी चकिता मृगी का-सा भाव रहता। न जाने कितनी व्याधियाँ उन्होंने भोगी। सैनेटोरियम में रहीं, फिर ठीक हुईं तो मधुमेह उन्हें प्रायः ही कोमा में खींच ले जाता। वृद्धावस्था में आँखों में मोतियाबिन्द भी उपज आया। पर आज, वह सब रोग-शोक भुलाकर, उनकी उसी वधू-वेश की सलज्ज मूर्ति को स्मरण करना चाहती हूँ। पर कहाँ हो पाता है ऐसा? न चाहने पर भी उनका करुण स्मित बार-बार मेरा कलेजा मरोड़ जाता है। वे मेरी भाभी से अधिक हमजोली रहीं। हमने एक-सी साड़ियाँ, कलाई भर-भर काले सुनहले लच्छेवाली चूड़ियाँ एक साथ पहनी, मायके आने पर, ससुराल के विपरीत वातावरण की चर्चा कर, बार-बार दिल का भार जिसके आगे हल्का किया--उस अभिन्न हृदया को कैसे भूलूँ!


एक और चेहरा कृपणता से मुस्कान बिखेरता रात्रि के गहन अन्धकार को चीरता सहसा सामने आ जाता है। पूछता है, मुझे भूल गई क्या?

सुधा राजा हो न? नहीं, प्रिय चेहरों को मैं कभी नहीं भूलती। ओरछा के महाराज वीरसिंह देवजू की राजकन्या थी सुधा राजा। दिन-रात दुर्भेद्य किले की दीवारों में, घोर पर्दे में छिपी सूर्य की किरणों से अछूती मोहक चेहरे की वह पीताभ आभा कैसे भूलूँ? आँखों पर चश्मा और दर्शनीय साड़ियों में सजी-धजी सुधा राजा सदा राजकन्या ही लगती थीं। हम दोनों की वयस में, कुछ ही महीनों का अन्तर था, इसीलिए बनती भी खूब थी। गरमी की छुट्टियों में तेरे घर आने का मैं एक-एक पल गिनती हूँ-वे कहतीं। मुझसे वे गुजराती में ही बोलती थीं। उनकी ननिहाल थी गोंडल राजमहल में। सब मौसियों का विवाह बड़ी-बड़ी रियासतों में हुआ था, कोई भावनगर में गई तो कोई पालिताना। इसी से उनकी माँ 'बा साहेब' की बड़ी इच्छा थी कि उनकी इकलौती पुत्री का विवाह भी सौराष्ट्र की ही किसी बड़ी रियासत में हो। पहली रानी से महाराज का एक पुत्र था, राजा बहादुर, उनकी ननिहाल जुब्बल में थी। उस राजप्रासाद की भव्य बनावट में जुब्बल के दक्ष वास्तुकारों की कला जीवन्त हो उठी थी।

किन्तु पुत्री को पटरानी बनाने का बा साहेब का सपना एकाएक टूटकर रह गया। महाराज के ए.डी.सी. थे स्तनसिंह। देखने में तो वे व्यक्तित्व-सम्पन्न थे ही, किले के अन्तःपुर में उनसे कोई पर्दा नहीं किया जाता था। एक तो शादीशुदा थे, उस पर दो सन्तानों के पिता भी, सर्वोपरि, महाराज का उन पर अटूट विश्वास था। तब तक, सुधा राजा ने इने-गिने पुरुष ही देखे थे, वे भी या ननिहाल के या ददिहाल के। रतनसिंह कोटा के राजपरिवार के ज्येष्ठ पुत्र थे। न जाने कब वयस का अन्तर चीरकर नियति ने सुधा राजा को रतनसिंह के प्रेम में आकंठ डुबो दिया। स्वामिभक्त रतनसिंह पहले, स्वयं को स्वेच्छा से किले से दूर रखने लगे। इस प्रसंग का सबसे मनोरंजक प्रकरण था कि महाराज एवं महारानी, इस घटना से एकदम अनभिज्ञ थे, जानती थी केवल मैं और रमणीक बा। हम दोनों ने उन्हें बहुत समझाया--सुधा, जब तक जवान रहोगी, रतनसिंह बूढ़े हो जाएँगे, फिर छाती पर सौत को जीवन-भर बिठाने की क्षमता है तुममें? तुम स्वयं जानती हो कि तुम अपनी इस सुभग नासिका पर, मक्खी भी नहीं बैठने देती।

किन्तु, बालहठ, राजहठ और स्त्रीहठ ने उन्हें और जिद्दी बना दिया था। जब महाराज-महारानी को इस दुर्घटना का पता चला तो पूरा किला किसी भूकम्पी धक्के से भयावह रूप से हिलने लगा। एक रियासत से बुआजी को बुलाया गया, दूसरी बुआ रातोंरात दूसरी रियासत से आ गई-यह दुःसंवाद किले की चहारदीवारी से बाहर निकल प्रजा को स्तब्ध कर दे, इससे पूर्व कठोर किलाबंदी कर दी गई। किन्तु देशगत, जातिगत एवं कालगत संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाती ओरछा की वह हठीली राजकन्या अपने निर्णय पर अडिग खड़ी रही। न खाना-न पीना, न हँसी-न चुहल-पीछे-पीछे लगी दासियाँ 'खम्मा खम्मा' करती चरखी-सी घूमती रहती-यह विवाह नहीं हुआ तो मैं अन्न-जल त्याग, प्राण दे दूंगी।

कोटा भले ही नगण्य रियासत हो, वहाँ के अदब-कायदे सर्वथा भिन्न हों, बार-बार अपना निर्णय दोहराती। सुधा जैसे रसखान की जिद्दी नायिका बन गई थी।

कोटिहू कलधौत के धाम
करील की कुंजन ऊपर वारों

जीत प्रेम की ही हुई। माता-पिता ने कन्यादान किया। मैं तो विवाह में नहीं जा सकी थी, हमारी परीक्षाएँ चल रही थीं। किन्तु सुना था पारम्परिक भव्य गरज-तरज से ही बुन्देलखंडी राजकन्या विदा हुई थी। सौत की उन्हें देख क्या प्रतिक्रिया रही, यह मैं कभी नहीं पूछ पाई। पूछती भी कैसे? जब हम दुबारा महाराज की जटी 'बैकुंठी' में मिले, तो सुधा तीन बच्चों की माँ बन चुकी थी। पर सुना यही था कि सौत ने बड़ी शालीनता से बच्चों का भार बिना किसी के कहे, स्वयं ग्रहण कर लिया था। तीसरा समाचार हठात् मिला, ब्रैस्ट कैंसर से सुधा की मृत्यु का। यह भी विधि की कैसी विचित्र विडम्बना थी कि वह जब चंडीगढ़ के पी.जी.आई. में कैंसर की दुर्वह व्यथा झेल रही थी, मैं भी उसी शहर में थी, पर उसकी घातक बीमारी से नितान्त अनभिज्ञ।

सुधा के भाई राजाबहादुर का विवाह महाराजकुमार विजयानगरम् की भतीजी से हुआ। पहले-पहले वह कमनीय चेहरा देखा तो ठगी-सी रह गई। अब, ऐसा रूप रविवर्मा के चित्रों तक ही सीमित रह गया है। सौन्दर्य की परिभाषा ही अब बदल गई है। आज तो नारी, शरीर को जितना अधिक प्रदर्शित करे, उसे उतनी ही मान्यता मिलती है। शीघ्र ही नववधू युवरानी मेरी मित्र बन गईं। उनकी शिक्षा-दीक्षा स्विट्जरलैंड में हुई थी। या तो वे अपनी मातृभाषा में सम्भाषण कर सकती थीं, या फिर अंग्रेजी में। तब मैं ही किले के अन्तःपर में अंग्रेजी में बोल सकती थी। सुधा ने गवर्नेस से अंग्रेजी सीखी थी, पर बोलने में उन्हें संकोच ही घेर लेता, इसी से ननद-भाभी एवं सास-बहू के बीच, भाषा गरमाहट नहीं ला पाई। मैं ही दुभाषिया बन, सास-ननद को युवरानी के निकट लाने की चेष्टा करती, पर मैं वहाँ रहती ही कम थी। युवरानी के साथ, विजयानगरम् से अनेक दासियाँ भेजी गई थी, किन्तु उनसे वह कितनी बातें कर सकती थी?

फिर उनका शैशव-कैशोर्य, जिस परिवेश में बीता था, वह बुन्देलखंडी परिवेश से एकदम भिन्न था। युवरानी की नानी नेपाल के राणावंश की थीं-सुकुमारी, हँसमुख, शिष्ट, सुरुचि-सम्पन्ना। पैर भारी हुआ तो भाई मायके से, बेशकीमती तोहफे लेकर आए, सोने का पलना, मखमल का गद्दा, आनेवाले शिशु के लिए चाँदी की थाली, गिलास, चम्मच, बहन के लिए हीरे का बहुमूल्य बाजूबन्द। लाल टिश्यू की साड़ी में उस दिन युवरानी साक्षात् अप्सरा लग रही थीं। उनकी वह छवि अभी भी मेरी आँखों में बसी है, जिसे अपने दुर्वह एकान्त में मैं, माला के मनकों-सा फेरने लगती हूँ। पर भाग्य देखिए, पुत्र जन्म से पहले उन्हें खसरा निकला। महाराज को वंशधर तो दिया, पर स्वयं उनका दिमाग हठात् फिर गया। न नवजात पुत्र के प्रति वात्सल्य उमड़ा, न कभी उसे गोद में लिया। उनका दिव्य रूप भी जाने क्यों पति को वश में नहीं कर पाया। दुख जो उन्हें मन-ही-मन जाने कब से घुला रहा था, सहसा बीमारी का सहारा पा, उन्माद बना और फिर सदा के लिए उनकी छाती पर बैठ गया। एक-एक कर साथ आईं, मायके की दासियाँ, स्वामिनी की विक्षिप्तावस्था देख, विजयानगरम् लौट गईं। उनका पुत्र दिल्ली में है, जानकर भी मैं अपनी प्रिय सखी के पुत्र से मिलने नहीं जा पाई। वह क्या पहचानेगा मुझे? उन्माद चरम सीमा पर पहुंच चुका था। मैं एक बार गई भी, तो मुझे नहीं पहचाना, अकारण हँसती, बड़बड़ाती रहीं। मैं लौट आई। जिसके सौन्दर्य ने कभी नारी होकर भी मुझे मुग्ध कर दिया था, वह आज नितान्त अकेली, विकारग्रस्त, अस्वस्थ, किसी प्रेतात्मा-सी किले के लौह-कपाटों में बन्द भटक रही थी। बाद में सुना, उसी उत्कट उन्माद के एक दौरे ने उनके प्राण हर लिए। अब लगता है रवीन्द्रनाथ ने, अपने मित्र को क्यों लिखी थी वह कटु पंक्ति-

दीर्घ जीवन ऐकटा दीर्घ अभिशाप। (दीर्घजीवन एक अभिशाप ही तो है।)

न जाने कितने प्रिय चेहरों को एक-एक कर विलुप्त होते मैंने स्वयं भी देखा और मृत्यु के सम्मुख विवश नतमस्तक खड़ी रही हूँ।

भस्मान्तं शरीरं
ॐ क्रतो स्मर
क्लिव, कृतं स्मर
कृतं स्मर-

यही तो मायावी संसार का नियम है, भस्म ही रह जाती है अन्त में, और रह जाती हैं स्मृतियाँ! कबीर इसी सत्य को हृदयंगम कर पाए, तब ही उन्होंने दो टूक पंक्तियों में, जीवन का सार समेट लिया

दस द्वारे का पींजरा
तामें पंछी पौन
रहे को आश्चर्य है
गए अचम्भा कौन?
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