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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


मैंनेजवाब दिया, 'मैं इस तरह पैसे नहीं ले सकता। अपने सार्वजनिक काम की मैंइतनी कीमत नहीं समझता। मुझे उसमें कोई वकालत तो करनी नहीं हैं। मुझे तोलोगों से काम लेना होगा। उसके पैसे मैं कैसे ले सकता हूँ? फिर, मुझेसार्वजनिक काम के लिए आपसे पैसे निकलवाने होगे। अगर मैं अपने लिए पैसे लूँतो आपके पास से बड़ी रकमें निकलवाने में मुझे संकोच होगा और आखिर हमारीनाव अटक जायेगी। समाज से तो मैं हर साल 300 पौंड से अधिक ही खर्च कराऊँगा।'

'पर हम आपको पहचानने लगे हैं। आप कौन अपने लिए पैसे माँगते है? आपके रहनेका खर्च तो हमे देना ही चाहिये न?'

'यह तो आपका स्नेह और तात्कालिक उत्साह बुलवा रहा हैं। यही उत्साह और यहीस्नेह सदा बना रहेगा, यह हम कैसे मान ले? मौका आने पर मुझे तो कभी-कभी आपको कड़वी बाते भी कहनी पड़ेगी। दशा में भी मैं आपके स्नेह की रक्षा करसकूँगा या नहीं, सो तो दैव ही जाने। पर असल बात यह हैं कि सार्वजनिक सेवा के लिए मुझे पैसे लेने ही न चाहिये। आप सब वकालत-सम्बन्धी अपना काम मुझेदेने के लिए वचन बद्ध हो जाये, तो उतना मेरे लिए बस हैं। शायद यह भी आपकेलिए भारी पड़ेगी। मैं कोई गोरा बारिस्टर नहीं हूँ। कोर्ट मुझे दाद दे या नदे, मैं क्या जानूँ? मैं तो यह भी नहीं जानता कि मुझसे कैसी वकालत होसकेगी। इसलिए मुझे पहले से वकालत का मेंहनताना देने में भी आपको जोखमउठानी हैं। इतने पर भी अगर आप मुझे वकालत का मेंहनताना देंगे तो वह मेरीसार्वजनिक सेवा के कारण ही माना जायेगा न? '

इस चर्चा का परिणाम यह निकला कि कोई बीस व्यापारियों ने मेरे लिए एक वर्ष का वर्षासन बाँधदिया। इसके उपरान्त, दादा अब्दुल्ला बिदाई के समय मुझे जो भेट देनेवाले थे उसके बदले उन्होंने मेरे लिए आवश्यक फर्नीचर खरीद दिया और मैं नेटाल मेंबस गया।

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