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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


बाह्य उपचारो में जिस तरह के आहार के प्रकार औरपरिमाण की मर्यादा आवश्यक है, उसी तरह उपवास के बारे में भी समझना चाहिये। इन्दियाँ इतनी बलबान हैं कि उन्हे चारो तरफ से, ऊपर से और नीचे से यो दसोदिशाओ से घेरा जाय तो ही वे अंकुश में रहती हैं। सब जानते है कि आहार के बिना वे काम नहीं कर सकती। अतएव इन्द्रिय-दमन के हेतु से स्वेच्छा-पूर्वककिये गये उपवास से इन्द्रिय-दमन में बहुत मदद मिलती है, इसमे मुझे कोईसन्देह नहीं। कई लोग उपवास करते हुए भी विफल होते हैं। उसका कारण यह हैंकि उपवास ही सब कुछ कर सकेगा, ऐसा मानकर वे केवल स्थूल उपवास करते हैं औरमन से छप्पन भोगो का स्वाद लेते रहते हैं। उपवास की समाप्ति पर क्याखायेगे, इसके विचारो का स्वाद लेते रहते हैं, और फिर शिकायत करते हैं कि नस्वादेन्द्रिय का सयम सधा औऱ न जननेन्द्रिय का ! उपवास की सच्ची उपयोगितावहीँ होती हैं जहाँ मनुष्य का मन भी देह-दमन में साथ देता है। तात्पर्य यह है कि मन में विषय-भोग के प्रति विरक्ति आनी चाहिये। विषय की जड़े मन मेंरहती हैं। उपवास आदि साधनो से यद्यपि बहुत सहायता मिलती हैं, फिर भी वह अपेक्षाकृत कम ही होती हैं। कहा जा सकता हो कि उपवास करते हुए भी मनुष्यविषयासक्त रह सकता हैं। पर बिना उपवास के विषयासक्ति को जड-मूल से मिटानासंभव नहीं हैं। अतएव ब्रह्मचर्य के पालन में उपवास अनिवार्य अंग हैं।

ब्रह्मचर्य का प्रयत्न करनेवाले बहुतेरे लोग विफल होते हैं, क्योंकि वे खाने-पीने,देखने-सुनने इत्यादि में अब्रह्मचारी की तरह रहना चाहते हुए भी ब्रह्मचर्यपालन की इच्छा रखते हैं। यह प्रयत्न वैसा ही कहा जायगा, जैसा गरमी मेंजाड़े का अनुभव करने का प्रयत्न। संयमी और स्वैराचारी के, भोगी और त्यागीके जीवन में भेद होना ही चाहिये। साम्य होता है, पर वह ऊपर से देखने-भरका। भेद स्पष्ट प्रकट होना चाहिये। आँख का उपयोग दोनों करते हैं।ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता हैं, भोगी नाटक-सिनेमा में लीन रहता है। दोनाकान का उपयोग करते हैं। पर एक ईश्वर- भजन सुनता हैं, दूसरा विलासी गानेसुनने में रस लेता हैं। दोनों जागरण करते हैं। पर एक जाग्रत अवस्था मेंहृदय-मन्दिर में विराजे हुए राम की आराधना करता हैं, दूसरे को नाच-गाने की घुन में सोने का होश ही नहीं रहता। दोनों भोजन करते हैं। पर एक शरीर-रूपीतीर्थक्षेत्र को निबाहने -भर के लिए देह को भाड़ा देता हैं, दूसरा स्वादके लिए देह में अनेक वस्तुए भरकर उसे दुर्गन्ध का घर बना डालता हैं। इसप्रकार दोनों के आचार-विचार में यह अन्तर दिन-दिन बढ़ता जाता हैं, घटतानहीं।

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