जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
बोअर-युद्ध
सन् 1897 से 1899 के बीच के अपने जीवन के दूसरे अनेक अनुभवो को छोड कर अब मेंबोअर-युद्ध पर आता हूँ। जब यह युद्ध हुआ तब मेरी सहानुभूति केवल बोअरो कीतरफ ही थी। पर मैं मानता था कि ऐसे मामलो में व्यक्तिगत विचारो के अनुसारकाम करने का अधिकार मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ हैं। इस संबंध केमन्थन-चिन्तन का सूक्ष्म निरीक्षण मैंने 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह काइतिहास' में किया हैं, इसलिए यहाँ नहीं करना चाहता। जिज्ञासुओं को मेरीसलाह है कि वे उस इतिहास के पढ़ जाये। यहाँ तो इतना कहना काफी होगा किब्रिटिश राज्य के प्रति मेरी वफादारी मुझे उस युद्ध में सम्मिलित होने केलिए जबरदस्ती घसीट ले गयी। मैंने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन केनाते अधिकार माँग रहा हूँ तो उसी नाते ब्रिटिश राज्य की रक्षा में हाथबटाना भी मेरा धर्म हैं। उस समय मेरी यह राय थी कि हिन्दुस्तान कीसम्पूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अन्दर रहकर हो सकती हैं।
अतएव जितने साथी मिले उतनो को लेकर औऱ अनेक कठिनाइयाँ सहकर हमने घायलो कीसेवा-शुश्रूषा करने वाली एक टुकड़ी खड़ी की। अब तक साधारणतया यहाँ के अंग्रेजो की यही घारणा थी कि हिन्दुस्तानी संकट के कामों में नहीं पड़ते।इसलिए कई अंग्रेज मित्रो ने मुझे निराश करने वाले उत्तर दिये थे। अकेलेडॉक्टर बूथ ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने हमे घायल योद्धाओ कीसार-संभाल करना सिखाया। अपनी योग्यता के विषय में हमने डॉक्टरीप्रमाण-पत्र प्राप्त किये। मि. लाटन और स्व. एस्कम्बे ने भी हमारे इसकार्य को पसन्द किया। अन्त में लड़ाई के लिए हमने सरकार से बिनती की। जवाबमें सरकार ने हमे धन्यवाद दिया, पर यह सूचित किया कि इस समय हमे आपकी सेवाकी आवश्यकता नहीं हैं।
पर मुझे ऐसी 'ना' से संतोष मानकर बैठना न था। डॉ. बूथ की मदद लेकर उनके साथ मैं नेटाल के बिशप से मिला। हमारीटुकड़ी में बहुत से ईसाई हिन्दुस्तानी थे। बिशप को मेरी यह माँग बहुत पसन्द आयी। उन्होंने मदद करने का वचन दिया।
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