जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
57 पाठक हैं |
प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष
समाज के एक भी अंग का निरुपयोगी रहना मुझे हमेशा अखरा है। जनता के दोष छिपाकरउसका बचाव करना अथवा दोष दूर किये बिना अधिकार प्राप्त करना मुझे हमेशाअरुचिकर लगा हैं। इसलिए दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले हिन्दुस्तानियो परलगाये जानेवाले एक आरोप का, जिसमे कुछ तथ्य था, मैंने इलाज करने का काममैंने वहाँ के निवासकाल में ही सोच लिया था। हिन्दुस्तानियो पर जब-तब यहआरोप लगाया जाता था कि वे अपने घर-बार साफ नहीं रखते और बहुत गन्दे रहतेहैं। इस आरोप को निःशेष करने के लिए आरम्भ में हिन्दुस्तानियों के मुखियामाने जाने वाले लोगों के घरो में तो सुधार आरम्भ हो ही चुके थे। पर घर-घर घूमने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब डरबन में प्लेग के प्रकोप का डर पैदाहुआ। इसमे म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियो का भी सहयोग और सम्मति थी। हमारी सहायता मिलने से उनका काम हलका हो गया और हिन्दुस्तानियो को कम कष्ट उठानेपड़े क्योंकि साधारणतः जब प्लेग आदि का उपद्रव होतो हैं तब अधिकारी घबराजाते हैं और उपायो की योजना में मर्यादा से आगे बढ़ जाते हैं। जो लोग उनकीदृष्टि में खटकते हैं, उन पर उनका दबाव असह्य हो जाता हैं। भारतीय समाजमें खुद ही सख्त उपायो से काम लेना शुरू कर दिया था, इसलिए वह इन सख्तियोसे बच गया।
मुझे कुछ कड़वे अनुभव भी हुए। मैंने देखा कि स्थानीय सरकार से अधिकारो की माँग करने में जितनी सरलता से मैं अपने समाज कीसहायता पर सकता था, उतनी सरलता से लोगों से उनके कर्तव्य का पालन कराने के काम में सहायता प्राप्त न कर सका। कुछ जगहो पर मेरा अपमान किया जाता, कुछजगहो पर विनय-पूर्वक उपेक्षा का परिचय दिया जाता। गन्दगी साफ करने के लिएकष्ट उठाना उन्हे अखरता था। तब पैसा खर्च करने की तो बात ही क्या? लोगोंसे कुछ भी काम कराना हो तो धीरज रखना चाहिये, यह पाठ मैंने सीख लिया।सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती हैं। जिस समाज में वह सुधार करानाचाहता है, उससे तो उसे विरोध, तिरस्कार और प्राणों के संकट की भी आशा रखनी चाहिये। सुधारक जिस सुधार मानता है, समाज उसे बिगाड़ क्यों न माने? अथवाबिगाड़ न भी माने तो भी उसके प्रति उदासीन क्यों न रहे?
|