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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


सन् 1896 में जब मैं देश आया था, तब भीभेट मिली थी। पर इस बार की भेटो से और सभाओ के दृश्य से मैं अकुला उठा। भेंटों में सोने-चाँदी की चीजे तो थी ही, पर हीरे की चीजें भी थी।

इन सब चीजों को स्वीकार करने का मुझे क्या अधिकार था? यदि मैं उन्हें स्वीकारकरता तो अपने मन को यह कैसे समझता कि कौम की सेवा मैं पैसे लेकर नहींकरता? इन भेटों में से मुवक्किलो की दी हुई थोड़ी चीजो को छोड़ दे, तोबाकी सब मेरी सार्वजनिक सेवा के निमित्त से ही मिली थी। फिर, मेरे मन मेंतो मुवक्किलो और दूसरे साथियो के बीच कोई भेद नहीं था। खास-खास सभीमुवक्किल सार्वजनिक कामों में भी मदद देनेवाले थे।

साथ ही, इन भेटों में से पचास गिन्नियो का एक हार कस्तूरबाई के लिए था। पर वह वस्तुभी मेरी सेवा के कारण ही मिली थी। इसलिए वह दूसरी भेटों से अलग नहीं की जा सकती थी।

जिस शाम को इनमें से मुख्य भेटे मिली थी, वह रात मैंने पागल की तरह जागकरबितायी। मैं अपने कमरे में चक्कर काटता रहा, पर उलझनकिसी तरह सुलझती न थी। सैकड़ो की कीमत के उपहारो को छोडना कठिन मालूम होता था, रखना उससे भी अधिक कठिन लगता था।

मन प्रश्न करता, मैं शायद भेटों को पचा पाऊँ, पर मेरे बच्चो का क्या होगा? स्त्री का क्या होगा?उन्हे शिक्षा तो सेवा की मिलती थी। उन्हें हमेशा समझाया जाता था कि सेवा के दाम नहीं लिये जा सकते। मैं घर में कीमती गहने वगैरा रखता नहीं था।सादगी बढ़ती जा रही थी। ऐसी स्थिति में सोने की जंजीर और हीरे की अंगूठियाँ कौन पहनता? मैं उस समय भी गहनो-गाँठो का मोह छोड़ने का उपदेशऔरो को दिया करता था। अब इन गहनो और जवाहरात का मैं क्या करता?

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