जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
यह एक सूक्ष्म रहस्यहै और ध्यान में रखने योग्य हैं। विलायत में मैंने माँस की तीन व्याख्यायें पढ़ी थी। एक के अनुसार माँस का अर्थ पशु-पक्षी का माँस था।अतएव ये व्याख्याकरा उनका त्याग करते थे, पर मच्छी खाते थे, अंडे तो खाते ही थे। दूसरी व्याख्या के अनुसार साधारण मनुष्य जिसे जीव के रुप में जानताहैं, उसका त्याग किया जाता था। इसके अनुसार मच्छी त्याज्य थी, पर अंडे ग्राह्य थे। तीसरी व्याख्या में साधारणतया जितने भी जीव माने जाते हैं,उनके और उनसे उत्पन्न होने वाले पदार्थों के त्याग की बात थी। इस व्याख्या के अनुसार अंड़ो का और दूध का भी त्याग बन्धनकारक था। यदि मैं इनमें सेपहली व्याख्या को मानता, तो मच्छी भी खा सकता था। पर मैं समझ गया कि मेरे लिए तो माताजी की व्याख्या ही बन्धनकारक हैं। अतएव यदि मुझे उनके सम्मुखली गयी प्रतिज्ञा का पालन करना हो तो अंडे खाने ही न चाहिये। इस कारण मैंने अंड़ो का त्याग किया। पर मेरे लिए यह बहुत कठिन हो गया, क्योंकिबारीकी से पूछताछ करने पर पता चला कि अन्नाहार भोजन-गृह में भी अंडोवालीबहुत चीजें बनती थी। तात्पर्य यह कि वहाँ भी भाग्यवश मुझे तब करपरोसनेवालों से पूछताछ करनी पड़ी थी, जब तक कि मैं अच्छा जानकार न हो गया,क्योंकि कई तरह के 'पुडिंग' में और कई तरह के 'केक' में तो अंडे होते हीथे। इस कारण एक तरह से तो मैं जंजाल से छूटा, क्योंकि थोड़ी और बिल्कुलसादी चीजें ही ले सकता था। दूसरी तरफ थोड़ा आघात भी लगा, क्योंकि जीभ सेलगी हुई कई चीजों का मुझे त्याग करना पड़ा था। पर वह आघात क्षणिक था।प्रतिज्ञा-पालन का स्वच्छ, सूक्ष्म और स्थायी स्वाद उस क्षणिक स्वाद कीतुलना में मुझे अधिक प्रिय लगा।
पर सच्ची परीक्षा तो आगे होने वाली थी, और वह एक दूसरे व्रत के निमित्तसे। जिसे राम रखे, उसे कौन चखे?
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