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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....

महाप्रदर्शनी


सन् 1890 में पेरिस में एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी। उसकी तैयारियों के बारे मेंपढ़ता रहता था। पेरिस देखने की तीव्र इच्छा तो थी ही। मैंने सोचा कि यह प्रदर्शनी देखने जाऊँ, तो दोहरा लाभ होगा। प्रदर्शनी में एफिल टॉवर देखनेका आकर्षण बहुत था। यह टॉवर सिर्फ लोहे का बना है। एक हजार फुट ऊँचा हैं। इसके बनने से पहले लोगों की यह कल्पना थी कि एक हजार फुट ऊँचा मकान खड़ाही नहीं रह सकता। प्रदर्शनी में और भी बहुत कुछ देखने जैसा था।

मैंने पढ़ा था कि पेरिस में एक अन्नाहार वाला भोजन गृह हैं। उसमें एक कमरा मैंनेठीक किया। गरीबी से यात्रा करके पेरिस पहुँचा। सात दिन रहा। देखने योग्यसब चीजे अधिकतर पैदल घूमकर ही देखी। साथ में पेरिस की और उस प्रदर्शनी कीगाइड तथा नक्शा ले लिया था। उसके सहारे रास्तो का पता लगाकर मुख्य मुख्यचीजे देख ली।

प्रदर्शनी की विशालता और विविधता के सिवा उसकी और कोई बात मुझे याद नहीँ हैं। एफिल टॉवर पर तो दो-तीन बार चढा था, इसलिएउसकी मुझे अच्छी तरह याद हैं। पहली मंजिल पर खाने-पीने का प्रबंध था। यह कर सकने के लिए कि इतनी ऊँची जगह पर भोजन किया था, मैंने साढ़े सात शिंलिगफूँककर वहाँ खाना खाया।

पेरिस के प्राचीन गिरजाघरों की याद बनी हुई हैं। उनकी भव्यता और उनके अन्दर मिलने वाली शान्ति भूलायी नहीं जासकती। नोत्रदाम की कारीगरी और अन्दर की चित्रकारी को मैं आज भी भूला नहीँ हूँ। उस समय मन में यह ख्याल आया था कि जिन्होने लाखों रुपये खर्च करकेऐसे स्वर्गीय मन्दिर बनवाये हैं, उनके दिल की गहराई में ईश्वर प्रेम तो रहा ही होगा।

पेरिस की फैशन, पेरिस के स्वेच्छाचार और उसके भोग-विलास के विषय में मैंने काफी पढ़ा था। उसके प्रमाण गली-गली में देखनेको मिलते थे। पर ये गिरजाघर उन भोग विलासो से बिल्कुल अलग दिखायी पड़तेथे। गिरजों में घुसते ही बाहर की अशान्ति भूल जाती हैं। लोगों का व्यवहारबदल जाता हैं। लोग अदब से पेश आते हैं। वहाँ कोलाहल नहीं होता। कुमारी मरियम की मूर्ति के सम्मुख कोई न कोई प्रार्थना करता ही रहता हैं। यह सबवहम नहीं हैं, बल्कि हृदय की भावना हैं, ऐसा प्रभाव मुझ पर पड़ा था और बढ़ता ही गया हैं। कुमारिका की मूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल बैठकरप्रार्थना करनेवाले उपासक संगमरमर के पत्थर को नहीं पूजते थे, बल्कि उसमेंमानी हुई अपनी कल्पित शक्ति को पूजते थे। ऐसा करके वे ईश्वर की महिमा कोघटाते नहीं बल्कि बढाते थे, यह प्रभाव मेरे मन पर उस समय पड़ा था, जिसकीधुंधली याद मुझे आज भी हैं।

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