जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
डॉ. मेंहता ने अपने घर जिन लोगोंसे मेरा परिचय कराया, उनमें से एक का उल्लेख किये बिना काम नहीं चल सकता। उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन तो मेरे आजन्म मित्र बन गये। पर मैं जिनकी चर्चाकरना चाहता हूँ, वे हैं कवि रायचन्द अथवा राजचन्द। वे डॉक्टर के बड़े भाईके जामाता थे और रेवाशंकर जगजीवन की पेढ़ी के साक्षी तथा कर्ता-धर्ता थे।उस समय उनकी उमर पचीस साल से अधिक नहीं थी। फिर भी अपनी पहली ही मुलाकातमें मैंने यह अनुभव किया था कि वे चरित्रवान और ज्ञानी पुरूष थे। डॉ.मेंहता ने मुझे शतावधान का नमूना देखने को कहा। मैंने भाषा ज्ञान का अपनाभण्डार खाली कर दिया और कवि ने मेरे कहे हुए शब्दों को उसी क्रम से सुनादिया, जिस क्रम में वे कहे गये थे ! उसकी इस शक्ति पर मुझे ईर्ष्या हुई, लेकिन मैं उस पर मुग्ध न हुआ। मुझे मुग्ध करनेवाली वस्तु का परिचय तो बादमें हुआ। वह था उनका व्यापक शास्त्रज्ञान, उनका शुद्ध चारित्र्य और आत्मदर्शन करने का उनका उत्कट उत्साह। बाद में मुझे पता चला कि वेआत्मदर्शन के लिए ही अपना जीवन बिता रहे थे:
हसतां रमतां प्रगच हरि देखुं रे,
मारुं जीव्युं सफल तव लेखुं रे
मुक्तानन्दनो नाथ विहारी रे
ओधा जीवनदोरी हमारी रे।
(जबहँसते-हँसते हर काम में मुझे हरि के दर्शन हो तभी मैं अपने जीवन को सफल मानूँगा। मुक्तानन्द कहते हैं, मेरे स्वामी तो भगवान हैं और वे ही मेरेजीवन की डोर हैं।)
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