जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
मुक्तानन्द का यह वचन उनकी जीभ पर तो था ही, पर वह उलके हृदय में भी अंकितथा।
वे स्वयं हजारों का व्यापार करते, हीरे मोती की परख करते, व्यापार कीसमस्यायें सुलझाते, पर यह सब उनका विषय न था। उनका विषय उनका पुरुषार्थ तो था आत्मपरिचय हरिदर्शन। उनकी गद्दी पर दुसरी कोई चीज हो चाहे न हो, पर कोईन कोई धर्मपुस्तक और डायरी तो अवश्य रहती थी। व्यापार की बात समाप्त होते ही धर्मपुस्तक खुलती थी। उनके लेखों का जो संग्रह प्रकाशित हुआ हैं, उसकाअधिकांश इस डायरी से लिया गया हैं। जो मनुष्य लाखों के लेन-देन की बात करके तुरन्त ही आत्म-ज्ञान की गूढ़ बाते लिखने बैठ जाये, उसकी जातिव्यापारी की नहीं वल्कि शुद्ध ज्ञानी की हैं। उनका ऐसा अनुभव मुझे एक बार नहीं, कई बार हुआ था। मैंने कभी उन्हें मूर्च्छा की स्थिति में नहीं पाया।मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मैं उनके बहुत निकट सम्पर्क में रहीहूँ। उस सम. मैं एक भिखारी बारिस्टर था। पर जब भी मैं उनकी दुकान परपहुँचता, वे मेरे साथ धर्म-चर्चा के सिवा दूसरी कोई बात ही न करते थे।यद्यपि उस समय मैं अपनी दिशा स्पष्ट नहीं कर पाया था; यह भी नहीं कह सकताकि साधारणतः मुझे धर्म चर्चा में रस था; फिर भी रायचन्द्र भाई की धर्मचर्चा रुचिपूर्वक सुनता था। उसके बाद मैं अनेक धर्माचार्यो के सम्पर्क मेंआया हूँ। मैंने हरएक धर्म के आचार्यो से मिलने का प्रयत्न किया है। पर मुझ पर जो छाप भाई रायचन्दभाई ने डाली, वैसी दूसरा कोई न डाल सका। उनकेबहुतेरे वचन मेरे हृदय में सीधे ऊतर जाते थे। मैं उलकी बुद्धि का सम्मान करता था। उसकी प्रामाणिकता के लिए मेरे मन में उतना ही आदर था। इसलिए मैंजानता था कि वे मुझे जान-बूझकर गलत रास्ते नहीं ले जायेंगे और उनके मन मेंहोगा वही कहेंगे। इस कारण अपने आध्यात्मिक संकट के समय मैं उलका आश्रयलिया करता था।
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