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उपन्यास >> ध्वंसकाल

ध्वंसकाल

सुचित्रा भट्टाचार्य

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6073
आईएसबीएन :9788181436542

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ध्वंसकाल ...

Dhvanskaal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


औपनिवेशिक व्यवस्था व्यक्ति और समाज के बीच की खाई को हमेशा और चौड़ा करती जाती है और दोनों ही एक-दूसरे को अपरिचित या प्रायः शत्रुता की दृष्टि से देखते हैं। व्यक्ति का ध्वस्त आत्म-विश्वास ‘अहं’ बनता जाता है और विकासमान समाज की धारा में वह द्वीप की तरह कटकर ठूँठ-सा खड़ा रहता है। सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा या प्राप्ति के प्रयत्न में जब वह लड़ते-लड़ते हार जाता है तो समाज से सहानुभूति चाहता है, सान्त्वना और समर्थन माँगता है; चूँकि अपने पूरे ‘युद्ध’ के दौरान, उसने समाज की इच्छा जानने की कभी कोशिश नहीं की थी इसलिए इनमें से उसे कुछ नहीं मिलता तो द्वंद्व–विक्षोभ सिर्फ दो ही तीन दिशाओं में फूटता है। अपने ‘अहं’ को ही सर्वोपरि मानता हुआ वह विक्षिप्त की तरह हर वस्तु को निरर्थक समझे और हर व्यवस्था के प्रति आस्था खो बैठे, अनारकिस्ट और निहलिस्ट हो जाए और तरह-तरह से अपनी उपेक्षा का बदला समाज से ले; तथा स्वयं अपने पतन की महानता को घोषित करे, पुरातनवादी हो जाए और प्रकृति या अध्यात्म की ओर भाग खड़ा हो या फिर सीधे ही गम ग़लत करने के लिए शराब पिए। क्रान्तिकारियों के व्यक्तिगत विद्रोह के इतिहास में इन सभी परिस्थितियों के उदाहरण हमें उपलब्ध हैं।


राजेन्द्र यादव

ध्वंसकाल
1


अनुराधा पर्दे की आड़ से, अपने बेटे को एकटक देखती रही। सिर्फ बेटे को ही नहीं, बेटे के इर्द-गिर्द के उस समूचे परिवेश को भी, जो उसने खुद रचा-गढ़ा था। धुँधली छाया में लिपटा, सर्द-सा कमरा ! कमरे के कोने में एक अदद मेज़-कुर्सी ! मेज़ पर कटग्लास का रौशनदान ! रौशनदान से उजाला बिखेरती वलय-किरणें। पूरी मेज़ पर किताब-कॉपियों का ढेर ! दीवार पर खड़ी मुद्रा में स्वामी विवेकानंद की धुँधली-सी तस्वीर उनके कदमों तले, किताब में चेहरा गड़ाए, ध्यानमग्न राजा ! बेटे की यह ध्यानमुद्रा, अनुराधा को बेहद प्रिय है। उस वक्त अगर जबर्दस्त आँधी-तूफान भी हहरा उठे, तो भी राजा का ध्यान नहीं बँटा सकता; अगर भूकंप भी आ जाए, तो वह भी कुर्सी छोड़कर हिलने वाला बच्चा नहीं है। घर में आग भी लग जाए, तो भी वह किताबों से चेहरा नहीं उठाता अनुराधा बखूबी जानती है। अनुराधा ने अपने राजा को इसी तरह रचा-गढ़ा है।

इकतीस दिसंबर की रात ! इधर लगातार कई दिनों से आसमान में बादल छाए हुए ! पिछली शाम थोड़ी बहुत बूँदा-बाँदी भी हो चुकी थी। आज सुबह से ही आसमान काफी भारी-भारी। सूरज का पटरा बैठते ही, सर्दी मनमानी शिद्दत से लौटने लगी थी। तापमान भी तेज़ी से उतरने लगा था।
अचानक अनुराधा की नज़र पड़ी। राजा के कमरे की एक खिड़की खुली हुई थी। उफ ! यह लड़का भी हद करता है। हर वक्त गर्मी से पगलाया हुआ !
‘‘खिड़की क्यों खोल रखी है ?’’
ध्यानमग्न राजा ने अपने बाएँ हाथ से सिर पकड़ लिया, ‘‘सारी खिड़कियाँ बन्द रहती हैं, तो साँसें घुटने लगती हैं।’’
राजा की उम्र ने अभी भी किशोर उम्र का साथ नहीं छोड़ा था। आवाज़, न मधुर-कोमल, न घर्र-घर्र, बस, जरा टूटी-फूटी-सी ! अगली अप्रैल में वह पूरे सोलह साल का हो जाएगा। इसी दौरान उसका हाव-भाव ख़ासा गंभीर हो आया है। पकी-पकी-सी मुद्रा ! नौजवान उम्र जैसी !

अनुराधा ने मीठी-सी डाँट पिलाई, ‘‘साँस घुटती है, तो घुटने दे। उत्तरी तरफ की खिड़की है। हवा हहराकर अंदर आ रही है। अगर सर्दी-जुकाम ने धर दबोचा, तो बस हो गई छुट्टी ! जान आफ़ात में !’’

‘‘ओह, मॉम, तुम जाओ तो यहाँ से ! कहा न, मुझे ठंड नहीं लग रही है।’’
‘‘तो फिर शॉल अच्छी तरह लपेटकर बैठ ! कान भी ढँक ले।’’

अनुराधा ने पर्दा ठीक किया और रसोई की तरफ चली गई। रसोई काफी लंबी-चौड़ी। सीमेंट की लंबी-सी रैक पर एक जोड़ा गैस-स्टोव ! रैक के नीचे क़तार से सजे हुए चार-चार गैस सिलेंडर ! एकाध सिलेंडर खाली। एकाध भरे हुए !

सुबह के वक्त अनुराधा, अगर एक साथ चारों चूल्हे न जलाए, तो उससे काम-काज ही नहीं सम्हलता। चंदन के लिए पाँच बार चाय; सास के पीने के लिए गर्म पानी संग-संग नाश्ते की तैयारी; दफ्तर से पहले खाना वगैरह भी निपटाना होता है। वह तो गनीमत है कि राजा के टेस्ट खत्म होने के बाद स्कूल फिलहाल बंद है। बाथरूम में नया गीज़र भी लग चुका है, वर्ना चार-चार बर्नर जलाने के बावजूद, अनुराधा कामकाज के दबाव में बौखलाई रहती है। रसोई की दूसरी छोर पर मिक्सर ग्राइंडर, ऑटोमेटिक टोस्टर, नॉन-स्टिक बर्तन-भांडे ! दीवारों में फिट रैक पर स्टील के बर्तन; मसालों के खूबसूरत मर्तबान; कोने में भारी-भरकम सिंक ! सिंक की बगल में एक किचेन-शेल्फ पड़ा हुआ, जिसे खरीद लाने के बावजूद, अभी तक फिट नहीं किया गया।

समूचा घर ही सामानों से ठँसा हुआ, फिर भी गरियावाले घर की तरह, यहाँ घुटन का अहसास नहीं होता। जाने क्यों को यहाँ दम नहीं घुटता। पश्चिम की तरफ लंबी-चौड़ी खिड़की की वजह से या फिर खिड़की के पार, टुकड़ा भर आँगन की वजह से या फिर एक्जॉस्ट पंखे की वजह से !

यह भी मुमकिन है कि इनमें से कोई भी वजह न हो। हो सकता है ये सारी वजहें, अनुराधा की महज खामख़याली हो। महज भ्रांति ! गरियावाले मकान की रसोई भी खासी बड़ी थी। लेकिन उसे वह मकान बिलकुल पसंद नहीं था। कैसा तो गँवई, कॉलोनीनुमा ! पिछवाड़े गंदी-सी पोखर ! मच्छर-मक्खी ! कूड़ा-कर्कट का ढेर ! अखर का जंगल ! अनुराधा ने काफी दुःख-तकलीफ में, वहाँ एक युग गुज़ार दिया। बेटे को लेकर, अपने को लेकर, अरपनी समूची उम्र ही, उसने भयंकर यातना में बिता दी।

अनुराधा ने गैस पर पानी चढ़ा दिया। आठ बज गए। अभी से ही ऐसी कड़ाके की ठंड। एकाध प्याली कॉफी हो जाए, तो बुरा नहीं।
उसने रसोई से ही ऊँची आवाज़ में पूछा, ‘‘राजा, कॉफी के लिए पानी चढ़ाया है, तू भी पीएगा ?’’

राजा ने कोई जवाब नहीं दिया।
अनुराधा होंठ दबाकर मुस्कराई। बेटे की ख़ामोशी का मतलब था, कॉफी वह भी पीएगा। राजा की कॉफी में वह दूध-चीनी ज़्यादा मिला देती है। बेटा ऐसे तो दूध को भी हाथ नहीं लगाएगा, मगर कॉफी अगर दूध से बिलकुल सफेद भी हो, तो भी उस कोई एतराज नहीं।
बेटे की तरफ से तो कोई जवाब नहीं मिला, मगर छड़ी की ठक्-ठक् अनुराधा के कानों में गूँज उठी ! प्रतिभा ! कमर बिल्कुल जड़ ! हरक़तहीन; घुटनों से भी लाचार; आँखों में मोतियाबिंद ! लेकिन, कान दिनोंदिन और तेज होते जा रहे हैं।
‘‘ए अन्नु, जरा-सी कॉफी मोका भी...’’
‘‘रात को ऐसे भी नींद नहीं आती। अब रात आठ बजे कॉफी पीएँगी ?’’
‘‘तनिक-सी ! आज हद्द जाड़ा पड़ा है। संझा से, दोनों घुटना भी सताय रहा है।’’
‘‘अच्छा ! अपने कमरे में चलें ! मैं कॉफी लेकर आती हूँ।’’
प्रतिभा फिर भी वहाँ से नहीं हिलीं। उन्होंने दो-तीन बार लंबी-लंबी साँस खींची, ‘कइस सुंदर खसबू आ रही है, जी !’’
अनुराधा हँस पड़ी। बेकिंग अवन में केक तैयार पड़ा है। अभी निकाला नहीं गया। सिर्फ एक बार ढक्कन खोलकर देखा भर था। ढक्कन खोलते ही जो थोड़ी-बहुत खुशबू उड़ी थी, हवा में अब उसका भी अता-पता नहीं था। बूढ़ाराम ने तब भी खुशबू सूँघ ली।
‘‘केक की खुशबू है ! खाएँगी ? अभी भी गरम-गरम है।’’ अनुराधा ने कहा।
‘‘ना, री, रहने दे ! उसमें मैदा पड़ा है....अंडा पड़ा है...ई बखत खाय लिया, तो हजम ना हुइहै।’’
‘‘थोड़ा-सा चख तो लें ! साल भर में कभी-कभी ही तो बनाती हूँ।’’
‘‘बस, इत्ता-सा दै दीहौ। छोटा-सा टुकड़ा भर !’’ प्रतिभा ने उँगलियों सेनापकर दिखाया, ‘‘राजा खाय लिया ?’’
अनुराधा ने बकिंग अवन खोल डाला। प्लेट में एक नन्हा-सा टुकड़ा डालकर, प्रतिभा की तरफ बड़ा दिया, ‘‘आपके पोते की फर्माइश पर ही तो केक बना है। चॉकलेट केक की रट लगाकर, मेरा दिमाग़ खा डाला।’’
रसोई के सामने, लंबा-सा डाइनिंग स्पेस ! एक कोना काँच की दीवार से घिरा ! बीच में खाने की अंडाकार मेज़ और छः कुर्सियाँ !

प्रतिभा बिलकुल सामने वाली कुर्सी पर बैठी और केक का टुकड़ा कुतरने लगी, ‘‘ए बहुरिया संक्रान्ति के दिन, ज़रा पीठा खीर तो बनाना ! हमारा चंदा पीठा, बड़े शौक से खात है ! पता है, एक बार बड़ा मजेदार कांड भया। चंदा ऊ बखत स्कूल में था। लाजू का जनम भी नहीं भया था। हम तुमरे ससुर के लिए गरम-गरम पीठा तल रही थी...शक्करकंद का पीठा; पीठा तल-तलकर, चाशनी में डुबाय-डुबायकर रख रही थी। हाय माँ ऽऽऽ, थोड़ी देर बाद, का देखा, मालूम ! देगची में रस तो जस का तस, लबालब भरा था, मगर पीठा गायब ! पीठा का भवा ? कहाँ गवा ? पता चला, हमार बेटवा चुपके-चुपके आवत रहा और टुप्प से झपट्टा मारकर भाग जात रहा। अरे, ऊ, जब लंबा-चौड़ा मरद बन गवा, तब का कांड भया था, वह तो तुमका भी याद होगा। जब ऊ मुर्शीदाबाद में ‘पोस्ट’ था। सनिच्चर-इतवार, छुट्टी के दिन आवत रहा, तो ओका लिए पीठा काहे नहीं रखा गवा, इसी बात पर गज्जब का गुस्सा...?’’

अनुराध उनकी बतकही नहीं सुन रही थी। उस वक्त वह काँच के बर्तन वाले केबिनेट से काफी के नए मग निकाल कर, उसे घुमा-फिराकर देखने में मगन थी। अभी परसों ही लाजू उसे छः मग, तोहफे में दे गई थी। सुर्ख लाल रंग ! लाल रंग का यह शेड उसे बेहद पसंद है। राजा को भी यही शेड अच्छा लगता है। लाजू ने जान-बूझकर यही रंग ख़रीदा। भाभी को मस्का मारने की कोशिश ! आजकल सात्यकी के साथ उसका रिश्ता ज़रा कड़वा हो गया है। इसलिए भाई-भौजाई की तरफ झुकाव ज़रा बढ़ गया है। गर्दन पर सवार होने की पेशगी नोटिस ! पिछले महीने अनुराधा के लिए फोम का एक बैग ख़रीद लाई थी। कुछ ही दिनों पहले, राजा के लिए एक टी-शर्ट लिए-दिए हाजिर ! वैसे वह टी-शर्ट खासा सस्ता-सा है। देखते ही अंदाज़ा लग जाता है, फुटपथिया माल है। बैग भी फुटपाथ से ही ख़रीदा है। उस टी-शर्ट की कीमत पचास-साठ से ज़्यादा नहीं होगी। बैग भी गया हद से हद चालीस रुपए का ! आजकल सात्यकी अच्छी-खासी कमाई है। उसकी जेब हर वक्त रुपयों से भरी हुई ! लेकिन लाजू की अभिरुचि का स्तर ज़रा भी नहीं बदला। हर वक्त उसकी नजर सस्ती-पस्ती चीज़ों पर; हूबहू अपने बाप जैसा स्वभाव !

ससुर जी की ज़ंदगी भी क्या ज़िंदगी थी।
‘‘खद्दर का कुर्ती और धोती पहनकर, जब मज़ेमज़े से ज़िंदगी गुज़र रही हो, तो चटखदारी की क्या ज़रूरत है, बहू ? बेवजह ऐश-विलास, ज़िंदगी को लालची बना देता है।’’

हुँहः निकम्मों की खोखली आवाज़ें। खुद जुटा नहीं पाए, तो दूसरे हासिल कर लें, उसमें दीवार बने खड़े रहेंगे।
प्रतिभा को कॉफी देकर, अनुराधा, बेटे के कमरे में दाखिल हुई, ‘‘लो, यह रही तुम्हारी दूध-कॉफी लो अब, ठंडा मत कर लेना।’’
गर्दन झुकाए-झुकाए ही, राजा फिक् से हँस दिया, ‘सिर्फ कॉफी ही लायी हो ?’’
‘‘मिठाई खाएगा ?’’
‘‘कौन-सी मिठाई ?’’
‘‘फ्रिज में एक पैकेट सरपुरिया रखा है। कल तेरे पापा लाए थे।’’
राजा ने नाक सिकोड़ी, ‘‘नहीं चलेगा ! एक टुकड़ा केक ही ला दो।’’
‘‘अभी केक खाएगा, तो रात को खाना खा सकेगा ?’’
‘‘भई, दस से पहले तो नहीं खाऊँगा न !’’
अनुराधा रसोई की तरफ जा रही थी। अचानक दरवाज़े की घंटी सुनकर, वह ठिठक गई। कहीं चंदन तो नहीं लौट आए। न्यू ईयर ईव से इतनी जल्दी छुट्टी मिल गई ?
दरवाज़ा खोलते ही, नुक्कड़ के दो-मंजिले घर का टुकुन ! इस बार, राजा के साथ ही माध्यमिक परीक्षा देनेवाला है ! राजा की पढ़ाई के वक्त अक्सर तपाक् से आ धमकता है।
अनुराधा ने होठोंपर नकली हँसी लाकर पूछा, ‘‘क्या बात है, रे ?’
‘‘राजा घर पर है मौसी ?’’
‘‘क्यों ? पहले यह बता।’’
‘‘राजा के सर, राजा के लिए ज्यामिति के कुछ सवाल हल करके रख गए हैं। राजा ने मुझे दिखाने का वादा किया था।’

अनुराधा को फैसला लेने में, जरा भी देर नहीं हुई, ‘‘राजा तो इस वक्त घर पर नहीं है रे ! अपनी बुआ के यहाँ गया है। ऐसा कर, तू बाद में आना।’’

शुक्र है, राजा का कमरा यहाँ से नजर नहीं आता है। अनुराधा ने लपककर दरवाज़ा बंद कर लिया। इस बच्चे की गलत-सलत आदतें किसी तरह भी छुड़ाई नहीं जा सकीं। बचपन से ही दानी कर्ण बना फिरता है। वह अपने बेटे को अच्छे से अच्छा टिफिन देती है और बेटा है कि एक सैंडविच, पेस्ट्री, सेव, संतरा, दोनों हाथों से अपने स्कूली दोस्तों में लुटा देता है। उसके पापा, उसके लिए पेंसिल-बॉक्स ले आए, बेटा है कि इत्मीनान से वह पेंसिल-बाक्स अपनी किसी सहपाठिन को थमा आया। चोरों जैसी पिटाई करने के बावजूद, उसे सुधारा नहीं जा सका। अरे, मुट्ठी भर रुपइय्ये देकर, तू प्राइवेट सर से पढ़ रहा है। उनके दिए हुए नोट्स, दोस्तों को देने की क्या ज़रूरत है ? इस दुनिया में सबसे ज़्यादा क़ाबिल बनने के लिए, यह बेहदजरूरी है कि दूसरों को हरगिज क़ाबिल न बनने दिया जाए। अनुराधा यह बात बेटे के दिमाग़ में किसी तरह भी नहीं भर पाई।


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