लोगों की राय

कहानी संग्रह >> सम्पूर्ण कहानियाँ

सम्पूर्ण कहानियाँ

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6099
आईएसबीएन :9788126713677

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

288 पाठक हैं

प्रस्तुत पुस्तक प्रखर जनवादी चेतना के लेखक निराला की 25 कहानियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह है।

Sampoorna Kahaniyan-A Hindi Book by Suryakant Tripathi Nirala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

घृणा, तिरस्कार और प्रत्याख्यान। इस तरह बेअदबी का नतीजा हाथोंहाथ मिल जाता था। परन्तु आदत बुरी बला होती है। दूसरे, आशा इतने सहज ही क्यों छूटने लगी ! एक न हुई तो दूसरी अवश्य होगी। बस, इसी विश्वास से एक दूसरी मोटर पर नजर डालते। वहाँ से भी चोट खाकर वापस आना पड़ता। यदि कलि-महाराज समय के सम्राट न होते तो उस दिन आप जैसी मूसलाधार अग्निवर्षा हुई, उसे देखकर तो यही अनुमान होता कि आप भस्म हुए बिना हरगिज न बचते। आपके बाप-दादों के बड़े भाग्य थे जो सही-सलामत घर पहुँच गए। घर पहुँचते ही प्रेमपूर्ण मुझसे सारी विपत्तियों का बयान करने लगे। इतने में डाकियाँ चिट्ठी लेकर आया। एक पत्र प्रेमपूर्ण का भी था। लिफाफे के हस्ताक्षरों पर नजर पड़ते ही उनके चेहरे पर दूना रोशनी आ गयी। मैंने पूछा, ‘‘क्यों भई, क्या है जो मन-ही-मन खुश हो रहे हो ?’’

 

इसी पुस्तक से

 

सम्पूर्ण कहानियाँ

 

प्रखर जनवादी चेतना के लेखक निराला की 25 कहानियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इन कहानियों को रचना क्रम और प्रकाशन-क्रम से यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

निराला ने अपनी इन कहानियों में विषयवस्तु के अनुरूप ही कहानी का नया रूप गढ़ा है। वे कई बार संस्मरणात्मक ढंग से अपनी बात करते हैं, लेकिन अन्त तक आते-आते मामूली-से बदलाव से संस्मरण को कहानी में बदल देते हैं।

निराला के पहले चरण के उपन्यासों में जिस तरह कल्पना और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोध दिखाई देता है, वह अन्तर्विरोध उपन्यास की अपेक्षा इन कहानियों में ज्यादा तीखा है।

इन कहानियों में उनका गद्य हास्य का पुट लिये नई दीप्ति के साथ सामने आया है। जितना उसमें कसाव है पैनापन भी उतना ही है

सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा में प्रकाशित निराला की ये सम्पूर्ण कहानियाँ पाठकों को पहले की तरह ही अपनी ओर आकर्षित करेंगी।


प्रकाशक

 

प्रेमपूर्ण तरंग

 

बाबू प्रेमपूर्ण मेरे अभिन्न हृदय मित्र हैं। मेरे बी.ए. क्लास के छात्रों में आप भी सबसे वयोज्येष्ठ हैं। आपकी बुद्धि की नामतौल इस वाक्य से पाठक स्वयं कर लें कि जब मैं कॉलेज में भर्ती हुआ, तभी से आप कॉलेज की चौथे साल की पढ़ाई रट रहे हैं—गोया मेरे देखते-देखते बी.ए. की परीक्षा में तीन बार फेल हो चुके। किन्तु फिर भी आप प्रतिभा से प्रवंचित नहीं हैं। यदि किसी को उनकी प्रखरत की परीक्षा लेना हो तो उनसे वाद-विवाद और चाहे वितंडावाद तक करके देख ले। उनके वाग्वाणों के अव्यर्थ सन्धान से प्रोफेसरों के भी हाथ से पुस्तक छूट पड़ती है—मारे भय के या मारे क्रोध के—यह बतावें तो वही बता सकते हैं। प्रेमपूर्ण को ऐसे और भी अनेक गुणों से आप पूर्ण पाइएगा। इन्हीं कारणों से हम लोगों ने आप ही के सिर पर लीडरी का सेहरा बाँधा है। किसी भी पराक्रमी तर्क-शिरोमणि की क्या मजाल जो हमारे प्रेमपूर्ण जैसे वाकसिद्ध धुरन्धर विद्या-लवणार्णव के रहते छात्रालय के सरस्वती के सपूतों को नीचा दिखावे ! अगर कोई बुरी लत उनमें है तो वह है रोमेंस की तलाश। जब देखिए, आप रोमेंस के ही रहे ! फेल होने का यह भी एक मुख्य कारण है। हिना ‘रोमैंटिक’ नॉवल की कुछ पंक्तियों की आवृत्त किए रात को आपकी आँखें नहीं लगती। संक्षेप में, आप कई विचित्र भावों के आधार नहीं, पूर्णादार हैं। सबसे उल्लेखनीय कौतुक तो यह है कि प्राचीन काल के नामों की तरह ज्योतिर्विदों ने आपका नाम गुणानुसार ही रखा है। बिहारी सतसई के हर एक दोहे को अपने छात्र-जीवन में ही सार्थकता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। कदाचित आप हिन्दी लिखना जानते होते तो बिहारी सतसई तथा अपर श्रृंगारी कवियों की कृति पर सजीवल भाष्य लिख देते। फिर तो आपकी अनुदार मूर्ति से हिन्दी साहित्य का पिण्ड छुड़ाने कि लिए लोग हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के सभापति के आसन पर आपको प्रतिष्ठित करके सविनय कहते ही—खुलकर न सही, मन-ही-मन सही—कि ‘प्रभो, अब ‘दूरमपसर’ साहित्य का सत्यानाश खूब किया आपने, बस, अब कृपा कीजिए !’


हम लोग प्रेमपूर्ण जी की प्रेम-कथा सुनते-सुनते ऊब गए थे। बंकिम बाबू ने अपने उपन्यासों में किसी नायक को एक से अधिक नायिका नहीं दी; हाँ कहीं-कहीं अशुद्ध को विशुद्ध या विशुद्ध को अशुद्ध करने के विचार से उन्होंने एक नायिका को दो-दो नायकों के प्रेम के कटीले मार्ग पर चलाया है। (कदाचित एक नायिका के पीछे दो-दो नायकों को भी भिड़ाया है; हम इसकी कसम नहीं खाते। अस्तु) यही हाल शेक्सपीयर का भी है। परन्तु यहाँ तो एकमात्र नायक प्रेमपूर्ण के पास प्रतिदिन एक नई नायिका की चिट्ठी आती है। ताज्जुब तो यह कि इनकी सभी नायिकाएँ पढ़ी-लिखी होती हैं। किसी के पत्र में लिखा है—आपको देखकर जी व्याकुल है; किसी के पत्र में है—रात को नींद नहीं आती—करवटें बदलते-बदलते रात पार हो गई; किसी के पत्र में है—बिन देखे नहिं चैन। प्रेमपूर्ण से जब पूछिए कहाँ चले मेरे यार ? तब यही उत्तर सुनिए कि इससे मिलने जा रहा हूँ—उससे मिलने जा रहा हूँ—पत्र आया है। प्रमाणस्वरूप पत्र खोलकर दिखा देते। वे कोई ऐसे-वैसे प्रेमी नहीं हैं कि मुँह छिपाते, दिल के बड़े पाक-साफ हैं। उनका अधिकांश समय इस प्रकार प्रेंमिकाओं से मिलने में ही व्यतीत होता है। उनके फेल होने का यह एक गौरवपूर्ण कारण है।

आज सुबह को ही मैं माधुरी’ में प्रकाशित द्विवेदीजी का एक लेख पढ़ रहा था कि प्रेमपूर्ण हाथ कें चिट्ठी लिए आ पहुँचे। झुककर लेख का शीर्षक देखते ही कहा, ‘‘उँ:, क्या पढ़ते हो ! इस नीरस लेख में क्या रखा है ! जरा इधर देखो यह पत्र पढ़ो तो, वह सरस शैली है कि पढ़ते ही मुग्ध हो जाओगे।’ फौरन मेरी समझ में आ गया कि यह वही नित्य की क्रिया है। मैंने झुँझलाकर कहा, ‘‘जब तक मैं इस लेख को समाप्त नहीं कर लूँगा, तब तक तुम्हारी चिट्ठी नहीं पढ़ सकता; यह विद्वान का लेख छोड़ दूँ और तम्हारे पत्र में ‘किसके कलेजे में कटार भोंका’ देखूँ, क्यों न ?’’
लेख समाप्त करके प्रेमपूर्ण की चिट्ठी पढ़ने लगा। लिखा था :
‘जब से आपको देखा, तब से जी बेहाल है। यही आशा लगी है कि आप कब मिलेंगे। लिखने को तो बहुत जी चाहता है, परन्तु ज्यादा लिखूँगी तो आप भी क्या समझेंगे। लज्जावश हृदय के भाव प्रकट न कर सकी और प्रकट करना असम्भव भी है, आप सहृदय हैं, समझने में देर न होगी कि मैं किस हालत में हूँ। रथयात्रा के दिन बडा़ बाजार में मिलिए। अवश्य मिलिए, नहीं तो मैं जान पर खेल जाऊँगी। तरस-तरसकर मरने से एकदम कूच कर जाना कहीं अच्छा है।


मैं आपकी
तरंग’



पत्र को मैंने ध्यान से पढ़ा। मेरी दृष्टि अन्त की चार पंक्तियों में अटकी। देखकर प्रेमपूर्ण बोले, ‘‘यह सब इस देव-दुर्लभ सौन्दर्य की करामात है बच्चू, समझे ?’
मैंने पूछा और संग का असर बड़े-बड़े पर पड़ जाता है—कि ‘‘क्योंकि, तुमने कहीं वशीकरण तो नहीं सिद्ध कर लिया ? क्या बात है तो तुम्हारे पीछे स्त्रियाँ इस तरह हाथ धो कर पड़ जाती हैं ? कुछ हमें भी सिखाओ, तुम्हारा बड़ा जस मानूंगा सच कहता हूँ !’’
प्रेमपूर्ण: ‘‘’क्या सिखावें ! तुम्हारे चेहरे पर कहीं लावण्य का नाम भी तो हो ! तुम्हें तो देखते ही ‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे’ की याद आ जाती है। अगर मेंरे तरह इस असार संसार में स्वच्छन्द विहार करना चाहो तो भरते जाओ रोमेंस के भाव, जब सिद्ध हो जाओगे तब तुम्हारा हृदय ही प्रेम का केन्द्र बन जाएगा। फिर तो चुम्बक पत्थर लोहे को—वह कहीं भी हो—आप खींच लेगा।’’
मैं : ‘‘ठीक है, तो सिद्ध कब तक हो सकूँगा ?’’
प्रेमपूर्ण : इसकी कोई मियाद नहीं। मेहनत जितनी ही करोगे। मजा भी उतनी ही चखोगे।’’
आज रथ यात्रा का दिन है। कॉटन स्ट्रीट की कौन कहे, सेन्ट्रल एवेन्यू में भी गाड़ियों का ताँता ही ताँता देख पड़ता है। फुटपाथ न होते तो आदमियों का चलना मुश्किल था। कितने ही लोग तो केवल इसी सुभीते के कारण भीड़ की जाँच-पड़ताल और अखबारों के लिए समाचार-संग्रह करना छोड़ सरकार की भरमुँह तारीफ करने लगे। अनेक को यह कहते सुना, ‘‘सर्कार दयालु, दानी, देता है दया से दान।’’ इस उच्छवासमयी कविता सुनते ही किसी समालोचक महोदय से न रहा गया, वे बोल उठे, ‘‘सर्कार’ की जगह यदि ‘सर्कर’ होता तो छन्द शुद्ध उतरता ‘सर्कार’ शब्द कानों को कोंचता है।

इधर प्रेमपूर्ण का और ही हाल था। पास तो उनके छदाम न था, लेकिन रोबदाब देखिए तो लखपति की भी शान को मात करते थे। वह ट्रेंगल्कट फैशनेबल बालों की बहार ! वह इलाहाबादी सिर पर लखनवी ठाठ-बाट से बनारसी टोपी ! आधुनिक सभ्यता के अदब से वह बैसाखी मुस्कुराहट ! नुकीली नाक पर वह चश्मा ! हरे-हरे ! हाथ में रिस्टवाच, पैरो में दिल्ली का कामदार जोड़ा; कहाँ तक लिखें, गोया आपके चेहरे पर प्राच्य और पाश्चात्य भाव एक-दूसरे से सप्रेम आलिंगन कर रहे थे। पीछे चोटी और आगे इंग्लिश फैशन ! उधर कानों के दोनों बगल के बाल नदारद और अधर मूँछें हवा में हिलोरें ले रही थीं।

बेचारे ने तमाम मेला छान डाला पर कहीं कोई नहीं। किसी की मोटर निकलती, बग्घी आती, तो आपके प्रेम-पिपासु नेत्र स्वागत के लिए बढ़ जाते। किसी महिला की मोटर किले के मैदान की ओर जाती तो आपकी मुरझाई हुई आशा की कली पर वासन्ती मलय का एक मधुर झोंका-सा लग जाता।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai