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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


राजेन्द्र के छलात्कार का नया शिकार बनी (बलात्कार जैसा जघन्य काम तो राजेन्द्र कभी कर ही नहीं सकते) मित्र के मन में अपने भावनात्मक लगाव का (जो कभी था ही नहीं) विश्वास जमाने के लिए जब राजेन्द्र ने उसके सामने अपने मन को उँडेलना शुरू किया तो यह प्रसंग तो आना ही था-पहला प्रेम और सबसे गहरा प्रेम तो मीता से-तो उसने छूटते ही पूछा, "फिर आपने मन्नूजी से शादी क्यों की ?” फिर वही ईमानदार स्वीकारोक्ति, “यह सही है कि प्रेम मेरा उसी से रहा पर घर बसाने के लिए वह ठीक नहीं थी क्योंकि वह बहुत ही दबंग, अक्खड़ और डॉमिनेटिंग है।" (इन तीनों विशेषणों पर तो पुरुषों का एकाधिकार है...ये ही तो उसके व्यक्तित्व में निखार लाते हैं पर इन्हीं विशेषताओं के चलते स्त्री तो साथ रहने लायक़ ही नहीं रहती। वाह रे स्त्री-विमर्श के पुरोधा !) लगाए गए इन तीनों विशेषणों में से एक भी मेरा नहीं है क्योंकि आश्चर्यजनक चाहे जितना लगे पर है तो यह सच्चाई ही कि मोहभंग होने के बाद राजेन्द्र की उस मित्र को अपना दुखड़ा रोने के लिए मेरी ही गोद मिली थी। रो-रोकर उसने जहाँ बहुत कुछ बताया था...यह बात भी बताई थी।

मैं तो एक बिलकुल दूसरे सन्दर्भ में लिखी राजेन्द्र की इस बात को भी इसी के साथ जोड़कर देखती हूँ। अपने आदिमानव पुरखे लंगूर की सुरक्षा भावना के प्रति उसकी सतर्कता का हवाला देकर राजेन्द्र कहते हैं- 'हर क़दम उठाते हुए मेरे मन में यह भाव बना रहता है कि लौटने का रास्ता कौन-सा है ? यह दूसरे पर अविश्वास नहीं, सुरक्षा की भावना से पैदा हुआ अवचेतन चौकन्नापन है-अपने ठिए पर लौट आने की सुरक्षा कामना।" राजेन्द्र चाहे इसे स्वीकार करें या न करें पर इस सच्चाई को वे भी जानते थे कि सुरक्षित ठिया उन्हें यह घर ही लगता था। और शायद इसीलिए मेरे बार-बार निर्णय लेने के बावजूद वे किसी न किसी बहाने से वापस लौट आते थे।

दूसरी बात-पहाड़ पर राजेन्द्र जब मीता के साथ शादी की तारीख तय करते थे तो जहाँ तक मेरा ख़याल है उस समय उसमें छल-कपट की भावना बिलकुल नहीं रहती होगी। पूरी ईमानदारी और दृढ़संकल्प के साथ ही वे यह निर्णय लेते होंगे। तब उनका तन-मन, दिल-दिमाग सब कुछ आसमान पर रहता था...हवा में उड़ता हुआ। उनके चारों ओर रहती होगी यथार्थ से कटी हुई एक निहायत रोमैंटिक दुनिया, प्रकृति का सौन्दर्य जिसे और भी रोमानी बना देता होगा। लेकिन लौटकर जैसे ही ये यथार्थ की कठोर भूमि पर पैर रखते इनका व्यावहारिक मन हिसाब-किताब की दुनिया में लौट आता। वात पैसे की नहीं पर हिसाब दूसरी तरह के भी तो हो सकते हैं, जैसे यही कि मन्नू जो भी है, जैसी भी है पर साहित्य की दुनिया में (जो इनकी अपनी दुनिया है) तो उसका नाम है, प्रतिष्ठा है। सबके मन में उसके लिए स्नेह भी है, सम्मान भी है। यह वह समय था जब मेरी क़लम और दिमाग में, हाल के इन पिछले कुछ वर्षों की तरह जंग नहीं लगा हुआ था बल्कि संयोग से मेरी रचनाएँ, फ़िल्में, नाटक सभी कुछ क्लिक भी कर रहे थे, और यह भी सही है कि इस सफलता और उससे मिलनेवाले यश से मुझसे ज्यादा प्रसन्न राजेन्द्र होते थे- 'मेरी बीवी मन्नू भंडारी !' अहंतुष्टि के पिपासु राजेन्द्र...फिर तो वह चाहे कहीं से मिले...किसी से मिले, इन्हें तृप्त तो करता ही था। अब ऐसी स्थिति में तुलना बहुत स्वाभाविक है। दो में चुनाव करना हो तो (विशेषकर लेखक के लिए) यह तुलना किसी को भी संकल्प से डिगा सकती है, फिर वह चाहे राजेन्द्र हों या कोई और। दाद तो आप राजेन्द्र के उस कौशल की दीजिए (मैं तो देती हूँ) जिसके सहारे इतने वर्षों तक समानान्तर ज़िन्दगी ही नहीं चलाते रहे बल्कि हम दोनों की इच्छा-आकांक्षाओं को ठेंगा दिखाकर अपने लिए हम दोनों से जो चाहा, पाते भी रहे।

यहाँ एक बात का और उल्लेख करना चाहूँगी। ये जब मीता के साथ पहाड़ पर रहते थे...अपने वर्चस्व के बोध से पूरी तरह छके हुए...एक कुंठाहीन पूर्ण-पुरुष की पताका फहराते हुए तो इन्हें वह समय अपने जीवन का 'वीरगाथा काल' प्रतीत होता था। यह विशेषण भी मेरा दिया हुआ नहीं है...इन्होंने खुद अपने जीवन के उस समय को व्याख्यायित करते हुए यह लिखा था। ऐसी बातें मेरे भेजे में तो आती ही नहीं। हाँ, इनकी लिखी बातों को जैसे-तैसे ढूँढ-ढाँढ़कर पढ़ लेने का गुर (आप चाहें तो गनाह कह सकते हैं) ज़रूर हासिल कर लिया था। अब अपने जीवन के वीरगाथा काल में रहना-जीना किसे अच्छा नहीं लगेगा ? पर दुर्भाग्य राजेन्द्र का...उनका यह वीरगाथा काल अचानक पराजय-काल में बदल गया। राजेन्द्र परेशान, दुखी। फिर कुंठाएँ लिपटने लगीं इनके व्यक्तित्व में। स्वाभाविक भी था...पर अब करें भी तो क्या करें ? हाँ, कोई साधारण सामान्य आदमी होता तो थोड़े दिन दुखी रहकर चुपचाप भक्तिकाल में प्रवेश कर जाता पर राजेन्द्र एक तो सामान्य साधारण व्यक्ति ही नहीं, दूसरे इन्हें तो भक्ति और भगवान के नाम से ही चिढ़, सो इन्होंने तो सीधे छलाँग लगाई रीतिकाल में। अब वहाँ जाने का हश्र क्या हुआ, इसके विस्तार में मैं बिलकुल नहीं जाऊँगी...जाने का कोई तुक ही नहीं। अब हिम्मत करके ये ही कुछ बताएँ तो बात दूसरी, पर ये तो करने का साहस ही रखते हैं, कहने का साहस तो इनमें बिलकुल नहीं, वरना अपने आत्मकथ्य में ही इस प्रसंग का थोड़ा-सा संकेत तो देते।

आत्मकथ्य की इसी क़िस्त में राजेन्द्र ने मुझमें भी न जाने कितनी विशेषताएँ गिना दी जैसे सहज, सरल, विश्वासी, उदार, मानवीय और फिर वही अपराधबोध से त्रस्त होने की बात। यानी कि मेरे प्रति भी थोड़ा-सा ऋणशोध (मेरा ऋण भी तो बहुत थोड़ा-सा ही था।) यह क्या हो गया है राजेन्द्र को ? उम्र के तक़ाज़े ने क्या सबके क़र्जे उतारकर ऋण-मुक्त होने की ओर धकेल दिया है ? क्या राजेन्द्र सचमुच यह समझते हैं कि आठ-दस पन्नों में लिखी अपराध-बोध की यह आत्म-स्वीकृति (चाहे कितनी ही ईमानदार क्यों न हो) किसी की पूरी ज़िन्दगी की कीमत चुका सकती है ? खैर, यहाँ तो मैं यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि राजेन्द्र के ऊपर कम से कम मेरा कोई ऋण नहीं है। जब साथ रहते थे तो मेरे पास भी उनके ख़िलाफ़ शिकायतों की लम्बी फेहरिस्त रहती थी...अलग होने के बाद भी कई दिनों तक मैं उन्हीं का ढोल पीटती रही, पर इधर कुछ समय से उनसे पूरी तरह उबरने के बाद मुझे लगने लगा है कि कैसा ऋण और कैसा अपराध-बोध ? राजेन्द्र ने जो भी किया...जैसा भी किया पर मुझे बाँधकर कैद तो नहीं कर रखा था। चलिए एक-दो बार उनके करुण-कातर आग्रह ने रोक भी लिया, पर फिर ? क्यों मैं सबके सामने एक सुखी-सन्तुष्ट गृहिणी का मुखौटा ओढ़कर यह सब झेलती रही, जिसे किसी भी स्त्री के लिए झेल पाना बहुत दुष्कर है ? न मैंने राजेन्द्र का दिया कभी खाया...न पहना बल्कि घर और बच्ची की सारी ज़िम्मेदारियाँ भी मैं खुद ही ढोती रही।

उन दिनों अक्सर मैं अपने आपसे पूछा करती थी कि किशोरावस्था में मेरी जिन रगों में लावा बहता था, उनमें क्या अब निरा पानी बहने लगा है, जो मैं एक संवेदनशून्य ही नहीं बल्कि निर्मम और कठोर व्यक्ति के साथ रह रही हूँ। वैसे यह राजेन्द्र का स्वभाव बिलकुल नहीं है, न ही इनके व्यक्तित्व की विशेषता, बस साथ रहने के दौरान मेरे सन्दर्भ में यह इनकी मजबूरी थी। जब से अलग हुई हूँ, इनका सारा व्यवहार ही नहीं बदल गया बल्कि उसमें आत्मीयता का एक पुट भी आ मिला है। पर टूटी डोर के जुड़ने पर गाँठ तो पड़ती ही है, उसका तो अब ये भी क्या करें ? कई बार अलग-अलग लोगों ने भी अलग-अलग ढंग से यह बात मुझसे पूछी और अभी निर्मलाजी ने तो दो टूक शब्दों में ही पूछा था, “राजेन्द्र ने तो जो किया सो किया पर आप क्यों नहीं अलग हो गईं ?" हो सकता है कि आप भी एक यशस्वी, प्रतिभाशाली लेखक के मोह से मुक्त न हो पाई हों ? सुनकर क़तई धक्का न लगा क्योंकि इस सन्दर्भ में भी मैं भीतर तक अपना मन खंगाल चुकी हूँ और इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि यह मेरा मोह ही था...एक गहरा लगाव, पर व्यक्ति राजेन्द्र के प्रति, जिसमें उनका लेखक होना शुमार था पर यशस्वी होना क़तई नहीं। उनका यश चाहे जितना फैला हो, और जहाँ-जहाँ तक फैला हो, मैंने उस यश की सीढ़ी चढ़कर न तो अब तक अपने लिए कुछ पाया है, न चाहा है। इनके किसी भी सम्पर्क सम्बन्ध को अपने किसी लाभ या महत्वाकांक्षा के लिए आज तक जो कभी भुनाया हो। बल्कि मेरे ही एक-दो सम्बन्धों ने हंस के लिए राजेन्द्र की मदद ज़रूर की। अपनी रचनाओं की समीक्षा के लिए...पुरस्कारों के लिा या अन्य किसी उपलब्धि के लिए कभी इनके नाम की वैसाखी मैन नहीं लगाई...और बैसाखी तो तब लगाती जब मैं इन बातों के लिए प्रयत्न करती... समीक्षा छप गई, छप गई...नहीं छपी, नहीं छपी। इसे मेरा बड़बोलापन न समझा जाए तो कहूँगी कि सन् 70 से (आपका बंटी का धारावाहिक रूप से छपना) सन् 82 (महाभोज का मंचन) तक मेरे अपने नाम की काफ़ी धूम थी (और बिलकुल अपने बलबूते पर)। नाटक, फ़िल्म जिस दिशा में भी क़दम बढ़ाया सफलता ही मिली...यश ही फैला ! दो बार जर्मनी से निमन्त्रण मिला लेकिन वह भी बिलकुल-बिलकुल अपने बलबूते पर।

राजेन्द्र के यश को बुलन्दियों पर पहुँचाया है तो हंस ने ! हंस सन् 86 में शुरू हुआ था और शुरू के चार साल यानी 90 तक तो तरह-तरह के संकटों के चलते इसका टीदिंग-पीरियड ही रहा। इसके बाद हंस ने पैर जमाना शुरू किया और राजेन्द्र ने यश की सीढ़ियाँ चढ़ना। लेकिन मैं 92 में उज्जैन चली गई (बिलकुल अपने बलबूते पर) और दो साल बाद लौटकर इनसे अलग हो गई सो मैंने न तो इनके यश का कोई लाभ उठाया और न ही इनकी सम्पन्नता से अपने लिए कभी कुछ चाहा या लिया।

रही प्रतिभा की बात सो कई मुद्दों पर घोर असहमति के बावजूद उसकी तो मैं क़ायल रही हूँ। राजेन्द्र की अनोखे ढंग की अपनी मौलिकता (जो इन्हें हमेशा चर्चा के केन्द्र में रखने में पूरी तरह कारगर रहती है) और प्रतिभा और उस पर मुलम्मा चढ़ा देशी-विदेशी रचनाओं के विस्तृत अध्ययन का। विदेशी लेखक तो राजेन्द्र की ज़िन्दगी का मॉडल बने हुए हैं-ख़ासकर उनकी ज़िन्दगी का एक पक्ष। यह तो सभी मानेंगे कि अपने चिन्तन, मौलिक नज़गिा और बेहद प्रभावपूर्ण, पारदर्शी भाषा-शैली के कारण ही राजेन्द्र ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है।

जब मैं लिखा करती थी तो जैसे ही कोई आइडिया मेरे दिमाग में आता, मैं सविस्तार उसे राजेन्द्र को सुनाती...हर एंगिल से सुनाती-राजेन्द्र धैर्यपूर्वक सुन तो लेते पर हमेशा यही कहते कि तुम पहले पूरा लिख लो, तब सुनाना। इस तरह सुना-सुनाकर तुम लिख कैसे लेती हो ? नहीं जानती कि राजेन्द्र कभी समझ पाए या नहीं कि इस तरह सुनाना मेरी लेखकीय अनिवार्यता थी-राजेन्द्र की अनिवार्यताओं से कितनी भिन्न, कितनी निरामिष। इसके मूल में मुझे सुझाव सहयोग से कहीं अधिक अपेक्षा रहती थी आत्मविश्वास अर्जित करने की। मैं जानती हूँ कि शायद ही इस पर कोई विश्वास कर सकेगा कि मात्र सुना-सुनाकर कोई कैसे आत्म-विश्वास अर्जित कर सकता है...पर मेरी ज़िन्दगी की यह हक़ीक़त रही है। कैसी विडम्बनापूर्ण सच्चाई है कि राजेन्द्र के व्यक्तित्व का एक पक्ष जहाँ मेरी हीनता-ग्रन्थि पर परत-दर-परत चढ़ाकर मेरे आत्मविश्वास को खंडित करता रहा है, वहीं दूसरा पक्ष आत्मविश्वास अर्जित करने में सहायक ही नहीं रहा बल्कि लिखने के लिए मुझे बरावर प्रेरित-प्रोत्साहित भी करता रहा है। ये जब-तब मुझे हाँकते रहते थे कि मैं लिखने के प्रति गम्भीर क्यों नहीं हूँ। मेरी रचनाओं की पांडुलिपियाँ तो इन्हें कभी रिवाइज़ नहीं करनी पड़ी (लिखने से पहले में चाहे उसके बारे में कुछ भी बोलती-बतियाती रहती थी, पर पढ़ने के लिए तो अपना फाइनल ड्राफ़्ट ही देती थी) पर मेरी कई कहानियों और दोनों उपन्यासों के शीर्षक राजेन्द्र ने ही रखे हैं। इस कला में माहिर हैं राजेन्द्र और इसका उल्लेख मैं कई जगह कर भी चुकी हूँ। नई से नई पुस्तकों और पत्रिकाओं का आना, सभी तरह के साहित्यकारों के जमावड़े....उत्तेजक बहसें... गप्प-गोष्ठियाँ, मेरे जैसे लेखक के लिए बड़ा प्रेरक था यह वातावरण...मेरा मूल प्रेरणा-स्रोत। इसीलिए जब तक मेरे व्यक्तित्व का लेखक-पक्ष सजीव-सक्रिय रहा...चाहकर भी मैं राजेन्द्र से अलग नहीं हो पाई (पर मेरे सन्दर्भ में ये सारी स्थितियाँ उनके यश की बुलन्दी पर पहुँचने के पहले की हैं...बाद में तो सब कुछ हंस के ऑफ़िस में होने लगा था)। राजेन्द्र की हरक़तें मुझे तोड़ती थीं तो मेरा लेखन, उससे मिलनेवाला यश मुझे जोड़ देता था। लेकिन जैसे-जैसे मेरा लेखक निर्जीव और निष्क्रिय होता गया, मेरे भीतर की स्त्री सजीव होती चली गई; अपना पूरा वजूद पाते ही उस स्त्री के लिए न साथ रहना सम्भव रह गया था, न उस सम्बन्ध को निभा पाना-सो वह साथ
छूटा-सम्बन्ध टूटा। पर इसमें कोई सन्देह कि अगर मैं राजेन्द्र के साथ रही तो उनके प्रति अपने गहरे लगाव के कारण रही और यदि अलग हुई तो अपनी मुक्ति के लिए। इसलिए राजेन्द्र के ऊपर मेरा न कोई ऋण है और न ही मैं किसी प्रकार के ऋण-शोध की अपेक्षा करती हूँ।

हाँ, अब जब ऋण की बात चल ही पड़ी है तो एक-दो बातों का उल्लेख ज़रूर करना चाहूँगी, पर नहीं जानती कि ये ऋण के खाते में आएँगी या अधिकार के ? 1960 में एक इंच मुस्कान के लिए अपने पूरे लिखे उपन्यास की थीम देने में मेरा मन तो बहुत कसमसाया था पर उस समय क्योंकि मेरे ऊपर राजेन्द्र को उस 'ब्लैक स्पॉट' से (जो ब्लैक तो कहीं से था ही नहीं बल्कि इनकी ज़िन्दगी का सबसे 'पिंक स्पॉट' था) उबारने का मूर्खतापूर्ण भूत सवार था, सो राजी हो गई। अब चाहे मेरी सहमति से ही लिया गया था पर उपयोग तो मेरी थीम का ही हुआ था न। लेकिन खैर, यह गलती तो मेरी अपनी ही थी सो इसके लिए किसी और को दोष क्यों दूँ ? हाँ, सन् 62 में आगरा में राजेन्द्र की छोटी बहिन की शादी निपटाकर मैं तो अपने कैंसर-ग्रस्त पिता को देखने इन्दौर गई और राजेन्द्र ने पहाड़ पर जाने का कार्यक्रम बचा लिया (इस प्रसंग का असली और पूरा ब्योरा तो मैं कभी नहीं लिख पाऊँगी, सिवाय इस कसक के कि राजेन्द्र की मानसिकता के कारण यदि मैं अपनी इकलौती बिटिया के जन्म की कोई खुशी नहीं मना पाई थी तो इनकी इस करतूत के कारण उसे अपने पास रखकर उसका पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाई)। अब बहिन की शादी पर खर्च करने का सारा जिम्मा तो राजेन्द्र ने मुझ पर डाल दिया पर पहाड़ पर जाने के लिए तो उन्हें अपने बूते पर ही पैसा जमा करना था सो उसके लिए उन्होंने क्या किया कि 'अकेली' और 'एक पुरुष, एक नारी' नाम से छह-छह कहानियों की दो पॉकेट-बुक्स तैयार की, जिसमें तीन-तीन कहानियाँ मेरी और तीन-तीन कहानियाँ अपनी डालीं-दिल्ली जाकर प्रकाशक से अग्रिम लिया और वहीं से पहाड़ के लिए प्रस्थान। मेरी कहानियाँ लेने के लिए मुझसे पूछना तो दूर मुझे बताया तक नहीं...यह तो मुझे बहुत बाद में मालूम पड़ा ! इसी तरह ‘गर्दिश के दिन' स्तम्भ के लिए लिखी अपनी कहानी ‘यहाँ तक पहुँचने की दौड़' (जिसकी बहुत प्रशंसा भी हुई थी) का केन्द्रीय भाव, कसौली जाकर लिखे गए मेरे अधूरे उपन्यास से ज्यों का त्यों ले लिया। कसौली से आते ही अपनी आदत के अनुसार मैंने जो भी लिखा, राजेन्द्र को सुनाया। आज भी मेरी डायरी में वह अधूरा उपन्यास लिखा पड़ा है। बात को स्पष्ट करने के लिए मैं यहाँ संक्षिप्त प्रसंग के साथ वे चन्द पंक्तियाँ ज्यों की त्यों उद्धृत कर रही हूँ।

प्रसंग है लम्बे समय से ख़ामोश बैठे एक ख्यातिप्राप्त लेखक के साक्षात्कार का। साक्षात्कारकर्ता के पूछने पर कि पिछले अनेक वर्षों से लेखन से इतर भूमिकाएँ निभाते हुए, वह कहीं अपने को लक्ष्य-भ्रष्ट तो महसूस नहीं करता ? लेखक उत्तर देता है-“मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ अपने उस प्रतीक्षित क्षण तक पहुँचने के लिए ही कर रहा हूँ। इस सबमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। बस समझ लीजिए कि एक भूमिका मिली हुई है, जिसे अपनी इच्छा के विरुद्ध भी मुझे अदा करना ही है लेकिन मैं कुछ भी करूँ आज तक यह स्थिति कभी नहीं आई कि अपने को लक्ष्य-भ्रष्ट महसूस करूँ।" अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए वह एक रूपक बाँधता है- “जैसे युद्ध के दौरान गोलियों की भयंकर बौछार के बीच एक बाप अपने बेटे को छाती से चिपकाए दौड़ता रहता है-नदी, नाले, जंगल, पहाड़ पार करता रहता है। गोलियाँ दनदनाती रहती हैं और वह दौड़ता रहता है...दौड़ता रहता है, प्राणों से प्यारे अपने बेटे को छाती से चिपकाए हुए...उसे बचाने के प्रयास में प्राणपन से जुटा हुआ...'' इस रूपक को बीच में ही ध्वस्त करते हुए साक्षात्कारकर्ता का यह प्रश्न- 'कभी ठहरकर देखता भी है कि जिस बच्चे को बचाने के लिए वह इतनी दौड़धूप कर रहा है-यों लहूलुहान हो रहा है...गोलियों की भयंकर बौछार के बीच वह बच्चा बचा भी है या नहीं ? बच्चे के भ्रम में वह कहीं उसकी लाश को ही तो उठाए नहीं फिर रहा?" लेखक को हतप्रभ कर देता
है।

जिन्होंने भी ‘वहाँ तक पहुँचने की दौड़' पढ़ी है, वे इतना तो ज़रूर मानेंगे कि कहानी चाहे जितनी लम्बी हो, उसका केन्द्रीय भाव लेखक के द्वारा बाँधे गए इस रूपक और साक्षात्कारकर्ता के उत्तर पर ही आधारित है। हाँ, बच्चे की जगह गुड्डी कर दिया गया है (स्त्रीलिंग राजेन्द्र की मजबूरी तो है ही, यहाँ उसका एक विशेष प्रयोजन भी था-इसी बहाने मीता तक अपनी अन्तरंगता का सन्देश पहुँचाना)। बाक़ी सारा विस्तार, युद्ध के सारे वर्णन राजेन्द्र के अपने हैं, जिसे बड़े कलात्मक कौशल से इन्होंने रचा है। अब राजेन्द्र की इस हरक़त को आप किस खाते में डालेंगे यह मैं आप लोगों पर ही छोड़ती हूँ।

आत्मकथ्य में अपने सिद्धान्तों का जो ब्योरा प्रस्तुत करते रहे हैं राजेन्द्र, उनके ही व्यवहार से उनका खोल उतारने का सिलसिला मैं इन्हीं दो प्रसंगों से शुरू कर स इसलिए इन्हें जरा अनावश्यक विस्तार दे दिया है। जिसने दूसरों को तो सम्बन्धों की सीमा में आनेवाले वाजिब अधिकारों तक को देने के लिए भी अपने चारों ओर ‘निषेध' की तख्तियाँ लगा रखी हो...कुछ भी देना जिसे अपनी स्वतन्त्रता का हनन लगता हो, वह कैसे बड़े सहजभाव से ऐसी गैर-वाजिब हरक़तों को भी अपना अधिकार समझ लेता है ?

वैवाहिक सम्बन्ध की गरिमा का निर्वाह न कर पानेवाले व्यक्ति के लिए विवाह-संस्था के विरुद्ध झंडा उठाए फिरना वाजिब ही नहीं, अनिवार्य भी है। लेकिन फिर विवाह किया ही क्यों ? यदि मीता ने विवाह से इंकार करके परिणीता बनकर रहना स्वीकार नहीं किया तो इतना आहत होने की ज़रूरत ? बार-बार विवाह का आश्वासन देकर डिच करने पर अपराध-बोध से त्रस्त होने का औचित्य ? सम्बन्ध तो चल ही रहे थे-बस, जिस विवाह में विश्वास नहीं, केवल वही तो नहीं किया था ? जिसे घर हमेशा बंधन लगता रहा हो, उसे घर से मिलनेवाली सारी सुविधाओं की अपेक्षा ही नहीं रही बल्कि उनका वह उपभोग भी करता रहा। लेखन के नाम पर हमेशा जिसके पास स्वतन्त्रता की एक लम्बी फेहरिस्त रही हो...अपनी ज़रूरत, सुख-सुविधा के हिसाब से जिसने उसका खुलकर उपयोग भी किया, वह कितनी सहजता से भूल जाता है कि उसकी पत्नी भी लेखिका है। नौकरी करना जिसे अपनी स्वतन्त्रता का तो हनन लगता रहा हो, पर अपनी लेखिका पत्नी के लिए कैसे बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नौकरी करना उसकी मजबूरी बना दिया। बिना मुझे कुछ बताए, मुझसे सलाह लिए अक्षर प्रकाशन की चुनौती इन्होंने स्वीकार की पर उसका कितना बोझ मुझे ढोना पड़ा और मैंने ढोया। पर मैंने अपने अधिकार की सीमा में भी अगर कुछ चाहा तो यह इन्हें अपनी स्वतन्त्रता का हनन लगने लगता। वाह रे इनकी स्वतन्त्रता, इनका लेखन और इनकी इनसानियत ! खैर, छोड़िए इन प्रसंगों को...क्या-क्या गिनाऊँ और कहाँ तक गिनाऊँ ? मैं जानती हूँ कि अपनी हर गलती और कमी को ढंकने के लिए शाब्दिक चमत्कारों में लिपटे सिद्धान्तों के ये ऐसे टोटके हैं, जिनका जादू सब पर चलेगा और ऐसा चलेगा कि सब वाह-वाह कर उठेंगे। आहत तो केवल वे ही हैं, जिन्होंने भोगा है। में यह भी जानती हूँ कि राजेन्द्र के पाठक-प्रशंसक, मित्र-परिचित शायद ही कोई मेरे इस लिखे को गले उतार पाए-जिसमें न शाब्दिक चमत्कार है न साहित्यिक-सौष्ठव बल्कि जो राजेन्द्र के व्यक्तित्व के उस पक्ष को उजागर करता है जिससे वे बिलकुल अपरिचित हैं। कौन जाने उन्हें विश्वास भी न हो। हो सकता है कि राजेन्द्र भी इससे काफ़ी आहत हों, लेकिन समय और स्थितियों ने जिन घावों पर पपड़ियाँ जमा दी थीं, उन्हें खुरचने की पहल तो राजेन्द्र ने ही की-अपने आत्मकथ्य में इस प्रसंग को उजागर करके, सो भी अपने नज़रिए से। ये शायद भूल ही गए कि खुरचे हुए घावों से तो केवल मवाद ही बहेगा !

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