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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...



पूरक प्रसंग

देखा तो इसे भी देखते...

[बहुत दिनों तक तो मैं इसी दुविधा में रही कि तद्भव में प्रकाशित राजेन्द्र के आत्मकथ्य के प्रत्युत्तर में छपे अपने इस लेख को एक कहानी यह भी में सम्मिलित करना क्या उचित होगा ? पर अन्ततः इसी नतीजे पर पहुँची कि उचित ही नहीं, अनिवार्य भी है यह। फिर एक बार जब छप ही गया तो संकोच भी कैसा ? अनिवार्यता थी तो केवल इस बात को लेकर कि तद्भव की प्रसार संख्या तो सीमित है और राजेन्द्र का आत्मकथ्य पुस्तक-रूप में (मड़-मुड़के देखता हूँ) छपकर अनेक पाठकों तक पहुंच चुका है। इस स्थिति में मुझे भी ज़रूरी लगा कि चाहे पूरक प्रसंग की तरह ही सही, पुस्तक-रूप में छपकर यह भी अनेक पाठकों तक पहुँचे और वे सब भी राजेन्द्र और मीता के सम्बन्धों के बीच मेरी सही स्थिति को जान-समझ सकें। सच पूछा जाए तो अपनी ज़िन्दगी के इन महत्त्वपूर्ण और अभिन्न प्रसंगों को समेटना तो मुझे अपनी कहानी में ही चाहिए था पर क्यों नहीं कर पाई, इसका उल्लेख भी मैंने इसी में कर दिया है !]

प्रत्येक व्यक्ति की ज़िन्दगी में अपने अन्तरंग सम्बन्धों के कुछ निजी पन्ने होते "हैं-इतने निजी कि उनकी यह निजता ही उन्हें जग-ज़ाहिर करने में बाधक वन जाती है। सम्बन्ध यदि सहज, सरल, इकहरे और आमीय हों तो बाधा या तो संकोच की रहती है या सम्बन्धों की गरिमा की...लेकिन सम्बन्ध जब अनेक परतीय ही नहीं, छल और झट के गड्ढों से भी भरे हा हों तो उन्हें उजागर करने में बात औचित्य के सीमा-उल्लंघन की भी जड जाती है। अपनी कहानी लिखते समय उचित-अनुचित का यही द्वन्द्व मुझे उन प्रसंगों को समेटने से रोकता रहा...हाँ, कहीं-कहीं मैंने उन्हें समेटा ज़रूर है पर बहुत ही सांकेतिक ढंग से; यह तो राजेन्द्र के आत्मकथ्य मड़ मुड़कं देखता हूँ के आने पर में इस द्वन्द्व से मुक्त हुई। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गजेन्द्र ने बड़ी ईमानदारी और साफ़गोई से अपनी ज़िन्दगी के सबसे निजी और सबसे महत्वपूर्ण उस प्रसंग को भी उकेरा है, जिसका सीधा सम्बन्ध मुझसे भी रहा है। जिन्दगी शुरू करने के साथ ही समानान्तर जिन्दगी की जो अवधारणा इन्होंने मुझ पर थोपी थी, और मुझे लग तो तभी गया था कि इसके मूल-स्रोत तो कहीं और ही हैं (जिसका उल्लेख मैंने अपनी कहानी में किया भी है), इस प्रसंग के द्वारा उन्होंने इसे केवल स्वीकार ही नहीं किया बल्कि अपने उस अन्तर्द्वन्द्व और परेशानी को भी रेखांकित किया है, जिसके चलते ये कभी इकहरी ज़िन्दगी जी ही नहीं सके।

आश्चर्य तो मुझे इस बात पर है कि आत्मविश्लेषण करते समय गजेन्द्र ने बड़ी ईमानदारी और निर्ममता से अपनी कमजोरियों, खूबियों-ख़ामियों और अपने आग्रह-दुराग्रहों का ब्योरा तो प्रस्तुत किया पर बड़ी होशियारी से उन प्रसंगों को अनदेखा ही छोड़ दिया, जिन्होंने राजेन्द्र को दोहरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर किया। शुरू से इनका प्रेम मीता से रहा तो फिर में बीच में कहाँ से आ गई और क्यों आ गई ? और तब मुझे लगा कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए मुझे उन सारे प्रसंगों को उजागर करना ही चाहिए। हालाँकि उन वेहद अपमानजनक स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत करना, सबके बीच अपने को नंगा करके खड़ा करने जैसा ही था और कम कठिन काम भी नहीं था यह मेरे लिए, लेकिन जब राजेन्द्र ने बिना यह सोचे कि मुझ पर क्या गुज़रेगी, इसे कर ही दिया तो फिर मैं भी किस दुविधा से ग्रस्त रहती...किस संकोच में बँधी रहती। अब कम से कम ज़बरदस्ती दो के बीच में दरार डालकर इन दोनों को अलग करने के अपयश से तो अपने को बचाऊँ ! इन दो प्रेमियों के अलगाव के मूल में मेरी किसी तरह की कोई भूमिका नहीं है...न ही किसी तरह की मेरी कोई ज़िम्मेदारी है...ज़िम्मेदार अगर कुछ है तो राजेन्द्र का झूट में लिपटा, निहायत अनैतिक (कम से कम मेरी दृष्टि में) व्यवहार ! साथ ही कहीं-कहीं राजेन्द्र के अन्तर्द्वन्द्व को सुलझाने और इनकी कुछ स्थापनाओं, मान्यताओं के असली रूप को उजागर करने की कोशिश भी करूंगी !

उचित-अनुचित के द्वन्द्व से मुक्त होकर यह सब लिखने के लिए मैंने अपने को तैयार तो कर लिया पर कुछ प्रसंगों के विस्तृत ब्यौरे तो अभी भी नहीं लिख पाऊँगी। कारण -पता नहीं, साहस की कमी या शालीनता का प्रतिबन्ध (यह सब लिखने के बाद वह अभी भी बच रह जाएगी क्या ?)।

खैर, राजेन्द्र के छोड़े हुए अन्तरालों को भरने के लिए मुझे घटनाओं और ब्योरों की सपाट-बयानी का ही सहारा लेना पड़ा है इसलिए इसमें आपको वह गहराई तो कहीं नहीं मिलेगी, जिसने राजेन्द्र के इस आत्मकथ्य को मात्र एक आत्म-स्वीकृति ही नहीं बल्कि एक साहित्यिक कृति भी बना दिया है। मुझे तो इस सन्दर्भ में केवल अपना पक्ष रखना है। अब क्योंकि मैं उन सारी स्थितियों से पूरी तरह उबर गई हूँ इसलिए कभी जिन प्रसंगों की चर्चा मात्र मुझे गहरे अवसाद से भर देती थी... उन पर लिखते हुए आज तो कहीं-कहीं मसख़री का पुट भी आ गया है। हो सकता है कि किसी को इसमें प्रतिशोध की गन्ध आए तो किसी को Selfjustification की। यह अधिकार तो पाठकों का है ही...मझे अगर कुछ कहना है तो केवल इतना कि मैंने जो कुछ भी लिखा उसकी एक-एक बात, एक-एक ब्योरा, यहाँ तक कि एक-एक पंक्ति तक विलकल सही है।

सबसे पहले तो वह प्रसंग जिसने समानान्तर ज़िन्दगी का यह सिलसिला शुरू किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजेन्द्र और मैंने अपनी मित्रता के निकटता में बदलते ही अपने-अपने प्रेम-प्रसंग का जिक्र किया था, इस आश्वासन के साथ कि वह पूरी तरह समाप्त हो चुका है और हम ख़ाली स्लेट लेकर ही एक दूसरे के निकट आए हैं। परिवार में, मित्रों में अनुमान तो सबको था ही फिर भी प्रतीक्षा थी उस विन्द की, उस निर्णय की जहाँ पहुँचकर वे भी आश्वस्त हा लें और वह बिन्दु आया उस दिन, जब राजेन्द्र ने सुशीला के सामने मेरा हाथ पकड़कर कहा- “सुशीलाजी, रम्म-रिवाज़ में तो मेरा बहुत ज्यादा विश्वास नहीं पर वी आर मैरिड ! लेकिन साथ रहना शुरू करने से पहले मुझे अपना आर्थिक आधार तैयार करने को अब दिल्ली तो जाना होगा !" दिल्ली जाने की बात उन्होंने मुझे पहले भी बता रखी थी और वे दिल्ली चले गए। (इसका हवाला तो मैंने अपनी कहानी में दे रखा है।) कोई तीन-चार महीने बाद टाकौर साहब ने आगरा जाकर यह सूचना केवल राजेन्द्र के परिवारवालों को ही नहीं बल्कि सारे आगरावालों को सुना दी। जो मीता कलकत्ता में राजेन्द्र के विवाह के प्रस्ताव को केवल ठुकरा ही नहीं चुकी थी बल्कि आगरा लौटकर पत्र में भी साफ़ लिख दिया था कि तुम्हारी परिणीता बनकर रहना मेरा स्वप्न नहीं है और इससे आहत होकर माँगने पर राजेन्द्र के सारे पत्र लौटाकर अपनी अस्वीकृति पर मोहर भी लगा चुकी थी (यह प्रसंग राजेन्द्र के आत्मकथ्य में वर्णित है), यह खबर सुनकर अपने निर्णय से केवल डगमगायी ही नहीं बल्कि दिल्ली जाकर राजेन्द्र से मिलने का सिलसिला शुरू कर दिया। परिणाम यह हुआ कि पुराना अध्याय फिर से खुला (जिसके लिए राजेन्द्र भी उतने ही जिम्मेदार हैं...हो सकता है कि कुछ ज़्यादा ही हों !) और इतनी शिद्दत के साथ खुला कि सितम्बर के महीने में राजेन्द्र ने उसका हाथ पकड़कर भी कह दिया- "वी आर मैरिड !'' (इस सारे प्रसंग पर अपने को मीता की जगह रखकर मैंने ‘एक बार और' और 'स्त्री सुबोधिनी' नाम से दो कहानियाँ भी लिखी थीं।)

इस सारी स्थिति से बिलकुल अनजान अक्टूबर के महीने में मैं और सुशीला दिल्ली आए ! सुशीला पिताजी से मेरे और राजेन्द्र के बारे में बात करने के लिए अजमेर जानेवाली थी और मैं बड़ी बहिन के पास इन्दौर। सारी बात को अन्तिम रूप देने के लिए सुशीला ने राजेन्द्र से कहा- “राजेन्द्रजी, अब शादी की तारीख ही तय कर डालते हैं, जिससे मैं पिताजी से बात करने की बजाय उन्हें सीधे शादी की सूचना ही दे दूंगी। तारीख की बात राजेन्द्र ने टालटूल दी और सुशीला उसी रात अजमेर के लिए रवाना हो गई। दूसरे दिन मैं राजेन्द्र से मिलने गई तो वे मुझे बहुत उखड़े-बिखरे और परेशान-से लगे। मूर्खता मेरी कि मैं उनकी इस मानसिक स्थिति को उनके काम न मिलने के साथ जोड़ती रही और उन्हें बराबर समझाती रही कि आर्थिक स्थिति को लेकर वे क्यों परेशान होते हैं ? कलकत्ता में आखिर वे रह ही रहे थे...मेरे पास भी एक नौकरी है ही, हमारी गृहस्थी तो इसी से चल जाएगी। मैं और भी जाने क्या-क्या बोलती-बतियाती रही...अपने लिखे उपन्यास के बारे में चर्चा करती रही और राजेन्द्र सब सुनते रहे, पर उनकी अपनी ज़िन्दगी में क्या कुछ घट गया है इसके बारे में वे कुछ नहीं बता पाए और तब यह ज़िम्मेदारी उन्होंने राकेशजी को सौंपी। रात को मुझे फ़ोन पर बताया कि कल सवेरे का नाश्ता राकेश के यहाँ करना है सो तैयार रहना, मैं लेने आऊँगा।

दूसरे दिन मुझे राकेशजी के यहाँ छोड़कर चिट्ठी डालने के बहाने राजेन्द्र बाहर चले गए। घंटे-डेढ़ घंटे तक राकेशजी जाने क्या-क्या कहते समझाते रहे पर उनकी हर बात का तोड़ एक ही जगह पर होता-“मन्नू, तुमको लेखक से शादी करने की बात ही दिमाग से निकाल देनी चाहिए। हम लोगों का क्या है, आज घर हैं तो कल फुटपाथ पर बैठकर रुमाल भी बेचने पड़ सकते हैं (सारी बातचीत में से मुझे केवल यह वाक्य जस का तस याद है) आज खाना है तो कल लंघन भी करना पड़ सकता है। निहायत अनिश्चित, अस्थिर जिन्दगी के साथ बँधकर तुम कभी सुखी नहीं रह सकोगी।” पर मुझे तो इस तरह की सारी बातें अपने लिए चुनौती लगतीं जो मेरे संकल्प पर एक परत और चढ़ा देतीं। राकेशजी से भी मैंने यही कहा था कि रोमेंटिक दुनिया में रहनेवाली सोलह साल की उम्र मैं बहुत पीछे छोड़ चुकी हूँ। ठेठ यथार्थ की भूमि पर खड़े होकर ही मैंने यह निर्णय लिया है क्योंकि अब मुझे ज़िन्दगी से जो चाहिए, वह एक लेखक के साथ ही मिल सकता है। और भी जाने क्या कुछ तो कहा था, वो सब तो अब याद भी नहीं लेकिन इस प्रायोजित मुलाक़ात का असली मकसद साफ़-साफ़ शब्दों में न राकेशजी बता पाए, न ही मैं अन्दाज़ लगा पाई!

रात को स्टेशन पर गाड़ी चलने से पहले राजेन्द्र ने झिझकते हुए इतना ज़रूर कहा था-"मैं सोच रहा हूँ कि पहले मीता सेटिल हो जाती तब मैं..." और बिना वाक्य पूरा किए ही वे चुप हो गए।

राजेन्द्र का चेहरा टटोलते हुए अपार आश्चर्य से मैंने पूछा- “अरे, अब यह प्रसंग कहाँ से उठ आया ?" तो उन्होंने इतना ही कहा-“नहीं, पर आखिर इतने वर्षों की मित्रता थी हमारी सो लगता तो है ही कि..." और बात फिर वहीं छोड़ दी ! पर इस ‘लगता तो है ही' की डोर पकड़कर राजेन्द्र मीता के साथ सम्बन्धों के किस छोर तक जा पहुँचे हैं, यह तो वे बता ही नहीं पाए। क्यों ? हिम्मत की कमी...अपने ही दिए वचन को तोड़कर मुझसे आँख मिलाने की शर्म...मुझ पर होनेवाली त्रासद प्रतिक्रिया को झेल पाने की असमर्थता या कि जैसा अर्चना ने लिखा, 'कटु वात न कर पाने की करुणामय दुर्वलता'-नहीं जानती। पर कैसी थी यह करुणा जो सारी ज़िन्दगी एक ख़ास तरह की क्रूरता में प्रतिफलित होने के लिए अभिशप्त थी !

अजीब थी वह यात्रा भी। गाड़ी आगे को दौड़ रही थी और मन पीछे दौड़कर ढाई वर्ष की उस मित्रता के पन्नों को पलट रहा था, जिसने ‘वी आर मैरिड' की परिणति तक पहुँचाया था। मेरा विश्वासी मन मानने को तैयार ही नहीं था कि दिए हुए इस वचन के इधर-उधर अब कुछ और भी हो सकता है। ऐसी बातों पर तो कई बार चर्चा होती थी और राजेन्द्र भी अच्छी तरह जानते थे कि मैंने उनके लेखकीय व्यक्तित्व से घर-परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने की अपेक्षा कभी नहीं की....ऐश-आराम, धन-दौलत की भी नहीं की थी...चाहा था तो एक अटूट विश्वास, एक निर्द्वन्द्व आत्मीयता और गहरी संवेदनशीलता जिसके चलते हम खुब लिख सके...एक से एक अच्छी रचना का सृजन कर सकें। पर चलते समय के राजेन्द्र के अन्तिम वाक्य ने...दो दिन की उनकी उखड़ी-बिखरी मानसिकता ने-जो अब कुछ नए अर्थ ध्वनित करने लगी थी-मेरे मन में शंकाओं का अम्बार-सा लगा दिया।

इन्दौर पहुंचते ही मैंने राजेन्द्र और राकेशजी दोनों को पत्र लिखे-अपना संशय और अपनी मानसिक स्थिति को उजागर करते हुए। राकेशजी का उत्तर तो तुरन्त मिला। उन्होंने क्या लिखा था सो तो बिलकुल याद नहीं पर उसका अहसास अभी भी कहीं मन में बाक़ी है-स्नेहिल, सहलाता हुआ। पर मैं ऐसे पत्र की उम्मीद तो राजेन्द्र से कर रही थी...कुछ तो ऐसा लिख दें, जिससे मेरे मन के सारे सन्देह संशय एक झटके से दूर हो जाएँ...वरना इन्दौर में दिन गुज़ारना तो क्या, साँस लेना तक जैसे मुझे भारी पड़ रहा था। तीन-चार दिन बाद राजेन्द्र का पत्र मिला, पर उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था...क्या था सो भी याद नहीं सिवाय इस सूचना के कि वे इलाहावाद होते हुए कलकत्ता जा रहे हैं। कोई बारह-पन्द्रह दिनों बाद सुशीला का पत्र मिला कि मैं तुरन्त कलकत्ता पहुँचूँ...शादी की तारीख तय करनी है। इसी आशय का एक पत्र ठाकोर साहब का भी मिला तो मन के सारे संशय झर गए....अपने ऊपर ग्लानि भी हुई...क्यों बेकार की बातें सोचकर परेशान होती रही...अविश्वास के घेरे में लेकर किसी के बारे में भला-बुरा सोचती रही !

मैं कलकत्ता लौटी तव भी मुझे इस सच्चाई से अवगत नहीं कराया गया कि शादी का यह निर्णय अन्ततः टाकौर साहब ने लिया है। वेहद बेहद द्वन्द्वग्रस्त स्थिति में राजेन्द्र कलकत्ता आए और यह जिम्मा ठाकौर साहब को सौंपा गया...इस बार मन्नू को बुलाकर बदली हुई स्थिति की जानकारी देकर उसे समझाने-सँभालने का नहीं बल्कि शादी किससे की जाए इस बात का निर्णय लेने का। वैसे तो ठाकौर साहब ने अपनी ओर से बहुत-बहुत तटस्थ होकर ...सारा आगा-पीछा सोचकर ही निर्णय लिया था, फिर भी उसके मूल में राजेन्द्र के भविष्य की चिन्ता के साथ-साथ मेरे प्रति उनका अगाध स्नेह भी रहा ही होगा। वहाहाल 22 नवम्बर को शादी हो गई (जिसका पूरा ब्योरा मैंने अपनी कहानी में दे रखा है)। पर मैंने देखा कि राजेन्द्र की मानसिक स्थिति अभी भी सामान्य नहीं है और मैं सोच ही नहीं रही थी बल्कि पूरी तरह आश्वस्त थी कि एक बार गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ेगी और निश्चिन्तता के साथ लिखना-पढ़ना शुरू हो जाएगा तभी इनके सिर से आर्थिक आधार का यह भूत भागेगा और ये सामान्य होंगे...पहले की तरह उत्साह से भरपूर ! मुझे क्या पता था कि इस मानसिक स्थिति के मूल में....

हम लोग आगरा पहँचे तो दरवाजे पर आरती उतारकर बहनों ने द्वार-रुकाई की रस्म करके अच्छी तरह बता दिया कि यहाँ इस शादी को लेकर पूरा उत्साह है। शाम को बीच आँगन में बाई (सास), बहनों और कुछ औरतों के बीच, पटरे पर बैठी, कुछ रस्में करवाती हुई में और जिस स्थिति की में दूर-दूर तक कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी, उस स्थिति से गुजरते हुए राजेन्द्र ! मीता की मित्र का कमरा...लगातार रोती हुई मीता...झूट, छल, प्रपंच के आरोपों की बौछार करती, धिक्कार भरी शब्दावली में फटकारती मीता की मित्र...मन में न जाने कितने तूफ़ानों की हलचल झेलते हुए भी निश्चल, निस्पन्द बैठे राजेन्द्र ! आख़िर कुछ देर बाद राजेन्द्र ने ही हिम्मत करके मीता के आँसू पोंछे और उसके हाथ में उम्मीद और आश्वासन का एक और पुर्जा थमाया... 'शादी मेंने ज़रूर मन्नू से कर ली है, पर नारा-तुम्हारा सम्बन्ध तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। शादी में वैसे भी मेरा कोई विश्वास नहीं...सो यह बन्धन मेरे-तुम्हारे बीच कभी वाधा नहीं बन सकंगा।" नहीं जानती दोनों सम्बन्धों को साथ चलाने की कौन-सी अवधारणा इनके मन में थी या कि एक सम्बन्ध को जोड़ते ही तोड़ने की कोई योजना थी या कि उसके आहत मन को सहलाने के लिए ऐसी ही कोई आश्वस्तिदायक बात कहना उस समय इन्हें बहुत ज़रूरी लगा हो।

रात को राजेन्द्र जब मेरे पास आए तो उनकी रगों में लहू नहीं, अपने किए का अपराध-बोध, मीता के आँसू और उसकी मित्र की धिक्कार-भरी फटकारें बह रही थी...बिलकुल ठंडे और निरुत्साहित। और फिर यह ठंडापन हमारे सम्बन्धों के बीच जैसे स्थायी भाव बनकर जम गया !

आज सारी बातों से उबरने के बाद, इस दृश्य की कल्पना करके मुझे कभी-कभी हँसी भी आ जाती है। आँगन में पटरे पर बैठी शादी की रस्में करवाती मैं और मीता के आँसू और उसकी मित्र की फटकारें झेलते सिर झुकाए बैठे राजेन्द्र। पर यह सब जब पहली बार जाना था...ओफ़, वह रात ! कलकत्ता में साथ ज़िन्दगी शुरू करते ही लेखन की अनिवार्यता और आधुनिकता के नाम पर समानान्तर ज़िन्दगी का नुस्खा ही नहीं पकड़ाया था राजेन्द्र ने बल्कि अपनी अल्मारी, बक्सों और दराज़ों के तालों की ऐसी चौकसी आरम्भ कर दी थी कि मेरा तो दम ही घुटने लगा था। नहीं, यह तो शादी के पहले वाले राजेन्द्र हैं ही नहीं। पहले कमरे पर जाने पर ऊप्मा में भरकर जो कभी-कभी बाँहों तक में समेट लेते थे...कमरे में जिनकी अल्मारी और दराजें ही खुली नहीं रहती थीं बल्कि बातों में जो अपना मन भी खोलते रहते थे (अपने स्वभाव के खुलेपन के कारण तब मैं ऐसा ही समझती थी, वरना राजेन्द्र तो मन की गत्थियों पर भी सत्तर ताले डालकर ही बैठते हैं)। नहीं, ये केवल लेखन का मामला नहीं है, कोई रहस्य है जो मुझसे छिपाया जा रहा है और औरत के मन में एक बार यदि सन्देह के अंकुर उग आएँ तो फिर कोई भी रहस्य बहुत दिनों तक रहस्य नहीं बना रह सकता।

राजेन्द्र तीन-चार दिनों के लिए बाहर जा रहे थे और जाने से कोई घंटा-भर पहले कैसे तो इनके एक 'खास' बक्से की चाबी मेरे हाथ लग गई। मैंने चुपचाप पलंग के नीचे रखे बक्से का ताला खोला...चाबी को उसी जगह सरकाकर इन्हें विदा किया। पत्रों और डायरियों से भरा वह बक्सा मेरे सामने खुला पड़ा था...सारी घटनाओं, स्थितियों, संवादों और मानसिक दशाओं के विस्तृत ब्योरों से भरी वह डायरी मेरे हाथ में थी। बहते आँसुओं के बीच मैं उसे पढ़ती जा रही थी और लग रहा था जैसे मेरे पाँव के नीचे की ज़मीन ही सरकती जा रही है। समानान्तर जिन्दगी के नुस्ख ने छत तो पहले ही अलग कर दी थी, अब ज़मीन भी खींच ली। इतना बड़ा धोखा....ऐसा छल...अब इस सम्बन्धहीन सम्बन्ध को लेकर कहाँ खड़ी रहूँगी...कैसे खड़ी रहूँगी...और खड़ी भी क्यों रहूँ ? नहीं, जो काम राकेशजी नहीं कर पाए...ठाकौर साहब नहीं कर पाए, उसे अब मुझे ही करना है।

राजेन्द्र को अपने से मुक्त कर देना है या फिर अपने को राजेन्द्र से मुक्त कर लेना है। कैसे बीते थे वो तीन-चार दिन ? आज मैं उन सारी स्थितियों से इस हद तक उबर चुकी हूँ कि अपनी उस मानसिकता का ब्योरा भी प्रस्तुत कर सकूँ, यह मेरे लिए सम्भव नहीं। यह भी याद नहीं कि राजेन्द्र के लौटने पर मैंने दुख और भर्त्सना की प्रतिमूर्ति बनकर किन और कैसे शब्दों में अपने आवेग की बौछार की थी। क्या कहकर मैंने वापस सुशीला के यहाँ लौट जाने का अपना निर्णय सुनाया था... याद है तो केवल इतना कि मेरी सारी बातें सुनकर राजेन्द्र औंधे लेटकर फूट पड़े थे... “मन्नू, यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा ब्लैक स्पॉट है...तुम्हीं मुझे इससे उबार सकती हो...देखो, तुम मुझे छोड़कर मत जाना...तुम मुझे छोड़कर नहीं जाओगी।...” कातरता में लिपटे, अन्तरात्मा से निकले इस आग्रह ने-जिसमें न झूठ की गन्ध थी, न छल का आभास...कैसे मेरे सारे संकल्प को बहा दिया।

सोचने पर आज तो यह भी लगता है कि कौन जाने तीन दिन तक ऊपर से भले ही मैं अपने संकल्प पर दृढ़ता की परतें चढ़ाती रही पर भीतर ही भीतर मैं भी तो ऐसे ही किसी बिन्दु की, छोर की, संकेत की प्रतीक्षा में ही थी-जिसे थामकर अपने संकल्प से डिग सकूँ। लेकिन बहुत बाद में मैंने मीता के एक पत्र में भी पढ़ा था-"जब-जब मैंने इस सम्बन्ध से मुक्त होने की कोशिश की तब-तब तुम इतने कातर, दयनीय और असहाय हो गए कि....(शब्द जस के तस याद नहीं पर भाव बिलकुल यही था) और अर्चना ने तो तद्भव में प्रकाशित राजेन्द्र पर केन्द्रित अपने लेख में इस बात की पुष्टि भी की है। मैंने अपने अलग होने का निर्णय सुनाकर राजेन्द्र से दो महीने के भीतर-भीतर फ़्लैट ढूँढ़कर शिफ्ट होने के लिए कह दिया था। इस निर्णय के कोई तीन-चार दिन बाद ही एक प्रकाशक मित्र ने राजेन्द्र के जन्मदिन का जो उत्सव आयोजित किया था, उसी प्रसंग में अर्चना ने लिखामेहमान जा चुके थे। लम्बी चुप्पी के बाद हंस के परिवारियों, साथियों से राजेन्द्र ने कहा-'बिलकुल अकेला हो गया हूँ...कम से कम तुम लोग मुझे मत छोड़ना।' पहली और अकेली बार इनकी इतनी करुणामयी, कातर आवाज़ मैंने सुनी...और राजेन्द्रजी की करतूत से असहमत होने के बावजूद उनकी असहायता के क्षण में सबके सब कुछ अधिक ही उदार और संरक्षणशील हो उठे थे और मैं खुद भी उनमें शामिल थी।"

क्या है राजेन्द्र के व्यक्तित्व का यह रहस्य, जिससे लोग उनकी खुराफ़ातों से असहमत होते हैं.....थोड़ा क्षुब्ध भी। पर सारी असहमति और विरोध के बावजूद न तो उनके प्रति कठोर हो पाते हैं, न कटु...उन्हें अपने से काटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरों की क्या कहूँ, पूरे पैंतीस साल तक मैं खुद उन्हें कहाँ काट पाई ? रहस्य की इस पड़ताल ने ही मुझे राजेन्द्र के व्यक्तित्व के एक बिलकुल दूसरे पक्ष और दूसरे छोर पर ला खड़ा किया। मुड़-मुड़के देखता हूँ के आत्मकेन्द्रित आलेखों की जिस बात ने सबसे अधिक मेरा ध्यान खींचा, वह है-घुमा-फिराकर तरह-तरह से अपने बहरूपिये होने की आत्म-स्वीकृति। यों तो हर व्यक्ति के भीतरी और बाहरी दो रूप होते हैं, फिर वह चाहे लेखक हो या सामान्य व्यक्ति। हाँ, यह ज़रूर होता है कि किसी के व्यक्तित्व के इन दो रूपों में बहुत-बहुत फ़ासला होता है, इतना कि यदि दोनों को सामने रख दिया जाए तो आप पहचान भी न सकें कि ये एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं और किसी के यहाँ बिलकुल नामालूम-सा फ़र्क होता है। मैं नहीं जानती कि कितने लोग अपने इन दो रूपों के प्रति सचेत भी होते हैं और होते भी हैं तो किस सीमा तक होते हैं लेकिन राजेन्द्र को तो जैसे इसका ऑब्सेशन जैसा है। कारण भी साफ़ है क्योंकि इनके दोनों रूपों में इतना अन्तर है (और जिसके प्रति राजेन्द्र पूरी तरह सचेत भी हैं) कि इनके बाहरी रूप को जाननेवाले (हंस के बाद जिनकी संख्या बढ़ती ही गई है) कभी विश्वास ही नहीं करेंगे कि इनके बहुत-बहुत भीतरी व्यक्तित्व का एक ऐसा भी हिस्सा है जो बहुत निर्मम, कठोर और अमानवीयता की सीमाओं को छूने की हद तक क्रूर भी रहा है और इसकी मार झेली है उन गिने-चुने लोगों ने जो बहुत अन्तरंग होकर उनके प्यार की सीमा में होने का भ्रम पालते रहे। वास्तव में राजेन्द्र के प्यार और अन्तरंगता की सीमा में कोई हो भी नहीं सकता, सिवाय खुद राजेन्द्र के, क्योंकि किसी को भी प्यार की सीमा में लेते ही अधिकार की बात आ जाती है, जो राजेन्द्र किसी को दे नहीं सकते...समर्पण की बात आ जाती है, जो राजेन्द्र कर नहीं सकते। हकीक़त तो यह है कि आत्म-केन्द्रित और आत्म-तोष के खोजी राजेन्द्र ने ज़िन्दगी में न अपने सिवाय किसी को प्यार किया, न कर सकते हैं वरना राजेन्द्र जैसा विवेकवान और संवेदनशील (?) व्यक्ति क्या इस बात को भी नहीं जानेगा कि प्यार का विस्तार ही तो अधिकार है...प्यार की परिपूर्णता ही तो है समर्पण ! इनसे परहेज़ करके क्या प्यार किया जा सकता है ?

राजेन्द्र की इस वृत्ति का मूल ढूँढ़ा जा सकता है इनकी अपंगता के आरम्भिक दिनों में। अपनी नाज़ुक किशोरावस्था में स्वस्थ और सुन्दर होने के बावजूद बैसाखियाँ सँभालते ही कैसे इनके मन में यह विश्वास खंडित हो गया होगा कि लड़कियाँ कभी इनकी ओर आकृष्ट भी होंगी...लड़कियों की ज़िन्दगी में इनके लिए कहीं कोई जगह भी होगी...कि कभी ये लड़कियों के प्रेम-पात्र भी बनेंगे। और तब कैसे इन्होंने संकल्प किया होगा कि (संकल्प और दृढ़ इच्छा-शक्ति की तो राजेन्द्र प्रतिमूर्ति हैं) अपनी इस कमी की पूर्ति वे दूसरी दिशा से करेंगे। आत्म-विश्वास तो टूटा पर अपनी अपंगता के इस बोझ से अपनी प्रतिभा को टने-बिखरने नहीं देंगे...उसका भरपूर विकास करके अपना एक विशिष्ट स्थान बनाएँगे...सबको बता देंगे कि वे क्या हैं ? उनके इस 'क्या' (लेखक) के प्रभामंडल से आकृष्ट होकर जैसे-जैसे लड़कियों का उनके निकट आने का...आगे-पीछे घूमने का सिलसिला शुरू हुआ, उनका टूटा आत्मविश्वास बढ़ने लगा...उनका यह 'क्या' और निखरने लगा (इसीलिए लड़कियों से सम्बन्ध इनके लेखन की अनिवार्यता है), लेकिन लड़कियों के निश्छल, निःस्वार्थ समर्पण ने इनके भीतर प्यार की ऊष्मा नहीं जगाई...जगाया तो विजय का दर्प ! राजेन्द्र ने खुद सुन्दर, सटीक और बेबाक ढंग से अपनी इस वृत्ति का विश्लेषण किया है कि उसे उद्धृत करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही..."कि यह अधूरे होने की हीनता-ग्रन्थि से उत्पन्न दमित सैक्स की विकृत अभिव्यक्ति है जो बार-बार दूसरे से अपनी पूर्णता का आश्वासन चाहती है ? या यह मेरी निजी कुंठा है या प्राऐतिहासिक आदिम पुरुष वृत्ति, जहाँ वह अपने कक्षों में, शत्रुओं और शिकारों के सिर सजाकर विजय के गर्व को बार-बार जीवित रखता है या वह सामन्त जिसे अपने हरम में अनगिनत भोग सामग्री चाहिए या...” राजेन्द्र ने ज़रूर अपने इस विश्लेषण के पीछे या...या...या के कुछ विकल्प लगाकर इसकी निश्चिन्तता को अनुमान के भरोसे छोड़ दिया है, पर में निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि इस गर्व ने ही समय-समय पर उपजी अनेक कुंठाओं से उबारकर इनके व्यक्तित्व को यह चमक और निखार दिया है (हंस की सफलता ने जिस पर कई परतें और जमा दी)। फिर महिला-विजय की यह वृत्ति इनके व्यक्तित्व की अनिवार्यता बन गई। विवाह के बाद कलकत्ता में बिताए चार साल ! राजेन्द्र को आर्थिक ज़िम्मेदारी से मुक्त रखने की बात तो एक चुनौती की तरह मैंने पहले ही स्वीकार कर रखी थी, अब उस 'ब्लैक स्पॉट' से उबारने के कातर आग्रह ने दूसरी ज़िम्मेदारियों को ढोने के लिए भी मजबूर कर दिया। मुझे लगा कि इन्हें सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके, इनकी ज़िन्दगी की छोटी-मोटी ज़रूरतों की पूर्ति के साधन जुटाकर मैं इनके लिए एक ऐसा अनुकूल और निश्चिन्तता भरा वातावरण बना दूंगी, जिसमें बैठकर ये निर्विघ्न भाव से लिख सकेंगे, क्योंकि इतना तो मैं अच्छी तरह जानती थी कि ऐसे भावनात्मक उद्वेलन से अगर कोई उबार सकता है तो केवल लेखन...लिखने से मिलनेवाला सन्तोष ! और इसीलिए जब एक इंच मुस्कान लिखने का प्रस्ताव आया तो मैंने अपने पूरे लिखे हुए उपन्यास की थीम तक दे दी। लेकिन इसे अपना भाग्य (अब तो मैं पूरी तरह भाग्यवादी बन गई हूँ) कहूँ या स्थितियों की विडम्बना कि मेरे इस प्रयास ने राजेन्द्र के व्यक्तित्व में न जाने कितनी कुंठाएँ...हीनता-बोध की कैसी-कैसी ग्रन्थियाँ पैदा कर दीं। मैं नहीं जानती थी कि हमेशा लीक छोड़कर चलने की गुहार लगानेवाले, सामन्ती संस्कारों की धज्जियाँ बिखेरनेवाले राजेन्द्र का पूरा व्यक्तित्व इन्हीं संस्कारों में इस क़दर लिपटा पड़ा है, जिसने इन्हें इस परम्परागत धारणा से कभी मुक्त ही नहीं होने दिया कि परिवार में वर्चस्व और प्रभुत्व केवल उसी का हो सकता है जो परिवार का भरण-पोषण करे...उसकी ज़िम्मेदारियाँ निभाए (आज भी शायद ही कोई पुरुष इस धारणा से मुक्त होगा)। अहंकार की परतों में लिपटे राजेन्द्र के अहं को यह प्रभुत्वहीन और वर्चस्वहीन (केवल अपनी नज़रों में) जीवन स्वीकार्य ही नहीं था। हालाँकि मेरे परिवारवालों ने स्नेहभरा सम्मान देकर कभी भी, कहीं भी इनके वर्चस्व और प्रभुत्व के आगे प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। हमारी आर्थिक व्यवस्था क्या है, कैसे हमारा घर चलता है, इसे कोई नहीं जानता था, पर मन में निरन्तर पनपनेवाली उस हीनता-ग्रन्थि का कोई क्या करता जिसके चलते छोटी-से-छोटी बात भी इन्हें अपने वर्चस्व पर प्रहार ही लगती। परिणाम यह हुआ कि ये मीता के और क़रीब होते चले गए...इनका मन हमेशा मीता के साथ के लिए ललकता रहता। ब्लैक स्पॉट से उबारने का कातर आग्रह तो वह झुनझुना था जिसे उस समय शान्त करने के लिए इन्होंने मेरे हाथ में थमा दिया था और मैं उसे सच समझकर उसी दिशा में प्रयत्नशील थी।

इधर राजेन्द्र का ये हाल था कि कभी घर-खर्च के लिए दिए जानेवाले रुपयों में से कुछ काटकर, कभी लेखन और रॉयल्टी से मिली अपनी जमा-पूँजी इकट्ठा करके या कभी-कभी प्रकाशकों से अग्रिम लेकर जब ये मीता को पहाड़ पर ले जाते तो ठहरने की व्यवस्था ये खुद करते...सारा खर्च ये खुद उठाते और तब सारी हीनता-ग्रन्थियों से मुक्त होकर अपने को आत्म-विश्वास और अधिकार से भरा एक पूर्ण पुरुष महसूस करते। एक ओर इनका तृप्त अहं...कुंठाओं से मुक्त व्यक्तित्व और दूसरी ओर मीता के प्रति अगाध प्रेम (?) और इन्हें लगता कि बस, जीवन का यही रूप इनका काम्य था...काम्य है जिसे अब और अधिक स्थगित नहीं किया जा सकता और तब आह्लाद में भरकर, उमंग के अतिरेक में ये उससे विवाह की तारीख तय कर लेते ! नए जीवन के सपनों से भरी दुनिया लेकर विजयी मुद्रा में वह लौटती कि आख़िर उसने राजेन्द्र को हथिया ही लिया ! लेकिन फिर उसी विश्वासघात की पुनरावृत्ति। लेकिन क्यों...क्यों नहीं ये अपने दिए हुए वचन का निर्वाह कर पाते ?

आज राजेन्द्र खुद इस द्वन्द्व से परेशान हैं कि “पचास सालों की अन्तरंगता और इतने गहरे लगाव के बावजूद वह क्या है, जिसकी वजह से वे दोनों कभी एक छत के नीचे नहीं आ सके और आज भी दो एकान्त भोग रहे हैं।' सोचती हूँ राजेन्द्र को इस द्वन्द्व से मुक्त करने में मैं उनकी थोड़ी मदद कर दूं। क्योंकि मामला बहुत ही नाजुक है और मेरे कुछ भी कहने-लिखने से अलग ही अर्थ निकाले जा सकते हैं, इसलिए मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कहूँगी, जो कुछ भी कहूँगी राजेन्द्र की लिखी बातों का सूत्र पकड़कर ही कहूँगी। अपने इस आत्मकथ्य में ही राजेन्द्र ने अपने या औरों के हवाले से मीता को जिन विशेषणों से नवाज़ा है, वे हैं-दृढ़ और आत्म-विश्वासी, दबंग और दुस्साहसी...फर्राट लड़की...लूंखार शेरनी' और अन्त में निचोड़ निकाला है कि, “मीता का यह आत्मविश्वास शुरू से ही मेरे मन में उसके लिए श्रद्धा और भय दोनों पैदा करता रहा है।" यह बात लिखते समय भी बलाघात निश्चय ही श्रद्धा पर ही है क्योंकि ऋण-शोध की प्रक्रिया में भय जैसी किसी भी नकारात्मक बात को स्वीकार करना न उचित था, न ही राजेन्द्र के लिए सम्भव।

आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि जिस मीता की डायरी का एक-एक पृष्ठ और ज़िन्दगी का एक-एक दिन राजेन्द्र को ही निवेदित हो, उसका कितना ऋण होगा राजेन्द्र पर। उससे उऋण होने के लिए अपने अगाध-प्रेम की-अपराध-बोध की स्वीकृति में ये बराबर कुछ लिखते भी रहे, पर ज़िन्दगी में ऐसा अवसर आने पर इन्होंने पैर क्यों पीछे खींच लिया ?

मेरे अलग हो जाने के बाद मीता के भाई ने जब आग्रह किया कि अब तो आपको मीता के साथ रहना चाहिए तो क्यों नहीं ले आए उसे ? और भाइयों के कहने की भी क्या ज़रूरत थी, इन दोनों के साथ रहने के बीच में में ही तो बाधा थी सो में तो स्वेच्छा से हट गई थी...अब रहते साथ। लेकिन उसे लाने की बजाय राजेन्द्र ने भाइयों की बात निर्मलाजी से की। निर्मलाजी क्या कहतीं, उन्होंने यही कहा कि “सोच लीजिए आप...इस उम्र में अकेले रहना आपके लिए मुश्किल हो तो...।' राजेन्द्र का उत्तर था- "ऐसा नहीं कि इस बात पर मैंने सोचा नहीं...बहुत गम्भीरता से सोचा है और बहुत दिनों तक सोचा है लेकिन हमेशा इसी नतीजे पर पहुंचा हूँ कि साथ रहना निभेगा नहीं। मन्नू की बात तो छोड़िए, मीता को तो मेरा टिंकू तक से बात करना भी बर्दाश्त नहीं होगा।” पता नहीं, राजेन्द्र की यह बात सच है या कि आत्मकथ्य में लिखी बात कि उसमें पजेशन की भावना कभी रही ही नहीं। (निहितार्थ था-जैसी मन्नू में है और जो मुझे हमेशा अपनी स्वतन्त्रता पर आघात लगती थी।) यह सारी बात मुझे निर्मलाजी ने ही बताई थी। सचमुच संकट भारी होगा राजेन्द्र के सामने...टिंकू तो खैर बेटी है, पर फिर राजेन्द्र की उस (बक़ौल ममता कालिया) घाघरा पलटन का क्या होता ?

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