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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


इसी सिलसिले में जैनेन्द्रजी की एक बात भी याद आई। सोचा तो था कि अपनी किसी रचना में इसका उपयोग करूँगी पर अब जब सन्दर्भ आ ही गया तो उसे भी लिख देती हूँ। जैनेन्द्रजी की पत्नी की मृत्यु की सारी औपचारिकताएँ निभाने के कोई बीस-पच्चीस दिन बाद हम लोग फिर उनके पास गए। वे चुपचाप बैठे थे...इशारे से हमें भी बैठने को कहा। फिर चुप्पी ! समझ नहीं आ रहा था कि कैसे बात शुरू की जाए सो तबीयत का हालचाल ही पूछा। वे चुप, फिर थोड़ी देर बाद अपने उसी अन्दाज़ में बोले-“जानती हो मन्नू, वो जब थी तो कभी ध्यान ही नहीं दिया कि वह भी है...बस है तो है...ध्यान देने की ज़रूरत तो कभी महसूस ही नहीं हुई पर जब से वह चली गई, उठते-बैठते, सोते-जागते वही तो दिखाई देती है... उसके सिवाय कुछ सूझता ही नहीं।” फिर चुप। पर उन्हें लगा कि जैसे बात स्पष्ट नहीं हुई तो फिर समझाया-“अब जैसे हवा है...उसी से तो हम साँस लेते हैं, जिन्दा रहते हैं पर उसके बारे में कभी सोचते हैं क्या ? बस, हवा है तो है...वह चलती रहती है, हम साँस लेते रहते हैं, हम जिन्दा रहते हैं पर अब उसके बारे में सोचने को क्या रखा है जो कोई सोचे ? पर एक घंटे के लिए भी हवा बन्द हो जाए...साँस लेने को न मिले...दम घुटने लगे हमारा तो जानेंगे कि हवा क्या होती है...ब 1, ऐसे ही...” उनका स्वर भीग आया और वे चुप हो गए ! अपनी पत्नी की उपेक्षा और एक उम्र के बाद उसकी अनिवार्यता को इससे ज़्यादा बेहतर, ज़्यादा सार्थक तरीके से शायद ही कोई समझा सके। घर लौटते हुए मुझे पता नहीं क्यों धर्मयुग की एक परिचर्चा में छपे जैनेन्द्रजी के उस लेख की याद हो आई, उन्होंने जिसका शीर्षक दिया था-'लेखक के लिए प्रेयसी अनिवार्य है।' इस खुली स्वीकारोक्ति के बाद यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिन्दगी में प्रेयसियाँ रही भी होंगी। आज वे ही प्रेयसियाँ क्यों नहीं आ जाती देखभाल करने के लिए, ज़िन्दगी को उसी गति से चलाने के लिए...पत्नी के अभाव में आए खालीपन को भरने के लिए ! बाद में दो साल तक वे लक़वा-ग्रस्त रहे तो निश्चय ही जितने त्रस्त वे अपनी स्थिति से रहे होंगे, उससे कहीं-कहीं अधिक त्रस्त वे पत्नी की अनुपस्थिति से रहे होंगे। ऐसे ही तो समय होते हैं जिन्दगी में जब किसी बहुत-बहुत अपने की ज़रूरत महसूस होती है....ऐसे अपने की जहाँ अपनत्व के साथ अधिकार भी जुड़ा हो।

नहीं जानती इसे पत्नियों के जीवन की विडम्बना कहूँ या लेखकों के जीवन की...पर है यह इतनी बड़ी सच्चाई जिसे झेलने-भोगने के लिए हर लेखक-पत्नी तो अभिशप्त है ही (इसमें कई अपवाद होंगे और मेरी जानकारी में कुछ हैं भी पर हैं वे अपवाद ही) पर साठ साल की उम्र पार करते ही ये चिर उपेक्षित पलियाँ एकाएक उनकी ज़िन्दगी की अनिवार्यता बन जाती हैं। जब भी में ऐसी बातें सुनती, देखती या खुद उनसे गुज़रती तो एक प्रश्न ज़रूर मुझे परेशान करता। लेखक तो बड़ा संवेदनशील प्राणी होता है....दुखी, त्रस्त लोगों की वेदना, उनकी यातना उसे किस हद तक विचलित कर देती है कि वह उन पर अपनी सारी करुणा उँडेल देता है पर अपनी पत्नियों की व्यथा-वेदना तक आते-आते उसकी संवेदना सूख क्यों जाती है ? उसे महसूस करना तो दूर, वे तो बड़ी निर्ममता से उसका कारण बने रहते हैं। पर क्यों...क्या पत्नी उन्हें हाड़-मांस का प्राणी ही नहीं लगती या कि काल्पनिक पात्रों के गढ़े हुए सुख-दुख पर ही अपनी सारी संवेदना उँडेलकर वे इतने खाली-खोखले और करुणा-विहीन हो जाते हैं कि जीवित पत्नी के लिए उनके पास कुछ बचता ही नहीं ?

नहीं जानती इतना सब जानने, सोचने, समझने के बावजूद मैं फिर जिस दिशा की ओर मुड़ चली थी, उसे क्या कहूँ ? अपनी मूर्खता या हमारी पीढ़ी की भारतीय पत्नी की नियति ? (गनीमत है कि हमसे बाद वाली कई पत्नियों ने संस्कारों का यह चोला उतार फेंका है) आर्थिक रूप से परतन्त्र पत्नियों के लिए तो हर स्थिति में साथ रहना उनकी मजबूरी था...आज भी है, पर मेरी क्या मजबूरी थी ? क्यों मैंने अलग रहने का अपना निर्णय बदल दिया ? क्यों मैं सोचने लगी कि जब प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मैंने पैंतीस साल गुज़ार दिए तो अब तो स्थितियाँ भी कुछ अनुकूल हो चली हैं...अब इस उम्र में अलगाव ? सो भी इस लाइलाज रोग के साथ ! मन को विश्वास दिलाती कि अपने बदले व्यक्तित्व के साथ अब ज़रूर राजेन्द्र तकलीफ़ में मेरा ख़याल रखेंगे, जिसकी मुझे ज़रूरत भी थी। उज्जैन में जमकर तो कुछ काम हो भी नहीं रहा था...न्यूरोलजिया का दर्द भी काफ़ी बढ़ गया था सो मैंने दो साल पूरे करते ही दिल्ली लौटने का निर्णय ले लिया। निर्णय ले तो लिया पर मन के किसी कोने में थोड़ी-सी आशंका ज़रूर थी। लेकिन जून में मेरी भतीजी की शादी में इन्दौर आकर राजेन्द्र ने अपने व्यवहार और अपनी बातों से उसे बिलकुल निर्मूल कर दिया। लौटने की बात सुनते ही प्रसन्न होकर बोले- "बस, बहुत हुआ...अब आ जाओ...अपनी अधूरी चीज़ों को वहीं बैठकर पूरा करना !" और तीन महीने बाद जब दिल्ली लौटी तो उसी तरह स्वागत की मुद्रा में ये स्टेशन पर खड़े थे। घर आई तो साफ़-सफ़ाई, साज-सज्जा सब चुस्त-दुरुस्त यानी ये अब घर में भी दिलचस्पी लेने लगे हैं। दो साल तक मेरी अनुपस्थिति में घर के स्वामित्व-बोध ने इन्हें घर से भी जोड़ दिया, अब यही घर इन्हें अपना लगने लगा ! स्वामित्व-बोध पर तो पहले भी कभी किसी ने प्रश्नचिह्न नहीं लगाया था पर यह इनकी अपनी ही ग्रन्थि थी ! अब अगर इन्हें घर और मैं सब अपने लगने लगे हैं तो फिर मेरे लिए समस्या ही क्या थी ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं तो इनसे बहुत जुड़ी हुई थी ही और बदले में वैसा जुड़ाव ही तो चाहती थी। दिल्ली लौटकर सप्ताह, दस दिन तक हम लोग मित्र-परिचितों के यहाँ मिलने जाते रहे। कभी-कभी यह भी सुनने को मिला कि अच्छा किया, आ गई। तुम्हारे बिना राजेन्द्र बहुत उखड़े-उखड़े रहते थे। सुना तो अच्छा ही लगा-आनेवाले जीवन के लिए एक उम्मीद बँधी। उज्जैन जाने से पहले और उज्जैन जाते समय जिन्होंने मेरी मानसिक दशा को देखा था...जाना था, वे अब की मानसिकता को देखकर आश्वस्त ही हुए...चलो देर आए, दुरुस्त आए।

मैं भी सोचती कि सामान्य जीवन में तो उम्र के इस बिन्दु पर आकर ज़िन्दगी की उठा-पटक, जद्दोजहद और संघर्षों से थका-हारा मन सुस्ताने का सिलसिला शुरू करता है क्योंकि सम्बन्धों के सारे कोने घिसघिसाकर ऐसे फ़िट हो जाते हैं कि तरह-तरह के जतनों का तेल डाले बिना भी गाड़ी चलती रहती है-सहज, अनायास। मैंने भी सम्बन्धों की उठापटक तो बहुत झेल ली ज़िन्दगी में, बस अब तो एक सहज, सामान्य और सकारात्मक जीवन की दिशा में ही बढ़ना है और अब यह सम्भव भी होगा क्योंकि राजेन्द्र ने भी इस दिशा में क़दम ही नहीं बढ़ाया बल्कि
प्रयत्नशील भी हैं ! पर फिर वही मूर्खता मेरी, जो इस तरह का भ्रम पाल लिया। क्यों मैं राजेन्द्र को एक सामान्य जीवन' के चौखटे में फ़िट करके कुछ अनहोनी की उम्मीद लगा बैठी ? राजेन्द्र और ‘सामान्य' ! क्यों भूल गई कि सामान्य का सम्बन्ध उम्र से नहीं, किसी के व्यक्तित्व की बनावट से होता है ? और जो राजेन्द्र अपने हर काम, हर सोच और अपनी हर बात से अपने 'विशिष्ट' व्यक्तित्व का डंका-चोट ऐलान करते रहे वे किसी ‘सामान्य' के चौखटे में फ़िट हो सकते थे भला ? और शायद यही कारण था कि उम्र के इस बिन्दु पर आकर भी उनके व्यक्तित्व के कील-काँटे घिसे नहीं थे--हाँ, ऐसा भ्रम ज़रूर पैदा कर दिया या कहूँ कि मैंने ऐसा भ्रम पाल लिया था। पर इस बार जब वे चुभे तो मुझे केवल लहूलुहान ही नहीं किया बल्कि मन वितृष्णा के साथ-साथ एक गहरी नफ़रत से भी भर गया और मैं अपने पुराने निर्णय पर ही लौट आई। बस, अब और एक दिन भी नहीं ! इस बार अपना निर्णय सुनाने के साथ मैंने यह भी जोड़ दिया- “पहले की तरह अब आप इस घर में लौटने की कोशिश भी मत करिएगा। बार-बार का यह तमाशा मेरे लिए असह्य हो गया है। जल्दी से जल्दी घर ढूंढ़िए और हमेशा के लिए शिफ्ट हो जाइए !"

नहीं जानती यह राजेन्द्र की आदत थी या कोई भीतरी मजबूरी कि अलग होकर भी ये घर नहीं छोड़ना चाहते थे। अलग होते ही इन्होंने फिर वही पुराना सिलसिला शुरू कर दिया। बराबर फ़ोन करना...किसी भी आयोजन में मिलने पर सबके बीच ज़ोर से आवाज़ दे-देकर बलाना। कभी कोई पत्रिका पकड़ा रहे हैं तो कभी कोई किताब कंवल यह दिखाने के लिए कि हम अलग नहीं हुए हैं। एक साक्षात्कार में तो इन्होंने यह छपवा भी दिया कि महज़ काम करने के उद्देश्य से मैं कुछ दिनों के लिए यहाँ आ गया हूँ। मेरे बारे में कुछ ऐसी नकारात्मक टिप्पणियाँ भी थीं जिनकी वजह से काम करने के लिए इन्हें बाहर आना पड़ा। नहीं जानती कि राजेन्द्र क्यों करते थे यह सब ? हो सकता है कि फिर वही उम्मीद...वही अपेक्षा कि कुछ तो भी करके फिर साथ रहनेवाली स्थिति ले आएँगे...हर बार की तरह मन्नू को फिर पटा लेना कोई मुश्किल काम नहीं होगा ! पर इस बार जब मैंने पहले ही दिन से साफ़-साफ़ कहना शुरू कर दिया कि हम अलग हो गए हैं तो अन्ततः इन्हें भी यह अलगाव स्वीकार करना ही पड़ा।

और आज बारह साल हो गए हैं हमें अलग हुए। इन बारह वर्षों में हंस के चलते राजेन्द्र कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। आज इनके चारों ओर मित्रों, परिचितों, पाठकों, इनके चाहनेवालों और छपासुओं की भीड़ जमा रहती है...पैसे का भी कोई अभाव नहीं। किशन इनकी गाडी ही नहीं चलाता इनके घर की और इनकी जिन्दगी की गाड़ी भी बखूबी चला देता है और सच पूछा जाए तो इन्हें पत्नी नहीं, किशन जैसा ही कोई व्यक्ति चाहिए था जो इनकी देखभाल के बदले तनख्वाह के अतिरिक्त और कोई अपेक्षा न करे। उसके और उसके परिवार के लिए ये ज़रूरत से ज़्यादा करते हैं जिसके लिए वह कृतज्ञ भी होता ही होगा। सामनेवाले की ऐसी अनकही कृतज्ञता ही इन्हें तृप्त करती है...इनके अहं को पोसती है क्योंकि अपेक्षा और अधिकार तो इनके बर्दाश्त की सीमा में आते ही नहीं, या कहूँ कि मेरे सन्दर्भ में तो कम से कम नहीं ही आते थे। रही मैं, सो इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं आज बिलकुल अकेली हो गई हूँ...पर राजेन्द्र के साथ रहते हुए भी तो मैं बिलकुल अकेली ही थी। पर कितना भिन्न था वह अकेलापन जो रात-दिन मुझे त्रस्त रखता था ! साथ रहकर भी अलगाव की, उपेक्षा और संवादहीनता की यातनाओं से इस तरह घिरी रहती थी सारे समय कि कभी अपने साथ रहने का अवसर ही नहीं मिलता था। आज सारे तनावों से मुक्त होने के बाद अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस ही नहीं होता ! आज कम से कम अपने साथ तो हूँ। इधर कुछ सालों से ही महसूस किया है मैंने कि कितना-कितना ज़रूरी होता है आदमी के लिए नितान्त अपना साथ...तनावरहित और द्वन्द्व-मुक्त अपना साथ और नितान्त अपना समय ! इसीलिए शायद अकेले रहकर भी समय काटना न मेरे लिए कभी समस्या रहा, न संकट। और इसीलिए शायद दिल्ली की अनेक साहित्यिक गतिविधियों में उपस्थित होना भी धीरे-धीरे मैंने बहुत कम कर दिया है। बस, मन में मनचाहा न जाने कितना कुछ चलता रहता है और जानती हूँ कि मन का यह ‘सब कुछ’ जिस दिन कागज़ पर उतरने लगेगा...मन के बचे-खुचे खाली कोने भी पूरी तरह भर जाएँगे।

इन बारह वर्षों में यदि मैं कुछ नहीं लिख पाई तो उसका सबसे बड़ा कारण है शारीरिक व्याधियाँ, जिनका सिलसिला समाप्त होने को ही नहीं आ रहा था। इधर कुछ से तो मुक्ति मिली और कुछ यह समझ लिया कि उम्र है तो थोड़ा-बहुत तो यह सब चलता ही रहेगा सो इनके साथ चलना सीख लिया है।


इस पर एक नई पुस्तक ज़रूर आई-कथा-पटकथा। टी.वी. में सीरियलों की बढ़ती संख्या के कारण इस लाइन में युवाओं के लिए कॅरियर के अनन्त रास्ते खुल गए हैं, इसीलिए पटकथा लेखन अब कोर्स में आ गया है। कोई साल डेढ़-साल से अर्चना बराबर आग्रह कर रही थी कि आप एक ऐसी पुस्तक तैयार कीजिए, जिसमें अपनी लिखी पटकथा के साथ मूल रचना भी हो। साथ ही एक लम्बी भूमिका लिखकर एक कहानी को पटकथा में बदलने की प्रक्रिया भी समझाइए। छात्रों के लिए बहुत उपयोगी होगी यह पुस्तक; कि बिना किसी ठीक-ठाक पुस्तक के इस विषय को पढ़ाना बहुत मुश्किल हो रहा है।

और इस तरह अर्चना के आग्रह पर यह पुस्तक लिखी गई !

बीमारी के दौरान पहले सुशीला थी देखने के लिए...अब ज़रा भी तकलीफ़ बढ़ी कि टिंकू अपने घर खींचकर ले जाती है और बिना शब्दों के भी एक गहरे सरोकार...एक गहरी आत्मीयता का बोध कैसे कराया जाता है, यह मैंने दिनेश से जाना ! एक-दो बार इनकी अनुपस्थिति में आनन्द-नीरा ने यह ज़िम्मेदारी उठाई। गनीमत है कि अब बिलकुल ठीक हूँ तो सबसे पहले अपनी इस अधूरी कहानी को पूरा करने बैठी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बारह सालों से घिसटती हुई अपनी ही इस कहानी से मैं बुरी तरह ऊब ही नहीं गई बल्कि त्रस्त भी हो गई हूँ। इसके इतने वर्षों तक घिसटने का एक कारण शायद यह भी हो सकता है कि अतीत की उन बातों में अब न लौटने की इच्छा होती है, न झाँकने का मन। पर वे प्रसंग जो जीवन के अनिवार्य हिस्से थे, उन्हें तो समेटना ही था, सो लिखा। पर आज इससे भी मुक्ति ! बस अब तो बची हुई अधूरी चीज़ों को पूरा करने में जुटना है और आश्वस्त हूँ कि उन्हें भी कर पाऊँगी।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि बारह साल पहले मैंने अपने को राजेन्द्र से पूरी तरह अलग कर लिया था, इसके बावजूद हमारा सम्बन्ध पूरी तरह टूटा नहीं। राजेन्द्र के फ़ोन करने...बाहर मिलने पर बातचीत करने ने इस सम्बन्ध के कुछ सूत्रों को बचाए रखा। हाँ, फ़ोन करने, बात करने पर मैं भी जवाब ज़रूर देती थी। हो सकता है, शुरू में इनका वापस लौटने का इरादा भाँपकर कुछ उखड़े-बिखरे ढंग से देती रही होऊँ, पर बाद में तो बिल्कुल सहज सामान्य ढंग से।

आज राजेन्द्र और मेरे सम्बन्धों का जो रूप है, उससे बेहतर रूप की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकती। नहीं जानती उसे परिभाषित कैसे किया जाए ? फिर भी अगर करना ही हो तो कहूँगी-

शत्रुता-नहीं, बिलकुल नहीं।

कटुता-झूठ बोलूँगी यदि कहूँ कि बिलकुल नहीं, क्योंकि अतीत की कोई घटना अगर कभी मन में उभर आए या वर्तमान में ही राजेन्द्र द्वारा जब-तब कही जानेवाली कुछ बातें या की जानेवाली कुछ हरक़तें आज भी मन में कटुता तो ले आती हैं। पर वह स्थायी भाव बिलकुल नहीं है...बस, उभरी और थोड़े समय बाद ही बिला भी गई !

सहमति-मुश्किल से पाँच-सात प्रतिशत बातों में ही हम सहमत हो पाते हैं। अपने हर काम और बात को तर्क-संगत ठहराने के लिए गढ़ा गया उनका फ़लसफ़ा...या फिर सिर्फ चर्चा के केन्द्र में बने रहने के लिए या महज़ चौंकाने के लिए कही या लिखी गई वे बातें जिनसे मुझ जैसी ‘परम्परावादी' (एक आधारहीन आरोप जो राजेन्द्र शुरू से ही मुझ पर लगाते आए हैं) के लिए सहमत होना तो सम्भव ही नहीं।

मित्रता-नहीं, मित्रता में जो एक तरह की अन्तरंगता निहित रहती है, वह हमारे बीच नहीं है। वैसे वह तो पहले भी कभी नहीं थी और अब तो हो भी नहीं सकती है। पर हाँ, बिना किसी तरह की अन्तरंगता और आत्मीय संवाद के भी एक नामालूम से सरोकार का अहसास ज़रूर है।

आज हम दोनों के बीच अगर कुछ है तो निरन्तर चलनेवाला एक निहायत औपचारिक संवाद...सूचनाओं और कह-बाँट सकनेवाली निहायत छोटी-छोटी समस्याओं का आदान-प्रदान और समाधान। पर इन सारी औपचारिक स्थितियों के बावजूद हारी-बीमारी के दौरान सहयोग का एक अनकहा-सा आश्वासन !

मैं जानती हूँ कि आज क्रान्ति का परचम लहराती, स्त्री-विमर्श में पगी स्त्रियाँ ज़रूर मुझे धिक्कारेंगी...भर्त्सना करेंगी मेरी कि इतना सब होने के बाद, अलग रहते हुए भी फिर जाकर जुड़ने की ज़रूरत क्या थी ? उस जुड़ाव का रूप चाहे जो हो, जैसा भी हो, है तो जुड़ाव ही।

पुरुष, खासकर लेखक लोग भी धिक्कारेंगे, फटकारेंगे कि इतना दुखी और त्रस्त महसूस करने जैसा आख़िर राजेन्द्र ने किया ही क्या ? अरे, हर लेखक की ज़िन्दगी में भरे पड़े होंगे ऐसे कितने ही प्रसंग, आख़िर उनकी बीवियाँ भी तो रहती हैं (मेरे हिसाब से यहाँ ‘सहती' शब्द का प्रयोग करना चाहिए, पर उसे तो वे कभी करेंगे नहीं) अब तुम्हारे हाथ में क़लम क्या आ गई कि इस मामूली-सी बात की ही गाथा रच डाली।

सब लोगों की धिक्कार और फटकार अपनी जगह और मुख्यतः लेखकीय यात्रा पर केन्द्रित मेरी ज़िन्दगी की यह कहानी अपनी जगह। अब क्योंकि यह प्रसंग बल्कि कहूँ कि यह सम्बन्ध मेरे लेखन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों से घने रूप से जुड़ा हुआ था इसलिए इसे तो आना ही था। पर इस सम्बन्ध के चलते मैंने जो सहा और महसूस किया, उसे अपने हिसाब से तो बेहद तटस्थ, निष्पक्ष और संक्षिप्त रूप में ही लिखा है। फिर भी सबको अपनी-अपनी प्रतिक्रिया रखने का अधिकार तो है ही !

103, हौजखास अपार्टमेंट्स
हौजखास
नई दिल्ली 110016

-मन्नू भंडारी

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