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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


91 में मैं सेवा-निवृत्त हुई और कुछ महीनों बाद ही मेरे पास श्री विष्णुकान्त शास्त्री का प्रस्ताव आया। कलकत्ता में शास्त्रीजी से हमारे बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। उस समय वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में थे और मैं रानी बिड़ला कॉलेज में। कई बातों पर बड़ी बहसें होती थीं मेरी उनसे...कुछ समय तक तो हम लोगों ने ‘अनामिका' में भी साथ-साथ काम किया था। पर उनकी जिन दो बातों की छाप मेरे मन में छपी हुई है उनमें से एक है उनका कविता सुनाने का ढंग। बस, एक बार शुरू हो जाएँ...फिर तो हिन्दी और बंगला कविताओं की ऐसी अजस्त्र धारा बह चलती थी उनके मुँह से कि सुननेवाला सराबोर हो जाए ! दूसरे उनके उन्मुक्त छतफोड़ टहाके। उनके बाद वैसे ठहाके मैंने केवल राकेशजी के मुँह से ही सुने। ये सब तब की बातें हैं, जब शास्त्रीजी राजनीति में सक्रिय नहीं हुए थे, हालाँकि उनका कविता प्रेम तो तब भी बराबर बना रहा। खैर, तो उन्हीं शास्त्रीजी का फ़ोन मिला मुझे और आश्चर्य यह कि फ़ोन भी अपने घर में नहीं, शैल के घर में मिला क्योंकि उस समय मैं शैल के यहाँ गई हुई थी। उन्होंने जैसे-तैसे वहाँ का नम्बर जुगाड़ कर मुझसे वहीं सम्पर्क साधा-

“मन्नूजी, मेरे कहने से अब आपको उज्जैन जाना होगा।"

"उज्जैन ! पर क्यों...क्या है वहाँ ?'' मैंने कुछ हैरानी से पूछा।

"प्रेमचन्द सृजनपीठ के निदेशक के पद पर...और आप मना बिलकुल नहीं करेंगी।" नहीं जानती यह उनका आदेश था या आग्रह, पर जो भी था वे अपनी बात पर बहुत दृढ़-से लग रहे थे।

“कल होनेवाली मीटिंग में मैं आपका नाम प्रस्तावित कर रहा हूँ, इस आश्वस्ति के साथ कि आपकी स्वीकृति मेरे साथ है।" लगा वे बहुत हड़बड़ी में हैं और तुरन्त उत्तर चाहते हैं और मेरी मुसीबत यह कि समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूँ ? एक तरफ़ तो लग रहा था कि भगवान ने मेरे सामने थाली परोसकर रख दी...मेरी मनोकामना ही पूरी कर दी लेकिन दूसरी तरफ़ डर ! मैंने तो यह शहर कभी देखा ही नहीं...। कैसा होगा शहर...कैसी होगी रहने की व्यवस्था...क्या करना होगा मुझे वहाँ जाकर आदि-आदि ! संयोग से तीन-चार दिन बाद का ही इन्दौर का टिकिट था मेरे पास सो मैंने तुरन्त उत्तर दिया-

“शास्त्रीजी, काम तो मैं भी कुछ न कुछ करना ही चाहती हूँ। ख़ाली बैठे-बैठे तो मेरे लिए भी समय काटना मुश्किल हो जाएगा लेकिन अन्तिम स्वीकृति देने से पहले मैं सिर्फ एक बार उज्जैन शहर और वह घर देख लेना चाहती हूँ। आप तो जानते ही हैं कि इस उमर में, वह भी बीमारी की हालत में लम्बे समय तक बहुत असुविधाजनक स्थिति में रहना मुश्किल होगा मेरे लिए।"

“ठीक है, आप देख आइए और सुविधा आदि तो सब जुटा दी जाएगी... लेकिन अभी तो मैं आपका नाम प्रस्तावित कर ही रहा हूँ। आप अन्तिम स्वीकृति देंगी तो निश्चिन्त रहिए, यह प्रस्ताव नहीं, निर्णय ही होगा !" और उन्होंने फ़ोन काट दिया। वे सचमुच जल्दी में ही थे। पता नहीं क्यों यह लिखते हुए आज अचानक मेरे दिमाग में यह बात आई कि हो सकता है कि शास्त्रीजी को मेरे व्यक्तिगत जीवन की परेशानियों का आभास हो (कलकत्ता में मेरे निकट के लोग तो जानते ही थे, सो बात उन तक भी पहुँची हो तो आश्चर्य नहीं) और इसी के चलते उन्होंने मेरे लिए यह अवसर सुलभ करवाया हो। खेर, जो भी हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता ! मध्यप्रदेश में बी.जे.पी. की सरकार थी और शास्त्रीजी उस समय बी.जे.पी. में किसी ऊंचे पद पर पहुँच चुके थे (क्या थे सो तो मुझे न तब मालूम था, न अब और न ही मैंने कभी जानने की कोशिश की) सो यह तो निश्चित हा था कि उनका प्रस्ताव निर्णय ही होगा।

इन्दौर पहुँचकर मुझे कलेक्टर का फ़ोन मिला कि आपको जब भी उज्जैन जाना हो मुझे सूचित कर दीजिएगा, मैं टेक्सी भेज दूंगा। श्री प्रभाकर श्रोत्रिय उन दिनों भोपाल से निकलनेवाली पत्रिका साक्षात्कार के सम्पादक तो थे ही, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के सचिव भी थे और उस नाते अब यह सारी ज़िम्मेदारी उनकी थी। उन्होंने ही कलेक्टर को भी फ़ोन किया था और इसकी सूचना मुझे भी दे दी थी। तारीख तय करने पर जब टेक्सी आई तो मेरे साथ बहिनजी और जीजाजी भी चले। सुविधा के लिा घर में क्या कुछ व्यवस्था और करवानी होगी, इस सबकी जानकारी देने का जिम्मा बनर्जी ने ले लिया क्योंकि वे जानती थीं कि ऐसी बातों के लिए मन्न से मह ही नहीं खोला जाएगा। पहले हम कालिदास अकादमी पहुँचे....बड़ी खुबसूरत विल्डिंग और वैसा ही चारों ओर का परिवेश। तबीयत खुश हो गई। वहाँ रथ साहब और यादव साहब से मुलाक़ात हुई। रथ साहब ही हम लोगों को लेकर सृजनपाः तक आए। पिछले कुछ वर्षों से वहाँ निदेशक के पद पर श्री नरेश मेहता आसीन थे पर अब वे लौट रहे थे और उस रिक्त स्थान को भग्ने के लिए मुझे वहाँ जाना था। उस समय महिमाजी उन्हें सामान सहित बटोरकर ले जाने के लिए वहाँ आई हुई थीं। उन लोगों से मिलकर अच्छा लगा और नरेशजी ने भी मझे इस बात के लिए प्रेरित किया कि मुझे यहाँ आ ही जाना चाहिए। हालांकि अकादमी को देखकर मन जितना प्रसन्न हुआ था...इस घर की हालत देखकर कल बम मा जमर गया। घर काफ़ी खस्ता हाल में था लेकिन अकादमी लौटकर बहिनजी की बातों के आधार पर जब रथ साहब ने आश्वासन दिया कि घर की मरम्मत, रंगाई-पुताई, पेंट आदि सब करवा दिया जाएगा...फ्रिज की व्यवस्था भी करवा दी जाएगी और यह आग्रह भी किया कि मैं अब ज्यादा सोचूँ नहीं, बस आ जाऊँ। अन्ततः मैंने निर्णय ले ही लिया कि मुझे उज्जैन आना ही है ! लौटते समय भोपाल में श्रोत्रियजी से मुलाक़ात हुई। मैंने उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी... सुनकर वे प्रसन्न ही हा और उन्होंने भी मुझे पूरी तरह आश्वस्त किया।

रात दस बजे स्टेशन पर राजेन्द्र को देखकर मुझे बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अजीब बात है कि दिल्ली के बाहर जाते ही मेरे प्रति इनका व्यवहार बिलकुल ही बदल जाया करता है। बाहरी दूरी उन्हें कहीं मेरे बहुत निकट ले आती है। लेकिन फिर भी इस बार में जिन हालात में दिल्ली छोड़कर आई थी, उसके बाद मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये स्टेशन आएँगे। पर गाड़ी में बैठते ही जब उन्होंने पूछा- “यह क्या, तुम प्रेमचन्द सृजनपीठ पर जा रही हो...अभी-अभी चलने से पहले टी.वी. समाचार में सुना मैंने !'' मैं तो भौंचक ! इस बात की तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकती थी कि श्रोत्रियजी इस साधारण-सी बात को समाचार के रूप में प्रसारित करवा देंगे। पर आश्चर्य की इस भावना को पूरी तरह जब्त करके मैंने सर्द आवाज़ में केवल इतना ही कहा, ''हाँ, जा रही हूँ।"

“पर कब हुई यह सारी बात..तुमने तो पहले कभी कुछ बताया ही नहीं।" राजेन्द्र के स्वर में आश्चर्य से ज्यादा आहत होने का भाव था। जो मन्न अपनी हर वात, चाहे कहने लायक़ हो या नहीं और केवल बात ही नहीं, अपना लिखा, सोचा सब कुछ तो बिना किसी संकोच, झिझक के मेरे सामने उँडेलती आई है.... चाहे अपना कुछ शेयर करूँ या न करूँ...वही मन्नू इतनी बड़ी बात पचा गई।

"इसमें बताने जैसा था ही क्या ?'' संक्षिप्त-सा उत्तर देकर मैं फिर चुप हो गई।

“पर यह भी सोचा है कि इतने लम्बे समय के लिए तुम चली जाओगी तो पीछे यहाँ क्या होगा, कौन देखेगा इस घर क?"

“आप तो शुरू से ही जाने कब-कब, कहाँ-कहाँ जाते रहे हैं तब मैं सँभाला करती थी या नहीं...अब आप सँभालिए ?"

अँधेरे में मुझे इनका चेहरा तो नहीं दिख रहा था...पर इनके स्वर में ऐसी मायूसी मैंने शायद पहली बार ही देखी। अवसर भी तो पहली बार ही आया था। पर न अब मुझे इनका आहत होना परेशान कर रहा था न ही इनकी मायूसी विचलित, बल्कि ईमानदारी की बात तो यह है कि मुझे उस समय बड़ा सन्तोष मिल रहा था...आनन्द आ रहा था...समझ लो कि बिना कुछ कहे-बताए, मनमाने ढंग से अपने निर्णय लेने का अधिकार केवल तुम्हें ही नहीं है।

घर ठीक होने की सूचना मिलते ही में उज्जैन के लिए रवाना हो गई !

उज्जैन ! कालिदास की नगरी...मन्दिरों की नगरी...भारत की प्राचीन साहित्यिक, सांस्कृतिक विरासत को समेटे शिप्रा के तट पर बसी नगरी।

मैं नास्तिक नहीं हूँ-गहरी आस्था है मेरी भगवान में, पर उसके बावजूद मन्दिरों या तीर्थ-स्थानों में जाने में मेरी न कभी कोई रुचि रही, न संस्कार। इसलिए बार-बार के आग्रह के बाद भी मैंने जब महाकालेश्वर के मन्दिर जाने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई तो उन लोगों को निराशा से ज्यादा आश्चर्य हो रहा था। जिस मन्दिर के दर्शन के लिए लोग दूर-दर से आते हैं, यहाँ रहकर भी इनकी ऐसी उदासीनता ! बाद में तो मैं भी दो बार उसके दर्शन करने गई पर उस समय तो मेरा सारा ध्यान इसी बात पर केन्द्रित था कि घर के उस तनावपूर्ण वातावरण से दूर आकर मुझे तो बस अब जैसे भी हो, लेखन में आए इस गतिरोध को तोड़ना है। घर व्यवस्थित होने में मुश्किल से दो दिन लगे और वहाँ जो सबसे पहला काम मैंने किया वह था प्रेमचन्द की ‘सवा सेर गेहूँ' कहानी का प्रौढ़-शिक्षा के लिए पुनर्लेखन।

उज्जैन आने से कोई दस-बारह दिन पहले ही नेशनल बुक ट्रस्ट में अरविन्द कुमार ने लेखकों की एक मीटिंग रखी थी। उद्देश्य था-बच्चों और प्रौढ़ों के लिए उपयुक्त आर अनुकूल रचनाओं का सृजन। उन्होंने कहा कि प्रोट लोगों को शिक्षित करने की प्रक्रिया में हमें जिस तरह की रचनाएँ चाहिए, उनकी भाषा तो बेहद सरल, सहज, छोटे-छोटे वाक्योंवाली हो पर उनका कन्टेंट उनकी जिन्दगी से...उनकी समस्याओं और ज़रूरतों से जुड़ा हुआ हो। कई बार इस योजना के अन्तर्गत बच्चों की कहानियाँ छाप दी जाती हैं-ऐसा बिलकुल न हो। आप चाहें तो उनके जीवन से (ख़ासकर गाँववालों के) जुड़ी समस्याओं या स्थितियों पर आधारित दूसरों की कहानियों का पुनर्लेखन भी कर सकते हैं और तब मैंने ही प्रेमचन्द की ‘सवा सेर गेहूँ' कहानी का सुझाव दिया था जो तुरन्त ही मान लिया गया और मुझे ही यह काम सौंप भी दिया। जब लिखने बैठी तो सोचा कि इसमें करना ही क्या है ? सारी कहानी को संक्षिप्त करके छोटे-छोटे वाक्यों वाली संयुक्ताक्षर-विहीन भाषा में ही तो लिखना है। पर शुरू करते ही लगा कि इतना आसान तो नहीं है यह काम...बिना एक भी संयुक्ताक्षर के लिखना परेशानी पैदा कर रहा था और इसीलिए दो की जगह चार दिन लग गए। पर यह कोई मेरा अपना लेखन तो था नहीं, पुनर्लेखन था, जिससे न कोई सन्तोष मिल सकता था न यह अहसास कि मेरा गतिरोध टूट रहा है। हाँ, आज अगर सन्तोष कर सकती हूँ तो केवल इस बात से कि सारी भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और हिन्दी का तो कोई पन्द्रहवाँ संस्करण आया है। वैसे मोटे-मोटे अक्षरों और तस्वीरों से भरी 20-22 पन्नों की इस किताब ने पैसा भी बहुत दिया...मैं तो कभी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी ! पर पैसे से ही सन्तोष पाना होता तो पान की दुकान खोलकर न बैठ जाती ! कहाँ रखा है पैसे में वह सन्तोष...वह सुखद अनुभूति जो कुछ भी रचते समय अपने भीतर जागती है।...नहीं जानती कि यह न लिख पाने की पीड़ा...न रच पाने का घाव क्यों हर बात, हर प्रसंग के साथ टीसने लगता है।

श्री शिवमंगल सिंह सुमन-वैसे तो उनसे पुराना परिचय था लेकिन मेरे वहाँ जाते ही उन्होंने मेरे बड़े भाई की भूमिका सँभाल ली। मेरी सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे। वे दस साल तक विक्रम विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे थे और उज्जैनवासियों के मन में उनके लिए बड़ा सम्मान था बल्कि कहूँ कि श्रद्धा थी, जिसे देखते हुए ही एक बार मैंने उनसे कहा था कि आप तो उज्जैन के बेताज बादशाह हैं। वे हँसे पर उनकी इस हँसी में बड़ा गद्गद भाव भी (आप चाहें तो इसे स्वीकार भाव भी कह सकते हैं) मिला हुआ था। हम लोग मिलते तो बहुत कम थे लेकिन मिलने पर कभी-कभी वे अपने पथ के साथियों-दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, जैनेन्द्र के व्यक्तिगत जीवन के पन्ने खोलना शुरू करते तो खोलते ही चलते। कैसे उन्हें इतनी बातें याद थीं...मैं तो इसी बात से चकित थी। इस उम्र में भी ऐसी याददाश्त !

'राम की शक्तिपूजा' उन्हें पूरी कंठस्थ थी और वे विभोर होकर सुनाते। कभी मानस पर चालू हो जाते, चौपाइयों पर चौपाइयाँ सुनाते चलते। अद्भुत स्मरणशक्ति के धनी थे सुमनजी...ऊपर से उनका सुनाने का लहजा। उनसे सुनते हुए मुझे अकसर विष्णुकान्त शास्त्री की याद आ जाती। पर मेरी सबसे ज़्यादा दिलचस्पी थी उनके संस्मरणों में। मैं हमेशा उनसे कहती कि इन सब बातों को आप लिखकर जाइए...विना लिख ही चले गए तो कोई कैसे जानेगा यह सब और हमारे प्रमुख लेखकों के व्यक्तिगत जीवन का कितना कुछ अनजाना ही रह जाएगा। अब यदि आपके लिए लिखना सम्भव न हो तो कम से कम टेप ही करवा लीजिए। हमारे यहाँ बहुत ईमानदारी से लेखकों के व्यक्तिगत जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का प्रचलन ही नहीं है...और न ही लेखक खुद ही बहुत ईमानदारी से वह सब लिख पाते हैं। (लेखकों की इतनी आत्मकथाएँ आने के बावजूद में यह लिख रही हूँ...मैं खुद ही अपनी इस कहानी में कहाँ खोलकर सारी बातें कह पाई :)। लेखक जिन्दा है तो यह संकोच कि वह क्या सोचेगा...इस लिखे पर कहीं मित्रता ही समाप्त न हो जाए ! जब अधिकतर लेखक अपनी रचनाओं की ज़रा-सी प्रतिकूल समीक्षाएँ तक बर्दाश्त नहीं कर पाते तो व्यक्तिगत जीवन के दबे-ढके, धुंधले पक्षों का अनावरण बर्दाश्त कर सकेंगे भला ? और शायद इसीलिए हमारे यहाँ यह सिलसिला सही ढंग से शुरू हो ही नहीं पाया !

एक सहज सामान्य सी बात भी हम शायद स्वीकार नहीं कर पाते कि लेखक की सारी महानता-प्रतिष्ठा...उसके सारे यश-सम्मान के नीचे ही उसकी कमजोरियों, घटिया हरक़तों के भी न जाने कितने प्रसंग जुड़े रहते हैं और वे सब भी उसके जीवन के...उसके व्यक्तित्व के अभिन्न हिस्से ही तो हैं। लेखक भी आखिर है तो मनुष्य ही और यदि उसकी ज़िन्दगी का श्वेत पक्ष औरों की अपेक्षा अधिक प्रबल है तो उसका श्याम पक्ष भी तो उतना ही प्रबल हो सकता है-होता है। जहाँ तक पर-स्त्री और सेक्स से सम्बन्धित प्रसंगों की बात है, वहाँ संकट पैदा होता है हमारे समाज में प्रचलित नैतिक मान्यताओं के कारण और लाख लीक छोड़ने और तोड़ने की बात करने के बावजूद लेखक भी कहीं बँधा तो इन्हीं मान्यताओं से होता है...तभी तो उसकी कसौटी पर अपने कर्मो (या कुकर्मों) को गलत तो मानता ही है, इसीलिए तो उन्हें छिपाता फिरता है...वरना जो काम आप कर सकते हैं-करते हैं, उन्हें कहने में कैसा संकोच...कैसी झिझक ! हो सकता है कि नैतिकता का यही प्रतिवन्ध सुमनजी के लिए भी अवरोध बना रहा हो और वे उन सारे प्रसंगों को क़लमबद्ध कर ही नहीं पाए ! वेसे स्त्री-सम्बन्धों के अतिरिक्त टुच्चेपन के कई और प्रसंग भी हो सकते हैं...होते हैं पर वे भी उनके अपने बनाए, घोषित किए हुए मूल्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते इसलिए छिपाना तो उन्हें भी पड़ता ही है।

मेरा घर यूनिवर्सिटी कैंपस में था और वहाँ चार परिवारों से मेरी निकटता हुई या कहूँ उन परिवारों से मुझे बराबर स्नेह और सहयोग मिलता रहा। सामने प्रो. टंडन और प्रो. छजलानी थे...बगल में प्रो. अमृतफले और ऊपर मिस्टर शुक्ला। मेरा आना-जाना सबसे ज़्यादा टंडन साहब के यहाँ ही होता था। वे अंग्रेजी विभाग में थे और उनकी बड़ी बेटी भी अंग्रेज़ी में एम.ए. कर रही थी। उनकी दोनों बेटियाँ बड़ी मेधावी थीं...पत्नी भी शिक्षित, सुरुचिपूर्ण। आश्चर्य तो मुझे इस बात पर होता था कि सब अंग्रेज़ी वाले पर उनके यहाँ बातचीत के दौरान कभी अंग्रेजी सुनाई ही नहीं देती। तब मेरी आँखों के आगे दिल्ली के परिवार घूम जाते जहाँ युवावर्ग के मुँह से हिन्दी तो मुश्किल से ही निकलती है। टंडन साहब के यहाँ मेरा खाना-पीना भी काफ़ी चलता रहता था। यों श्रीमती अमृतफले भी जब-तब बने अपने यहाँ के मराठी व्यंजन मेरे लिए भेजती रहतीं। एक बार बीमारी की हालत में उन्होंने मुझे अकेले नहीं सोने दिया और मेरे लाख मना करने के बावजूद अपनी बड़ी लड़की को मेरे साथ सुलाया ! जब तक मेरे यहाँ फ़ोन नहीं लगा तब तक हर इतवार को राजेन्द्र का फ़ोन शुक्ला साहब के यहाँ आता, और वे मुझे बुलाते। श्रीमती जलानी कभी-कभी मेरे यहाँ आती...वे कुछ लिखने का शौक़ रखती थीं और इसी सिलसिले में वे अपने लिखे पर मेरी राय, कुछ सुझाव लेने आती थीं।

कैम्पस के बाहर के भी एक-दो परिवारों से मेरी निकटता हुई थी जिसमें एक कश्मीरी परिवार था। बेहद सात्विक जीवन-शैली और आध्यात्मिक विचारोंवाले। एक बार मेरे पैर में ऐसी तकलीफ़ हुई कि चलना तक मुश्किल हो गया, तब वे ही मुझे अपनी गाड़ी में डालकर इन्दौर ले गए थे। दिल्ली आने से पहले उन्होंने मुझे मौनी बाबा से भी मिलवाया था। कहाँ तो मौनी बाबा किसी को एक मिनट का समय भी बड़ी मुश्किल से देते हैं और कहाँ वे मुझसे अपनी स्लेट और इशारों के माध्यम से देर तक बातें करते रहे। अद्भुत क्षमता है उनके पास बिना बोले भी बातचीत करने की ! वहीं पता चला कि विमल रॉय का पूरा परिवार उनका परम भक्त रहा है बरसों से और अभी कुछ दिन पहले ही रिंकी भट्टाचार्य (विमल रॉय की पुत्री) दो दिन उनके पास रहकर गई है !

पर जिनसे एक स्थायी सम्बन्ध बना वे हैं हिन्दी के प्राध्यापक प्रमोद त्रिवेदी। उन्होंने कुछ समय बाद आना शुरू किया था-कारण और कुछ नहीं, उनका संकोच..उनकी झिझक ! पर एक बार वह झिझक मिटी तो फिर बातचीत का नियमित सिलसिला उन्हीं के साथ जमा ! यों कभी-कभी डॉ. पवनकुमार मिश्र भी आते थे पर साप्ताहिक आगमन प्रमोदजी का ही होता था। प्रमोदजी खुद रचनाकार हैं और साहित्य की सभी विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक पर उन्होंने दखल कर रखा है इसलिए उनसे बातचीत का एक सिलसिला बन सका और चलता रहा ! और आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब काफ़ी समय बाद उन्होंने हमारी बातचीत को एक साक्षात्कार का रूप दे दिया ! उनका तैयार किया एक लम्बा साक्षात्कार मेरे पास सुरक्षित रखा है, जिसे पहले तो मैंने कभी सोचा था कि अपने इस आत्मकथ्य के साथ ही नत्थी करूँगी...पर अब उसे किसी दूसरी पुस्तक के लिए रख छोड़ा है। उज्जैन छोड़ने के बाद भी उनसे सम्पर्क बना रहा। वे पत्र लिखकर वहाँ के समाचार देते रहते हैं। एक बार इन्दौर जाते समय में उज्जैन उतरकर दो दिन उनके पास रही भी थी। वैसे इन्दौर जाने पर मुझसे मिलने वे वहाँ तो आते ही हैं। इन्दौर जाने पर मैं सूचना दे देती हूँ तो वे पत्नी वसुमती के साथ नाश्ता लेकर मुझसे मिलने स्टेशन ज़रूर आ जाते हैं !

तीन लोगों की बात किए बिना मेरे उज्जैन के सम्पर्क-सम्बन्धों की बात अधूरी रह जाएगी ! मेरा टाइपिस्ट शैलेन्द्र जो खुद भी कविताएँ लिखने का शौक रखता था...पर कविता में न मेरी रुचि, न गति सो मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकी ! हाँ, उसकी बदौलत मेरी निहायत अस्त-व्यस्त ज़िन्दगी कम से कम दो सालों के लिए तो बहुत व्यवस्थित हो गई। दिल्ली लौटकर बहुत इच्छा होती थी कि एक टाइपिस्ट की व्यवस्था में यहाँ भी कर लूँ अपने लिए...चाहे सप्ताह में दो दिन के लिए ही आए पर यहाँ तो अब टाइपराइटर का प्रचलन रहा ही नहीं...सब जगह कम्प्यूटर, सो बात ही टल गई ! दूसरी बाई...मेरी अन्नपूर्णा ! वह मुझे केवल खाना बनाकर ही नहीं खिलाती थी बल्कि मेरी और घर की पूरी देखभाल की ज़िम्मेदारी भी उसी की थी, जिसे वह बड़ी तत्परता से निभाती थी। तीसरी थी सुमन जो मेरे बाज़ार के काम करती और कभी-कभी वाई की अनुपस्थिति में खाना बनाकर भी खिलाती थी। उसका भी बहुत सहयोग मिला था मुझे।

अब एक बेहद साधारण-सा प्रसंग। जानती हूँ, कई लोगों को यह बहुत ही महत्त्वहीन लगेगा पर पता नहीं क्यों मुझे ऐसी बातें बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगती हैं। हो सकता है कि इसके मूल में मेरा अपना महत्त्वहीन व्यक्तित्व ही हो...जिसका ऐसी साधारण बातों से सहज ही तादात्म्य बैट जाता है। बगल में प्रो. अमृतफ्ले के परिवार में उनकी पत्नी और दो बेटियों के साथ उनकी बज़र्ग माँ भी रहती थीं। बाहर आते-जाते समय मुझे अकसर उनके कमरे की खिड़की से टेबिल पर टिका उनका धड़ दिखाई देता रहता था-वे शायद कुछ लिखती रहती थीं और मैं सोचती कि क्या लिखती हैं ये सारे दिन ? एक दिन वे मेरे पास आईं, बड़े संकोच से कहा कि मैं अनुवाद करती हूँ...पर हिन्दी तो मुझे उतनी अच्छी आती नहीं सो आप देखकर थोड़ा ठीकठाक कर देंगी ?

मैं दुविधा में, इतना ही कहा, “मुझे तो मराठी बिलकुल नहीं आती...अनुवाद मैं कैसे तो देख पाऊँगी और कैसे ठीक कर सकूँगी ?" लेकिन जल्दी ही उन्होंने बात स्पष्ट कर दी- “नहीं-नहीं, आप अनुवाद नहीं, सिर्फ हिन्दी भाषा को देख लीजिए और उसे सधार दीजिए ! आप मेरी इतनी मदद कर देंगी तो आपकी बड़ी कृपा होगी।"

"आप कृपावाली भाषा तो बोलिए मत...बस, यह कॉपी छोड़ जाइए, में देख दूंगी।" वे चुपचाप चली गईं। मैंने खोलकर देखा तो लम्बी साइज की पूरी कॉपी भरी हुई थी। एक पेज पढ़ा तो यह तो साफ़ हो गया कि हिन्दी उन्हें बिलकुल नहीं आती...उसे सुधारना यानी फिर से लिखना। और यह तो मेरे लिए सम्भव ही नहीं था। तभी खयाल आया कि ये कहीं इसे छपवाने के चक्कर में तो नहीं? कौन जाने अगला आग्रह यही हो कि थोड़ा ठीक-ठाक करके इसे कहीं छपवा दीजिए। ऐसी हालत में में क्या करूँगी। ऐसा तो कई बार देखा कि चार पन्ने काले किए नहीं और छपास छूटने लगती है। अब न तो इसे ठीक कर पाना मेरे बस की बात है और छपवाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बुरा तो उन्हें ज़रूर लगेगा पर अब साफ़-साफ़ बात करनी ही पड़ेगी। बुजुर्ग महिला हैं...मेहनत भी बहुत की है बेचारी ने, सो मैं आहत तो नहीं करना चाहती थी पर किसी भ्रम में भी नहीं रखना चाहती थी। शाम को उन्होंने पहले बच्ची को भेजकर पुछवाया, फिर खुद आईं ! इस बीच मैंने भी अपने को पूरी तरह तैयार कर लिया और उनके बैठते ही साफ़ ही पूछा- “आप ये अनुवाद कर क्यों रही हैं...कहीं छपवाना चाहती हैं ?"

"नहीं-नहीं, मेरा लिखा कौन छापेगा...मैं क्या जानती नहीं कि छपवाने जैसा तो मुझे लिखना ही नहीं आता।"

"तब फिर क्यों कर रही हैं इतनी मेहनत ? आते-जाते मैं आपको हमेशा लिखते हए ही देखती हूँ ! लिखकर आपको सन्तोष मिलता है...या समय गुज़ारने के लिए?"

“अब क्या बताऊँ आपको ?' कुछ देर चुप रहीं-मानो बताने में संकोच हो रहा हो, फिर बोलीं- “मेरी ये जो दोनों पोतियाँ हैं न, मराठी पढ़ना ही नहीं जानती...हिन्दी जानती हैं या अंग्रेज़ी सो यही सोचती हूँ कि ये कैसे पढ़ेंगी मराठी के इन उपन्यासों को जिन पर आज हर मराठी-भाषी को गर्व है। सो मैंने सोचा कि ख़ाली बैठे-बैठे क्या करूँ...इन्हें हिन्दी में लिख दूँ। कम से कम बड़ी होकर इसे तो पढ़ लेंगी और जान तो सकेंगी कि हमारे मराठी साहित्य में कैसी-कैसी रचनाएँ हैं। बच्चियों को देने के लिए और तो मेरे पास कुछ है नहीं, न कोई जमीन-जायदाद, न धन-दौलत, कम से कम उनके लिए इतना तो छोड़कर जाऊँ !'' मैं तो आज साफ़-साफ़ बात करने के इरादे से कुछ तनकर बैठी हुई थी पर उनका उत्तर सुनकर एकाएक नतमस्तक हो गई उनके सामने। साहित्य के प्रति ऐसी आस्था...अपनी भाषा के क्लासिक्स के प्रति ऐसा सम्मान...अपनी पोतियों को उन्हें पढ़ाने की ऐसी ललक ! मैंने तो आज तक किसी बुजुर्ग महिला के मुँह से ऐसी बात तक कभी सुनी नहीं...न किसी के मन में कभी ऐसी भावना देखी...और पोतियों के लिए छोड़ी जानेवाली अमूल्य विरासत की यह कल्पना ! आज यह सब लिखते समय एकाएक ख़याल आ रहा है कि अपनी पचास कहानियों के संग्रह को अपनी नतनियों को समर्पित करने के मूल में ज़रूर कहीं यही बात रही होगी, बल्कि अब तो निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि यहीं से प्रेरणा मिली थी मुझे भी इसकी !

मैंने सोचा था कि उज्जैन जाकर, जैसे भी हो लिखने के इस टूटे क्रम को जोड़ना ही है। इससे अधिक अनुकूल अवसर अब और कहाँ मिलेगा ? मुझसे जो भी कोई मिलने आता मैं अपनी न लिख पाने की व्यथा का ज़िक्र किए बिना रह ही न पाती और घूम-फिरकर सबका एक ही जवाब-चिन्ता मत कीजिए और देखिए कि अब आपकी क़लम कैसे चलना शुरू होती है-सारी निष्क्रियता दूर हो जाएगी आपकी यहाँ। अरे यह कालिदास की भूमि है, साहित्य के लिए उर्वर भूमि ! पर उर्वर भूमि की इस धारणा को पहला झटका तब लगा जब मालूम हुआ कि पूरे उज्जैन में एक भी दुकान ऐसी नहीं, जहाँ कोई साहित्यिक पुस्तक मिल जाए...पुस्तक की बात तो छोड़िए, कोई साहित्यिक पत्रिका तक उपलब्ध नहीं। दो साल के दौरान न तो मैंने साहित्यिक गतिविधियों का कोई सिलसिला देखा, न कोई स्तरीय कार्यक्रम। यह सब मैं 1992 से 94 तक की बातें लिख रही हूँ, हो सकता है कि बाद में इन स्थितियों में कोई परिवर्तन आया हो। इस सारी स्थिति को देखते हुए एक बार मैंने सुमनजी से पूछा- “सुमनजी, दस साल तक आप यहाँ उपकुलपति रहे...बादशाहत तो आपकी यहाँ है ही, फिर आपके रहते यहाँ साहित्य के क्षेत्र में ऐसा सन्नाटा क्यों ? न कोई साहित्यिक पत्रिका मिलती है न कोई साहित्यिक पुस्तक। क्या करते रहे आप ?" बड़े खेद में लिपटी उनकी स्वीकारोक्ति–'हाँ भई मन्नू, यह तो बहुत बड़ी कमी रह गई !'

बाद में मुझे इतना तो ज़रूर मालूम पड़ा कि सुमनजी जब माधव कॉलेज के प्राचार्य थे तो वे बराबर वहाँ साहित्यिक आयोजन करवाते रहते थे। हिन्दी के सभी दिग्गज लेखक, कवि, कथाकार उनके निमन्त्रण पर यहाँ आ चुके हैं और श्रोताओं की अच्छी-खासी भीड़ के बीच उनके कार्यक्रम हुए हैं। पर सुमनजी के उपकुलपति बनते ही उस पद की ज़िम्मेदारियों ने सुमनजी के पास न समय रहने दिया, न सुविधाएँ। और एक समय साहित्यिक गतिविधियों का जो सिलसिला उन्होंने शुरू किया था, वह एक परम्परा बनने से पहले ही समाप्त हो गया। अब यहाँ कोई ऐसा मंच भी तो नहीं है, जहाँ से इन गतिविधियों को अंजाम दिया जा सके। हाँ, कालिदास अकादमी है और हर साल बड़े भव्य स्तर पर कालिदास समारोह करती भी है, पर उसकी गतिविधियों में आधुनिक साहित्य के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।

आरोप तो लगा दिया पर आज आरोप के उसी घेरे में खड़ी मैं अपने आप से पूछती हूँ कि मैंने ही दो साल रहकर क्या किया वहाँ ? अपने न लिख पाने के पीछे अनेक कारण हो सकते हैं...थे भी, पर एक-दो साहित्यिक आयोजन तो कर ही सकती थी। मैं पहल करती...योजना बनाकर देती तो बाक़ी व्यवस्था तो वे लोग सहर्ष कर देते। दो साल में बड़े स्तर पर एक कथा-समारोह ज़रूर हुआ...काफ़ी संख्या में हिन्दी के प्रमुख कथाकारों ने उसमें शिरकत भी की पर उसका सारा श्रेय तो श्रोत्रियजी को जाता है। उन्होंने ही योजना बनाई और उन्होंने ही उसे कार्यान्वित भी किया। उन्होंने तो उज्जैन के बाहर भी एक-दो जगह आयोजन किए. मैं तो उनमें ठीक से बोल भी नहीं पाई। पर खैर, मेरी असमर्थता का प्रसंग अलग है, उज्जैन की इस स्थिति से उसका कोई लेना-देना नहीं !

सोचा तो यही था कि बस एक बार दिल्ली के उस तनावपूर्ण वातावरण से बाहर निकलने का अवसर मिल जाए तो कम से कम में अपनी इस जड़ता से तो उबर सकूँगी...लिखने के इस टूटे क्रम को फिर से जोड़ सकूँगी। आज तक लेखन ही तो मुझे सहेजता-संवारता आया है...पर जाने कैसी जड़ता व्यापी हुई थी कि लिखने का वह सिलसिला पहले वाली गति से शुरू ही नहीं हो पा रहा था। यों वहाँ रहकर छुट-पट काम जरूर किए, जैसे तीन-चार कहानियाँ लिखीं पर फाइनल ड्राफ्ट किसी का भी नहीं बना पाई। एक कहानी को तो तीन बार लिखा-एक बार माँ के एंगिल से-एक बार बेटे के एंगिल से, पर दोनों ही रूप नहीं जमे तो कुछ दिनों बाद लेखक के एंगिल से उसी कहानी को फिर लिखा पर अभी भी पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हूँ।

निष्क्रियता की अपनी इस स्थिति को देखकर मुझे आजकल हमेशा यही लगता है कि शायद मेरे भीतर का आलोचक, सर्जक से कहीं अधिक सक्रिय बन बैठा है। उपस्थित तो पहले भी दोनों रहते ही थे (हर लेखक के भीतर रहते हैं) पर सर्जक यदि केन्द्र में तो आलोचक परिधि पर और यही सही स्थिति भी है दोनों की ! आप रचना करिए और परिधि पर बैठा आलोचक निरन्तर उसका परिमार्जन करता रहे। लेकिन यदि स्थिति उलट गई तो रचना ही स्थगित होती चलेगी-जो मेरे साथ हो रहा था और आज भी हो रहा है। लिखती बाद में हूँ और रिजेक्शन का सिलसिला पहले शुरू हो जाता है और इसके मूल में और कुछ नहीं, है तो केवल खंडित आत्मविश्वास या फिर मेरे भीतर जड़ जमाकर बैठी हीनभाव की पुरानी ग्रन्थि ! खैर, दिल्ली आने के बाद इन कहानियों में से एक का फाइनल ड्राफ़्ट बनाकर 'नमक' नाम से उसे इंडिया टुडे की वार्षिकी में छपने को दिया।

रिंकी भट्टाचार्य (विमल रॉय की पुत्री) ने एक पुस्तक की योजना बनाई, जिसमें छह-सात महिलाओं को उम्र के इस पड़ाव पर आकर पीछे मुड़कर नए सिरे से अपने पिता का मूल्यांकन करना था। रिंकी तो इसमें विमल रॉय पर लिख ही रही थीं, उनका बहुत आग्रह था कि मैं भी उसमें लिखू। हो सकता है कि बासु भट्टाचार्य से शादी करने के कारण विमल रॉय का उनसे सम्बन्ध तोड़ना और मेरे पिताजी का राजेन्द्र से शादी करने के कारण मुझसे सम्बन्ध तोड़ना ही वह सामान्य बात हो जिसके चलते रिंकी ने मुझसे यह आग्रह किया हो। पिताजी पर... उनके अन्तर्विरोधों पर, उनकी खूबियों और खामियों पर लिखने की कब से इच्छा थी मेरे मन में...रिंकी के आग्रह पर इच्छा फिर कुलबुलाने लगी और एक बार जो लिखना शुरू किया तो बहुत संक्षेप करने के बावजूद मैं थोड़ा विस्तार में चली गई। पर उनकी तो शब्द-सीमा थी सो उनके पास भेजने के लिए तो काफ़ी काट-छाँट करनी पड़ी। अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उन्होंने तो उसे अपनी पुस्तक में छाप भी दिया। अच्छा लगा देखकर कि मीनाक्षी मुखर्जी ने इस पुस्तक की समीक्षा में इस योजना की तो प्रशंसा की ही पर सम्मिलित आलेखों में सबसे अधिक और प्रशंसात्मक उल्लेख मेरे लेख का ही था। उसका बचा हुआ प्रारूप थोड़े और विस्तार के साथ पूरा होने की प्रतीक्षा में आज भी मेरे पास पड़ा है।

हंस के लिए अपना ‘आत्मतर्पण' ज़रूर पूरा करके भेजा था और वह तभी छप भी गया। इस आत्मकथ्य के लिए अनुबन्ध करते समय तो बात हुई थी कि अपने व्यक्तिगत जीवन के सन्दर्भो को स्पर्श करते हुए अपनी एक संक्षिप्त-सी लेखकीय यात्रा का विवरण दे दूँ, जिसे पचास कहानियों की भूमिका के रूप में छापा जा सके। लेकिन शुरू करते ही लगा कि यह तो थोड़े विस्तार में चल पड़ा है तो रोक दिया। काट-छाँट करके इसे संक्षिप्त करने की बजाय सोचा कि मुख्यतः लेखन को केन्द्र में रखकर क्यों न एक विस्तृत आत्मकथ्य ही लिख दिया जाए और तब भविष्य में कभी पूरा करने के लिए इसे भी वहीं रोक दिया।

इधर कुछ दिनों से एक उपन्यास की थीम ज़रूर मन में कुलबुला रही थी...पर समझ नहीं आ रहा था कि यह कुछ रूप ले भी पाएगी या नहीं...कि मैं इसे सँभाल भी पाऊँगी या नहीं। फिर भी शुरू तो कर दिया पर हर चीज़ की तरह वह भी अधूरा। पचास-साठ पृष्ठ लिखे और उसकी गाड़ी भी वहीं अटक गई... पर जितना लिखा उससे मैं पूरी तरह सन्तुष्ट थी। बहुत-बहुत दिनों बाद पहली बार अपने लिखे पर सन्तोष हो रहा था। पर लिखने का पहले जैसा प्रवाह तो रहा ही नहीं। आज भी याद है कि जब आपका बंटी और महाभोज लिखने बैठी थी तो एक बार शुरू करने के बाद फिर पृष्ठ-दर-पृष्ठ जैसे क़लम से झरते चले गए थे ! पर यह जो अटका तो अटककर ही रह गया। दिल्ली लौटकर अर्चना को मैंने इसके बारे में बताया भी था...याद नहीं कि लिखा हुआ हिस्सा पढ़कर सुनाया था या वैसे ही इसके बारे में बताया था और उसने कहा था कि इसे तो आपको पूरा करना ही होगा...बिना पूरा किए तो मैं आपको मरने नहीं दूंगी (उन दिनों न्यूरोलजिया की तकलीफ़ बहुत बढ़ी हुई थी और मुझे बारह सौ मिलिग्राम तक सेडेटिव लेना पड़ता था) सो मैं मरी तो नहीं, इस उपन्यास को पूरा जो करना है। बस, आजकल एक ही इच्छा है, जो धीरे-धीरे संकल्प बनती जा रही है कि इन अधूरी चीज़ों को परा करना है...लिखने के अपने इस संकल्प को किसी भी हालत में शिथिल नहीं होने देना है।

ऐसा तो नहीं कि उज्जैन में रहते हुए मैंने पन्ने काले नहीं किए। पन्ने तो बहुत काले किए पर सन्तोष देने जैसी एक भी रचना पूरी तो नहीं कर सकी...जो भी लिखा, जितना भी लिखा सब आधा-अधूरा। उन दिनों यही एक प्रश्न मुझे परेशान करता कि दिल्ली की उन तनावपूर्ण स्थितियों और राजेन्द्र के साथ निहायत संवादहीन और अलगावपूर्ण सम्बन्धों से (कानपुर से लौटने के बाद यह स्थिति जितनी विकट हुई, पहले वैसी नहीं थी) पूरी तरह मुक्त होने के वाद...सारी सविधाएँ उपलब्ध होने के बाद भी मैं क्यों नहीं पहले की तरह जमकर लिख पा रही हूँ ? आज उन स्थितियों से मानसिक रूप से पूरी तरह उबर जाने के बाद मुझे उस समय की अपनी मूर्खता पर हँसी ही आती है। उस समय क्यों नहीं मैं इतनी मोटी बात भी समझ पाई कि आत्मीय सम्बन्धों (?) से उपजे इन तनावों का सम्बन्ध बाहरी परिवेश से उतना था ही नहीं, जितना ये मेरे मन में रचे-बसे थे। बाहरी परिवेश तो ज़रूर छूट गया था पर मन तो मेरे साथ ही आया था और मन आया तो उसके साथ बँधे-बँधे वे तनाव भी चले आए थे। दिन-भर तो लोगों के साथ बातचीत, मिलने-जुलने में मैं इतनी सामान्य रहती (इस कला में तो मैंने बरसों से महारत हासिल कर रखी थी) कि कोई सपने में भी इस बात का अनुमान तक नहीं लगा सकता था कि मेरे और राजेन्द्र के सम्बन्ध बिगड़ते-बिगड़ते अब टूटने की कगार तक पहुँच चुके हैं...बल्कि टूट ही चुके हैं...कि कैसी मानसिक स्थिति में मैं यहाँ आई हूँ। लेकिन रात में जब मैं बिलकुल अकेली लेटती तो लाख कोशिशों के बावजूद आँखों के आगे अतीत की वे ही घटनाएँ...वे ही स्थितियाँ, वे ही बातें गुजरने लगतीं और क्या लिखना है, कैसे लिखना है, वह सब उसी में डूब जाता यानी कि अतीत फिर हावी हो जाता और लिखना स्थगित।

उज्जैन आते ही राजेन्द्र ने तो अपना वही पुराना सिलसिला फिर चालू कर दिया था ! यों इनके व्यवहार में परिवर्तन तो मेरे उज्जैन आने का निर्णय लेने के बाद से ही शुरू हो गया था पर यहाँ आने के बाद हर इतवार को फ़ोन का जो सिलसिला शुरू किया, इस बार उसमें आत्मीयता और अपनत्व का एक गहरा पुट और आ मिला। तबीयत का हाल पूछते तो उसमें एक गहरे सरोकार की गन्ध होती 'क्या लिख रही हो...बस, जमकर लिखो' में प्रोत्साहन की ! और जब इस सबकी तुलना मैं राजेन्द्र के कानपुर से लौटने के बाद वाले व्यवहार से करती तो हैरान रह जाती। कहाँ तो उपेक्षा, अलगाव और असंवाद की स्थिति में गुज़ारे वे साढ़े तीन साल और कहाँ एकाएक उभर आई यह आत्मीयता ! इतने दिनों और इतनी घटनाओं के बाद यह तो मैं अच्छी तरह समझ गई थी कि न तो राजेन्द्र यह घर छोड़ना चाहते हैं और न ही यह सम्बन्ध तोड़ना ! आश्चर्य होता था मुझे कभी-कभी इनकी कथनी और करनी के इस भेद पर। सारी ज़िन्दगी दमघोंटू कह-कहकर ये जिस घर की भर्त्सना करते रहे...जिन्हें यह सम्बन्ध बेहद नकली, उबाऊ और अपनी प्रतिभा का हनन करनेवाला लगता रहा अब क्यों उसी घर और सम्बन्ध से ये चिपककर रहना चाहते हैं ? मैं नहीं जानती कि इनकी बातें इनकी ज़िन्दगी की सच्चाई हैं या इनका यह व्यवहार ! अपने इस व्यवहार की पुष्टि करने के लिए मेरे दो साल के प्रवास में तीन बार राजेन्द्र स्वयं उज्जैन भी आए। एक बार तो मेरे जन्म-दिन पर बिना सूचना दिए टिंकू और दिनेश के साथ प्रकट हो गए। मैं हैरान...हैरान ही नहीं, आत्मीयता का भूखा मेरा मन सचमुच विभोर हो गया था उस दिन ! उस दिन टंडन साहब ने ही हम सबको अपने यहाँ खाना खिलाया था तो शाम उन्होंने हमारे घर आकर गुज़ारी। खबर मिलते ही दूसरे दिन सुमनजी आ गए थे और फिर अपनी कविताओं...अपने उन्हीं संस्मरणों को सुनाते हुए पूरी शाम गुलज़ार रखी। इनके आने पर बाई इनकी विशेष खातिर करने में जुटी रहती तो शैलेन्द्र इनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत पूरी करने को तत्पर। हमारा आपसी व्यवहार भी इतना सहज-सामान्य रहता कि उसमें किसी तरह के तनाव या दरार की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था।

कोई और तो नहीं सोच सकता था पर में...? नहीं जानती इसे अपने जीवन की विडम्बना कहूँ या त्रासदी...दुर्बलता कहूँ या मूर्खता ! कोई चौंतीस सालों के अपने अनुभव...एक स्वच्छन्द और मनमाने ढंग से जीवन जीने की इनकी ज़िद, जिसमें सारे प्रयत्नों के बावजूद मैं जरा-सा भी परिवर्तन नहीं ला सकी थी...अपने हर दुराग्रह को सही सिद्ध करने और हमेशा मुझे ही कठघरे में खड़ा करने के लिए गढ़े इनके तक, इनका फ़लसफ़ा...इन सबको अच्छी तरह जानने, भोगने के बाद ही तो मैंने अलग होने का निर्णय लिया था...दृढ़ संकल्प के साथ उसे कार्यान्वित भी किया पर अन्ततः उस पर टिक क्यों नहीं सकी ? अपनत्व और आत्मीयता में लिपटे इनके हाथ बढ़े नहीं कि फिर लौट पड़ी। पर क्यों ? क्यों नहीं अपने पुराने अनुभवों ने मुझे वहाँ रोक दिया। रुकना तो दूर, अब क्या कहूँ आदमी की उस फितरत को जो अपनी हर कमज़ोरी...अपने किए हर सही-गलत को सही सिद्ध करने के लिए तर्क भी गढ़ लेता है...कारणों का एक पूरा सिलसिला भी ढूँढ़ निकालता है। मैं भी सोचती कि हंस की सफलता ने शायद राजेन्द्र के व्यक्तित्व को अब पूरी तरह बदल दिया है। उससे मिलनेवाले यश, सम्मान, प्रतिष्ठा ने (जो शुरू से ही इनका काम्य रहा था) ज़रूर इनका कायाकल्प कर दिया है। सुधर गई आर्थिक स्थिति ने इन्हें न जाने कितनी हीनता-जनित ग्रन्थियों से मुक्त कर दिया है और अब ये शायद खुद एक अधिक सहज...एक अधिक सामान्य जीवन जीना चाहते हैं। यह भी हो सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर इन्हें भी अब हर कीमत पर घर और पत्नी की आवश्यकता महसूस हो रही हो।

उम्र की इस बात के दिमाग में आते ही एकाएक मेरी आँखों के सामने दो घटनाओं के पन्ने खुल पड़े ! कुछ साल पहले की ही तो बात थी, मेरे अपने ही एक लेखक-मित्र खम ठोक-ठोककर कह रहे थे-“मन्नू, इसमें कोई शक नहीं कि मैं कई औरतों के साथ सोया हूँ, पर आज ? आज तो बस मेरे लिए जो भी है मेरी पत्नी ही है (उन्होंने नाम लिया था) आज तो यही मेरी मित्र है, प्रेमिका है, प्रेयसी है।" और उन्होंने पास बैठी पत्नी को बाँह में भर लिया। पत्नी निहाल ! और मैं सोच रही थी कि जो पत्नी आज आपको अपनी सब कुछ दिखाई दे रही है...कभी सोचा भी था कि जब आप अपनी प्रेमिकाओं के साथ मस्ती भरी रातें गुज़ारा करते थे...उसकी रातें कैसे आँसुओं में डूबी गुज़रती होंगी ? नहीं, उस समय आपको ऐसी असुविधाजनक बातें भला क्यों याद आती...उस समय तो आपके लिए पत्नी का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा होगा। पर आज...उम्र के इस पड़ाव पर आपको उसकी ज़रूरत है तो केवल अपनी देखभाल के लिए...अपनी सेवा-सुश्रूषा के लिए, क्योंकि आप बीमार रहने लगे हैं, अचानक वह आपकी सब कुछ हो गई।

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