जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
31 अक्टूबर 1984
साहित्य अकादमी का कोई कार्यक्रम चल रहा था और हमें यह सूचना मिली कि
'इन्दिरा गांधी के अंगरक्षकों में से ही किसी ने उन पर गोलियाँ चलाई और
उन्हें तुरन्त मेडिकल इन्स्टिट्यूट ले जाया गया है। मृत्यु की सूचना तो शाम
को मिली थी पर उस बीच दुख और आक्रोश में लिपटी तरह-तरह की अफ़वाहें...कितनी
बार आगाह किया गया था कि ऑपरेशन ब्लू-स्टार के बाद माहौल अच्छा नहीं है...कम
से कम पर्सनल सिक्यूरिटी में से तो सरदारों को हटा दीजिए पर उनका एक ही जवाब
रहता था कि नहीं, न तो मैं किसी पर अविश्वास करूँगी, न ही इस तरह का कोई
भेदभाव करूँयी, मिल गया विश्वास का फल ? राजनीति का खेल, जो न कराए सो
थोड़ा...अपनी राजनीति का मोहरा बनाकर जिस भिंडरावाला को इन्दिरा गांधी ने
खड़ा किया, उसी के लोगों ने उन्हें हमेशा के लिए लिटा दिया। तरह-तरह की
टिप्पणियाँ...अफ़वाहें, आशंकाएँ। शाम को मृत्यु की सूचना मिलते ही आशंकाओं के
हक़ीक़त में बदलते ही शुरू हुए दंगे, जिन्होंने दूसरे दिन तो भयंकर रूप धारण
कर लिया। मारने-मरवानेवाले कोई, पर झेला तो न जाने कितने बेगुनाहों ने भी।
अगले दिन शहर में कर्फ्यू लग गया।
एक दिन बाद ही मेरी एक समाज-सेवी मित्र रेणका मिश्रा का फ़ोन आया कि कुछ
लोगों को और खाने का सामान जितना भी हो सके इकट्ठा करके तैयार रहिए,
त्रिलोकपुरी जाना है। कर्फ्यू-पास और कुछ डॉक्टरों का प्रबन्ध उन लोगों ने कर
लिया है। त्रिलोकपुरी थाने के सामने बड़े से मैदान में सारी रात
काँपते-थरथराते लोगों का हजम बैठा था...कल रात त्रिलोकपुरी में जो कुछ भी हआ
उस बर्बर कांड की गवाही देता-सा। खून में सने घायल, अधजले लोगों को तो मैं
देख भी नहीं सकती, सो हम तीन-चार लोगों ने जिम्मा लिया चाय बनाने का। थाने के
पीछे कुछ
पत्थर जोड़कर चूल्हा बनाया, ढेर सारी लकड़ियाँ जलाईं और थाने से ही मिले एक
बड़े से भगाने में पानी चढ़ा दिया। तभी ध्यान गया कि साथ आए सामान में चीनी
और चाय की पत्नी तो है पर दूध के डिब्बे तो हैं ही नहीं-अब : घायलों के लिए
जैसे तुरन्त मेडिकल-एड ज़रूरी थी वैसे ही बचे हुए लोगों के लिए, जिन्होंने
पूरी रात खुले मैदान में काटी थी, चाय ज़रूरी थी। पर दूध ? तभी थाने के ही
किसी गिपाही ने बताया कि पास में ही एक खटाल (जहाँ गाय-भैंसें रखी जाती हैं,
जिनको दहकर सारे शहर में दूध भेजा जाता है) तो है, कयूं की वजह से दूध भी
सारा यहीं पड़ा होगा पर वे लोग देंगे नहीं क्योंकि मार-काट करनेवाले भी तो
यही लोग थे। माँगने पर दूध की जगह डंडे न जमा दें दो-चार। अजीब विडम्बना
थी...एक ओर दहशत-भरे चेहरे, भूख-प्यास से कुम्हलाए हुए और दूसरी ओर बर्बाद
होते दूध की टंकियाँ। जो भी होगा देखा जाएगा, एक बार जाकर माँगने में क्या
हर्ज़। तभी एक पलिसवाले ने ही सुझाया कि आप लोग जाइए आपको शायद दे
देंगे...औरतों को कुछ भी नहीं कहेंगे। सुनते ही में एक छात्रा के साथ गाड़ी
लेकर वहाँ पहुँची। पहले गाड़ी में से झाँककर देखा...सामने एक तख्त पर दूध की
टंकियाँ जमी रखी थीं...कुछ दूर पर एक खटिया पर तीन लोग बैठे थे-शायद चुपचाप
ही थे। हिम्मत करके हम दोनों उतरीं और अपनी माँग रख दी– “पाँच लीटर दूध
मिलेगा ?"
ऊपर से नीचे तक हमें अपनी तीखी नज़रों से देखा, परखा फिर एक सूखा सा
प्रश्न-“किसलिए ?" प्रश्न चाहे बेहद रुखाई से पूछा गया था पर उसमें ख़तरे
जैसी कोई बात नहीं लगी तो मैंने साफ़-साफ़ बात कही। “आप भी जानते हैं कि
किसलिए चाहिए...जो हुआ सो हुआ पर अब यह इंसानियत का तकाज़ा है कि इन लोगों की
मदद की जाए।” कुछ क्षणों की चुप्पी, बिना शब्दों के आँखों ही आँखों में तीनों
में कुछ वार्तालाप हो रहा था या कि बोलनेवाला अपनी किसी भीतरी दुविधा से उबर
रहा था, समझ पाना मुश्किल था। बेहद ठंडे स्वर में उसने कहा“ठीक है, ले जाइए।"
स्वर में और चाहे जो हो, बर्बाद जाते दूध में से पाँच लीटर दूध बिक जाने की
खुशी क़तई नहीं थी। उठकर वह तख्त की तरफ़ बढ़ा तो एकाएक हमें ध्यान आया कि
दूध लेने के लिए हमारे पास कोई वर्तन तो है ही नहीं। एक तो वहाँ कोई बर्तन था
ही नहीं, दूसरे हड़बड़ाहट में हमें माँगने का भी ख्याल नहीं रहा था। सो अपनी
माँग को थोड़ा और आगे सरकाते हुए कहा-“थोड़ी
देर के लिए अपनी यह टंकी हमें दे दीजिए...इसके बदले में भी आप रुपया रख
लीजिए...काम खत्म होते ही हम टंकी लौटा जाएँगे।”
उसके बढ़ते क़दम ठिठके...माथे पर तीन सलवटें उभर आई। मुझे लगा इसी की आड़ में
अब यह मना कर देगा पर नहीं, वह आगे बढ़ा और बिना नापे-तौले एक छोटी टंकी
हमारी ओर बढ़ा थी।
"हमारा काम तो कुल पाँच लीटर से चल जाएगा।"
“ले जाइए, बच्चों-बच्चों के काम आ जाएगा।" इतना सुनते ही मेरे साथवाली लड़की
तो टंकी लेकर गाड़ी की ओर लपक ली, मैं हिसाब करने के लिए पर्स खोलकर वहीं
खड़ी थी। कुछ पूछती इसके पहले ही हाथ से नकार का इशारा करते हा वह बोला-
“रहने दीजिए...रहने दीजिए। यह मत समझिए कि हम इंसान नहीं हैं। इंसान तो हम भी
हैं, पर...।” अब अपने को रोक पाना मेरे लिए सम्भव नहीं रहा...इस 'पर' की डोर
पकड़कर पूछ ही बैठी...
"अच्छा बताइए कि कल यहाँ हुआ क्या ? क्यों इतनी बर्बरता से...”
“मत पूछिए यह सब, वरना फिर अभी...” सारी उदारता और मानवीयता को दरकिनार कर
एकाएक वह भड़क उठा। गुस्से से उसकी आँखें सुलग उठीं-
“पूछिए इनसे कि क्या करते रहे ये लोग ? सारी रात भाँगड़े हुए हैं-शराबें उड़ी
हैं, दीये जले हैं, आतिशबाजी होती रही। हमारी माँ को धोखे से मारकर ऐसा जश्न
मनाया है इन लोगों ने तो साहब हमारी रगों में भी पानी तो नहीं ही
बहता...बर्दाश्त से बाहर हो गई तो...आ गए गाँव से सारे लोग और टिकाने लगा
दिया। यही होना था इन लोगों के साथ।”
एकाएक ही उसके चेहरे पर क्रोध और घृणा से लिपटी अजीब बर्बरता फैल गई। मैं भी
लौट पड़ी और गाड़ी के चलते ही वह चाहे पीछे छूट गया पर रंग और भाव बदलता उसका
चेहरा...उसकी सुलगती हुई आँखें मेरी पीठ पर चिपकी चली आई और जब तक पानी नहीं
खौल गया, एक अजीब-सा द्वन्द्व मेरे मन में भी खौलता रहा। याद आई मृत्यु की
सूचना मिलनेवाली रात ! कमलानगर से मेरी एक मित्र का फ़ोन आया- “मन्नू दी
जानती हैं, मृत्यु की सूचना मिलने के दो-तीन घंटे बाद सरदारों के दो-तीन
लड़के सड़क पर उछल-उछलकर चिल्ला रहे थे...'कुत्ती नूं
गड्डी ते चढ़ा दित्ता...कुत्ती नूं गड्डी ते...'
चाय से भरी बड़ी-सी एल्युमीनियम की केतली मेरे हाथ में थी और मेरे साथ एक
लड़की ने अपनी चुन्नी में खाने की कुछ चीजें भर रखी थीं और हम एक-एक के पास
जाकर बाँट रहे थे। थोड़ी देर में मैं एक बुजुर्ग से सरदार जी के सामने खड़ी
थी। सिर के खुले सफ़ेद बाल, कुरते के खुले बटनों से झाँकते छाती के सफ़ेद
बाल...बिलकुल भावहीन पथराया चेहरा। पास में तीन औरतें और कुछ छोटे-छोटे बच्चे
!
“सरदार जी, कुछ बरतन हो तो दीजिए, मैं चाय दे देती हूँ।”
न कोई उत्तर, न चेहरे पर कोई भाव। मैंने अपनी बात दोहराई-
“चाय ले लीजिए सरदार जी...थोड़ा सुकून पहुँचेगा।"
“सुकून ? तुम चाय से सुकून देने आई हो बिब्बी ?...अरे, जिस बाप की आँखों के
सामने उसके तीन-तीन जवान बेटों को साफ़ों से बाँधकर जिन्दा जला दिया गया हो,
उसे तुम्हारी चाय सुकून देगी ?" चेहरे पर न कोई दहशत, न दुख का भाव। वही
पथराया चेहरा। और उस पथराए चेहरे ने मुझे भी पत्थर का बना दिया...बिलकुल जड़।
न चाय देते बन रहा था, न जवाब देते। जवाब तो इस बात का हो भी क्या सकता था।
ऐसी भयंकर त्रासदी
“तुम्हीं बताओ बिब्बी...कितनी बार हम उजड़ेंगे और कितनी बार बसेंगे ? एक बार
पंजाब से लुट-पिटकर आया था तब ये बच्चे छोटे-छोटे थे पर उस समय मेरी बाँहों
में जोर था बिब्बी...खूब मेहनत-मजदूरी की...बच्चों को पढ़ाया-लिखाया,
शादी-ब्याह किए...काम-धन्धे से लगाया पर अब ? आज इन तीन बेवाओं और उनके
छोटे-छोटे बच्चों को कौन पालेगा...कैसे बड़े होंगे ये ? अब तो इन बाजुओं में
भी ज़ोर नहीं रहा,” और कोहनी मोड़कर उसने अपनी बाँह उठाई। लगा कभी बाँहें
ज़रूर गठीली रही होंगी और इस तरह उठाने पर उनमें मछलियाँ उभर आती होंगी...आज
तो वहाँ मांस झूल रहा था। पर न उसकी आँखों में कोई आँसू था...न चेहरे पर कोई
दहशत, सिर्फ एक प्रश्न था और फिर तो लगा जैसे उसका पूरा वजूद ही एक प्रश्न
में बदल गया है-कितनी बार उजड़ेंगे और कितनी बार बसेंगे...?
शाम को घर लौटते समय न और लोगों की बातें मेरे जेहन में उतर रही थीं, न वहाँ
किए काम और हालात के ब्योरे। उस दिन सुना निहायत एक नया नारा'हिन्दू-मुस्लिम
भाई-भाई...सिक्खों की अब करो सफ़ाई' जिसने काफ़ी देर तक हम लोगों को चमत्कृत
रखा था...धुंधला गया। बस मन में अगर कुछ अटककर रह गया था तो सरदारजी का वह
पथराया हुआ चेहरा जिस पर एक अनुत्तरित प्रश्न टॅगा हुआ था और कभी-कभी उस
चेहरे को काटती हुई क्रोध में धधकती ग्वाले की सुर्ख आँखों से बरसता ये
प्रश्न-धोखे से हमारी माँ को मारकर ऐसा जश्न मनाएँगे...ऐसा जश्न...? यदि दिल
दहला देनेवाली यातना...उनका प्रश्न...उनका वह पथराया चेहरा मेरे मन में खुदा
हुआ है, जिसे मैं शायद कभी भी नहीं भूल पाऊँगी तो क्यों ग्वाले का आक्रोश और
सुलगती आँखें भी मुझे कभी-कभी याद आ ही जाती हैं !
नया तो मैं कुछ लिख नहीं पा रही थी इसलिए एक बार मैंने इस प्रसंग को ही हंस
में छपने के लिए दे दिया-यह छपा और प्रतिक्रिया में आए दो पत्रों ने मेरी
बड़ी लानत-मलामत भी की। पढ़ते ही लगा कि लो, बरसों बाद तो कुछ छपा सो भी
पिटने के लिए। पाठकों को लगा था कि मैं जैसे परोक्ष रूप से दंगों का समर्थन
ही कर रही हूँ। दंगों का समर्थन-सरदारों पर जैसे बर्बर अत्याचार हुए, उसका
समर्थन ! आज लिखते समय जब यह प्रसंग आया तो प्रतिक्रिया में छपे वे पत्र भी
दिमाग में कौंधे और लगा कि इस समय तो ज़रूर मुझे अपना पक्ष स्पष्ट कर देना
चाहिए। उन दंगों में सरदारों के साथ जैसे-जैसे अमानवीय और दिल दहला देनेवाले
अत्याचार हुए थे (एक का हवाला तो मैंने खुद ही दिया है) कोई भी संवेदनशील
व्यक्ति उसका समर्थन कर सकता है भला ? बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार
हूँ कि समर्थन करनेवाला व्यक्ति अपने को मनुष्य कहने का अधिकार भी रखता है
क्या ? लेकिन इन सबके बावजूद इस सारी घटना को उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में
रखकर उसके सारे सन्दर्भो के साथ समझना चाहती थी।
यह तो जगजाहिर है कि इन्दिरा गांधी की मृत्यु पर बहुत से सरदारों ने खुशियाँ
मनाई थीं। टी.वी. में लोगों ने खालिस्तान के सूत्रधार जगजीत सिंह को शेम्पेन
की वोतल खोलकर-मिठाइयाँ बाँटकर जश्न मनाते भी ज़रूर देखा होगा-मैंने खुद इस
दृश्य को देखा था। उससे कुछ साल पहले पूरा पंजाब खालिस्तानी आतंकवादियों के
ज़ोर-जुल्म से किस तरह त्रस्त रहा था, हिन्दुओं के साथ कैसे-कैसे अत्याचार
हुए-बस से लोगों को उतार और हिन्दुओं को अलग करके गोलियों से भून दिया...शाखा
के इक्कीस लोगों को गोलियों से भून दिया। ये और ऐसी ही अनेक बातों का असर
हिन्दुओं के मन में ज़रूर कहीं न कहीं रहा होगा, जिसने जश्न मनानेवाली खबरों
और दृश्यों के साथ मिलकर इतना उग्र रूप धारण कर लिया। और फिर सरकार की
शह....कांग्रेस तो खुद यह सब करवा रही थी। सरकार का काम तो होता है कि अमन और
चैन के लिए सख्त से सख्त कदम उठाए पर यहाँ तो कहीं-कहीं सरकार की ओर से ही
मिट्टी के तेल के कनस्तर बाँटे जा रहे थे आग लगाने के लिए। तब ? इधर इन्दिरा
को मारने के संकल्प के पीछे सरदारों का रोप...उनका पवित्र स्वर्ण-मन्दिर और
उस पर इन्दिरा गांधी का ऑपरेशन ब्लू-स्टार उन्हें आहत और कुपित करने के लिए
काफ़ी था। पर अब इन्दिरा गांधी भी करें तो क्या...उसी पवित्र मन्दिर में अपने
पूरे असलाह के साथ भिंडरावाला अपना खालिस्तानी आन्दोलन चला रहा था। अब इस
आन्दोलन को कुचलने के लिए इन्दिरा गांधी को कुछ तो करना ही था। पर प्रश्न तो
यह उठता है कि भिंडरावाला को अकालियों के ख़िलाफ़ तैयार किसने किया था ?
इन्दिरा जी ने ही तो। और यह सारा खेल तो राजनीति का है...कुछ लोग जिसके शिकार
होते हैं और मारे जाते हैं हज़ारों-हज़ार निहायत निरीह, निर्दोष और बेगुनाह
लोग। इसी तरह अफ़गानिस्तान में रूस के ख़िलाफ़ अमरीका ने तालिबान को तैयार
नहीं किया था ? पर शत्रु को परास्त करने के लिए चली राजनीति की यह चाल जब
उल्टी पड़ जाती है तो उलटकर यह आपको ही धराशायी कर देती है। इन्दिरा गांधी और
अमेरिका दोनों ही इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। 11 सितम्बर को उस भयंकर
त्रासदी को अमेरिकावाले कभी भूल पाएँगे क्या ? आज भी उन्हें उस या उससे भी
भयंकर त्रासदी की पुनरावृत्ति की धमकियाँ जब-तब मिलती ही रहती हैं। कहना मैं
सिर्फ यह चाहती हूँ कि ऐसी घटनाओं में कई बार कड़ियाँ एक-दूसरे से जुड़ी रहती
हैं। एक कड़ी का ज़िक्र करते समय दूसरी कड़ी पर उँगली रख दी जाए तो उसे उसी
सन्दर्भ में देखा-समझा जाना चाहिए।
84 नवम्बर में ही मुझे कोलोन (जर्मनी) से एक निमन्त्रण मिला, साउथ-ईस्ट एशिया
की लेखिकाओं के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए। मैं हैरान से ज्यादा परेशान
क्योंकि विदेश जाने का मुझे क़तई कोई शौक़ नहीं था, न ही आज है। पर राजेन्द्र
ने हाँक-हूँककर मुझे भेजा और यह जानकर कि मीनाक्षी पुरी वहीं रेडियो में
कार्यरत हैं और मुझे खुशी-खुशी अपने ही घर टहराएँगी, अन्ततः मैं राजी भी हो
गई। इतना ही नहीं, राजेन्द्र ने साहित्य अकादमी और आइ.सी.सी.आर. से लिखा-पढ़ी
करके इस यात्रा में तीन-चार स्थान और जुड़वा दिए-वियेना, पेरिस और लन्दन।
ब्रसल्स में नीरा और आनन्द थे ही सो मैंने अपनी यात्रा वहीं से शुरू की थी।
स्थानों का चुनाव मैंने इसी आधार पर किया था कि वहाँ कोई न कोई ऐसा परिचित
व्यक्ति रहता हो, जहाँ मैं सुविधा से ठहर सकूँ (वैसे तीनों ही जगह
सांस्कृतिक, साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण तो थी ही) क्योंकि बाहर
जाकर होटल में ठहरना तो मेरे लिए सम्भव ही नहीं था। कारण-भाषा की समस्या और
मेरा शुद्ध शाकाहारी होना। घबराइए नहीं, यहाँ में अपना यात्रा-वृत्तान्त नहीं
लिखने जा रही-जिसका आजकल बड़ा चलन है हमारे यहाँ-मैं तो सिर्फ उन दो-तीन
बातों का उल्लेख करूँगी, जिन्होंने मुझे उस समय ज़रूर थोड़ा उद्वेलित किया
था। पहली और सबसे प्रमुख बात तो यह कि दूसरे देशों में हमारे देश की छवि का
इतना नकारात्मक पक्ष ही क्यों अंकित है ? मैं यहाँ से गई उसके काफ़ी पहले ही
यहाँ के हिन्दू-सिख दंगों पर पूरी तरह नियन्त्रण कर लिया गया था (हाँ, सिखों
के मनों में पड़ी दरारों को भरने में तो बहुत समय लगा था, जो बहुत ही
स्वाभाविक भी था) पर आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हुआ कि कोलोन के टी.वी. पर
अभी भी वे दृश्य दिखाए जा रहे थे...जलती हुई ट्रकें, दुकानें, गुरुद्वारे।
इतना ही नहीं बल्कि एक साक्षात्कार में मुझसे यह भी पूछा गया कि अहिंसा का
पाठ पढ़ानेवाले देश में ऐसी बर्बर हिंसा ? इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि बर्बर
हिंसा हुई तो थी (हिंसा का बर्बरतम रूप हमेशा ऐसे दंगों में ही तो देखने को
मिलता है) लेकिन इस बार वह एक घटना विशेष की प्रतिक्रिया के रूप में हुई थी।
जो भी हो, जवाब तो मुझे देना ही था सो मैंने दिया और जहाँ तक याद है काफ़ी
ठीक-ठाक ही दिया पर अन्त में एक प्रश्न मैंने भी अपनी ओर से जड़ दिया। कछ
हँसते हए ही मैंने पूछा-जिस देश में नाज़ियों द्वारा लम्बे समय तक चलनेवाली
गैस-चैम्बरों की
निहायत क्रूर, अमानवीय और बर्बर हिंसा का इतिहास दबा पड़ा हो, वहाँ मुझसे यह
प्रश्न पूछा जा रहा है ? कहाँ दो हजार लोगों की हत्या और कहाँ साठ लाख लोगों
को जिन्दा दफना दिया जाना...कहाँ पाँच-सात दिन चलनेवाले दंगे और कहाँ दो-तीन
साल तक चलनेवाला यह बर्बर नर-संहार। और दंगे समाप्त हो जाने के बाद
दंगा-पीड़ितों की मदद के लिए जुटनेवाले लोग भी तो इसी देश के थे ! मेरा
अभिप्राय न तो यहाँ जो कुछ हुआ उसका समर्थन करना था, न ही उसे ढकना लेकिन
क्योंकि बात देश की छवि की थी तो उसे बचाने के लिए मेरे पास एक ही तरीक़ा बचा
था कि उन्होंने आरोप की जो गेंद बड़े ताककर मुझ पर, मेरे देश पर उछाली थी,
उसे दुगने वेग और दुगने प्रहार के साथ उन्हीं के पाले में उछाल दूँ और यही
मैंने किया।
ठीक इसी तरह एक दिन शाम को निहायत अनौपचारिक बातचीत के बीच किसी लेखिका ने
मुझसे पूछा (किस देश की थी सो तो याद नहीं) आप लिखती हैं पर उसे पढ़ता कौन
होगा ? क्योंकि आपके यहाँ तो सब निरक्षर हैं ('इल्लिटरेट' शब्द का प्रयोग
किया था उसने)। मैं तो अवाक्-सी उसका मुँह ही देखती रह गई। रात को खाने बैठे
तो एक पूछने लगी-आर यू बमान...आर यू बमान ? मेरे तो क्या मेरे दुभाषिए के भी
पल्ले नहीं पड़ रहा था उसका प्रश्न, पर उनसे थोड़ी-सी बातचीत के बाद उसने जब
मुझे बताया कि ये पूछ रही हैं कि “आप ब्राह्मण हैं क्या ?" इस बार मैं सचमुच
हँस पड़ी। अरे, यहाँ की स्त्रियों की स्थिति के बारे में पूछ लेती...उनके
लेखन, उनकी समस्याओं के बारे में कोई बात नहीं...पूछी भी तो जाति ! इन लोगों
के दिमाग में हमारे यहाँ की जाति-प्रथा बैठी है-यहाँ के पढ़े-लिखे, शहरी
लोगों को जिससे मुक्त हुए अरसा हो गया। खैर, उससे इस बारे में काफ़ी बातें
हुईं और इस सिलसिले में मैंने यहाँ की स्थिति स्पष्ट भी की, पर रात को मैं
सोई तो एक ही प्रश्न मुझे कचोट रहा था कि क्या यही छवि बनी हुई है हमारे देश
की दूसरे देशों के बीच ? ऐसा नहीं कि मैं अपने देश की कमियों और खामियों से
परिचित नहीं हूँ (बीस सालों में तो उनमें भयंकर रूप से इज़ाफ़ा ही हुआ है),
इसके बावजूद कुछ अच्छा पक्ष भी तो है हमारा...उसे क्यों नहीं उजागर किया जाता
वहाँ ? क्या करते हैं हमारे राजदूत और दूतावास ? क्यों बाहर के देश हमारे
यहाँ के नकारात्मक पक्ष से ही परिचित होते हैं और उसे ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश
करते हैं ? उनका मीडिया इस बात को लेकर कितना सक्रिय रहता है, इस बात का
उदाहरण तो तीन साल बाद फ्रैंकफ़र्ट में मुझे खुद देखने को मिला।
उस साल फ्रैंकफ़र्ट में भारतीय साहित्य को केन्द्र में रखकर एक विशाल
पुस्तक-मेले का आयोजन किया गया था। वहाँ हर साल एक देश के साहित्य को केन्द्र
में रखकर इस तरह के पुस्तक-मेलों का आयोजन किया जाता है। भारतीय भाषाओं के
पच्चीस लेखकों को भी आमन्त्रित किया गया था। हिन्दी के आठ और बंगला के जो छह
लेखक आमन्त्रित थे उनमें महाश्वेताजी भी थीं। मैं उन्हें कलकत्ता से ही जानती
थी...बहुत सम्मान है मेरे मन में उनके लिए, आदिवासियों के बीच किए जानेवाले
उनके काम के लिए। वहाँ किसी एक दिन के कार्यक्रम में मीडिया के लिए तो वे
हीरोइन बनी हुई थीं। कारण, बेहद निःस्वार्थ भाव से, निष्ठापूर्वक किया
जानेवाला उनका काम नहीं बल्कि अपनी एक कहानी को केन्द्र में रखकर वे वहाँ
बड़े नाटकीय ढंग से, कुछ-कुछ अभिनय की मुद्रा में भारतीय समाज की विकृतियों
को पेश कर रही थीं और सारे मीडिया का फ़ोकस उन्हीं पर था। रात को खाने के समय
मैंने उनसे कहा भी कि दीदी, आप अपने देश का केवल नकारात्मक पक्ष ही क्यों
उजागर कर रही थीं तो वे एकदम भभक उठीं-क्यों कुछ गलत कहा मैंने...नहीं हैं ये
सब दोष हमारे यहाँ ? 'मैं भी जानती हूँ दीदी कि ये सब दोष हैं, विकृतियाँ हैं
हमारे देश में, पर क्या कोई अच्छाई है ही नहीं हमारी संस्कृति में...हमारे
समाज की बनावट में और यदि कुछ भी है तो उसे भी तो उजागर किया जाए
कभी...ख़ासकर दूसरे देश के सामने !” मैं नहीं जानती कि मेरी इस धारणा का कोई
तर्कसंगत आधार भी था या कि इस सबके पीछे उस समय उभर आई मेरी भावुकता भरी,
छिछोरी देश-प्रेम की भावना-मात्र ही थी।
आज जब ठंडे दिमाग से उन सारी बातों पर सोचती हूँ तो लगता है कि निरक्षरता हो
या जाति-प्रथा...उनके सोच की सीमा तो हो सकती है लेकिन उनकी ओर से आए ये आरोप
बिलकुल निराधार तो नहीं ही हैं। सारे साक्षरता अभियानों के बावजूद...जिन पर
पैसा भी कम नहीं बहाया गया-आज भी तीस-पैंतीस प्रतिशत निरक्षरता तो है ही (ये
सरकारी आँकड़े हैं, असलियत शायद कुछ और ही हो)। सामाजिक सुधार के सारे
आन्दोलनों के बावजूद हम जाति-प्रथा से कहाँ मुक्त हो पाए हैं ? बल्कि आज तो
उसका विकटतम रूप देखने को मिल रहा है
क्योंकि सारी राजनीति उसी से संचालित हो रही है। वास्तविकता शायद यह है कि इस
विशाल देश में जितनी विविधता है उसे ये छोटे-छोटे देश अपने पैमाने से नाप ही
नहीं सकते। यहाँ अगर निरक्षर हैं तो साक्षर, मेधावी, बुद्धिजीवियों की भी कमी
नहीं. गाँव-देहात के लोग यदि जाति-प्रथा के दायरे में बँधे हैं तो इस दायरे
को तोड़, इससे पूरी तरह मुक्त हुए लोगों की संख्या में भी लगातार इज़ाफ़ा हो
रहा है...अन्तर्जातीय-विवाहों की दिन-ब-दिन बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है।
मेरा आग्रह केवल इतना था कि हमें तो कम से कम अपने देश की छवि का एक सन्तुलित
पक्ष रखना चाहिए। आज आश्चर्य की बात तो ये है कि पिछले आठ-दस सालों में अनेक
स्तरों पर देश की स्थितियाँ चाहे बद से बदतर हुई हों, बाहर के देशों में भारत
की छवि में बहुत निखार आया है। आज यहाँ के सॉफ़्टवेयर इंजीनियर्स, डॉक्टरों
और टेलिकम्यूनिकेशन्स में हुई तरक़्क़ी ने धूम मचा रखी है बाहर के देशों में।
इसके अतिरिक्त इस छवि-निखार के राजनैतिक-आर्थिक कारण भी कम नहीं, पर उन सबका
विश्लेषण करना मेरा क्षेत्र नहीं है, मैं तो केवल कुछ सालों में आए इस
छवि-निखार की बात भर कर रही हूँ।
हाँ, जब फ्रैंकफ़र्ट का प्रसंग आ ही गया तो एक बात और ज़रूर लिखना चाहूँगी।
पुस्तक मेले के लिए जब मुझे निमन्त्रण मिला तो सचमुच मुझे आश्चर्य हुआ। कोलोन
में तो चलिए महिला वाला मामला था, पर यहाँ ? अरे एक से एक दिग्गज लेखक धरे
हुए थे...उनके रहते मैं ? पर बुलाया था तो मैं गई और क्योंकि पच्चीस लेखकों
का साथ था सो इस बार न कोई डर था, न हिचक ! पर वहाँ जाते ही मैंने डॉ. लुत्से
से यह बात पूछी ज़रूर ! उन्होंने कहा-“जब आप कोलोन आई थीं तो आप जहाँ-जहाँ और
जब-जब बोलीं, हिन्दी में ही बोलीं थीं (वहाँ के मुख्य सम्मेलन में तो डॉ.
लुत्से ने ही मेरे दुभाषिये की भूमिका अदा की थी) इसीलिए आपको बुलाने का
निर्णय तो तभी ले लिया गया था क्योंकि भारत से तो जब भी कभी कोई लेखक आया
अंग्रेज़ी झाड़ता ही आया।” जानकर राहत मिली कि जो हिन्दी मुझे अंग्रेज़ीदां
लोगों के बीच चुप्पी साधने को मजबूर कर देती है, कम से कम यहाँ तो उसने मेरा
भाव बढ़ा ही दिया !
भाषा की बात आई तो एक प्रसंग का उल्लेख और करना चाहूँगी। कभी अपने कॉलेज
(मिरांडा हाउस) में एक जापानी लड़की हिन्दी पढ़ने आई थी-मिचिको नकादा। क्लास
में जाकर जब मैं उसे देखती तो मुझे लगता जैसे उसने अपने चेहरे पर ब्लॉटिंग
पेपर चिपका रखा है...जो भी बोलूँगी, तुरन्त सब सोख लेगी। हिन्दी सीखने की
उसकी यह लगन, यह निष्ठा, यह मेहनत देखकर एक दिन मैंने उसे अलग से बुलाकर कहा
कि देखो, मैं कॉलेज के बहुत पास रहती हूँ। तुम्हें कभी भी कुछ पूछना हो या
किसी तरह की भी मदद की ज़रूरत हो तो तुम ख़ुशी-ख़ुशी मेरे घर आ सकती हो। तुम
इतनी दूर से हमारी भाषा सीखने आई हो तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि हम
तुम्हारी अधिक से अधिक मदद करें। कुछ देर के लिए वह मेरा चेहरा देखती रही फिर
मेरी बात का जवाब देने की बजाय उसने बहुत धीरे-धीरे...वाक्यों को तोड़-तोड़कर
एक प्रश्न दागा... "आपके देश के लोग क्या अपनी भाषा नहीं बोलते ?...मैं
छात्रावास में रहती हूँ, कॉलेज के बाद तो वहाँ मुझे एक भी शब्द हिन्दी का
नहीं सुनाई पड़ता...(हॉस्टल में रहकर बंटी लिखने के दौरान मेरा भी यही अनुभव
रहा था) ऐसे तो मुझे हिन्दी सीखने में बहुत समय लग जाएगा...पर ऐसा क्यों है
कि लोग अपनी ही भाषा नहीं बोलते ?' एक क्षण को तो लगा जैसे यह प्रश्न नहीं,
मेरे मुँह पर किसी ने तमाचा ही मारा हो। मेरे पास चाहे इस बात का कोई जवाब न
हो पर उसके लिए तो यह बात उसकी सोच और समझ से परे थी। अब उसे हिन्दी की
दुर्दशा के कारणों का विस्तृत ब्योरा तो क्या समझाती जैसे-तैसे प्रसंग बदलकर
बात को फिर उसकी मदद पर ला टिकाया। पर यह अनुत्तरित प्रश्न आज भी केवल ज्यों
का त्यों ही नहीं है बल्कि इतने वर्षों में तो यह विकट से विकटतर हो गया है।
है कोई इस प्रश्न का समाधान...सिवाय इसके कि इस पर सोचना और कष्ट पाना ही
छोड़ दिया जाए और जिस स्थिति को आप बदल नहीं सकते, उसे सहज भाव से (या मजबूरी
में) स्वीकार ही कर लिया जाए...फिर, भी कई बार यह भी सोचती हूँ कि मेरे इस
कष्ट पाने के मूल में कहीं मेरी अपनी असमर्थता ही तो नहीं ? हो सकता है कि
हो...पर क्या सचमुच यह बात कष्ट पाने की है ही नहीं ?
अक्षर प्रकाशन से राजेन्द्र के सम्पादन में हंस का पहला अंक प्रकाशित हुआ
अगस्त सन् 86 में। राजेन्द्र की चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा ! न जाने
कितने-कितने वर्षों से यह आकांक्षा उनके मन में पल रही थी...राजेन्द्र की
डायरियों के न जाने कितने पन्नों में अलग-अलग समय में बने पत्रिका के बजट के
आँकड़े अंकित हैं ! कितनी बार, कितने लोगों के साथ योजना बनी...कहीं-कहीं तो
बात इतनी आगे
भी बढ़ी कि लगा बस अब तो पत्रिका निकल ही जाएगी पर पता नहीं, ऐन मौके पर क्या
कुछ होता कि योजना कार्यान्वित नहीं हो पाती और निराशा की एक परत और इनके मन
पर चढ़ जाती। जहाँ तक मेरा ख़याल है ऐसी अन्तिम योजना श्री आर.के. मिश्रा के
साथ बनी थी जो उस समय पैट्रियट हाउस में काफ़ी महत्त्वपूर्ण पद पर थे और वहाँ
से निकलनेवाले दैनिक पैट्रियट और पत्रिका लिंक को देखते थे। उनकी योजना थी कि
वहीं से एक हिन्दी पत्रिका भी निकाली जाए और इसी सिलसिले में वे शायद
राजेन्द्र से मिले भी थे। कुछ ही मुलाक़ातों के बाद योजना ने आकार ग्रहण करना
शुरू किया और मुझे लगा कि इस बार योजना ज़्यादा गम्भीर...ज़्यादा ठोस आधार पर
बढ़ रही है, इसलिए अब तो शायद पत्रिका निकल ही जाएगी, पर पता नहीं, इस बार भी
ऐन मौके पर बात कहाँ गड़बड़ाई कि वह सारी योजना भी ठप्प ! जहाँ तक मेरा ख़याल
है कि ज़रूर राजेन्द्र का ऐसा आग्रह रहा होगा और जिसे इन्होंने सारी बात के
अन्त में जैसे-तैसे प्रकट भी किया ही होगा कि सम्पादन में इन्हें पूरी
स्वतन्त्रता चाहिए यानी कि उनके सम्पादन में किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं
रहेगा। अब कोई व्यक्ति या संस्था पैसा लगाएगी, पत्रिका छापेगी, बेचेगी-सारी
व्यवस्था करेगी तो उससे बिलकुल तटस्थ और निरपेक्ष होकर तो बैठने से रही। हो
सकता है कि बात राजेन्द्र के किसी ऐसे ही आग्रह पर टूटी हो। पर यह मेरा
अनुमान मात्र है...लेकिन क्योंकि मैं राजेन्द्र के व्यक्तित्व से इतनी अच्छी
तरह परिचित हूँ इसलिए कह सकती हूँ कि यह अनुमान बहुत निराधार नहीं
होगा। मैं जानती हूँ कि राजेन्द्र कहीं भी, किसी भी तरह का हस्तक्षेप तो
बर्दाश्त ही नहीं कर सकते...न अपनी जिन्दगी में, न अपने काम में ! और शायद
किसी की बॉसगिरी के तले ये काम भी नहीं कर सकते (इसीलिए तो नौकरी करने से
हमेशा कतराते रहे) तो बात कैसे बनती ? उस समय भले ही वात टूटने का अफ़सोस हुआ
हो, पर आज तो सोचती हूँ कि अच्छा ही हुआ कि योजना शुरू होने से पहले ही टूट
गई...अगर शुरू हो जाती तो चार क़दम चलने के बाद ही उसका टूटना निश्चित था।
हाँ, इतना ज़रूर कहूँगी कि मिश्राजी हिन्दी पत्रिका निकालने की अपनी योजना के
बारे में पूरी तरह गम्भीर थे और कुछ समय बाद उन्होंने गंगा नाम की पत्रिका
निकाली भी ! हालाँकि उसके निकलने से पहले ही गौतम नवलखा के सहयोग से
राजेन्द्र हंस शुरू कर चुके थे और हिन्दी जगत में उसने केवल अपनी पहचान ही
नहीं बना ली थी बल्कि इतने कम समय में थोड़ी ख्याति भी अर्जित कर ली थी।
गंगा के सम्पादक की जगह नियुक्ति हुई कमलेश्वर की। इससे मुझे क़तई कोई
आश्चर्य नहीं हुआ...आश्चर्य तो हुआ इस बात पर कि एक समय के अभिन्न मित्र
कमलेश्वरजी ने (कभी तीन तिलंगे, तिकड़ी, नई कहानी के तीन स्तम्भ के नामों से
इनकी अभिन्नता ही प्रकट की जाती थी) कुछ अंकों के बाद ही इसी पत्रिका में
अपनी क़लम से कीचड़ उछालने का सिलसिला शुरू किया। उनका प्रमुख लक्ष्य तो
राजेन्द्र ही होते थे...कभी-कभी कुछ छींटे मुझ पर भी पड़े ज़रूर थे।
राजेन्द्र भी इस कला (?) में कम माहिर तो नहीं। प्रसंग हो न हो...जब-तब एक
दुलत्ती झाड़ना प्रिय शगल रहा है राजेन्द्र का भी...आज से नहीं, बरसों पहले
से। कभी-कभी साहित्यकारों की इस वृत्ति पर गुस्सा भी आता है...दुख भी होता
है, पर उपाय ? हाँ, किसी की कोई अक्षम्य हरक़त हो...कोई बेहद घटिया कर्म किसी
के खाते में जुड़ा हो तो ज़रूर प्रहार करना चाहिए...सख्त से सख्त भाषा में
करना चाहिए... दोटूक शब्दों में खोलकर रख देना चाहिए उसके कुकर्मों का ब्योरा
लेकिन सख्त भाषा का भी एक लेखकीय संयम होता है...होना चाहिए वरना गाली-गलौज
की भाषा या ‘खाल खींचकर भुस भरवा दूंगा' जैसी अशोभनीय बातें प्रहार कम और
अनर्गल प्रलाप ज़्यादा लगने लगती हैं। और हाँ, यह भी ज़रूरी है कि आप जिस
आरोप को लेकर सामनेवाले को ध्वस्त कर रहे हैं, उसकी बुनियाद सच पर टिकी हो।
साहित्यकारों की यह कीचड़-उछालू वृत्ति कभी-कभी मुझे इतना विचलित कर देती है
कि मैं भी अपने पर संयम नहीं रख पाती। खैर, अब इस सारे प्रसंग पर विराम लगाती
हूँ सिर्फ इस तकलीफ़ भरे अहसास की अभिव्यक्ति के साथ कि जब तक गंगा निकली,
कमलेश्वरजी ग्रीन-पार्क में ही रहे थे-हौजखास के बिलकुल सामने है ग्रीन
पार्क-चाहो तो पैदल ही चले जाओ पर उसके बावजूद हम लोगों का आना-जाना न के
बराबर ही रहा। दो-तीन बार वे लोग आए तो दो-तीन बार ही हम लोग गए होंगे। तब
कभी-कभी ज़रूर मुझे उन दिनों की याद आया करती थी जब दिल्ली आने के बाद हम
लोग-राकेशजी, कमलेश्वरजी, राजेन्द्र और मैं-क़रीब-क़रीब रोज़ ही मिलते थे।
मिलने के स्थान भले ही बदलते रहते थे-कभी कॉफ़ी-हाउस तो कभी एक-दूसरे के घर
लेकिन मिलना तो तय ही रहता था। और आज ? कई बार मैं सोचती हूँ...खीजती भी हूँ
कि क्यों मैं इन पुरानी बातों से मुक्त नहीं हो पाती ? शायद मेरे पास इन
लोगों की तरह न भविष्य है-न भविष्य की योजनाएँ-न भविष्य के सपने और एक
भविष्यहीन ज़िन्दगी अपने अतीत के उजले-धुंधले पक्षों के साथ ही तो
लिपटती-चिपटती रहेगी !
हाँ तो लम्बे अरसे की जद्दोजहद के बाद आख़िर गौतम नवलखा के सहयोग से
राजेन्द्र के सम्पादन में हंस का प्रकाशन शुरू हो ही गया। हंस निकला तो मैं
भी बहुत खुश। और इस खुशी ने ही बरसों बाद मुझसे एक कहानी भी लिखवा ली !
राजेन्द्र ने बड़े आग्रह के साथ कहा था कि हंस के पहले अंक में तुम्हारी
कहानी जानी ही चाहिए...समझ लो कि अनिवार्य है यह और बस, कुछ तो 'हंस' के
निकलने की खुशी के कारण और कुछ राजेन्द्र के आग्रह के कारण मैं भी संकल्प
करके बैठ ही गई। परिणाम 'नायक, खलनायक, विदूषक' कहानी की रचना। बहुत
डरते-डरते ही मैंने यह कहानी राजेन्द्र को पढ़ाई...डरते हुए इसलिए कि
राजेन्द्र ही तो थे इसके मुख्य पात्र। पर राजेन्द्र ने ऐसी कोई भी प्रतिकूल
प्रतिक्रिया नहीं दिखाई...न चेहरे से, न हाव-भाव से बल्कि उन्होंने तो कहानी
की सराहना भी की। इतना ही नहीं, यह शीर्षक भी उन्हीं का दिया हुआ है।
पता नहीं क्यों लगने लगा कि हंस के साथ शायद मेरा लिखना भी शुरू हो जाए। और
इस विचार के साथ ही मन-ही-मन मैंने यह निर्णय भी ले लिया कि अगर पत्रिका जम
गई तो मैं भी नौकरी छोड़कर इसी के साथ जुड़ जाऊँगी। लेकिन अपने सोच और अपनी
खुशी से ज्यादा खुशी तो मुझे इस बात की थी कि आखिर अब जाकर राजेन्द्र को अपनी
मनचाही ज़िन्दगी जीने का अवसर मिलेगा। इतने सालों से अक्षर चला तो ज़रूर रहे
थे पर न उसमें इनकी रुचि थी, न गति ! हो सकता है कि मनचाहा काम करके, उससे
मिलनेवाला सन्तोष और उससे भी ज्यादा उससे मिलनेवाले यश से इनके व्यक्तित्व की
बहुत सारी गाँठे खुलने लगेंगी-चाहे धीरे-धीरे ही सही-और ये एक अधिक सहज
ज़िन्दगी जीने लगेंगे। ये सन्तुष्ट, सहज होंगे तो बहुत सम्भव है कि हमारे
आपसी सम्बन्धों के बहुत सारे खम-पेंच भी ठीक होंगे वरना मेरी सहनशक्ति भी अब
अपनी अन्तिम सीमा तक पहुँच चुकी थी। लेकिन सचमुच मूर्ख थी मैं जो यह सब समझे
बैठी थी, या यह भी हो सकता है कि हंस के आरम्भ के तीन-चार साल भारी संकट के
दिन थे। राजेन्द्र तो कभी कुछ बताते नहीं थे लेकिन इधर-उधर से जो कुछ भी जान
पाती उससे कभी-कभी तो यह भी लगता कि हंस का अस्तित्व ही खतरे में है। अब संकट
की ऐसी स्थिति में इनका व्यक्तित्व कैसे सहज होता भला ? मेरी यातना तो दोहरी
थी ! भीतर से कोई सम्बन्ध नहीं. संवाद नहीं-राजेन्द्र अपने कमरे में, मैं
अपने कमरे में। लेकिन बाहर सबके बीच बिलकुल सहज-सामान्य स्थिति का भ्रम बनाए
रखने की मशक़्क़त। मित्रों, परिचितों और परिवारियों का खाना-पीना भी हो रहा
है... साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत भी हो रही है लेकिन राजेन्द्र ने मुझे
कभी नहीं बताया कि अक्षर में जवाहरजी के साथ की भागीदारी के टूटने के मूल में
क्या था...राकेशजी के साथ बेहद आत्मीयता और ऊष्मा से भरे सम्बन्ध क्यों और
कैसे असह्य होने की स्थिति तक पहुँच गए और अब क्या हुआ गौतम के साथ कि हंस को
कभी शीला सन्धू को देने की बात सुनाई पड़ रही है तो कभी प्रभा खेतान को ?
मैंने तो जो भी, जितना भी जाना दूसरे लोगों के माध्यम से ही जाना !
जिन्दगी जीने की मेरी सारी खुशफ़हमी को ध्वस्त करते हुए फिर कुछ ऐसा घटा कि
अन्ततः मुझे निर्णय लेना ही पड़ा कि बस, बहुत हुआ...अब साथ (?) चल पाना
बिलकुल-बिलकुल सम्भव नहीं है। इससे कहीं बड़े-बड़े झटके मैंने झेले थे लेकिन
उस समय मेरा लिखना बराबर चल रहा था और वही मुझे इन झटकों से उबार लेता था। आज
लेखन की शक्ति के बारे में सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है। आदमी यदि निरन्तर
लिखता रहे तो कितनी आपदाओं-विपदाओं को सहज ही दकिनार कर सकता है। आप लिखते
रहें और आपका लिखा बराबर स्वीकृत-चचित भी होता रहे तो कैसी ऊर्जा का संचार
होता रहता है आपके भीतर, यह तो मैंने खद अनुभव किया है वरना निष्क्रिय मन के
चलते तो छोटी-छोटी बातें भी आपके लिए असह्य हो जाती हैं। तभी तो पुरानी
घटनाओं के मुकाबले इस बार जो हुआ वह बहुत साधारण था लेकिन उसके बावजूद मैंने
अलग रहने का निर्णय ले लिया और दोटूक शब्दों में राजेन्द्र को अपना निर्णय
सुना भी दिया। या यह भी हो सकता है कि मेरे इस निर्णय के पीछे राजेन्द्र की
ऐसी हरक़तों का एक अनवरत सिलसिला रहा हो, जिस पर विराम लगने की अब तो दूर-दूर
तक कोई सम्भावना नहीं रह गई थी। बहरहाल, जो भी हो, मैंने बेहद ठंडे, निरावेग
लेकिन दृढ़ शब्दों में कहा-राजेन्द्रजी, आप एक महीने में अपने लिए किसी मकान
की व्यवस्था कर लीजिए क्योंकि अब मेरे लिए आपके साथ रहना सम्भव नहीं। अच्छा
है, अलग रहेंगे तो आप भी ज़्यादा स्वतन्त्र रहेंगे और मैं भी ज़्यादा
तनावमुक्त !
आज सहज ही कल्पना कर सकती हूँ कि मेरी इस बात से राजेन्द्र के अहं को कितनी
ठेस लगी होगी...राजेन्द्र ही क्या, कोई भी पुरुष होता तो उसे भी लगती।
पुरुषों को इस बात का अनुभव तो है कि वे अपनी पत्नियों को घर से निकाल बाहर
करें या बहुत हुआ तो ऐसा निर्णय दोनों की सहमति से हो। केवल पत्नी अपनी इच्छा
और पहल पर ऐसा निर्णय ले ले और पुरुष उसे सहज भाव से स्वीकार कर ले यह तो
स्त्रियों की बराबरी का दावा करनेवाले...उनके अधिकारों का डंका पीटनेवालों के
लिए भी सम्भव नहीं था। (यह बात मैं केवल अपनी पीढ़ी के पुरुषों के लिए लिख
रही हूँ।)
काफ़ी साल पहले एक बार कमलेश्वरजी ने राजेन्द्र को लिखा था कि तुम यदि मन्नू
से विच्छेद नहीं चाहते हो तो तुम्हें उन कारणों को तो दूर करना ही होगा जो
मन्नू को बार-बार इस दिशा की ओर मोड़ते हैं। लेकिन राजेन्द्र जिन्दगी तो केवल
अपनी शर्तों पर जीना चाहते थे, हाँ, मुझसे ज़रूर अपेक्षा करते थे कि मैं इनकी
हर बात (या हरक़त !) को सहज भाव से स्वीकार करूँ। नहीं जानती, इसे अपना धैर्य
कहूँ...बेशर्मी कहूँ या कौन जाने मेरे मन में राजेन्द्र के प्रति लगाव के कुछ
ऐसे सूत्र बचे ही थे जो इतना सब बर्दाश्त करने के बाद भी टूटते नहीं थे और
मैंने राजेन्द्र के साथ एक निहायत ही असन्तुलित जिन्दगी जीते हुए पूरे तीस
साल गुज़ार दिए। और शायद इसी कारण राजेन्द्र को यह उम्मीद थी कि एक महीने की
इस अवधि में हमेशा की तरह में फिर पिघल जाऊंगी और गाड़ी चल पड़ेगी। स्वाभाविक
भी था, क्योंकि जब मैंने अपने सम्बन्धों को ही एक झटके से नकार देनेवाले
झटकों को झेलकर भी ऐसा निर्णय नहीं लिया तो इनके मन में भी एक आश्वश्ति का
भाव घर कर चुका था कि ये कुछ भी करें-मैं रोऊंगी-धो ऊंगी, लड़ूँगी-डाटूँगी पर
बस, इसके आगे कभी नहीं जाऊंगी। लेकिन इस बार एक महीना बीत जाने पर भी न मैंने
अपना निर्णय बदला न अपना व्यवहार, सो अब गजेन्द्र के लिए जाना अनिवार्य हो
गया था।
राजेन्द्र के सामने समस्या थी कि वे इस समय कई संकटों से घिरे हुए थे। हंस के
अस्तित्व का संकट तो था ही पर उससे भी बड़ा संकट था आर्थिक। ये इस स्थिति में
नहीं थे कि किराये का मकान लेकर उसे चला सकें, सो अन्ततः ये अपने मित्र गिरीश
अस्थाना के यहाँ पेइंग गेम्स की तरह रहने चले गए। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों
पति-पत्नी बड़े स्नेही स्वभाव के थे...बड़ी खुशी से उन्होंने राजेन्द्र को
रखा और इनका ख़याल भी पूरा रखते थे, इस सबके बावजूद उनको अपनी सीमाएँ
थीं...उस घर की भी सीमाएँ तो थी ही। कोई दो महीने बाद ही एक दिन शाम को
अचानक, बिना किसी सूचना के गिरिराज किशोर और वासुदा (वास् चटर्जी) प्रकट हुए।
मैं थोड़ा चकित पर जल्दी ही उनके आने का राज़ खुला। दोनों ने एक स्वर में
कहा- 'बस, बहुत हुआ, अब हम राजेन्द्र का सामान लेकर आ रहे हैं....अस्थाना
दम्पति के सारे स्नेह और देखभाल के वावजूद राजेन्द्र काफ़ी तकलीफ़ में हैं
वहाँ। एक अलग कमरे की व्यवस्था न होने से बरामदे में रहकर पढ़ना-लिखना कितना
मुश्किल होता है, यह क्यों नहीं सोचती हैं आप ? अब अपना गुस्सा थूकिए हंस को
लेकर वह वैसे ही संकट में है, ऊपर से रहने की प्रॉपर व्यवस्था नहीं...' और भी
जाने क्या-क्या कहते समझाते रहे, वह सब मुझे याद नहीं, याद है तो केवल इतना
कि मैंने बड़ी नम्रता पर दृढ़ता के साथ हाथ जोड़ लिये थे- 'नहीं वासुदा, अब
और नहीं। जब तक मैं साथ निभा सकती थी निभा दिया...जब तक में बर्दाश्त कर सकती
थी कर लिया, लेकिन अब और नहीं।" ज़रूर ही कुछ रहा होगा मेरे स्वर में...मेरी
भंगिमा में कि फिर उन्होंने आग्रह नहीं किया। गिरिराजजी तो बहुत कुछ जानते भी
थे...हमेशा राजेन्द्र को गलत भी कहते थे सो अब और अधिक आग्रह भी करते तो किस
मुंह से ? आखिर उन्होंने छह महीने के लिए राजेन्द्र को गेस्ट-राइटर की तरह
आइ.आइ.टी. (कानपुर) में बुला लिया, जहाँ वे उन दिनों रजिस्ट्रार की तरह काम
कर रहे थे।
राजेन्द्र कानपुर चले तो गए लेकिन हंस तो दिल्ली से निकल रहा था जिसका
सम्पादन इन्हें करना था सो महीने-बीस दिन में एक चक्कर दिल्ली का लगाना इनके
लिए अनिवार्य था। ये पहली बार आए तो टिंकू के यहाँ ठहरे ! टिंकू ने मुझे भी
फ़ोन किया कि ममी, पप्पू आए हैं...शाम को तुम भी इधर ही क्यों नहीं आ
जातीं...एक साथ खाना खाएँगे। नहीं जानती, इस बुलाने के पीछे टिंकू के मन में
कोई इरादा रहा हो, हालाँकि उसने इस तरह की कोई बात कभी कही नहीं। मैं भी चली
गई पर बस, खाना खाकर चुपचाप लौट आई। लेकिन दूसरी बार ये आए तो इन्होंने
हौजखास के घर की ही घंटी बजाई। दरवाज़ा मैंने ही खोला...देखा तो चकित पर जब आ
ही गए तो भीतर तो आना ही था। और फिर तो हर बार यहीं आने का सिलसिला शुरू हो
गया जो छह महीने बाद सारे सामान के साथ फिर यहीं आकर रहने लगने पर समाप्त
हुआ।
आज मैं अच्छी तरह कल्पना कर सकती हूँ कि जो कुछ भी हुआ उसके बाद फिर से
हौजखास आकर रहने का निर्णय लेते समय राजेन्द्र को किस जद्दोजहद से गुज़रना
पड़ा होगा...अपने अहं के साथ किस तरह का समझौता करना पड़ा होगा...या कहीं ऐसा
तो नहीं कि ये अलग रहना ही नहीं चाहते हों (जैसा कि इन्होंने कभी कमलेश्वरजी
से कहा भी था) और संकटपूर्ण स्थिति की आड़ लेकर ये फिर साथ रहने चले आए हों
क्योंकि इतना तो ये अच्छी तरह जानते थे कि एक बार सामान लेकर आ खड़े होने के
बाद न तो फिर मैं लौट जाने के लिए कह पाऊँगी और न ही भड़ाक से दरवाज़ा बन्द
कर पाने की अभद्रता कर पाऊँगी। इनका अनुमान सही था...नहीं जानती कि यह मेरी
कमज़ोरी थी या मेरा संस्कार या कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे भीतर भी यह उम्मीद
जग गई हो (भयंकर भूल... महामूर्खतापूर्ण उम्मीद) कि इस घटना के बाद शायद
इन्हें अपनी गलतियों का अहसास हुआ हो और अब ये...पर नहीं, ऐसा कुछ नहीं था।
होता तो हमारे आपसी
व्यवहार में कुछ तो बदलाव आया होता। बेहद संकटपूर्ण स्थितियों में ही ये
लौटकर फिर मेरे पास आने को मजबूर हुए थे और मैं भी लौटने पर इन्हें नकार नहीं
पाई तो साथ रहने की स्थिति को खुले मन से स्वीकार भी नहीं पा रही थी। फिर वही
अलगावपूर्ण साथ...संवादहीन सम्बन्ध और उसे निभाए चले जाने की मजबूरी।
इसके कुछ महीनों बाद ही यानी फरवरी 89 में मुझे अचानक न्यूरोलजिया का पहला
अटैक हुआ। लम्बे समय से जैसी तनावपूर्ण स्थिति में झेल रही थी...हो सकता है
उसी का परिणाम हो यह। हो सकता है कारण कुछ और भी रहे हों, मैंने तो कभी इस
बीमारी का नाम तक नहीं सुना था। क्लास में पढ़ातेपढ़ाते अचानक एक असह्य दर्द
के मारे ज़मीन पर गिरकर मैं बुरी तरह चीखने लगी थी। लड़कियाँ हैरान-परेशान।
कोई हवा करने लगी...कोई पानी लाया। किसी तरह पकड़कर मुझे डिपार्टमेंट तक
लाईं। दर्द का वह दौर गुज़र चुका था पर मैं एकदम बेजान-सी हो गई थी। तभी किसी
ने सुझाया कि तुमने अभी जो दाँत का काम करवाया, ज़रूर उसी समय तुम्हारी कोई
नर्व डैमेज हुई है...तुम तुरन्त अपने डॉक्टर के पास जाओ ! (दर्द का यह करंट
बाईं तरफ़ की नीचेवाली दाढ़ से शुरू होकर बाएँ चेहरे को झकझोरता हुआ निकल गया
था) में सीधे अपने डॉक्टर के पास गई तो सारी बात सुनकर उसने दोनों हाथों से
अपना सिर पकड़ लिया...ओफ्फ ! यह तो न्यूरोलजिया का अटैक है। दुनिया में आज तक
तो इसका कोई इलाज नहीं निकला....हाँ, चारों ओर रिसर्च तो बहुत हो रही है।
दर्द रोकने के लिए सिर्फ यह एक सेडेटिव है और उन्होंने शुरू के दो दिन छह-छह
गोली खाने को लिख दी (सामान्यतः न्यूरोलॉजिस्ट जिसे आधी गोली से शुरू करते
हैं) चार गोली खाकर ही मेरी जो हालत हुई कि मैं बता नहीं सकती। शरीर का
सन्तुलन तो ऐसा गड़बड़ाया कि अपने आप खड़े हो पाना सम्भव ही नहीं रहा...एक
चूंट पानी भी पीती तो एक गिलास पानी निकल आता। बराबर लग रहा था कि मैं
गई...बस, अब मैं गई ! वह तो गनीमत है कि उस समय सुशीला मेरे पास आई हुई थी,
पर उसे दूसरे दिन ही लौटना था अपने ससुराल के किसी आयोजन में, जहाँ उसकी
उपस्थिति अनिवार्य थी ! इधर राजेन्द्र को भी दूसरे ही दिन किसी गोष्टी में
भाग लेने के लिए श्रीनगर (हिमाचल प्रदेश) जाना था। सुशीला ने कहा कि
'राजेन्द्रजी, आप चले जाएँगे तो मन्नू को देखेगा कौन...उसकी हालत देख रहे हैं
?'
लेकिन राजेन्द्र के लिए गोष्टी ज़्यादा ज़रूरी थी, वहीं गए. इतना ही नहीं,
फ़ोन पर ये मीरा भाभी को (गिरिराज की पत्नी) आग्रह कर-करके कह रहे थे कि 'अरे
मन्नू नहीं जा रही है तो क्या हुआ (उस गोष्ठी में मैं भी आमन्त्रित थी और यह
जानकर ही मीरा भाभी ने भी गिरिराजजी के साथ चलने का कार्यक्रम बना लिया था)
में तो हूँ-देखिए तो क्या मौज करवाता हूँ-अरे खूब मस्ती मारेंगे...आप अपना
कार्यक्रम विलकल कैंसिल नहीं करेंगी...' ज़ोर-ज़ोर से बोले जा रहे ये शब्द
में सुन रही थी बल्कि मेरे छटपटाते मन पर मौज करेंगे, मस्ती मारेंगे जैसे
शब्द खुदते चन्ने जा रहे थे और उससे उपजी तकलीफ़ आँसुओं में बहती चली जा रही
थी। आज जब उन बातों को याद करती हूँ तो कभी-कभी यह भी लगता है कि कहीं यह
उनकं अहं पर की गई चोट का प्रतिकार ही तो नहीं था ! पर नहीं, बीमारी के मौके
पर इनके ऐसे व्यवहार का यह कोई पहला मौक़ा तो था नहीं...अपने और टिंकू के
सन्दर्भ में तो में पहले भी यह सब झेल चुकी थी। खैर, सुशीला के किरा हा
इंतज़ाम के बलबूते पर संकट की वह घड़ी तो गुज़र गई पर मन पर चोट का एक निशान
ज़रूर रह गया। हाँ, इतना लिखा तो यह भी ज़रूर लिखूगी कि मेरी इस तकलीफ़ की
बात जानकर शर्माजी ने पंत हॉस्पिटल के न्यूरोसर्जन डॉ. ब्रह्मप्रकाश से मेरे
लिए समय लिया तो वहाँ मुझे ज़रूर राजेन्द्र ही लेकर गाए थे। इसके बाद जब-जब
वहाँ जाना पड़ा, राजेन्द्र ही लेकर गए।
जिन्दगी फिर अपने पुराने ढर्रे पर चल पड़ी थी। राजेन्द्र जी-जान से हंस के
अस्तित्व को बचाने और उसे जमाने में जुटे थे और मैं अपनी इस नई बीमारी से जूझ
रही थी। सेडेटिव खाने के बाद भी जब-तब दर्द के करेंट गुजरते तो मैं कुछ समय
के लिए बेजान-सी हो जाती। डॉक्टर से जब इस दर्द की बात करती तो वे कह देते कि
सेडेटिव की थोड़ी मात्रा और बढ़ा दीजिए क्योंकि इसकी मात्रा तो आपको खुद तय
करनी होगी। जितनी गोलियों से दर्द पूरी तरह नियन्त्रण मं आए उतनी गोलियाँ तो
आपको लेनी ही होंगी...पर बढ़ाइए धीरे-धीरे, जिससे आपका शरीर इसका अभ्यस्त
होता चला जाए और इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ न हों। यह बहुत ज़रूरी है। मेरे
चेहरे पर फैली परेशानी को देखकर वे कहते- “अब
क्या किया जाए.इसका कोई इलाज तो आज तक निकला नहीं, यों बाहर रिसर्च तो बहुत
हो रही है इस पर लेकिन..." और वे हाथ झटक देते और मैं सोचती कि पता नहीं यह
मेरे कौन से जन्मों का फल है कि (स्थितियों ने मुझे बहुत भाग्यवादी तो बना ही
दिया है) सारे लाइलाज रोग मुझे ही झेलने भागने हैं। हाँ, डॉक्टर यह जरूर कहते
बल्कि आगाह करते कि आप किसी तरह का भी कोई टेंशन मत पालिए क्योंकि इतना समझ
लीजिए कि मानसिक तनाव से इस बीमारी का सीधा सम्बन्ध है। डॉक्टर से तो मैं कुछ
नहीं कहती पर मन ही मन सोचती कि कैसे मुक्त होऊँ में इन तनावों से इसमें तो
कोई सन्देह नहीं कि स्वभाव से ही में बहुत तनाव-ग्रस्त हूँ लेकिन यदि अनुकूल
परिस्थितियाँ मिलती...अपनत्व भरा साथ मिलता तो निश्चित रूप से मेरे ये सारे
तनाव ढीले ही नहीं होते बल्कि समाप्त ही हो जाते। पर मुझे जो साथ मिला उससे
मुझे न कोई सहयोग मिला न स्नेह, अगर कुछ मिला तो केवल जिम्मेदारियों का अनवरत
बोझ और असह्य यातनाएँ।
यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि आज की हर स्त्री घर-परिवार के अतिरिक्त और भी
न जाने कितनी ज़िम्मेदारियाँ निभाती है, उसमें अपनी ऊर्जा खर्च करती है लेकिन
अपने साथी का सहयोग..प्यार भरा लगाव निरन्तर उस ऊर्जा की क्षतिपूर्ति भी करता
रहता है...मेरे साथ क्या हुआ कि में सिर्फ खर्च ही करती रही और एक स्थिति ऐसी
आई कि मैं बिलकुल खाली-खोखली हो गई...रोग-ग्रस्त शरीर....निष्क्रिय-जीवन और
खंडित आत्मविश्वास की किरचों में लिपटा व्यक्तित्व। यह तो मेरे मित्रों,
परिवारियों, परिचितों का स्नेह ही मुझे थामे रहा...वग्ना कोई आश्चर्य नहीं कि
मैं लगभग टूट ही जाती। खेर, आत्मदया में लिपटी यह गाथा अव बिलकुल बन्द
क्योंकि मुझे खुद इससे बड़ी चिढ़ है पर क्या करूँ, लाख कोशिशों के बावजूद
जब-तब इसके दौरे पड़ ही जाते हैं।
जिन्दगी चल तो पड़ी थी लेकिन मेरा मन इस स्थिति से मुक्त होने के लिए अब बुरी
तरह उटपटाने लगा था। लिखना तो वन्द हो हो गया था...घरों में होनवाली
गोष्ठियों की संख्या भी घटती जा रही थी। सबकी अपनी-अपनी
परेशानियाँ...अपनी-अपनी समस्याएँ..अपनी-अपनी व्यस्तताएँ। फिर जब से सबने
अपने-अपने घर बना लिए थे, घरों में दूरियाँ भी बहुत बढ़ गई थीं और घरों की ये
बाहरी दूरियाँ जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे जैसे कहीं मनों में भी फैलती-पसरती
जा रही थीं। कॉलेज से भी मन उचटता जा रहा था पर सेवा-निवृत्ति में तो अभी भी
दो साल बाक़ी थे। हाँ, यह मैंने तय कर लिया था कि इसके बाद कॉलेज से पाँच साल
के लिए मिलनेवाला री-एम्प्लॉयमेंट मैं बिलकुल नहीं लूंगी। न तो अब मुझे इस घर
के लिए कुछ करना है और न ही मुझे अब इस घर में रहना है। जब भी सोचती कि कहाँ
जाकर रहूँगी तो कलकत्ता ही आँखों के आगे उभरता, शायद इसलिए कि उस समय मुझे एक
गहरे लगाव...एक भावनात्मक सुरक्षा की ज़रूरत बड़ी शिद्दत के साथ महसूस हो रही
थी और यह मुझे केवल अपने परिवारियों के बीच ही मिल सकती थी। परिवार के लोग तो
यों इन्दौर में भी काफ़ी थे लेकिन अपनी मानसिकता के अनुकूल मुझे कलकत्ता ही
लगता था ! वहाँ मेरे पुराने मित्र-परिचित लोग ही नहीं मेरी अनेक परम-प्रिय
छात्राएँ भी थीं, जिनके मन में आज भी मेरे लिए वही स्नेह भरा सम्मान था। कहा
तो मैंने किसी से नहीं पर मन ही मन सोच रखा था कि कोई दो कमरे का मकान या
बरसाती जैसी जगह सुशीला के आस-पास कहीं ले लूंगी। वहाँ दिल्ली जैसी दूरियाँ
तो हैं नहीं, सो सभी भाई-बहनों का स्नेह-सहयोग मिलता रहेगा लेकिन खुदा को तो
कुछ और ही मंजूर था !
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