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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


उसी साल मुझे 'भारतीय युवा वर्ग की समस्याएँ' पर केन्द्रित एक सेमिनार में भाग लेने के लिए पटना जाना पड़ा। सेमिनार में होनेवाली चर्चाओं की तो मुझे कुछ याद नहीं...याद है तो केवल आन्दोलन में भाग लेनेवाले युवाओं के निराशा में लिपटे उस आक्रोश की, जिसे खुलकर उन्होंने वहाँ प्रकट किया था। 'हमने अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ी...अपना पूरा कैरियर चौपट किया...नौकरियाँ छोड़कर अपने और अपने परिवार का भविष्य मिट्टी में मिलाया...इन लोगों को सत्ता में लाने के लिए हमने अपने को बर्बाद कर दिया और आज जब हम लोग अपनी कोई समस्या...अपनी कोई माँग लेकर जाते हैं तो इनके पास हमसे मिलने तक का समय नहीं है। और सत्ता पर बैठकर यह सरकार जो कर रही है क्या यही सब करने के लिए इन्हें सत्ता पर बिठाया था...' आदि-आदि। पटना प्रसंग का उल्लेख मैंने सिर्फ यह दर्शाने के लिए किया कि मात्र ढाई साल चली इस सरकार को लेकर यदि सामान्य लोगों के मन में धीरे-धीरे एक निराशा व्यापने लगी थी तो आन्दोलन में भाग लेनेवालों के मन में एक गहरा आक्रोश।

जनता सरकार के राज में घटी थी बेलछी की दिल दहला देनेवाली घटना। किसी पत्रिका में मैंने हरिजनों को पेड़ से बाँधकर जिन्दा जला देने की क्रूरता और गाँव में फैली उस दहशत का, जिसने सबके मुँह पर ताले जड़ दिए थे-रोम-रोम को द्रवित कर देनेवाला ऐसा वर्णन पढ़ा कि में ऊपर से नीचे तक थरथरा गई। दो दिन तक इस घटना के न जाने कितने चित्र मेरी आँखों के सामने बनते-बिगड़ते रहे...अपनी डायरी में कुछ ऑका भी-आज तो लगता है कि उसमें विचार की जगह भावुकता का आवेग ही ज़्यादा था। पर कुछ दिनों बाद ही यह सारी घटना मुझे एक उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित करने लगी हालाँकि उसका कोई स्पष्ट रूप मेरे सामने नहीं था...वस, एक आवेग मात्र था और एक विचारहीन आवेग से तो कोई सार्थक रचना रची नहीं जा सकती सो चुप लगाकर बैठ गई...पर कुछ समय बाद जब मुझे मालूम पड़ा कि हरिजनों को जलानेवाले व्यक्ति ने जेल से पैरोल पर छूटकर केवल चुनाव ही नहीं लड़ा बल्कि वह भारी बहुमत से जीत भी गया तो नज़र इस त्रासदी के साथ-साथ चुनाव केन्द्रित राजनीति पर टिक गई...आज तो जिसका बीभत्सतम रूप देखने को मिलता है। राजनीति की शतरंज पर आम आदमी तो शुरू से ही मात्र एक मोहरा भर रहा है, जिसका नाम लेकर ये ख़ास आदमी शह और मात का यह घिनौना खेल खेलते आ रहे हैं। बड़ी निर्ममता और बेहयाई से ये इसकी ज़िन्दगी को भी भुनाते हैं तो इसकी मौत को भी। और यह बात दिमाग़ में आते ही भावकता के उस आवेग में विचारों का एक पट आ मिला और उपन्यास की कल्पना को एक ठोस आधार मिल गया।

संयोग की बात कि तभी एक दिन राधाकृष्ण प्रकाशन के ओमप्रकाश जी एक प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए कि काफ़ी साल तक मैंने आपका बंटी उपन्यास अक्षर प्रकाशन के पास रखा, अब उन्हें दे दूँ और देखू कि वे इसे कहाँ-कहाँ तक फैला देते हैं। यह सम्भव नहीं था क्योंकि राजेन्द्र उसके लिए कभी तैयार नहीं होते सो मैंने ओमप्रकाश जी से कहा कि में एक नया उपन्यास लिखने की सोच रही हूँ...लिखने पर वह आपको दूँगी, यह मेरा वायदा रहा। दूसरे दिन ही ओमजी ने अनबन्ध पत्र के साथ दो हज़ार का एक चैक भिजवा दिया। फिर एक दबाव...पर इस बार यह दबाव पहले की तरह कारगर सिद्ध नहीं हुआ। कुछ महीने बीत गए पर मैं उपन्यास शुरू तक नहीं कर सकी। पता नहीं क्यों उनका दिया हुआ रुपया मुझ पर बोझ बना हुआ था सो एक दिन मैंने झोंक में आकर एक चैक ओमजी के नाम लिखा और एक चिट के साथ वापस भेज दिया- “मैं तो अभी तक उपन्यास शुरू भी नहीं कर सकी...लिख लूँ तब दीजिएगा। हाँ, अपने वायदे से नहीं मुकरूँगी, यह निश्चित है।” तुरन्त उनका जवाबी लिफ़ाफ़ा मिला, जिसमें मेरे भेजे हुए चैक के टुकड़ों के साथ एक चिट थी-जिस पर केवल एक पंक्ति लिखी थी- “मैंने आपसे कभी कुछ कहा क्या ?” लगा, दबाव और बढ़ गया-पर परिणाम कुछ नहीं। कुछ समय बाद सूचना मिली कि ओमप्रकाशजी को दूसरा हार्ट-अटैक हआ है। हम लोग उन्हें देखने गए तो मेरे मन में बड़ा संकोच कि यह प्रसंग आएगा तो क्या जवाब दूँगी ? हमें देखकर वे प्रसन्न हुए...इधर-उधर की चर्चा की पर भूलकर भी उपन्यास की कोई बात नहीं की।

जान-बूझकर ओढ़ी गई उनकी इस चुप्पी ने मेरे भीतर न जाने कैसी खलबली मचा दी। ...उनका वह हार्ट-अटैक लगा जैसे मेरी चेतना पर ही अटैक हुआ हो और मैंने संकल्प कर लिया कि बस, अब उपन्यास शुरू करना ही है।

संयोग ऐसा हुआ कि तभी डॉ. बच्चन सिंह ने, जो उस समय शिमला में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष थे, हम दोनों को आमन्त्रित किया। कार्यक्रम के बाद मैंने उनसे वैसे ही कहा कि यदि मुझे युनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में कुछ दिन ठहरने के लिए मिल जाएँ तो मैं एक उपन्यास लिखना चाहती हूँ। ज़्यादा दिन रहने का नियम तो नहीं था, फिर भी उन्होंने मेरे लिए एक कमरे की व्यवस्था करवाई तो राजेन्द्र टिंकू को लेकर दिल्ली लौट गए और मैं गेस्ट हाउस के कमरे में। कमरे के एकान्त में लिखने के मेरे इरादे को संकल्प में बदलते देर नहीं लगी और लिखने के इस संकल्प के साथ ही कैसे एकाएक मेरी कल्पना प्रखर, दिमाग़ सक्रिय और संवेदना सजग हो उठी, मैं खुद नहीं जानती। एक बार उपन्यास जो शुरू हुआ तो बिना किसी अवरोध के लगातार बहता ही चला गया...जिस गति से यह लिखा गया उसे बहना ही कहूँगी। अपने कच्चे माल के गोदाम से एक सुखद आश्चर्य की तरह उपन्यास के प्रमुख पात्र दा साहब की भूमिका अदा करने के लिए किशोरावस्था में निकट सम्पर्क में आए और ताज़िन्दगी राजस्थान की राजनीति की एक प्रमुख हस्ती के रूप में रहे असली दा साहब प्रकट हो गए...मिरांडा हाउस में मिले, भन्नाते हए उस रिसर्च-स्कॉलर ने, जिसने अपनी फैलोशिप पर इसलिए लात मार दी थी कि उसके नियमानुसार वह गाँव की स्थितियों का केवल अध्ययन-भर कर सकता था, उनसे जुड़ नहीं सकता था और गाँव की स्थितियाँ तो ऐसी थीं कि कोई युवा खून उनसे जुड़े बिना रह नहीं सकता था-महेश का चरित्र खड़ा कर दिया। कई घटनाएँ भी इसी तरह चित्रित हुईं। वास्तविक को काल्पनिक और काल्पनिक को वास्तविक में गढ़ते चले जाने की विचित्र प्रक्रिया है यह-सृजन की अनिवार्यता।

उपन्यास के साथ मैं पूरी तरह जुड़ गई थी। हाँ, शाम ज़रूर मैं एक दिन डॉ. बच्चन सिंह के यहाँ गुज़ारती थी तो एक दिन डॉ. विजयमोहन सिंह के यहाँ। खाना-पीना भी वहाँ होता था। डॉ. विजयमोहन सिंह जी की पत्नी आशा उन दिनों छुट्टियों में शिमला आईं हुईं थीं और वे बड़े प्रेम से मुझे अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर खिलाया करती थीं-रात में लौटकर फिर उपन्यास। पच्चीस दिन में मैंने उपन्यास पूरा ही नहीं किया बल्कि उसका दूसरा ड्राफ्ट भी क़रीब-क़रीब तैयार कर लिया था। आज तो अपने सन्दर्भ में मुझे यह सब अकल्पनीय ही नहीं, अविश्वसनीय भी लगता है। दिल्ली आकर बिना ज़रा भी ढील दिए तीसरा-चौथा ड्राफ्ट तैयार किया और पढ़ने के लिए राजेन्द्र के हाथों में सौंप दिया। यह पहला उपन्यास था, जिसकी पांडुलिपि मैंने छपने से पहले राजेन्द्र को पढ़ने को दी।

वैसे अपने पहले उपन्यास की पांडुलिपि भी दी तो राजेन्द्र को ही थी पर वह तो 'छपने से पहले ही एक इंच मुस्कान में बदल गई और फिर तो वह उपन्यास मेरा अपना रहा ही नहीं, हमारा हो गया था, इसलिए उसकी तो चर्चा करना भी बेकार है। आपका बंटी कड़ियों में ही लिखा गया और कड़ियों में ही धर्मयुग में छपता भी रहा। राजेन्द्र ने तो उसे छपने के बाद ही पढ़ा था। हाँ, कहानियाँ ज़रूर छपने से पहले मैं इन्हें पढ़वाती थी या सुनाती थी, पर याद नहीं पड़ता कि किसी भी कहानी में कभी कोई काट-छाँट या संशोधन किया हो...हाँ, कई कहानियों के
बड़े उपयुक्त और सटीक शीर्षक ज़रूर राजेन्द्र ने रखे। पर इस उपन्यास पर उनकी राय बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं थी। इतना ही कहा- “ठीक है, पर बंटीवाली गहराई नहीं है।" आश्चर्य है कि इस निहायत ही ठंडी-सी प्रतिक्रिया के बावजूद मैं विशेष हताश नहीं हुई थी। अच्छी तरह जानती हूँ कि इसके मूल में आत्मविश्वास का आधिक्य नहीं बल्कि आलस्य ही रहा होगा क्योंकि तीन और किसी-किसी अंश के चार ड्राफ्ट बनाने के बाद अब इस पर किसी भी तरह का और कोई काम करने का मेरा हौसला ही नहीं रह गया था...और यह भी हो सकता है कि मैं उपन्यास से पूरी तरह सन्तुष्ट थी इसीलिए मैंने राजेन्द्र से इस पर किसी तरह की कोई चर्चा भी नहीं की और न ही कोई सलाह-सझाव माँगे।

दूसरे दिन शर्माजी के आने पर मैंने पांडुलिपि उन्हें दे दी। उनकी प्रतिक्रिया थोड़ी भिन्न थी। उन्होंने कहा- "मैंने शाम को उपन्यास पढ़ना शुरू किया था...शुरू में तो थोड़ा घसीटना पड़ा पर बाद में तो उसने ऐसा बाँधा कि मैं इसे देर रात में खतम करके ही सोया।" एक-दो प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ और भी की थीं, जिन्हें सच समझकर मैं तो प्रसन्न हो ली और मैंने पांडुलिपि तुरन्त ओमप्रकाशजी को सौंप दी। पढ़कर उनका गद्गदाता स्वर...सचमुच उन्हें उपन्यास बहुत पसन्द आया था और वे बेहद प्रसन्न और पुलकित थे और उनकी यह प्रसन्नता यह पुलक मुझे एक दूसरे ही स्तर पर भी तुष्ट कर रही थी। जब मुझे कोई नहीं जानता था...पत्रिकाओं में थोड़ी-सी कहानियाँ छपने के कारण साहित्य के क्षेत्र में मेरी बड़ी नगण्य-सी स्थिति ज़रूर दर्ज हुई थी, पर मात्र उसके चलते बिना किसी परिचय के मेरी पहली पुस्तक...सो भी कहानी-संग्रह छापकर ओमजी ही मुझे साहित्य के क्षेत्र में लाए थे। यह बात मेरे मन में कहीं जमी हुई थी और इसीलिए उनकी पसन्द का उपन्यास उन्हें देकर लगा जैसे मैं ऋण-मुक्त हुई ! और फिर तो उन्होंने इस उपन्यास को जिस गहरे सरोकार और लगन से छापा, शायद ही कोई प्रकाशक छापता होगा। 26 अगस्त, 1979 की शाम को वे इसकी पहली प्रति राजेन्द्र के लिए लेकर आए और 28 अगस्त, 1979 को सवेरे-सवेरे मुझे उनकी मृत्यु का समाचार मिला-हार्ट फेल्योर। तो क्या वे इसे छापने के लिए ही रुके हुए थे ? तो क्या यह उपन्यास उन्हीं का महाभोज हो गया !

इसकी समीक्षाएँ-चर्चाएँ पढ़-सुनकर खुशी के साथ-साथ उन दिनों एक कचोट सी ज़रूर मन में उठा करती थी-काश ओमजी यह सब देखते...ख़ासकर इसके मंचन की सफलता पर तो न जाने कितनी बार मुझे उनका ख़याल आया करता था।

महाभोज प्रकाशित होने के कोई डेढ़-दो साल बाद अरविन्द कुमार ने मुझे सूचना 'दी कि अमाल अल्लाना इसे मंच पर प्रस्तुत करना चाहती हैं और इस सिलसिले में उन्होंने मेरी और अमाल की एक मुलाक़ात भी तय कर दी। मुलाक़ात हुई तो मैंने एक ही शर्त रखी कि नाट्य-रूपान्तर में खुद करूँगी। हाँ, मंच के तकनीकी पक्ष के सिलसिले में अमाल मुझे सहयोग देंगी। वे तो खुद ही चाहती थीं कि नाट्य-रूपान्तर में ही करूँ, सो बात तय हो गई। पर काम कुछ दिनों बाद ही शुरू हो पाया था। स्थिति यह बनी कि अमाल निर्देशन करेंगी और मैं नाट्य-रूपान्तर; नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रंगमंडल इसे प्रस्तुत करेगा और उसके मँजे हुए कलाकार अभिनय करेंगे। उस समय रंगमंडल में अभिनेताओं की जो टीम थी उसमें मनोहर सिंह, उत्तरा बावकर, सुरेखा सीकरी, रघुवीर यादव, जोसलकर, विजय कश्यप, युवराज जैसे सधे हुए कलाकार सम्मिलित थे। मनोहर सिंह, उत्तरा, सुरेखा की प्रतिभा से तो सभी परिचित थे क्योंकि उन्होंने रंगमंडल की प्रसिद्ध प्रस्तुतियों में प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं लेकिन रघुवीर यादव। उसने बिन्दा के बूढ़े बाप हीरा की भूमिका अदा की थी और अपने अभिनय से सबको हिला दिया था। जिसने उसे उछल-कूदवाली खिलंदड़ भूमिकाओं में अभिनय करते देखा है, वह क्या कभी विश्वास कर सकेगा कि तहक़ीक़ात वाले दृश्य में थरथराती टाँगों और आँसुओं भीगी काँपती आवाज़ वाला बूढ़ा हीरा भी यही रघुवीर यादव है ? यादव के अभिनय की रेंज....और बिलकुल विपरीत तरह की भूमिकाओं को भी समान कौशल से निभाने की उसकी प्रतिभा ! अब अभिनेताओं की ऐसी टीम महाभोज में काम करेगी, इससे अधिक सन्तोषजनक बल्कि कहूँ कि सुखद स्थिति की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी !

स्क्रिप्ट तैयार करने का शुरू का काम तो मेरा था। उपन्यास के आधार पर अमाल ने शुरू में जो दृश्य-योजना बनाई उसमें मैंने कुछ परिवर्तन सुझाए और थोड़ी-सी बातचीत के बाद वे सब स्वीकृत भी कर लिए गए पर बस, अन्त तक मतभेद रहा तो केवल सूत्रधार को लेकर। मैं सूत्रधार के पक्ष में थी ही नहीं क्योंकि मुझे उसकी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही थी, पर अमाल को उपन्यास में लेखक की ओर से लिखी गई शुरू की और बीच-बीच में आनेवाली पंक्तियों से कुछ ऐसा मोह था कि इन्हें बिना कहलवाए वह रह ही नहीं सकती थीं। और इन पंक्तियों को संवाद में ढालने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी...सो उन्हें सूत्रधार ज़रूरी लग रहा था। अन्ततः मैंने उनकी यह बात मान ली। नाटक का आरम्भ सूत्रधार के संवाद से ही हुआ और बीच-बीच में भी स्थितियों पर टिप्पणी करने के लिए (उपन्यास में लेखक के द्वारा की गई हैं ये टिप्पणियाँ) वह प्रकट होता रहता है। पर अन्त के उस भव्य दृश्य में, जो एक साथ कई रंग-स्थलों पर चलता है-एक ओर दा साहब अपनी उसी सन्तई मुद्रा में सारे संकट टल जाने की खुशी में जमना बहन के हाथ से केसरिया सन्देश का भोग लगा रहे हैं तो दूसरी ओर अपने को पूरी तरह दा साहब के हाथों बेचकर आई.जी. बने डी.आई.जी. के घर इस प्रमोशन के उपलक्ष्य में शानदार पार्टी चल रही है...एक ओर जोरावर के यहाँ जीत की खुशी का जश्न मनाया जा रहा है तो दूसरी ओर प्रेस में सम्पादक दा साहब की नज़रों में फिर अपनी छवि सुधार लेने की खुशी में मिठाई बाँट रहे हैं। और इन सब बेईमान और बिके हुए लोगों के बीच नाटक का सबसे ईमानदार पात्र बिन्दा थाने में रुई की तरह धुना जा रहा है...उस अपराध को क़बूलने के लिए जो उसने किया ही नहीं। शुरू में एक-एक रंग-स्थल को केन्द्र में रखकर यह दृश्य चलता रहता है और समाप्त होता है पुलिस की बर्बर धुनाई से पूरी तरह ध्वस्त हुए बिन्दा के उस मौन के साथ, जिसमें उसके अपराध न कबूलने का संकल्प निहित था। उसके बाद एक ईमानदार और निष्ठावान आदमी के जीवन की त्रासदी को पूरी भयावहता के साथ उजागर करने के लिए आमोद-प्रमोद, नाच-गाने और जश्न मनाते सारे रंगस्थल एक साथ आलोकित और सक्रिय हो उठते हैं। उपन्यास में तो न कोई ऐसा दृश्य है...न ही ऐसा अन्त (यह शुद्ध अमाल की कल्पना थी और इसमें कोई सन्देह नहीं कि अद्भुत कल्पना थी...जिसने नाटक के प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया था।) और लेखक की तो कोई टिप्पणी थी ही नहीं...सो अब सूत्रधार करे तो क्या करे ? फिर भी अन्त में सूत्रधार प्रकट तो होता है और थोड़ा-सा हाथ बढ़ाकर कुछ कहने के लिए मुँह भी खोलता है, पर बिना कुछ कहे उसे इसी स्थिति में फ्रीज़ कर दिया जाता है। सूत्रधार का कुछ कहने के लिए खुला मुँह...बढ़ा हाथ और नाटक समाप्त हो जाता है। पीछे चलनेवाले उस भव्य दृश्य के परिप्रेक्ष्य में सूत्रधार की इस अदा पर एक बार तो मेरा मुँह भी खुला का खुला रह गया (अमाल ने इसकी जो व्याख्या की वह थी तो अद्भुत-उनका कहना था कि स्थितियाँ आज इतनी भयावह हो चली हैं कि अब बात कहने-सुनने के परे चली गई है-इनसे निपटने के लिए तो अब कुछ ‘करना' चाहिए-एक्शन ! पर मेरी शंका थी कि सूत्रधार की इस अदा मात्र से तो यह बात लोगों तक पहुँचने से रही। मेरी शंका ही सही निकली...या तो लोगों ने सूत्रधार पर कोई ध्यान ही नहीं दिया या फिर पूछा कि जब कुछ कहना ही नहीं था तो सूत्रधार को लाया ही क्यों गया ? बहरहाल, इतना सब मैंने केवल अपने और अमाल के इकलौते मतभेद के सन्दर्भ में ही लिखा है।

सप्ताह में दो-तीन दिन मैं कॉलेज से सीधी नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा चली जाती...जो दृश्य मैंने लिख लिए होते उन्हें पढ़ा जाता। अमाल को मेरे संवाद अच्छे लग रहे थे और शायद उससे भी ज़्यादा मेरा यह रवैया कि अपने लेखकीय अहं को लेकर मैं अड़ नहीं जाती। अमाल ने सबको अपनी-अपनी भूमिकाएँ बाँट दीं और कुछ हिस्सा पूरा हो जाने पर उसका रिहर्सल भी करवाया...सभी को लगा कि नाटक अच्छा जा रहा है। इसके बाद मैं कुछ ज़्यादा ही जुड़ गई इसके साथ...मात्र लिखने से एक क़दम और आगे। फिर तो स्थिति यह बनी कि मैं लिखकर ले जाती तो अभिनेताओं में से भी कुछ लोग आकर जम जाते...कभी-कभी कुछ सुझाव भी देते। धीरे-धीरे इस काम ने एक टीम-वर्क का रूप ले लिया। जैसे-जैसे नाटक गति पकड़ता जा रहा था, मेरा आत्म-विश्वास भी बढ़ता जा रहा था और मेरे लिखने को गार भी मिलती जा रही थी। तहक़ीक़ातवाले दृश्य को देखकर तो मैं खुद मुग्ध हो गई थी। फटाफट उसके बादवाला दृश्य लिखकर मैं अमाल को दे आई। पढ़ा तो वह भी सभी के सामने गया था पर तब तो किसी ने कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं की लेकिन दो दिन बाद जब मैं गई तो अमाल ने सूचना दी, ‘नहीं मन्नू जी, रिहर्सल के दौरान महसूस हुआ कि इस दृश्य में तो नाटक बिलकुल लटक ही गया।' 'लटक गया'...नाटक के सन्दर्भ में यह उक्ति मैंने पहली बार सुनी थी। हाँ, यह सूचना देते समय अमाल का मुँह ज़रूर लटका हुआ था...प्रतिकूल प्रतिक्रिया सुनकर मेरा मुँह भी ज़रूर लटक ही गया होगा...पर नाटक कैसे लटक गया ? वैसे तो मैंने उस दृश्य को बिलकुल उपन्यास के आधार पर ही लिखा था...फिर तब अमाल ने समझाया कि लगातार गतिमान घटनाओं के क्रमिक-विकास से क्लाइमेक्स की ओर जाता हुआ नाटक इस गतिहीन दृश्य के कारण ढीला पड़कर पीछे की ओर लौट आया। तहक़ीक़ात के बाद तो किसी गतिमान और धाँसू दृश्य की परिकल्पना होनी चाहिए।

अब उपन्यास में तो ऐसा कोई गतिमान दृश्य था नहीं सो सभी लोग अपने-अपने सुझाव देने लगे। लेकिन मुझे कोई भी सुझाव जम ही नहीं रहा था। इसलिए मैंने अमाल से कहा कि घर जाकर मुझे सोचने का समय चाहिए। आपकी बात और ज़रूरत मैं समझ गई हूँ...कोशिश करूँगी कि उसी के अनुकूल कोई दृश्य लिख लाऊँ। अमाल मेरी बात से पूरी तरह सहमत थी कि तभी विजय कश्यप ने एक सुझाव दिया। वह सुझाव मुझे एकदम क्लिक कर गया, फिर तो बिना ज़रा भी देर किए मैं सीधे घर के लिए चल पड़ी। रास्ते भर मैं उसके दिए सुझावों को दृश्यों में ढालती रही और जब लिखने बैठी तो उन दृश्यों और पात्रों के अनुकूल संवाद भी जैसे अपने आप निकलते चले गए। समाप्त करके जब उन दोनों दृश्यों को पढ़ा तो मैं खुद परम-प्रसन्न ! उस दिन एकाएक महसूस किया कि आप रचना चाहे किसी भी विधा में कर रहे हो...उस रचना के साथ एक गहरा लगाव या कहूँ कि उस रचना के साथ एकमेक होते ही आधी मंज़िल तो आपकी यों ही पूरी हो जाती है। तभी तो महाभोज को जब उपन्यास के रूप में लिखा था तब भी वह ऐसी ही सहज गति से बढ़ता चला गया था।...अनायास, अनवरत!

नाट्य-रूपान्तर का काम पूरे आठ महीने तक चला और इसके बाद 82 में प्रदर्शन। ग्रैंड रिहर्सल होने के बाद अमाल ने कहा था-मन्नूजी, आपको जिसजिसको भी बुलाना हो, पहले दिन ही बुलाकर दिखा दीजिए...कौन जाने, एक शो के बाद यह बैन ही कर दिया जाए ? पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और हाउसफुल के साथ यह नाटक कई दिनों तक चलता रहा। अख़बारों में आए रिव्यूज़, प्रतिक्रियाएँ और शहर में होनेवाली चर्चाओं ने इस पर सफलता का ठप्पा भी लगा दिया। इस सारे प्रसंग के जिस निचोड़ को में रेखांकित करना चाहती हूँ, वह है-उपन्यास का नाट्य-रूपान्तरण करते समय यदि लेखक और निर्देशक दोनों अपने-अपने अहं को दरकिनार करके बैठे तो बहुत अच्छे परिणाम निकल सकते हैं।

इसके साथ ही मंचन से जुड़ी एक और पुरानी घटना का उल्लेख भी मुझे ज़रूरी लग रहा है। हमारे कॉलेज (मिरांडा हाउस) में प्रतिवर्ष एक नाटक का मंचन होता है-एक वर्ष अंग्रेज़ी का नाटक, एक वर्ष हिन्दी का। सन् 78 में हिन्दी का नाटक होना था और निर्देशन के लिए नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के रामगोपाल बजाज (बज्जू भाई) आए थे। हर बार की तरह इस बार भी समस्या थी नाटक के चुनाव की और बज्जू भाई ने एकाएक घोषणा कर दी कि इस वर्ष वे मेरे नाटक बिना दीवारों के घर का मंचन करेंगे। मैंने लाख मना किया...तर्क भी दिया कि उसकी अनेक कमियों के कारण उसके पुनर्लेखन तक मैंने उसका प्रकाशन भी रोक रखा है। बज्जू भाई ने कहा कि बस, तब तो पुनर्लेखन का काम मैं तुरन्त शुरू कर दूँ क्योंकि नाटक तो वे यही करेंगे...मैं अनुमति नहीं दूंगी तो वे बिना अनुमति के ही करेंगे। अपने ही कॉलेज के ख़िलाफ़ मैं कोई एक्शन ले सकूँ तो लूँ। तब मैंने बज्जू भाई से अनुनय-विनय की कि क्यों वे मेरे नाटक और अपने प्रदर्शन की धज्जियाँ बिखेरने में लगे हैं। उन्होंने हँसकर इतना ही कहा कि अपने प्रदर्शन की तो उन्हें कोई चिन्ता नहीं; हाँ अपने नाटक को लेकर मैं अगर परेशान हूँ तो मुझे तुरन्त पुनर्लेखन शुरू कर देना चाहिए। स्पष्ट कर दिया कि वे तो अपनी बात पर अटल हैं। अब तो जो करना था मुझे ही करना था।

आगे सोचती हूँ तो हँसी आती है कि किस तरह मेरी अधिकतर रचनाएँ इस तरह के दबावों के चलते ही तो पूरी हुई। बरसों से इस नाटक के पुनर्लेखन को टालती आ रही थी...बज्जू भाई के निर्णय ने मुझे आख़िर इस दिशा की ओर मोड़ ही दिया।

कक्षाएँ समाप्त करके मैं कॉलेज में ही लिखने बैठ जाती...रात को घर पर भी लिखती और दूसरे दिन एक-दो दृश्य तो मैं बज्जू भाई को थमा ही देती। वे पात्रों को डिक्टेट करवा देते और उसका पाठ और रिहर्सल होने लगता। रोज़ लिखना और रोज़ रिहर्सल करवाना, यह सिलसिला अन्त तक चलता रहा। एक जुनून की हालत में ही मैं यह नाटक लिख रही थी और मुझे इतना भी होश नहीं था कि क्या रूप बन रहा है नाटक का। लेकिन बज्जू भाई, त्रिपुरारि शर्मा, रवि शर्मा मेरे लिखे को जिस तरह स्वीकारते जा रहे थे उससे आश्वस्त थी कि जो हो रहा है, ठीक ही हो रहा है। अन्तिम दिन ग्रैंड रिहर्सल आधी रात तक चला था, सब लोग बहुत प्रसन्न थे और मुझे भी लगा कि कुल मिलाकर अच्छा ही बन गया है...काफ़ी अच्छा ! अर्चना वर्मा का एक रिमार्क आज भी याद है। उसने कहा था... “मन्नू जी, आप और सब लिखना छोड़कर केवल नाटक लिखिए...आपके चुस्त संवाद...” अर्चना के इस रिमार्क ने गद्गद तो बहुत किया था पर परिणाम...! सोचा था कि कुछ समय गुज़र जाने के बाद बहुत तटस्थ होकर इस प्रदर्शन में अभी भी जो कमियाँ लगी थीं, उनके मद्देनज़र इसका अन्तिम ड्राफ़्ट करूँगी और फिर उसी का प्रकाशन भी करवाऊँगी। अलग-अलग दृश्यों की वे पर्चियाँ मैं एक फ़ाइल में नत्थी करती जा रही थी...न तो मैंने उनको टाइप करवाया था, न फोटोस्टेट। लेकिन कुछ महीनों बाद अचानक एक दिन देखा कि अलमारी में रखी उस फ़ाइल को दीमक ने इतने प्रेम से अपना भोजन बनाया कि उन काग़ज़ों में से कुछ भी पढ़ पाना सम्भव नहीं रहा। अभिनय करनेवालों से भी सम्पर्क किया पर सब व्यर्थ। तब सोचा कि इसे आधार बनाकर अब एक बिलकुल नया नाटक ही लिखूगी... पर वह दिन कभी आया ही नहीं और तब हारकर राजकमल प्रकाशन वालों ने 2002 में उसे अपने मूल रूप में ही पुनर्प्रकाशित कर दिया।

दीमक से छलनी बनी पांडुलिपि की चर्चा आज मैं कितने सहज भाव से कर रही हूँ मानो यह हादसा किसी और के साथ घटा हो, पर जिस दिन यह घटना घटी थी...कितना दुखी हुई थी मैं...कितना कोसा था अपनी लापरवाही और अपने लधड़पने को और मन ही मन कितने संकल्प लिए थे कि बस, आज से अपनी लिखी और अपने पर लिखी चीज़ों, समीक्षा, रिव्यूज़, अनुवाद आदि के प्रति सजग और व्यवस्थित रहूँगी मैं। अलग-अलग फ़ाइलें बनाकर बड़े क़ायदे-करीने से रसूंगी अब सब कुछ। न जाने कितने लेखक गुज़र गए आँखों के सामने से जिनके पास उन पर छपी एक पंक्ति भी सुरक्षित मिलेगी, अलबम की तस्वीरों की भाँति। पर कहाँ बिला जाते हैं ऐसे सारे संकल्प...क्यों नहीं मैं उन पर चार दिन भी अमल कर पाती ? मेरा आलस्य...मेरी लापरवाही या इन सबके प्रति मेरी एक ख़ास तरह की उदासीनता, मैं खुद नहीं जानती !

सन् 82 का मेरा पूरा साल महाभोज को ही अर्पित हो गया। पहले महीनों चलनेवाला नाट्य-रूपान्तरण...फिर रंगमंडल की तीस प्रस्तुतियाँ और फिर उन पर आनेवाली प्रतिक्रियाएँ। पर सन् 83 ने तो मुझे एक बिलकुल ही दूसरी दुनिया में ला पटका। काग़ज़-क़लम की दुनिया से लोहे-लक्कड़, कील-काँटों की दुनिया में। हुआ यह कि सन् 79 में हमने डी.डी.ए. में एक फ़्लैट बुक किया था। किराये के मकान में रहने की सारी दिक़्क़तों के बावजूद डी.डी.ए. के मकान में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी पर शर्माजी ने आग्रह करके जैसे-तैसे करवा ही दिया क्योंकि इतने बरसों के परिचय से वे इतना तो अच्छी तरह जान गए थे कि ज़मीन लेकर मकान बनवाना हमारे बस के बाहर की बात है। डी.डी.ए. ने एक नई योजना निकाली थी कि पैसा मकान खरीदनेवाला खुद लगाएगा, वो तो सिर्फ़ उसे बनवाने की ज़िम्मेदारी लेंगे। पैसा भी पाँच किस्तों में देना था और शायद इसीलिए इसे ले पाना हमारे लिए सम्भव भी हो पाया। सन् 83 में सूचना मिली कि मकान तैयार है....अधिकार-पत्र (पज़ेशन-लेटर) लेने की जो औपचारिकताएँ हैं, उन्हें पूरा करके हम मकान का अधिकार ले लें। औपचारिकताएं पूरी करने में डी.डी.ए. ऑफ़िस में आठ-दस दिन तक ऊपर-नीचे के चक्कर लगाते-लगाते मेरे पैरों में तो बस पानी ही पड़ गया था। आज तक तो मकान से सम्बन्धित जितने भी काम हुए थे, वे सब मेरे लिए भी शर्मा जी के पी.ए. ने ही निपटाए थे...पर इसके लिए तो मुझे ही वहाँ उपस्थित होना था क्योंकि मकान मेरे नाम से था। ऊपर-नीचे की यह परेड करवाने के पीछे एक ही कारण था कि सम्बन्धित बाबुओं को कुछ खिलाओ-पिलाओ। और ऐसे काम करने की असमर्थता के चलते ही मैं एक बार मकान-मालिक द्वारा चलाए गए मुक़दमे में हार भी गई थी। इस बार मैंने सोच लिया कि मैं अब सीधे 'कमिश्नर हाउसिंग' के पास जाऊँगी पर तभी क़िस्मत से एक साहित्य-प्रेमी मिल गया। नाम देखकर ही उसने पूछा कि क्या आप वही मन्नू भंडारी हैं, जो लिखती हैं और फिर तो उसका सारा रवैया ही बदल गया। फिर तो मेरे काम की सारी ज़िम्मेदारी उसने ले ली, बदले में बस एक फ़र्माइश रखी...मुझे आप अपनी किताबों का एक सेट ज़रूर दीजिए क्योंकि ख़रीदना मेरे लिए सम्भव नहीं...और दूसरे लोगों के लिए बस मिठाई का डिब्बा लेती आइए और अपने हाथ से सबको खिला दीजिए। एक साहित्य-प्रेमी को किताबें देना और मकान मिलने की खुशी में मिठाई खिला देना मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगा-वरना नक़द रुपए की रिश्वत देना...। साहित्य से जुड़ा होना भी कभी-कभी कैसे संकटमोचक बन जाता है।

आखिर मकान मिल गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन में उत्साह तो बहत था...तरह-तरह की योजनाएँ भी थीं कि किस कमरे को कैसे सजाएँगे पर समस्या थी कि काम करवाएगा कौन ? महँगाई का हवाला देकर मकान की अन्तिम क़िस्त में पचास हज़ार रुपए का इज़ाफ़ा कर दिया गया था इसलिए बजट तो बेहद सीमित रह गया था। पर सबसे बड़ी कठिनाई थी शक्ति नगर में रहते हुए 22 किलोमीटर दूर बने मकान का काम करवाना। पर जैसा कि मैंने कहा, हर संकट में मदद करनेवाले हाथ मुझे हमेशा तैयार ही मिले। टिंकू ने घर में होनेवाले काम का नक्शा तैयार किया और रंजन ने जून-जुलाई की भयंकर गर्मी में बिना पंखों के सवेरे दस बजे से शाम छह बजे तक वहाँ रहकर, मिस्त्रियों से सिर फोड़-फोड़कर सारा काम करवाया।

रंजन ! आश्चर्य है कि उसके बारे में मैंने कभी कुछ लिखा ही नहीं। हो सकता है कि पिछले कई बरसों से बहुत दूर रहने के कारण वह कहीं मन से भी दूर हो गया हो, वरना तीन-चार साल तक तो वह मेरा बेटा बनकर ही नहीं रहा था बल्कि उसने बेटा होने की सारी ज़िम्मेदारियाँ भी निभाई थीं ! इतना ही नहीं, एक समय तो ऐसा भी रहा कि मैं उसके साथ अपने और राजेन्द्र के सम्बन्धों की चर्चा भी खुलकर करती थी। वह भी अपना सब कुछ मेरे साथ शेयर करता था। सहभागिता के मेरे पिपासु मन को इससे कितना सन्तोष मिलता था ! यो साइंस का विद्यार्थी पर उसके बावजूद मेरी लिखी चीजें पढ़ता ही नहीं, उन पर कभी-कभी सुझाव भी देता था। उसी ने घर बनवाने की ज़िम्मेदारी लेकर मेरे इस बोझ को भी हल्का कर दिया था। वह सेन्ट्रल-सर्विसेज़ में आ चुका था और सितम्बर में उसे ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाना था। दो महीनों में घर का काम पूरा करके वह फिर एक महीने के लिए अपने माता-पिता के पास चला गया। उसके बाद तो उसकी अलग-अलग शहरों में पोस्टिंग...शादी, और हम दूर होते चले गए। योजनाएँ तो बहत थीं पर पैसे के अभाव में कुछ काम अगली क़िस्त के लिए छोड़ दिए, पर जो कुछ भी बना वह हमारी जैसी औक़ातवालों के हिसाब से काफ़ी ठीक-ठाक ही था। अगस्त 83 में हम अपने इस नए घर में आ गए। शर्माजी ने आग्रह करके यह मकान बुक करवा दिया..क़िस्मत मेरी कि लाटरी में मुझे केवल हौज़खास जैसा बढ़िया एरिया ही नहीं मिला बल्कि ग्राउंड-फ्लोर के साथ-साथ कार-गराज और सर्वेट-क्वार्टर भी मिल गया...टिंकू की कल्पना और रंजन के अथक परिश्रम ने इसे एक आरामदायक घर का रूप भी दे दिया। इन लोगों की बदौलत ही आज मैं सिर पर छत होने का आश्वस्ति भाव लिये आराम से इस घर में रह रही हूँ।

पहलेवाला साल चाहे महाभोज के नाम अर्पित रहा फिर भी उसके चलते काग़ज़-क़लम के साथ थोड़ा-बहुत रिश्ता तो बना ही हुआ था मेरा। नया चाहे कुछ नहीं लिखा फिर भी पूरे उपन्यास को दृश्यों और संवादों में ढालते समय एक खास तरह की रचनात्मकता का सुख तो ज़रूर मिलता रहा था मुझे। पर इस साल ! याद नहीं कि कॉलेज में छात्राओं की हाजिरी लगाने के अलावा कभी क़लम भी उठाई हो। खुशी-खुशी नए घर में आ तो गए पर नए घर में जमने के सत्तर प्रपंच और सत्तर परेशानियाँ। सबसे बड़ी परेशानी तो कॉलेज और घर के बीच की 22 किलोमीटर की दूरी। बहुत सारा समय और शक्ति तो इसे पार करने में ही ख़र्च हो जाते थे...पर क्या ये सब मन को समझाने-सहलाने के बहाने मात्र नहीं थे। असलियत तो यह थी कि दिमाग़ ही एकदम रचना-शून्य हो चला था। अजीब विडम्बना ही है यह मेरे जीवन की कि घर के रोज़मर्रा के कामों में न मेरी कभी कोई दिलचस्पी रही, न नियमित रूप से मैंने उन्हें कभी किया (ग़नीमत इतनी ही हे कि जानती सब हूँ) पर मानसिकता शायद मेरी बिलकुल घरेलू औरत की ही है। और मेरी यह असलियत मेरी शक्ल पर ही खुदी पड़ी है, तभी तो साक्षात्कार के लिए आई एक छात्रा ने कह ही दिया था, 'हाय, हम तो इतना डर रहे थे आपके पास आने में पर आपको देखकर-आपसे बात करके तो लगता ही नहीं कि हम किसी बड़ी लेखिका से मिल रहे हैं।' भयंकर पढ़ाकू तो कभी रही ही नहीं...हाँ लिखना ज़रूर थोड़ा-बहुत चलता रहता था...पर बस, थोड़ा बहुत ही, तभी तो अपने लेखन के खाते में बहुत ही कम जोड़ पाई। हाँ, इतना सन्तोष ज़रूर रहा कि जो भी, जैसा भी लिखती, वह क्लिक कर जाता और लोगों की सराहना मुझे मिल जाती...पर मुझे हमेशा अपना लिखा तुक्का ही लगता था। मैंने जब इस बात को वहुत ईमानदारी से स्वीकार भी किया तो लोगों ने इसे मेरी शालीनता के खाते में डालकर ख़ारिज कर दिया। पर तुक्केवाला यह सिलसिला आखिर कब तक चलता ? इस पर तो एक दिन पूर्ण-विराम लगना ही था सो लग गया। वरना सन् 92 में अपना आत्मकथ्य लिखने का जो अनुबन्ध किया था वह आज तक (सन् 2006) घिसटता रहता ? कभी दो पन्ने लिख दिए तो कभी चार...

बस, एक लिखने को छोड़कर अगला साल सब तरह की हलचलों से भरा रहा-व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित भी और देश से सम्बन्धित भी ! बिना हमें ज़रा भी परेशान किए.हमारी ज़रा-सी भी मदद लिये टिंकू ने अपनी ही पहल पर 'इन्स्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्यूनिकेशन' में दाखिला ले लिया और अच्छा रिजल्ट निकालकर चटपट क्लेरियन जैसी प्रतिष्ठित विज्ञापन-कम्पनी में नौकरी भी ले ली। हम तो उस समय दिल्ली में थे ही नहीं। लौटे तो इसने सूचना दी। बस एक आश्चर्यमिश्रित खुशी में उसकी पीठ थपथपाने का काम तो हमने भी ज़रूर किया। यह अहसास भी जागा कि टिंकू अब बड़ी हो गई है और अब उसकी शादी के मामले में हमें थोड़ा सक्रिय होना पड़ेगा। आज तक घर की और सारी ज़िम्मेदारियाँ तो मैं निभाती आ रही थी पर यह काम...और राजेन्द्र से तो उम्मीद करना ही बेकार था...इस दिशा में वे अपनी बहनों तक के लिए तो कुछ कर नहीं पाए थे। सो स्थिति यह थी कि हम जैसे नाकारा माँ-बाप उसके लिए एक सुयोग्य लड़का ढूँढ़ सकेंगे, दूर-दूर तक इसकी कोई सम्भावना नज़र नहीं आती थी। वैसे पिछले दो साल में मैं तो उससे मज़ाक़ में कहती ही रहती थी कि देख बेटा ! अपने लिए कोई ठीक-ठाक लड़का तू खुद ही ढूँढ लेना...और हाँ, भागना-भूगना मत...बता देना, हम शादी कर देंगे। हाँ, लड़का ढूँढ़ते समय आँखें खुली और दिमाग़ पूरी तरह चौकस रखना। सो आखिर लड़का भी उसने खुद ही ढूँढ लिया-दिनेश खन्ना। दिनेश बम्बई के क्लेरियन से तबादला होकर, दिल्ली में इसका बॉस बनकर आया था और कोई छह-आठ महीने में ही मामला कंवल फ़िट ही नहीं हो गया बल्कि दिनेश ने तो तुरन्त शादी करने का प्रस्ताव भी रख दिया। मकान के कारण बिलकुल खस्ता हो आई अपनी आर्थिक स्थिति के चलते मैं थोड़ा समय चाहती थी पर दिनेश के आग्रह के कारण झुकना पड़ा और शादी के लिए 12 मई की तारीख तय हो गई।

हमेशा की तरह इस काम का सारा जिम्मा भी मित्रों ने ही सँभाला। निर्मला जी ने हलवाई से लेकर खाने-पीने की सारी व्यवस्था की (मेरे सीमित बजट में वे जो कुछ कर सकती थीं, किया)। डॉ. कृष्णा शर्मा ने अजित जी-स्नेहजी के साथ अपने को मात्र एक कमरे में समेटकर अपना सारा घर और आगे-पीछे के लॉन, सब मेरे हवाले कर दिए। क्या खूबसूरत लॉन थे उनके घर के आगे-पीछे...में कितना भी पैसा खर्च करती तब भी संगीत और रिसेप्शन के लिए मुझे इतनी सुन्दर जगह उपलब्ध न होती। अजित जी ने सारा हिसाब-किताब सँभाला। अपनी वैन लेकर जयपुर से आए माधवीजी-जीजाजी (राजेन्द्र के बहन-बहनोई) ने घर के काम सँभाले तो उनकी वैन ने बाहर के। फेरे करवाने के लिए पंडितजी और उस समय की सारी सामग्री का जुगाड़ राजी सेठ ने किया। सुमनजी के साथ अल्पना बनाने और घड़े पेंट करने के लिए अर्चना मई की गर्मी में कॉलेज से चलकर यहाँ तक आई। किस-किसको गिनाऊँ और कहाँ-कहाँ तक गिनाऊँ...बस समझ लीजिए कि जिस तरह आज तक हमारे सारे महत्त्वपूर्ण काम मित्रों के भरोसे होते आए थे, यह भी हो गया और हम एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी से मुक्त हुए।

दिनेश खन्ना आज एक नामी फ़ोटोग्राफ़र है और देश-विदेश में उसकी कई प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं। पेंगुइन से उसके फ़ोटोग्राफ़्ञ् की दो पुस्तकें बाज़ार और द लिविंग फ़थ प्रकाशित हो चुकी हैं। द लिविंग फंथ हार्पर-कॉलिन्स से भी छपी है। आज तो वह नाम और नामा दोनों खूब कमा रहा है लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि टिंकू की छोटी-से-छोटी इच्छा पूरी करने को सदैव तत्पर...केवल तत्पर ही नहीं भरसक सहायक भी। कुछ समय पहले कत्थक सीखने के चक्कर में टिंकू अपनी छह साल और ढाई साल की दोनों बेटियों को दिल्ली छोड़कर एक महीने अहमदाबाद चली गई। मैं उस समय इन्दौर गई हुई थी-सुना तो धक्। तुरन्त दिल्ली फ़ोन किया कि इतनी छोटी बच्ची को टिंकू छोड़ कैसे गई और तुमने उसे जाने क्यों दिया ? मेरे स्वर में थोड़ा गुस्सा था पर दिनेश ने बड़े सहज भाव से कहा, "क्यों, टिंकू बच्चियों को पाल सकती है तो क्या मैं नहीं पाल सकता ? और मुझे कहा सो कहा पर फ़ोन करके टिंकू को कुछ मत कह दीजिए वरना वह परेशान हो जाएगी। वह गई है तो उसे मन लगाकर सीखने दीजिए।" अब तो मैं अच्छी तरह जान गई हूँ कि वह बच्चियों को केवल पाल ही नहीं सकता...ज़रूरत पड़ने पर उनके लिए प्राण भी दे सकता है। टिंकू के लिए मैं इससे अधिक सुख की कल्पना तो कर ही नहीं सकती थी।

ये सब तो हुईं मेरे व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित बातें। टिंकू मेरी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा है सो उसकी बात यानी मेरी बात।

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