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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


पता नहीं भारती जी को कैसे यह सूचना मिल गई कि मैं कोई उपन्यास लिख रही हूँ सो उनका अनुरोध नहीं, एक प्रकार से आदेश ही आया कि वह धर्मयुग में छपेगा और दीवाली-विशेषांक से शुरू हो जाएगा-जिसकी घोषणा वे जल्दी ही करने जा रहे हैं। उनका यह दबाव मेरी मजबूरी बन गया और उपन्यास का पहला ड्राफ़्ट पूरा करके-यानी उपन्यास को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में करके-मैं घर लौटी। शुरू की चार क़िस्तों का तीसरा ड्राफ्ट तैयार करके मैंने भारती जी के पास भेजा तो उनका एक लम्बा-सा तार मिला जिसका आशय था कि मैं राकेश से इस बारे में बात कर लूँ, कहीं वह आहत न हो...यह उसकी दुखती रग है...इसमें कोई सन्देह नहीं कि तीन बंटियों में से एक राकेशजी का ही बेटा था और उपन्यास का प्रस्थान-बिन्दु भी मुझे वहीं से मिला था पर आगे की कहानी तो बिलकुल भिन्न, क्योंकि न तो मैंने राकेशजी के बेटे को कभी देखा था, न ही उनकी पहली पत्नी शीलाजी को। पर शुरू की ये चार क़िस्ते...भारतीजी के मन में राकेशजी के आहत होने की आशंका...उनकी दुखती रग को कचोटनेवाली रचना को धर्मयुग में छापने की उनकी झिझक...सभी कुछ बहुत स्वाभाविक था। दूसरी ओर मुझसे बहुत आग्रह करके लिया हुआ उपन्यास...तीन-चार अंकों से जिसकी घोषणा भी हो रही थी...क्या कहकर रद्द करें ? अजीब द्वन्द्व था भारती जी के सामने और इसका एक ही निराकरण था कि मैं खुद जाकर एक बार राकेशजी से बात कर लूँ। इस नज़रिए से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था पर अब जाना मुझे भी ज़रूरी लगने लगा, क्योंकि इस बिन्दु पर तो मैं भी राकेशजी को कभी आहत नहीं कर सकती थी।

राकेशजी से मिलने का निर्णय तो मैंने ले लिया पर गई तो रास्ते-भर मुझे न जाने कितने अगर-मगर मथते रहे...अगर राकेशजी नाराज़ हुए तो...अगर आहत हुए तो...अगर दुखी हुए तो...मिलने पर बड़े झिझकते हुए मैंने अपनी बात, कुछ सफ़ाई पेश करने के अन्दाज़ में उनके सामने रखी और प्रतिक्रिया जानने के लिए उनके चेहरे पर अपनी नज़रें गड़ा दीं। वे बोले-“मन्नू, जानती हो, इस तरह तुम एक लेखक का अपमान कर रही हो।” मैं तो धक्क् ! पर उन्होंने शायद मेरे धक्क् होने को देखा ही नहीं और बोलते रहे- “एक लेखक अपनी रचना के लिए सबसे अनुमति लेता फिरेगा...सफ़ाई पेश करता रहेगा ? हम अपनी रचना के लिए ज़िन्दगी से ही तो थीम उठाते हैं...अपनी ज़िन्दगी से, परिवारवालों और परिचितों की ज़िन्दगी से...मित्रों की ज़िन्दगी से-उसमें गलत या अनुचित क्या है ? हाँ ग़लत होता है तब, जब कोई दुर्भावना से लिखे...मेलिशियसली लिखे और मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम ऐसी घटिया हरक़त कभी नहीं करोगी।" और फिर हँसकर बोले-“अब तो में भी तुम्हारे उपन्यास का इन्तज़ार करूँगा।" उनकी बात से भी ज़्यादा उनकी हँसी ने मेरे सारे अगर-मगर, द्वन्द्व-दुविधा धो-पोंछ दिए।

जैसे ही मैंने फ़ोन पर भारतीजी को अपने और राकेशजी के बीच होनेवाले संवाद की सारी बात बताई, वे भी एकदम निश्चिन्त हो गए। फिर तो उन्होंने अपनी घोषणा के अनुसार धर्मयुग में आपका बंटी की पहली क़िस्त छाप दी। धारावाहिक रूप से इसका छपना और उस पर मिलनेवाली प्रतिक्रियाएँ...विचित्र अनुभव था वह मेरे लिए। तीसरी-चौथी क़िस्त से प्रतिक्रियास्वरूप मिलनेवाले पत्रों का जो सिलसिला शुरू हुआ, क़िस्त-दर-क़िस्त उनकी संख्या बढ़ती ही चली गई। आठवीं-नौवीं क़िस्त तक आते-आते तो हाल यह हुआ कि एक दिन पोस्टमैन ऊपर आया और पूछने लगा- “क्या बात है जो रोज़-रोज़ इतने पत्र आते हैं...आपने घर में ही कोई ऑफ़िस खोल लिया है क्या ? या कुछ और.'' उसे क्या बताती, मैं तो खुद हैरान ! ऐसी-ऐसी जगहों से पत्र मिलते, जिनका मैंने कभी नाम तक नहीं सुना। इसमें एक पत्र का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूँगी। बंटी को डॉक्टर साहब के घर से उसके अपने पिता के घर भेजने का प्रसंग चल रहा था। शायद तब इन्दौर से विमला धामाई नाम की किसी महिला का पत्र मिला। लिखा था-मैं यहाँ छोटे बच्चों के हॉस्टल की वॉर्डन हूँ। मेरे हॉस्टल में 90 बच्चे हैं। अपनी जड़ से उखड़ने के बाद बंटी जिस मानसिक यातना से गुज़र रहा है, वह अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही। मेहरबानी करके आप उसे मेरे पास भेज दीजिए-मैं उसे अपने हॉस्टल में रख लूँगी। भगवान के वास्ते अब आप उसे और इधर-उधर मत भटकाइए। प्रमुख बात तो काफ़ी कुछ वैसी ही याद है...बाकी, इसी भाव से मिलती-जुलती कुछ पंक्तियाँ और भी थीं।

कई पत्रों में तो मेरी प्रशंसा में भी खूब क़सीदे काढ़े गए थे, पर नौ पत्रों में धिक्कार भरी अपनी भर्त्सना को भी मैं भूली नहीं हूँ। ऐसे पत्रों की संख्या नौ थी, यह तो आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, पर किसी भी पत्र की पंक्तियाँ ठीक-ठीक याद नहीं। हाँ, सबका मिला-जुला भाव यह था कि-एक स्त्री होकर भी आपने तो भारतीय मातृत्व को कलंकित ही किया है। हमारे यहाँ की स्त्री, अपने बच्चों के लिए सब कुछ त्याग देती हैं...बिना चेहरे पर शिकन लाए अपना सब कुछ होम कर देती हैं। कैसा विचित्र किया है आपने शकुन को ? ...कैसी माँ है यह शकुन, इसके लिए तो अपना सुख...अपना भविष्य ही सब कुछ है...” और फिर शकुन की भर्त्सना ! आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हुआ था कि ये सारे पत्र स्त्रियों ने ही लिखे थे। उस समय भी यह बात दिमाग में ज़रूर आई थी पर आज तो मैं इसे बड़ी शिद्दत के साथ महसूस करती हूँ कि कितनी गहरी जमी हुई हैं इन संस्कारों की जड़ें हमारे भीतर। त्याग, सेवा, अपने को होम कर देना, अपने को मिटा देना क्या यही हैं स्त्रीत्व के गुण...उसकी महानता की कसौटी ? क्यों नहीं किसी ने शकुन की तकलीफ़ को समझा...उसे महसूस किया ?

इन जड़ संस्कारों से बँधी महिलाओं की बात तो छोड़ ही दीजिए, आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि धारावाहिक रूप से छपने पर आनेवाले पत्र हों या पुस्तक रूप में आने पर छपनेवाली समीक्षाएँ या फिर गोष्ठियों में होनेवाली चर्चाएँ, सब जगह बंटी ही छाया रहा ! शकुन तो एक तरह से हाशिए में जा पड़ी। उसे अपेक्षित महत्त्व मिला ही नहीं, जबकि मेरे हिसाब से वह भी उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण चरित्र है। इसलिए ज़रूरी लग रहा है कि इस अवसर पर एक आधुनिक स्त्री के सन्दर्भ में ही उसके चरित्र पर थोड़ा प्रकाश डालने की कोशिश करूँ !

हमसे पहलेवाली पीढ़ी की स्त्री का न तो कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व होता था...न ही कोई स्वतन्त्र पहचान, वह तो मात्र रिश्तों से ही पहचानी जाती थी। वह किसी की बेटी, पत्नी, माँ, बहिन, चाची-ताई, बुआ-भाभी ही होती थी। इन रिश्तों से परे भी उसका अपना कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व है...उसका अपना कोई नाम (अस्मिता) भी है, इस बात का उसे कोई बोध तक नहीं था...न उसे, न उसके परिवार के लोगों को बल्कि कहूँ कि समाज को। लेकिन समय के साथ-साथ शिक्षा, जागरूकता, आर्थिक स्वतन्त्रता और बाहरी दुनिया से बढ़ते रिश्तों ने उसके भीतर इस बोध को जगाया कि रिश्तों से परे भी उसकी अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता है...अपनी अस्मिता है कि वह भी समाज की एक स्वतन्त्र जीवन्त इकाई है। पर इस बोध के जागते ही सबसे पहली टक्कर उसे रिश्तों से ही लेनी पड़ी जो अभी तक पूरी तरह उस पर क़ब्जा जमाए बैठे थे। आप सभी को याद होगा कि एक समय ऐसी कहानियों की कमी नहीं थी, जिनमें माँ-बाप ने बेटी से सिर्फ इसलिए सम्बन्ध तोड़ लिया कि बेटी ने उनकी इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली। बेटी की ज़िन्दगी के अहम-से-अहम फैसले लेने का अधिकार पूरी तरह अपने में समेटे माँ-बाप के लिए यह बर्दाश्त कर पाना शायद सम्भव ही नहीं था कि उनके इस अधिकार को चुनौती देती हुई बेटी अपनी ज़िन्दगी के फैसले खुद लेने लगे। बेटी ने यदि उनके इस अधिकार को नकार दिया तो उन्होंने बड़ी निर्ममता से खून के सम्बन्ध को ही नकार दिया (मैंने खुद भी तो पिता के इस क्रोध भरे नकार को झेला ही था।) 'दुनिया देखी है....ज़िन्दगी का अनुभव...धूप में बाल सफ़ेद नहीं किए' या कि 'बेटी है हमारी, हमसे ज़्यादा उसका हित और कौन देख सकता है...' जैसे फ़िकरे तो लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए उनका सबसे बड़ा सम्बल हुआ ही करते थे।

उसके कुछ समय बाद पति के वर्चस्व को, उसके 'पति परमेश्वरत्व' को चुनौती देते हुए पत्नी ने अपनी आवाज़ बुलन्द की तो इन सम्बन्धों में भी दरारें पड़ने का सिलसिला शुरू हुआ...टूटने का सिलसिला शुरू हुआ। ऐसा नहीं कि इस टूटने ने स्त्री को कहीं से नहीं तोड़ा। तोड़ा...बहत ट्रटन भी झेली उसने और कई स्तरों पर झेली, लेकिन एक सीमा तक बर्दाश्त करने के बाद जब स्थिति असह्य हो गई तो आख़िर उसने स्टैंड लिया और अपने को मुक्त कर लिया। और यह भी सही है कि माँ-बाप से कहीं अधिक त्रासदायक होता था यह सम्बन्ध-विच्छेद, क्योंकि उस समय तो अपने मन-पसन्द जीवनसाथी के साथ एक सुनहरे भविष्य का नक्शा सामने रहता था पर इस विच्छेद के बाद तो सामने अकेलेपन का सन्नाटा ही पसरा पड़ा रहता है। (हाँ, यदि अलगाव का कारण कोई नया साथी हो तो अवश्य स्थिति दूसरी होती है।) इसके बावजूद तलाक की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। मैंने तो इस विच्छेद व त्रासदी को भी झेला है...चाहे पूरे पैंतीस साल बाद ही सही। लेकिन सबसे नाजुक रिश्ता होता है माँ और बच्चे का। यहाँ बच्चे की उपेक्षा करके या कहूँ कि अपने मातृत्व की उपेक्षा करके किसी भी माँ के लिए अपने व्यक्तित्व की बात सोचना...अपनी ही आशा-आकांक्षाओं की बात सोचना, असम्भव चाहे न हो पर कठिन तो बहुत है ही। मातृत्व और व्यक्तित्व का यह द्वन्द्व ही शकुन के चरित्र की कुंजी है। जब उसका मातृत्व-पक्ष प्रबल होता है तो उसका अतृप्त-उपेक्षित व्यक्ति-पक्ष प्रश्नवाचक बनकर उसे मथने लगता है और जब उसका व्यक्ति-पक्ष प्रबल होता है तो उसका मातृत्व तिलमिलाने लगता है। पर शकन के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि व्यक्ति और मातृत्व के इस द्वन्द्व में न वह पूरी तरह व्यक्ति (शकुन) बनकर जी सकी...न पूरी तरह माँ। और क्या यह केवल शकुन की ही त्रासदी है ? आज भी अपने व्यक्तित्व के दम पर अपने सम्बन्धों से टकरानेवाली हज़ार-हज़ार औरतों की त्रासदी क्या यही नहीं है? अच्छा होता कि समीक्षाओं में शकुन के द्वन्द्व और उसके जीवन की त्रासदी को भी उसके पूरे सन्दर्भ के साथ समेटा जाता।

सन् 70 में ही बासु चटर्जी ने राजेन्द्र के सारा आकाश उपन्यास पर फ़िल्म बनाकर 'कलात्मक फ़िल्मों की दुनिया में मणि कौल और कुमार शाहनी से हटकर अपनी एक अलग पहचान बनाई। कलात्मकता के नाम पर दर्शकों को अपने से दूर छिटका देनेवाले इन प्रयोगों की जगह इसने दर्शकों को अपने साथ जोड़ा ही नहीं, अपनी संवेदना का सहभागी भी बनाया। इसकी सफलता ने राजेन्द्र को प्रसन्न और पुलकित किया तो बासुदा को नई योजनाओं से लैस। उन्होंने मुझसे मेरी ‘यही सच है' कहानी को फ़िल्माने की बात की। इसमें कोई सन्देह नहीं कि फ़िल्म का प्रस्ताव मुझे भी रोमांचक तो बहुत लग रहा था पर संशय था तो केवल इतना कि निहायत आन्तरिक स्तर पर चलनेवाले एक लड़की के द्वन्द्व को (जिसे व्यक्त करने के लिए मुझे भी डायरी फ़ॉर्म का सहारा लेना पड़ा था) दृश्य-विधा में कैसे प्रस्तुत करेंगे? जब मैंने अपनी आशंका बासुदा के सामने रखी तो उन्होंने कहा कि यह सब में उन पर छोड़ दूं और अनुमति दे दूँ। अपनी कहानी को चित्रपट पर देखने की ललक ने मेरी शंकाओं को पीछे धकेल दिया और फ़िल्म बनी, पर दुर्भाग्य मेरा कि एक साल तक कोई डिस्ट्रीब्यूटर न मिलने की वजह से वह डिब्बों में ही बन्द पड़ी रही। मजबूरन मैंने तो समझ लिया और सन्तोष भी कर लिया कि कहानी काग़ज़ों में से निकलकर डिब्बों में चली गई पर अन्ततः ताराचन्द बड़जात्या ने उसे खरीदकर रिलीज़ किया तो फिर उसने केवल सिल्वर-जुबिली ही नहीं मनाई बल्कि फ़िल्मफ़ेयर के दोनों अवार्ड-क्रिटिक्स अवार्ड (जो अक्सर किसी कलात्मक फ़िल्म को ही मिलता था) और पब्लिक अवार्ड (जो किसी अच्छी कमर्शियल फ़िल्म को मिलता रहा है) भी प्राप्त किए।

फ़िल्मफ़ेयर में छपे एक लेख ने इस बात को भी उजागर किया कि यह हिन्दी की पहली फ़िल्म है जिसमें प्रेम का त्रिकोण तो है पर उसकी अनिवार्य परिणाते-किसी खलपात्र की उपस्थिति-नदारद है। दर्शक की सहानुभूति या लगाव तीनों पात्रों के साथ समान रूप से बना रहता है। मैं फ़िल्मफ़ेयर नहीं पढती-हमारे यहाँ आता भी नहीं था सो जैसे ही किसी ने बताया कि अरे मँगवाकर पढ़ो तो सही कि तुम्हारी रजनीगन्धा' फ़िल्म की कैसी प्रशस्ति छपी है तो तुरन्त मँगवाकर पढ़ा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जानकर बहत-बहत अच्छा तो लगा ही था कि यह पहली ऐसी फ़िल्म है, जिसे दोनों अवार्ड एक साथ मिले हैं, उसके बाद भी शायद किसी फ़िल्म को ऐसा सुयोग नहीं मिला। त्रिकोणवाली बात पर भी मेरा तो ध्यान इसके पहले कभी गया ही नहीं। छपने के बाद यह कहानी (यही सच है) काफी चर्चा में भी रही थी पर इस बात की ओर तो कभी किसी ने संकेत तक नहीं किया। आज तो मुझे उस लेखक का नाम तक याद नहीं जिसने इस बात को रेखांकित करते हुए ही एक पूरा लेख लिखा था। न ही मैंने फ़िल्मफ़ेयर का वह अंक सँभालकर रखा (इस मामले में तो आदत से लाचार)। जो भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपनी पहली ही फ़िल्म की ऐसी सफलता ने-चाहे लम्बी प्रतीक्षा के बाद ही सही-मुझे केवल आत्मविश्वास से ही नहीं भर दिया बल्कि इस दिशा की ओर उन्मुख भी कर दिया।

इसके कुछ वर्षों बाद ही वासुदा ने मुझे शरतचन्द्र की कहानी 'स्वामी' का पुनर्लेखन करने को कहा। हेमामालिनी की माँ के आग्रह पर उन्हें इस पर फ़िल्म बनानी थी पर कहानी के वर्तमान रूप से वे बिलकुल सन्तुष्ट नहीं थे। सुनते ही मैंने हाथ जोड़ दिए–'क्या बात करते हैं बासुदा। कहानी के मास्टर शरतचन्द्र की कहानी पर मैं क़लम चलाऊँ...ऐसा दुस्साहस, ऐसी धृष्टता करने के लिए तो मत कहिए मुझे।' लेकिन जब बासुदा के बहुत आग्रह करने पर वह कहानी मैंने पढ़ी (पढ़ी तो पहले भी ज़रूर होगी पर याद बिलकुल नहीं थी) तो यह ज़रूर लगा कि उसकी मूल थीम बहुत अच्छी होने के बावजूद उसके कथा-विन्यास में कहीं कोई गड़बड़ी है ज़रूर, और मेरे इतना कहते ही बासुदा ने तो घेर-घारकर और पूरी तरह से यह छूट देकर कि मैं इसमें जितना चाहूँ काढूँ-छाँ,...बढ़ाऊँ-घटाऊँ...मुझे इस काम में लपेट ही लिया।

इस दौरान बासुदा से कुछ ऐसे घरेलू से सम्बन्ध बन गए थे कि उनका आग्रह मेरे लिए आदेश बन जाया करता था-वशते थीम मुझ पसन्द आए। 'स्वामी' की थीम मुझे अच्छी लगी थी। बेहद अनिच्छा से की गई शादी के कारण सम्बन्धों की शुरुआत होती है घनश्याम (पति) के प्रति मिनी (पत्नी) की उपेक्षा से, पर कंमे यही उपेक्षा सौतेली माँ और परिवार की ज़्यादतियों के कारण धीरे-धीरे पति की पक्षधरता में बदलती हुई पति के आचरण के कारण सम्मान में बदल जाती है...फिर स्नेह में और अन्त में श्रद्धा-विगलित विसर्जन में। काय-कारण शृंखला के साथ पति-पत्नी के सम्बन्धों का बदलता हुआ जो समीकरण प्रस्तुत किया गया है, वही इस कहानी का मूल आधार है...इस कहानी की खूबी। 'स्वामी' शीर्षक को सार्थक करता हुआ जो एक समानान्तर अर्थ और ध्वनित होता है, वह है-नास्तिकता से आस्तिकता की ओर जाना। फ़िल्म की सफलता का जितना श्रेय बास्दा के निर्देशन को जाता है उतना ही शबाना और गिरीश करनाड के अभिनय को। इस फ़िल्म ने भी केवल सिल्चर-जुबिली ही नहीं मनाई बल्कि कई अवार्ड भी जीते। बम, कष्ट मुझे रहा तो एक ही बात का कि फ़िल्म में अन्त बासुदा ने मेरी कहानी से हटकर कर दिया और स्टेशन पर ही मिनी को पति के चरणों में लिटा दिया।

इस बात पर मैं वासुदा से बहुत झगड़ी भी थी कि अन्त आपको यदि स्टेशन पर ही करना था तो कर देते क्योंकि उनके हिसाब से कहानी का क्लाइमेक्स वहीं आ गया था...पर वहाँ मिनी को घनश्याम के चरणों में लिटाने की क्या ज़रूरत थी ? वह उसकी बाँहों में भी तो समा सकती थी जैसा कि मैंने अपनी उपन्यासिका में दिखाया भी था। पहले तो वासुदा ने मेरे सारे विरोध और गुस्से को परे सरकाने की कोशिश करते हुए अपने उसी मज़ाकिया अन्दान में कहा...

'अरे स्त्री को पति के चरणों में ही लेटना चाहिए...वहीं अच्छी लगती है वह पर इससे मेरा गुस्सा जब और भड़क उठा तो उन्होंने अपना तर्क रखा, 'यह मत भूलिए कि यह शरत की कहानी है और उस समय बंगाल में स्त्री की स्थिति थी ही क्या ? बात-बात पर पति के चरणों में ही तो लोटती रहती थी। साग शरत-साहित्य ऐसे ही दृश्यों से भरा मिलेगा आपको।'

‘नहीं बासुदा, बंगाल की स्त्री चाहे जो भी और जैसी भी रही हो उस समय, पर मिनी का चरित्र इस कहानी में जिस तरह विकसित किया गया है, उसमें वह एक आत्म-सम्मान से भरी...हर अनुचित और अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का...स्टैंड लेने का साहस रखनेवाली स्त्री के रूप में उभरी है। ऐसी स्त्री को चरणों में लिटाकर आपने उस चरित्र के साथ न्याय नहीं किया है।' पर बासुदा तो अपनी बात पर अडिग। उनका अपना तर्क था-

ठीक कह रही हैं आप। मिनी जैसी स्त्री ही, जो परिवारवालों से अपमानित होकर...पति के अविश्वास करने पर यदि घर से भागने का दुस्साहस कर सकती है तो अपनी ग़लती का अहसास होने पर...अपने इस संगीन अपराध के बावजूद पति की क्षमाशीलता...उसके बड़प्पन के आगे अपने को बेहद छोटा महसूस करते हुए, उसके चरणों में लोट भी सकती है।'

खैर वासुदा का तर्क अपनी जगह था और मेरा विरोध और गुस्सा अपनी जगह। जो भी हो, फ़िल्म तो अब बन चुकी थी, प्रदर्शित भी हो चुकी थी और प्रशंसित भी, सो अब और कछ तो हो ही नहीं सकता था। पर एक बात उन दिनों ज़रूर मेरे मन में घुमड़ती रही थी कि पहली बात बासुदा ने चाहे मज़ाक़ में ही कही हो पर क्या पुरुष मात्र का सामन्ती अहं इस बात से तुष्ट नहीं होता कि स्त्री उसके चरणों का स्पर्श करे... उसके चरणों में लोटे :

हमारे यहाँ कुछ व्रत-उपवास ऐसे हैं, जिनको करने के बाद स्त्री अपने पति के पैर छूने जाती है और पति महाशय...गाँव-देहात के सामान्य-साधारण की वात तो छोड़ ही दीजिए, शहर के पढ़े-लिखे आधुनिकता का तमगा लटकाए, स्त्री-पुरुषों की बराबरी का ढोल पीटनेवाले लोग भी उस समय शुद्ध ‘पति परमेश्वर' बने आराम से अपने पैर बाहर कर देते हैं। कभी कोई इनके इस आचरण पर टिप्पणी करे तो तुरुप के पत्ते की तरह यह तर्क तो हमेशा उनके हाथ में रहता ही है...अरे, हमें तो खुद यह सब बिलकुल पसन्द नहीं पर क्या करें...पत्नी की खुशी के लिए, उसके सन्तोष के लिए करना पड़ता है। पत्नी के सुख और सन्तोष की दावेदारी करनेवाले ऐसे ही लोगों में से दो-एक को तो मैंने अपनी पत्नी को मारते भी देखा है। कुछ पत्नियाँ शरीर पर प्रहार झेलती हैं तो कुछ अपनी भावनाओं पर-जैसे झेलना-भोगना तो पत्नियों की नियति ही हो? यों फ़िल्म तो बासुदा ने मेरी ‘एखाने आकाश नॉई' पर भी बनाई थी पर न वह अच्छी बनी...न चली। मेरी रचनाओं पर तीन फ़िल्में बनने तक मुझे स्क्रिप्ट लिखने का कोई अनुभव नहीं था। ‘रजनीगन्धा' की स्क्रिप्ट वासुदा ने ही लिखी थी... 'स्वामी' कहानी को भी बहुत कुछ बदल-बदलाकर मैंने तो एक उपन्यासिका लिख दी थी (भूमिका में सारी बात को स्पष्ट करते हुए, जिसे मैंने वाद में पुस्तक के रूप में भी छपवा दिया था), स्क्रिप्ट उसकी भी बासुदा ने ही लिखी थी। पर इस दिशा में रुचि ज़रूर मेरी जागृत हो गई थी और इसीलिए जब दूरदर्शन ने मेरी अपनी ही कहानी 'अकेली' पर टेलीफ़िल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो उसकी स्क्रिप्ट और संवाद लिखने की ज़िम्मेदारी मैंने ही सँभाली। टेलीफ़िल्म बनी और शायद अच्छी ही बनी क्योंकि तब से लेकर आज तक यह फ़िल्म कितनी ही बार दिखाई जा चुकी है।

एक समय में बेहद चर्चित 'रजनी' सीरियल की योजना भी बासुदा ने हमारे घर पर बैठकर ही बनाई थी। उनका कहना था कि हम ग़लत, अनुचित और अन्याय के विरुद्ध भुनभुनाते तो बहुत हैं...अपने-अपने ड्राइंग रूम में बैठकर विरोध भी करते हैं पर प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) का यह स्वर बाहर नहीं ले जाते...उसकी अन्तिम परिणति तक उसके पीछे नहीं पड़े रहते। इस सीरियल में एक चरित्र के माध्यम से प्रतिरोध की इस आवाज़ को वे पूरी बुलन्दी के साथ उठाना चाहते थे। एक कोई शुरुआत करेगा तो फिर उसमें चार और जुड़ेंगे...फिर चार और जुड़ेंगे और इस तरह यह एक सामूहिक प्रतिरोध का स्वर बन जाएगा। आइडिया तो मुझे भी बहुत अच्छा लगा और मैं इसके साथ जड़ना भी चाहती थी पर सारी कड़ियाँ लिखने की जिम्मेदारी लेना मेरे लिए सम्भव नहीं था क्योंकि उन दिनों मेरा अपना लिखना भी तो चालू था। हाँ, इतना सन्तोष ज़रूर है कि बासुदा की लिखी तीन-चार कड़ियों के बाद जिस कड़ी से रजनी की धूम मची, टैक्सीवाली वह कड़ी मेंने ही लिखी थी। यों भारतीय भाषाओं पर आधारित 'दर्पण' सीरियल की दस कहानियों की स्क्रिप्ट भी मैंने लिखी थी। इसमें स्क्रिप्ट लिखने से कहीं अधिक संकट कहानियों के चुनाव का था। चुनाव की मेरी सीमा अनूदित कहानियों तक ही थी और यह निर्णय करना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था कि वे उस भाषा की श्रेष्ठ कहानियाँ थीं या नहीं। इसके बाद प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास की स्क्रिप्ट लिखने का काम भी मैंने ही किया।

प्रेमचन्दजी का यह उपन्यास मुझे बहुत पसन्द था (आज भी है) और में इसे - कॉलेज में पढ़ाती भी थी सो जैसे ही यह प्रस्ताव आया, मैंने स्वीकार कर लिया पर इसके साथ जैसी त्रासदी घटी (कम से कम मेरे सन्दर्भ में) उसने मुझे बहुत खिन्न किया। सारी बातें तय हो जाने के बाद निर्माता ने मुझे बताया कि मुझे इस उपन्यास को अठारह कड़ियों में पूरा करना है। मैंने उसी हिसाब से सारे कथानक को बाँटा और लिखना शुरू किया। कोई पाँच-छह कड़ियाँ प्रसारित हो जाने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि इसे पन्द्रह कड़ियों में ही समाप्त करना है, इसलिए आप इसे थोड़ा संक्षिप्त कीजिए। मैंने जब अपनी आपत्ति दर्ज की कि एक वार अनुमति देने के बाद ऐसे कैसे बदल सकते हैं तो उनका उत्तर था कि यह तो दूरदर्शन का अधिकार है और वे चाहें तो इसे बन्द भी कर सकते हैं, हमारी तो बस तीन कड़ियाँ ही कटी हैं। मैं क्या कहती, दूरदर्शन में उसका प्रसारण चल रहा था और दूरदर्शन के आगे हम सब मजबूर थे। अगर प्रसारण शुरू न हुआ होता तो मैं सारी कहानी को नए सिरे से बाँटती पर अब तो सारी कटौती बाद के हिस्सों में ही करनी थी, जो मुझे काफ़ी कठिन लग रहा था, पर किया ! लेकिन जब ग्यारह कड़ियाँ प्रसारित होने के बाद निर्माता महोदय ने बड़े दुखी होकर बताया कि दो कड़ियाँ और काटनी होगी क्योंकि दूरदर्शन इसे तेरह कड़ियों में ही समाप्त करना चाहता है तो में बुरी तरह भन्ना गई, यह क्या तमाशा मचा रखा है...पर वे विवश थे और उनकी विवशता-भरी परेशानी ने मुझे भी मजबूर कर दिया। पर अब अन्तिम चार कड़ियों की सामग्री को दो में समे भी कैसे ? क्लाइमेक्स ही किसी रचना की जान होता है और मुझे उसी के साथ खिलवाड़ करना पड़ रहा था और उसी को रचने में मैंने सबसे ज्यादा मेहनत भी की थी लेकिन अब रचना से ज़्यादा यह सोचना था कि जो भी है उसे दो कड़ियों में कैसे समेटा जाए। कितना भी सँभालती, वह बात तो अब आ ही नहीं सकती थी वरना शुरू में इस हिस्से को लिखकर ही मुझे सबसे ज़्यादा सन्तोष मिला था। खैर, जो भी, जैसा भी लिखा, वह प्रसारित तो हुआ और परिणाम भी जो होना था, वही हुआ-सीरियल किसी को पसन्द नहीं आया और मुझे अफ़सोस था कि निर्मला जैसे उपन्यास के साथ न्याय नहीं हुआ !

यह तो मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ कि दूरदर्शन अठारह कड़ियाँ तो कभी देता ही नहीं, या तो तेरह देता है या फिर छब्बीस। किसी ने यह भी बताया कि मिली तो उन्हें भी तेरह कड़ियाँ ही थी पर वे बराबर कोशिश कर रहे थे अठारह कड़ियों के लिए (उन्हें शायद पूरी उम्मीद थी कि मिल जाएँगी...कुछ तो प्रेमचन्दजी के नाम की वजह से और कुछ शायद अपने पैसे की वजह से) और उसी के चलते उन्होंने मुझे अठारह कड़ियाँ लिखने के लिए कह दिया...जब अठारह नहीं मिली तो वहाँ चक्कर लगा-लगाकर वे पन्द्रह के लिए कोशिश करने लगे पर दूरदर्शन का अपना नियम, सो वह अपनी बात पर अडिग रहा। मैं नहीं जानती असलियत क्या है: यह तो ज़रूर समझ में आ गया कि किसी भी निर्माता को अपने हिसाब से कड़ियाँ माँगने-पाने का अधिकार तो है ही नहीं...हाँ, दूरदर्शन चाहे तो ज़रूर अपनी दी हुई कड़ियों में कटौती कर सकता है...चाहे तो सीरियल बीच में ही बन्द भी कर सकता है ! अब तो जो हुआ सो हुआ पर आज इस बात को लिखकर भी स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इस सीरियल के सभी पक्ष-स्क्रिप्ट, निर्देशक, अभिनेता (निर्माता भी) काफ़ी कमजोर रहे और यह तो टीम-वर्क है, सभी का मिला-जुला योगदान ही किसी सीरियल को सफल बना सकता है। इसकी असफलता में मेरा भी हाथ तो रहा ही, पर वह मेरी कितनी बड़ी मजबूरी थी, इसे भी मैंने स्पष्ट कर दिया।

इस लेखन को लेकर मुझ पर आरोप तो लगने ही थे, सो लगे। इधर-उधर से और जब-तब मुझे यह सुनाई देने लगा कि मन्नूजी तो आजकल बस व्यावसायिक लेखन में लगी हुई हैं। आरोप लगानेवालों से मुझे कोई शिकायत नहीं है...उनका कहना-सोचना अपनी जगह बिलकुल सही है क्योंकि जिस लेखन के साथ पैसा जुड़ा हुआ हो, वह व्यावसायिक तो लगेगा ही। उस समय तो मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहना ज़रूरी नहीं लगा था...क्या कहूँ और क्यों कहूँ ? पर आज जब लिखने बैठी हूँ तो एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी। इसे भी आरोपों के प्रतिवाद के रूप में न लेकर मेरे अपने मुखर चिन्तन के रूप में ही लिया जाए।

जब मैंने अपने उपन्यास महाभोज का नाट्य-रूपान्तरण किया तो किसी ने यह आरोप क्यों नहीं लगाया, क्या सिर्फ इसलिए कि वह केवल मंच पर ही खेला गया था ? अगर यही नाटक आज तेरह कड़ियों में बाँटकर दूरदर्शन पर प्रसारित कर दिया जाए तो क्या यह व्यावसायिक हो जाएगा ? अगर महाभोज का नाट्य रूपान्तरण व्यावसायिक नहीं है तो 'दर्पण' धारावाहिक में प्रसारित होनेवाली भारतीय भाषाओं की कहानियों का, प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास का और महादेवी वर्मा के अतीत के चलचित्र के तीन संस्मरणों का नाट्य-रूपान्तर व्यावसायिक कैसे हो गया ? क्या सिर्फ इसलिए कि ये दूरदर्शन से प्रसारित हुए थे और उसके साथ पैसा जुड़ा हुआ था ? पर व्यावसायिक दृष्टिकोण के चलते तो मैंने मूल रचना में कभी कोई ऐसा हेर-फेर किया ही नहीं जो रचना के साथ अन्याय होता या रचनाकार को आपत्तिजनक लगता। जो भी परिवर्तन किए थे वे केवल विधा की दृष्टि से ही किए थे। श्रव्य को दृश्य में बदलते समय परिवर्तन तो करने ही होते हैं क्योंकि दोनों विधाओं की अलग-अलग माँग होती है-अलग-अलग ज़रूरत। ऐसे परिवर्तन तो मैंने महाभोज में भी किए थे।

व्यावसायिकता के पक्ष में एक तर्क ज़रूर दिया जा सकता है और वह यह कि ये रचनाएँ स्वतःस्फूर्त नहीं हैं बल्कि किसी के अनुरोध-आग्रह पर लिखी गई हैं और जिसके बदले में आग्रह करनेवाला आपको कुछ देगा। अब पैसे के लिए लिखी गई रचना व्यावसायिक तो होगी ही। पर महाभोज का रूपान्तरण भी तो मैंने अमाल के कहने पर ही किया था और जब-जब जहाँ-जहाँ इसका प्रदर्शन हुआ (कलकत्ते की उपा गांगुली ने इसके सौ प्रदर्शन किए तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल ने तीस प्रदर्शन दिल्ली में और कुछ बाहर। बम्बई के दिनेश ठाकुर की 'अंक' संस्था ने इसके सत्ताईस प्रदर्शन किए और अरविन्द देशपांडे ने मराठी में अनुवाद करके इसके नौ प्रदर्शन किए।) सबने थोड़ा बहुत पैसा तो दिया ही। तव ? मेरे ख्याल से क्योंकि दूरदर्शन है ही व्यावसायिक मीडिया इसलिए इसके साथ जुड़ते ही व्यावसायिकता का ठप्पा तो लगेगा ही। यदि यही बात है तो लोगों का आरोप सिर-माथे पर...हाँ अपने बचाव के लिए इस बात को तो मैं फिर रेखांकित करना चाहूँगी कि सारे व्यावसायिक लटकों-झटकों से मुक्त होकर ही मैंने इन साहित्यिक कृतियों के नाट्य-रूपान्तरण किए थे और मेरे ऊपर किसी भी निर्माता-निर्देशक का कभी भी किसी तरह का कोई दबाव नहीं रहा था।

हाँ, साहित्यिक कृतियों के बाहर जाकर कुछ लिखा तो केवल 'रजनी' सीरियल की मात्र छह कड़ियाँ। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि एक गहरे सामाजिक सरोकार से जुड़ा इसका आइडिया ही मुझे बहुत अच्छा लगा था, इसीलिए इसके साथ जुड़ी भी। पर बाद में तो खींच-खींचकर उसका ऐसा कचूमर निकाला गया कि उस चरित्र ने अपनी धार ही खो दी। इस खींचने को आप ज़रूर व्यावसायिक कह सकते हैं-पर उसमें में कहीं नहीं हूँ। मेरी समझ में एक लेखक की और उसके लेखन की असली कसौटी है-उसकी संवेदना, उसके सामाजिक सरोकार और उसका अभिव्यक्ति-कौशल ! अगर इस पर कोई रचना खरी उतरती है तो मेरे लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं रह जाता कि वह पुस्तक में छपती है, मंच पर प्रदर्शित होती है या दूरदर्शन पर प्रसारित होती है। इसके बावजूद अगर कोई मेरे इस सारे लेखन को व्यावसायिक कहकर खारिज करना चाहता है तो पूरी तरह स्वतन्त्र है वह। मेरे अपने सन्तोष के लिए तो इतना ही काफ़ी है कि मैंने जब भी, जो भी लिखा...इन विशेषताओं के प्रति पूरी तरह सजग होकर ही लिखा।

जब व्यावसायिकता की बात चली तो यहाँ एक बात का उल्लेख और करना चाहूँगी। कुछ वर्ष पहले दिनेश बब्बर नामक एक निर्देशक मेरे पास बंटी पर धारावाहिक बनाने का प्रस्ताव लेकर आए। उन्होंने टी.वी. के लिए काफ़ी काम किया था और उस समय भी उनका एक धारावाहिक प्रसारित हो रहा था। पर शिशिर मिश्रा ने बंटी पर जो फ़िल्म बनाई थी, उससे मैं वैसे ही इतनी त्रस्त बैठी थी...मुक़दमा करके उस फ़िल्म से अपना नाम और शिशिर मिश्रा को दिए सारे अधिकार वापस लेने के दौरान मैं जैसे मानसिक तनाव से गुज़र चुकी थी कि अब और किसी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। इसलिए छूटते ही मैंने मना कर दिया...पर दिनेश भी धैर्य का बड़ा धनी था। मेरे इस इंकार से वह ज़रा भी विचलित नहीं हुआ और एक-एक, दो-दो दिन छोड़कर वह तीन बार मुझसे मिला और तरह-तरह के तर्क देकर कि स्क्रिप्ट मैं ही लिखूगी...फ़िल्म दिल्ली में ही बनेगी, सो मैं क़दम-क़दम पर उस पर नज़र रख सकूँगी। अनुबन्ध में सारी औपचारिक बातों के अतिरिक्त एक बात यह भी होगी कि यदि कभी भी कोई अंश मुझे आपत्तिजनक लगेगा तो उसे बदलवाने का अधिकार मेरा रहेगा। वैसे इस तरह का अधिकार आज तक कभी किसी अनुबन्ध में लेखक को नहीं दिया गया है (यह भी दे तो रहे थे, पता नहीं पालन करते या नहीं)। फिर उन्होंने विस्तार से यह भी बताया कि सारी कथा को किस रूप में रखा जाएगा। लगा काफ़ी होमवर्क भी किया है इस पर, जो उनकी कल्पना-शक्ति और समझ को ही दर्शाता था। मैंने इस बात का ज़िक्र अर्चना से भी किया था और उसके द्वारा आयोजित कथा के प्रारूप को सुनकर उसने भी कहा था कि आदमी तो समझदार लगता है। आखिर में तैयार हो गई, पर बात टूटी तो केवल इस पर कि वे बावन कड़ियों में बनाना चाहते थे और मैं केवल छब्बीस पर अड़ी हुई थी। ज़बरदस्ती बावन तक फैलाने में होता क्या कि उसकी संवेदना की तीव्रता और गहराई छितरा जाती और इसके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी। आखिर उन्होंने अपने तरकश का आखिरी तीर निकाला और बार-बार मेरे सामने पाँच लाख बीस हज़ार (प्रति कड़ी पाँच हजार कहानी और पाँच हजार स्क्रिप्ट के) का चुग्गा डालने लगे। पर मैं अपनी बात पर अडिग थी और अन्त तक अडिग ही रही। काफ़ी क्षुब्ध होकर ही वे लौटे थे और जाते-जाते यह और कह गए कि मैं चाहूँ तो थोड़ा समय और ले लूँ...ठंडे दिमाग़ से सोच लूँ और जैसे ही मन बने उन्हें फ़ोन कर दूं। मन क्या बनता मैंने तो उनके जाते ही उस बात को मन से निकालकर बाहर कर दिया।

पैसे का संकट चाहे जितना रहा हो...ज़रूरत भी रही हो, पर पैसे का लालच तो आज तक कभी नहीं रहा। पैसे के लिए मैंने कभी भी किसी भी तरह के समझौते नहीं किए, न अपने लेखन में...न ही अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में। जितनी चादर थी, उतने ही पैर फैलाने की आदत शुरू से ही डाल ली थी, इसलिए कभी किसी से उधार तक नहीं माँगा...न घर बनवाते समय, न टिंकू की शादी के समय और न ही अपनी हारी-बीमारी के दौरान !

इस दौरान कहानियाँ तो मैं लिख ही रही थी, पर मुझे खुद लगने लगा था कि एक ढर्रे की भावभीनी कहानियाँ तो बहुत लिख लीं, अब कुछ नई ज़मीन खोदी जाए। पर प्रयोगात्मक कहानियाँ लिखना मेरे बस की बात नहीं थी...डंडे मार-मारकर अपने बस के बाहर की बात करती तो न कहानी रहती...न प्रयोग। गनीमत यही है, बल्कि कहूँ कि सन्तोष की बात है कि मैं अपनी सीमा के प्रति हमेशा सचेत रही हूँ...कुछ ज़्यादा ही सचेत, सो अपनी सीमा और सामर्थ्य के बाहर जाकर कभी भी कुछ अनर्गल रचने की हिमाकत नहीं की मैंने। नए के नाम पर अगर कुछ कर सकी तो केवल इतना कि भावना की जगह व्यंग्य का पुट देकर अपनी कहानियों की शैली को ज़रूर थोड़ा-सा बदल दिया। 'त्रिशंकु', 'तीसरा हिस्सा' और 'स्त्री सुबोधिनी' इसी शेली की कहानियाँ हैं जिन्हें पाठकों की सराहना तो मिली ही, में भी उनसे पूरी तरह सन्तुष्ट थी।

इधर देश इन्हीं दिनों भारी उथल-पुथल से गुज़र रहा था। जयप्रकाश नारायण और दिन-ब-दिन ज़ोर पकड़ता उनका सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन इन्दिरा और संजय के लिए भारी संकट बनता जा रहा था। कई बड़े-बड़े लेखक-सम्पादक भी उसके समर्थन में खुलकर लिख-बोल रहे थे। उस पर आया सबको चकित कर देनेवाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला जिसने रायबरेली से इन्दिरा गांधी के चुनाव को ही रद्द कर दिया। इस पर सारी विरोधी पार्टियाँ एक स्वर में इन्दिरा गांधी से इस्तीफे की माँग करने लगीं। यह माँग और ज़ोर पकड़ेगी इसका अनुमान लगाकर संजय के सुझाव पर इन्दिरा गांधी ने 25 और 26 जून के बीच की रात को जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेताओं के साथ-साथ विरोधी दल के न जाने कितने नेताओं और सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया और 26 जून को सवेरे ही आपातकाल की घोषणा कर दी। उस दिन फिर अख़बार भी नहीं निकले थे क्योंकि रात को ही प्रेस की बिजली काट दी गई थी। लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही तो जनता का सबसे बड़ा हथियार होता है पर उस पर तो सेंसर की ऐसी कैंची चली कि सबकी क़लम कुन्द...जबान बन्द। न काई अपनी इच्छा से कुछ लिख सकता था...न ही कुछ बोल सकता था। हाँ, पहले दिन तो एक-दो अख़बारों ने जैसे-तैसे एक-एक पृष्ट का सप्लीमेंट निकालकर उस दिन हुई गिरफ्तारियों की सूचना ज़रूर लोगों तक पहुँचा दी थी...पर बाद में तो सब तरफ़ सन्नाटा। भारी संख्या में उस दिन की गिरफ्तारियों की सूचना ने पता नहीं क्यों 9 अगस्त, 1942 की याद ताजा कर दी थी।

आज भी वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है। उस दिन भी तो इसी तरह बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुई थीं। 9 अगस्त को ऐन सवेरे पुलिस की दो-तीन गाड़ियाँ हमारे मोहल्ले में आई थीं, कांग्रेस के कोई चार-पाँच सक्रिय नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए। पर क्या माहौल था उस दिन का ! सारे लोग अपने-अपने घरों से सड़कों पर निकल आए थे और सारा मोहल्ला ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो... इन्क़लाब-ज़िन्दाबाद' के नारे से गूंज उठा था और नेताओं की गरदने मालाओं से लद गई थीं। गाड़ियाँ चली गई थीं और उसके बाद भी यह माहौल बना रहा था। हम तो तब बच्चे थे पर इतने छोटे भी नहीं कि हाथ उठा-उठाकर नारों में भी साथ न दे सकें। और देखते-ही-देखते यह माहौल सारे देश में फैल गया क्योंकि दिन उगते-उगते सभी बड़े-बड़े नेताओं के साथ हज़ारों लोगों के गिरफ़्तार होने की सूचना सारे देश में फैल गई थी। उस माहौल को...लोगों के उस जोश-खरोश को कुचलने के लिए चला फिर सरकार का दमन-चक्र। जितना भयंकर दमन, जनता का भी उतना ही उग्र विरोध। एक बार तो सारे देश में विद्रोह की ऐसी मुखर लहर वही कि शायद ही कोई उससे अछूता बचा हो। पर इन गिरफ़्तारियों के बाद का माहौल ! या तो आपात्काल ने सबके पर ही कतर दिए थे या कि उस जमाने के लोगों जैसा हौसला ही नहीं रह गया था अब किसी में (इस 'किसी में' में हम सब भी तो सम्मिलित हैं)। हाँ, अगर कुछ मुखर था तो केवल दूरदर्शन ! उसमें दिखाए जानेवाले दृश्य भी दिखाई दे रहे थे और वहाँ की बातें भी सुनाई दे रही थीं।

क्या विडम्बना थी सारी स्थिति की कि इधर तो एक वर्ग-विशेष के लोग बड़ी संख्या में जेलों में लूंसे जा रहे थे और उधर उसी वर्ग के लोगों का एक छोटा-सा जत्था इन्दिरा गांधी के समर्थन में अपना स्वर भी मिलाने के लिए उनके दरबार में हाज़िरी बजाने के लिए पहुँचा हुआ होता। हालांकि ये हाज़िरियाँ विशुद्ध प्रायोजित होती थीं और श्रीकान्त वर्मा ने इनकी ज़िम्मेदारी ले रखी थी। वे ही लोगों को घेर-घेरकर वहाँ ले जाने का महत्त्वपूर्ण दायित्व निभा रहे थे। ये दृश्य तो सबको दिखाई भी देते थे और इन्दिरा जी के समर्थन में कहे उनके 'आप्त-वचन' सुनाई भी देते थे पर गिरफ़्तार लोगों की तो कोई सूचना तक किसी को नहीं मिलती थी। मिलती भी कैसे...अखबारों पर तो सेंसर का शिकंजा कसा हुआ था ! इन्दिरा-दरबार में आज लेखक-सम्पादक लोग जा रहे हैं तो कल प्राध्यापक-प्रोफ़ेसर लोग। आज डॉक्टर-वकील जा रहे हैं तो कल वैज्ञानिक और व्यापारी। गनीमत है कि हमारे मित्रों में से कभी कोई वहाँ नहीं गया। नहीं जानती आज इन बातों को याद कर-करके मन में जैसी वितृष्णा जाग रही है, उस समय भी जागी थी या नहीं।

शायद नहीं। एक तो सूचना के अभाव में उस समय होनेवाले अन्याय, अत्याचार और गिरफ्तारियों की कोई जानकारी मिलती ही नहीं थी, दूसरे सारा माहौल ऐसा प्रतिक्रिया-विहीन हो चला था (सिवाय गिरफ़्तार लोगों के परिवारवालों के कि बस जो है उसे स्वीकार करते चलो।

इतना ही नहीं बल्कि कुछ बातों को लेकर तो प्रशंसा-भाव भी उभरने लगा था। गाड़ियाँ समय से चलने लगी थी...दफ्तरों में बाबू हों या अफ़सर काम के समय सब अपनी सीट पर हाज़िर ...और तो और, हम लोग भी घंटी बजते ही रजिस्टर लेकर क्लास की ओर लपकते। वैसे महिलाएँ तो आपात्काल के बिना भी क्लास लेने के मामले में काफ़ी पाबन्द ही होती हैं...पर कई पुरुष प्राध्यापकों ने तो क्लास न लेने के रिकॉर्ड कायम कर रखे थे और कोई-कोई तो इसका ज़िक्र बड़े गर्व से करते थे। आपात्काल लगते ही वे लोग भी लाइन से लग गए। हड़ताले ख़त्म सो सब जगह काम सुचारू रूप से चलने लगा था। इन्हीं सब बातों को देखकर ही शायद विनोबा भावे ने इसे अनुशासन-पर्व की संज्ञा दे डाली थी। पर बाद में सारी जानकारियाँ मिलने पर यह प्रश्न तो उठता ही था कि क्या इसके लिए बिना चोरी, डकैती, हत्या का अपराध किए डेढ़-दो लाख लोगों को जेल में ठूस देना ज़रूरी था ? (संख्या कम-ज्यादा हो सकती है)...सबकी क़लम और ज़वान को कुन्द करके अपने लिए मनमाना आचरण करने की छूट ले लेना (नसबन्दी के कैसे-कैसे उदाहरण तो सामने आए थे) अनिवार्य था ? बहरहाल, यह सही है कि विरोधी स्वर सब जेलों में बन्द थे (बहुतों को तो विरोध के कारण नहीं बल्कि व्यक्तिगत दुश्मनियों के कारण ही भीतर कर दिया गया था) और सामान्य लोगों में एक स्वीकार-भाव घर करता जा रहा था।

हाँ दूरदर्शन में कुछ लेखकों-सम्पादकों के हाज़िरी बजाने के बरक्स यहाँ एक बात का उल्लेख ज़रूर करना चाहूँगी कि उसी समय राजेन्द्र को डिपार्टमेंट ऑफ़ कल्चर की ओर से पाँच साल के लिए एक हज़ार रुपए महीने की फैलोशिप मिली...सो भी दो साल पहले से यानी बहत्तर हज़ार रुपया वे अभी जाकर ले लें और फिर तीन हज़ार रुपए हर महीने लेते रहें। राजेन्द्र ने उसे अस्वीकार कर दिया। श्री बिशन टंडन उस समय इस विभाग में सचिव होकर आए थे...मित्रता के नाते उन्होंने राजेन्द्र को आगाह भी किया कि आज की स्थिति में यह अस्वीकार...ज़रा ठंडे दिमाग़ से इसके परिणाम सोच लें, पर राजेन्द्र अपने निर्णय पर अटल रहे।

इसी तरह एक दिन मजिस्ट्रेट दिवाकर ने घर आकर सूचना दी कि मेरा नाम पद्मश्री के लिए चुना गया है और मेरी स्वीकृति चाहिए। उन दिनों यह नियम बन गया था कि घोषणा करने से पहले पानेवाले से स्वीकृति ले ली जाए। जब मैंने मना किया तो पहले तो उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि लोग तो इन अलंकरणों को पाने के लिए क्या कुछ नहीं करते और आप...और फिर जैसे मेरे इंकार से प्रभावित होकर बड़े सद्भावनापूर्ण ढंग से समझाया कि इस समय इंकार करना...कहीं ऐसा न हो कि आप अपने लिए कोई दूसरा संकट मोल ले लें। स्थितियों को देखते हुए ख़तरा तो था पर इन्हीं स्थितियों में लेना भी तो सम्भव नहीं था ! मेरे पास यह प्रस्ताव लिखित रूप में तो आया नहीं था सो मझे भी जवाब लिखकर तो देना नहीं था। अब मेरे इस मौखिक नकार के सारे नुकीले कोनों को घिस-घिसाकर उन्होंने किस रूप में प्रस्तुत किया मैं नहीं जानती। जानती हूँ तो केवल इतना कि सरकार की ओर से हम दोनों के ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह की न कोई कार्यवाही हुई...न ही कोई ज़्यादती।

इन्दिरा गांधी सोचती थीं कि घेर-घारकर उनके दरबार में लाए गए विभिन्न वर्ग के लोगों की इन प्रायोजित उपस्थितियों ने उनके समर्थन में माहौल तो बनाया ही है...चारों ओर फैले स्वीकार भाव में लिपटे उस प्रतिक्रिया-विहीन सन्नाटे के चलते भी उनका यह सोच धीरे-धीरे विश्वास में बदलने लगा था। और जब वे पूरी तरह आश्वस्त हो गईं कि जनता में तो न कोई विरोध है न विद्रोह....सब कुछ सहज स्वीकार्य है तो पूरे उन्नीस महीने बाद उन्होंने आपातकाल समाप्त करके, जनतन्त्र पर अपनी आस्था का ठप्पा लगाते हुए चुनाव भी घोषित कर दिए। बस, यहीं वे चूक गईं...अनुमान ही नहीं लगा पाईं कि यह सन्नाटा तो भारी उथल-पुथल के पहले का सन्नाटा था। चुनाव में इन्दिरा गांधी और संजय गांधी सारे कांग्रेसी नेताओं के साथ हार गए और आज़ादी के बाद से ही गहरी जड जमाए बैठी. एकछत्र राज्य करती कांग्रेस का तख्ता पलट गया। मुझे आज भी याद है कि हमारे शक्तिनगर वाले घर के पीछेवाली गली में लोगों ने इन्दिरा गांधी की हार का समाचार आते ही सारी रात ढोल बजा-वजाकर जश्न मनाया था।

वैसे तो उन्नीस महीने के इस आपात्काल की अनन्त कथाएँ हैं, जिसकी असली परतें इस सरकार के गिरने के बाद से जो खुलनी शुरू हुईं तो फिर खुलती ही चली गई थीं। असल में मैंने तो केवल उन दो बातों का ज़िक्र करने के लिए इस प्रसंग को उठाया था, जिन्होंने मुझे कुछ क्षुब्ध ही नहीं बहुत आहत भी किया था उस समय। पर एक बार जो यह प्रसंग शुरू हुआ तो थोड़े विस्तार में चली गई...जबकि अब तो ये सारी बातें सबकी जानी-पहचानी हैं। जिन दो बातों से मुझे उस समय धक्का-सा लगा था, उसमें एक थी हिन्दी के प्रतिष्ठित, पायेदार कवि-लेखक रघुवीर सहाय का सम्पादक की हैसियत से सरकार के सामने सबसे पहले घुटने टेकना। आपात्काल के लगते ही वे शायद इतने अधिक आतंकित हो गए कि उन्होंने तुरन्त दिनमान के सम्पादकीय में आपात्काल का समर्थन ही कर डाला। उन दिनों दिनमान हिन्दी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका मात्र ही नहीं थी बल्कि अपने व्यवस्था-विरोधी तेवर के कारण पाठकों की प्रिय पत्रिका भी थी। उनके इन्दिरा-विरोधी और जे.पी. समर्थक रूप से सब परिचित थे। पाठकों के बीच इसके एकाएक बदले रूप की प्रतिक्रिया तो होनी ही थी सो हुई...इसकी साख को धक्का तो लगना ही था, सो लगा। मेरी परेशानी तो रघुवीर बाबू को लेकर थी। (हो सकता है कुछ और लोगों की भी रही हो)। विलक्षण काव्य-प्रतिभा के धनी...समाजवाद के समर्थन के चलते जो कहीं जे.पी. की सम्पूर्ण क्रान्ति के समर्थक भी थे... आपात्काल के भय ने एक झटके में उनके सारे विचार-विश्वास ही बदल दिए ? मेरे लिए तो विश्वास करना ही मुश्किल हो रहा था, क्योंकि आपात्काल का विरोध करने पर तो ज़रूर कैंची भी चल रही थी, उन्हें दंडित भी किया जा रहा था पर समर्थन में ही कुछ लिखा जाए, ऐसी बाध्यता तो नहीं ही थी। फिर ? मेरी बात पर राजेन्द्र कभी मेरा मज़ाक़ उड़ाते तो कभी फटकारते...'तुम तो परले सिरे की बेवकूफ़ हो...लोगों की क्या तुम्हें बिलकुल ही पहचान नहीं है ?' इन दो आरोपों को तो में खुद शुरू से ही अपने ऊपर चस्पाँ करती आई हूँ सो कुछ भी बुरा नहीं लगा।...बस बुरा लग रहा था तो केवल....

दूसरी बात भारती जी की बेहद लोकप्रिय और प्रसिद्ध कविता मुनादी को लेकर है। आपात्काल लागू तो नहीं हुआ था पर देश में स्थितियाँ बिलकुल आपात्काल जैसी ही हो चली थीं...क्योंकि दिन-ब-दिन ज़ोर पकड़ता जे.पी. का सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन इन्दिरा सरकार को और भी निरंकुशता की ओर धकेलता जा रहा था। उस समय बिहार में तो बिलकुल आज़ादी के पहलेवाला माहौल बनता जा रहा था। बड़ी संख्या में छात्र पढ़ाई-लिखाई छोड़कर और युवा अपनी नौकरियाँ छोड़कर इस आन्दोलन में कूद पड़े थे।

पटना में जे.पी. ने एक रैली का आयोजन किया तो देश की जनता सारे सरकारी प्रतिबन्धों को तोड़कर जैसे-तैसे बड़ी संख्या में जा उपस्थित हुई। यह उपस्थिति प्रायोजित क़तई नहीं, शुद्ध स्वैच्छिक थी। जे.पी. उन दिनों इन्दिरा और संजय के लिए वैसे ही आतंक बने हुए थे सो ज़रूरी था कि उनको और उनके हर आयोजन को, जैसे भी हो...जहाँ भी हो पूरी तरह कुचल दिया जाए, सो इस रैली पर पुलिस का ऐसा बर्बर लाठीचार्ज हुआ कि हज़ारों लोग लहूलुहान हो गए। यहाँ तक कि जे.पी. भी बुरी तरह घायल हुए थे। उस समय औपचारिक आपात्काल तो था नहीं, सो इन सबके विस्तृत ब्यौरे छपे थे और लोगों के मन में इसकी प्रतिक्रियास्वरूप आक्रोश का ज्वार तो फूटना ही था, सो फूटा। जहाँ तक याद है, इसके कुछ दिनों बाद ही आई थी भारती जी की मुनादी कविता और आते ही जैसे लोगों के मनों में घर कर गई। उनको लगा जैसे उनके अपने मन में उफनते गुस्से को इसने वाणी दे दी हो। मैं खुद इस कविता की बड़ी प्रशंसक-कई बार पढ़ा था मैंने उस कविता को। वैसे भी कुछ दिनों से भारती जी का इन्दिरा-विरोधी और जे.पी. समर्थक स्वर काफ़ी मुखर ही रहा था और शायद उसी की अन्तिम परिणति थी यह कविता।

आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब जिस क़लम से लिखी इन्दिरा-संजय की तानाशाही का विरोध और जे.पी. का समर्थन करती मुनादी जैसी कविता पढ़ी हो...आपात्काल लगने के कुछ समय बाद उसी क़लम से लिखी सूर्य के अंश कविता पढ़ने को मिले। मुझे तो जैसे बिलकुल विश्वास ही नहीं हो पा रहा था...मैं बार-बार राजेन्द्र से अपनी परेशानी की बात कहती पर वे बिलकुल सहज...मानो जो कुछ भी हुआ, बड़ी ही सामान्य बात है यह तो, पर मैं थी कि उस समय...(वैसे अब इन तीस सालों में तो जो कुछ जाना...जैसे नज़ारे देखे उसके बाद तो अब यह क्या, इससे बड़ी-बड़ी बातें भी हो जाएँ, तब भी कुछ नहीं लगता...न आश्चर्य, न परेशानी...बल्कि ऐसा कुछ न हो तो परेशानी होने लगती है)। आज उस कविता का कोई अंश तो याद नहीं मुझे (वह तो मुनादी का भी याद नहीं) पर वह इन्दिरा गांधी और संजय गांधी की प्रशंसा में लिखी गई थी। भाव कुछ इस प्रकार का था कि आज जब सारा देश भुखमरी, गरीबी, हड़तालों, प्रदर्शन, भ्रष्टाचार आदि के दलदल में फँसा हुआ है, सूर्य के ये अंश ही अपना प्रखर प्रकाश और तेज बिखेरती किरणों से इस दलदल को सुखाकर देश को अन्धकार से मुक्त करेंगे। कविता का शीर्षक सूर्य का अंश नहीं के अंश है...बहुवचन में यानी इन्दिरा और संजय। बेटे के मात्र सहयोग और सुझाव से ही नहीं बल्कि एक तरह से देश की बागडोर ही सँभाल लेने के कारण माँ इतनी गदगद थीं कि भावी प्रधानमन्त्री के रूप में उन्हें ही प्रस्तुत करने लगी थीं। आपात्काल के दौरान अख़बारों के मुख-पृष्ठ पर संजय की तस्वीरें छपने लगी थीं। और शहर की सड़कों पर इन्दिरा जी के साथ-साथ संजय के बड़े-बड़े होर्डिंग भी लग गए थे। इसलिए कविता में भी इन्दिरा के साथ-साथ संजय को भी आना ही था। यह तो मझे अभी मालूम हुआ कि भारती जी ने यह कविता मूलतः तो भोपाल के मनोहर आशीष की डॉक्यूमेन्टरी फ़िल्म सूर्य के अंश की काव्यमय कमेन्ट्री के रूप में लिखी थी। बहरहाल मैंने वह फ़िल्म कभी नहीं देखी...मैंने तो इसे कहीं पढ़ा ही था। अब जब लिखने ही बैठी तो लगा कि उस पत्रिका का नाम भी मालूम तो होना ही चाहिए क्योंकि ऐसी बातें पूरी प्रामाणिकता के साथ ही लिखनी चाहिए। कितने लोगों से मैंने पूछा पर आश्चर्य कि किसी को भी इस कविता के बारे में मालूम नहीं। आख़िर इस संकट से भी पंकज बिष्ट ने ही उबारा। समयान्तर में वे खुद उसके बारे में लिख चुके थे और उन्होंने ही बताया कि माया के नवम्बर '77 के अंक में इस फ़िल्म और कविता का विस्तृत ब्योरा छपा है। हमने भी ज़रूर वहीं पढ़ा होगा क्योंकि तब माया का वह कहानी- पत्रिकावाला रूप बदल गया था और वह पूरी तरह राजनीति से जुड़ गई थी।

मैं नहीं जानती कि भारतीजी ने किसी के आग्रह, दबाव या किसी प्रलोभन के चलते यह कमेंट्री लिखी थी या अवसर और स्थिति की नज़ाक़त को देखते हुए, पर जहाँ तक मेरी जानकारी है, उन्होंने इसे अपनी एक स्वतन्त्र रचना के रूप में कहीं नहीं छपवाया...न किसी पत्रिका में, न ही अपने किसी काव्य-संकलन में इसे संकलित किया (शायद यही कारण है कि लोगों को इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं है)। हो सकता है कि इसे लेकर उस समय उन्हें भी कुछ संकोच रहा हो...जो भी हो। मेरी परेशानी का कारण तो यह था कि हमारी क़लम से जो भी शब्द निकलते हैं, विशेषकर सृजन के सन्दर्भ में, उनके पीछे हमारे विचार, हमारे विश्वास, हमारी आस्था, हमारे मूल्य...कितना कुछ तो निहित रहता है...तब मुनादी जैसी कविता लिखनेवाली क़लम एकाएक कैसे यह कविता लिख पाई ?

सन् 77 में कांग्रेस की पराजय और उसका सत्ताच्युत होना और जनता पार्टी का "सत्तासीन होना। कांग्रेस-विरोधी कुछ पार्टियों ने मिलकर ही जनता पार्टी बनाई थी और उसमें कांग्रेस के कई नेता भी आकर मिल गए थे। और तो और, जगजीवनराम जैसे दिग्गज नेता भी जनता पार्टी में आ मिले थे। जनता के लिए तो यह उत्सव जैसा माहौल था...सभी को लग रहा था कि अब उन्हें केवल इन्दिरा राज की तानाशाही से ही मुक्ति नहीं मिलेगी बल्कि अपने दैनन्दिन के संकटों से भी वे काफ़ी कुछ मुक्त हो जाएँगे। जिन्होंने आपात्काल के संकट झेले थे अब वे उसके पुरस्कार की उम्मीद भी लगाए बैठे थे। बेचारी जनता ! कैसे विश्वास कर लिया उसने...और क्यों कर लिया ? पार्टी का नाम ज़रूर बदल गया था पर उसमें लोग तो पुराने ही थे...जिनकी रगों में वही खून तो दौड़ रहा था जिसमें महत्त्वाकांक्षा, स्वार्थ और सत्ता की लिप्सा का रंग (या कीचड़) घुला हुआ था। शुरुआत ही प्रधानमन्त्री के पद को लेकर होनेवाली कशमकश से हुई। अपने को इस पद का दावेदार समझनेवाले तीन-चार दावेदार तो थे ही, खैर जैसे-तैसे इस मामले को जल्दी ही सुलटाकर उस समय तो इन्होंने जनता के सामने अपनी छवि बिगड़ने नहीं दी। पर आख़िर कब तक ? साल बीतते न बीतते लोगों में निराशा व्यापने लगी थी।

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