जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
स्नेहजी-अजितजी तो हिन्दी विभाग की डॉ. निर्मला जैन को भी खूब अच्छी तरह
जानते थे पर हम लोगों की निकटता कुछ दिनों बाद स्थापित हुई। रौब-दाब से भरपूर
उनके व्यक्तित्व का ऊपरी खोल काफ़ी आतंक जगानेवाला था-शुरू-शुरू में तो मेरे
मन में काफ़ी आतंक ही था उनको लेकर और शायद अन्त तक ही बना रहता लेकिन
राजेन्द्र ने हिन्दी विभाग की धज्जियाँ बिखेरने के चलते उनके इस लबादे को भी
उतार फेंका। फिर तो ऐसी निकटता पैदा हो गई कि पिछले
तीस-पैंतीस सालों से पारिवारिक समस्या हो या व्यक्तिगत, निर्मलाजी सबकी
सहभागी और सहयोगी रही हैं। यही नहीं, अपना भी ‘सब कुछ' बड़े उन्मुक्त भाव से
मेरे साथ शेयर करती आई हैं। पहले इनके घर में होनेवाले जमावड़ों की चर्चाएँ
भले ही अपने में दुनिया-जहान के विषय समेटे रहती हों पर घूम-फिरकर कहीं न
कहीं से विश्वविद्यालय की राजनीति उसमें ज़रूर प्रवेश पा जाती थी और इस विषय
की तो जैसे ये विशेषज्ञ-शतरंज की पूरी जानकारी से लैस और दूरदर्शिता ऐसी कि
कौन कब क्या चाल चलेगा इसका पुख्ता अनुमान ही नहीं, काट की सारी चालें भी
रहती थीं उनके पास। पर उनके घर की जो चीज़ सबसे ज़्यादा याद आती है वह है
विविध प्रकार के सुस्वादु भोजन और प्रायः मौन रहकर भी हम लोगों पर अपना सारा
स्नेह उँडेलते हुए हमें खिलाने और लाने-ले जाने की व्यवस्था में तत्पर जैन
साहब की मुखर उपस्थिति। एक छोटी-सी गाँठ हो जाने पर निर्मलाजी मुझे अपनी
गाड़ी में लादकर मेडिकल इंस्टीट्यूट (करीब बीस किलोमीटर दूर) ले गई थीं और
डॉक्टर के तुरन्त ऑपरेशन करवाने के आदेश पर जैन साहब ने एक दिन की छुट्टी
लेकर...भागदौड़ करके, जाने किन-किनसे मिल-मिलाकर मेरे लिए वहाँ के प्राइवेट
वार्ड में एक कमरे की व्यवस्था करवाई थी, यह सब मैं कभी भूल सकती हूँ क्या ?
दूसरे दिन सवेरे आठ बजे ऑपरेशन होना था तो राजेन्द्र को लेकर जैन साहब और
निर्मला जी फिर वहाँ हाज़िर। ऑपरेशन-थिएटर में जाने से पहले निर्मलाजी ने
हौसला-अफ़ज़ाई के लिए मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर हल्के से दबाया था और होश
में आने के बाद उनका सहलाता हुआ हाथ ही मैंने अपने माथे पर महसूस किया था।
कुछ बातें जो मेरे मन में हमेशा अंकित रहनेवाली हैं, उनमें से एक यह है।
दूसरे दिन स्नेहजी वहाँ आकर रात को मेरे साथ सोई थीं। जैन साहब नहीं रहे तब
भी यह सिलसिला तो बना ही रहा क्योंकि छोटे से छोटे काम की भी पुख्ता
व्यवस्था...हर संकट के समय साथ आकर खड़े हो जाना और खुले हाथ से खर्च करना
खासियत है निर्मलाजी की। और जैन साहब वाली ज़िम्मेदारी ले ली है उनके बेटे और
बहू संजय और नूतन ने।
इसी तरह दिसम्बर की हाड़-गलाती सर्दी में आधी रात को सूचना मिलने पर कि
मित्तल का (जो उस समय अक्षर प्रकाशन में काम करता था) एक्सीडेन्ट हो गया
है...उसे सफ़दरजंग अस्पताल में भर्ती तो करवा दिया, अब तुरन्त सँभाला जाए,
राजेन्द्र ने अजितजी को फ़ोन किया। आधा घंटे में ही अजितजी अपने कवच-कुंडल से
लैस होकर आ खड़े हुए और राजेन्द्र को अपने टू-व्हीलर पर बिठाकर पहले बीस मील
की अस्पताल की यात्रा, फिर वहाँ की भाग-दौड़। सवेरे ही लौटे थे ये लोग !
इसमें कोई सन्देह नहीं कि हर संकट के समय जैन और अजित परिवार को अपने पास
पाया है...अपने साथ पाया है। उन दिनों आज जैसी दूरियाँ तो नहीं थीं और मन भी
बेहद-बेहद जुड़े हुए थे। एक बड़े परिवार की तरह ही रहते थे हम लोग। उसके बाद
तो तीनों परिवारों ने अपने-अपने घर' बना लिये और सब एक दूसरे से दूर जा पड़े।
फिर कुछ तो ये बाहरी दूरियाँ...कुछ अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के दायरे में
सिमटते चले जाने की उत्साह भरी मजबूरी और कुछ परिस्थितियों के दबाव और
सम्बन्धों के तनाव के कारण छोटे परिवार में पड़ी दरारों का प्रभाव बड़े
परिवार पर भी पड़ना तो था ही-पड़ा। पहले जो घरेलू गोष्ठियाँ-बैठकें
दस-पन्द्रह दिनों में हुआ करती थीं और नामवरजी के जुड़ जाने से वे केवल
दिलचस्प ही नहीं, बहुत प्रेरक भी होने लगी थीं-अब खींच-खींचकर महीने-दो महीने
में हो जाएँ तो गनीमत। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये गप्प-गोष्ठियाँ मेरे लेखन
के लिए बहुत प्रेरक और उत्साहवर्द्धक होती थीं और मुझे अकसर लगता था कि इनका
स्थगन होते-होते समाप्तप्राय होना मेरे लेखन के साथ कहीं गहरे से जुड़ा हुआ
है। लिखने के दौरान मुझे भले ही बिलकुल अकेलापन चाहिए...निपट एकान्त, पर उस
स्थिति तक पहुँचने के लिए इस दौर से गुज़रना मेरे लिए तो बहुत-बहुत ज़रूरी
है...और मेरे लिए ही क्यों...शायद हर लेखक की यह अनिवार्यता है। हाँ,
निर्मलाजी कोशिश करके ज़रूर मिलते रहने के इस सिलसिले को बनाए रखना चाहती हैं
और उन्हीं के प्रयास से महीने-दो महीने में एकाध बार मिल भी बैठते हैं, पर न
तो पहले जैसी उन्मुक्त बहसें होती हैं और न ही वैसे आत्मीयता में सने
विवाद-प्रतिवाद-क्योंकि साथ रहकर भी मन शायद सबके कुछ अलग-थलग ही रहते हैं !
कॉलेज के स्तर पर शुरू-शुरू में दिल्ली में जमने-बसने की आरम्भिक कठिनाइयों
और दूसरी तरह की अनेक समस्याओं में सबसे ज़्यादा सहयोग मिला था निर्मल हेमन्त
का जिसकी नियुक्ति मेरे साथ हुई थी और शायद इसी कारण हम बहुत निकट हो गए थे।
आज उन दिनों की याद करने पर सचमुच मन भर उठता है निर्मल को लेकर...क्या नहीं
किया था उसने उन दिनों मेरे लिए। मेरी नियुक्ति के दो वर्ष बाद डॉ. शैल
कुमारी और अर्चना वर्मा की नियुक्ति हुई। कुछ वर्षों तक छड़ी-छटाँग रहने के
कारण बहत आया करती थीं घर में। शुरू के दिनों में अर्चना टिंकू की तरह
राजेन्द्र को पप्पू ही कहा करती थी और मुझे भी बिटिया जैसी ही लगती थी और आज
हालत यह है कि मेरे दिमाग़ में लिखने की कोई बात आते ही...या कि मैं कुछ लिखू
तो उसे बता या सुनाकर ही अपने लिए आत्मविश्वास अर्जित करती हूँ। शैल की रुचि
इधर नाटकों की ओर हो गई है पर निकटता मैं उससे भी उतनी ही महसूस करती हूँ। एक
बार कोई पाँच-छह महीने तक मेरी आवाज़ ही चली गई तो विभाग के सभी सदस्यों का
भरपूर सहयोग मुझे मिला। ये थे हिन्दी-विभाग के मित्र, सहयोगी और सहकर्मी
लेकिन जिनके साथ बैठकर बहस-चर्चाएँ होती थीं, वे थीं इतिहास-विभाग की प्रभा
दीक्षित और डॉ. कृष्णा शर्मा। प्रभा दीक्षित बहुत पढ़ती है और उसकी रुचि और
पढ़ाई का दायरा विभिन्न विषयों तक फैला हुआ है। उन दिनों दिनमान में उसके कुछ
बड़े विवादास्पद लेख छपे थे जिन पर व्यापक प्रतिक्रियाएँ भी हुई थीं। घर में
उसकी बहसें अक्सर राजेन्द्र और अजितजी से होती थीं-में और स्नेहजी तो श्रोता
का पार्ट अदा करके केवल ज्ञानवर्द्धन ही किया करते थे। मेरे लिए तो विषय से
भी ज़्यादा दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण होता था वह रवैया, वह तेवर...वह
आग्रह-दराग्रह जिससे आदमी की मानसिकता का, उसके मन की भीतरी परतों का पता
चलता था। रस ले-लेकर स्कैंडलबाज़ी भी खूब होती थी और पाकशास्त्र में निपुण
प्रभा कभी-कभी अपने हाथ का बना सुस्वादु भोजन भी खिलाया करती थी। प्रभा की
जिस बात से मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित हूँ वह है-अपनी ज़िन्दगी को लेकर उसका
सकारात्मक रवैया। ज़िन्दगी में जो और जितना मिला उसका भरपूर फ़ायदा उठाकर
बिना किसी गिले-शिकवे के विकास की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाना।
इसके विपरीत थीं डॉ. कृष्णा शर्मा। मेधावी वे भी कम नहीं थीं। बेहद
प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी...सौम्य, संयत। गार्गी कॉलेज की प्रिंसिपल होकर
जब वे दक्षिण दिल्ली चली गई तो मैं और स्नेहजी आठ-आठ, दस-दस दिन तक उनके पास
आकर रहे हैं। जब तक वे जीवित रहीं उनका भी बहुत स्नेह और सहयोग मिला है मुझे।
टिंकू की शादी के लिए उन्होंने अपने को मात्र एक छोटे से कमरे में सिकोड़कर
अपना सारा घर, आगे-पीछे के बड़े-बड़े सुन्दर लॉन सौंपकर मुझे बिलकुल
चिन्तामुक्त कर दिया था। लेकिन मुझे जिस बात से सबसे अधिक तकलीफ़ होती थी वह
यह कि किस तरह उन्होंने अपनी मेधा, प्रतिभा और क्षमता का ह्रास किया।
इन सबसे समान रूप से मित्रता के सूत्र अगर किसी एक व्यक्ति के साथ जुड़े थे
तो वे थे अजित कुमार। वैसे यह विशेषता थी अजित जी के व्यक्तित्व की कि आज आप
अपने किसी घनिष्ठ मित्र से पहली बार परिचय करवाइए उनका...दो महीने बाद यदि
आपको यह देखने को मिले कि आप हाशिए पर पड़े हैं और अजित जी चाय-कॉफ़ी (अब
शराब) की चुस्कियों के साथ घुल-मिलकर उनसे बातें ही नहीं कर रहे हैं बल्कि वह
अपने सुख-दुख, समस्याओं-योजनाओं को उनके सामने उँडेले दे रहा है तो बिलकुल
आश्चर्य मत कीजिए। एक अजीब-सा सम्मोहन ज़रूर था उनके व्यक्तित्व में कि लोग
उनके सामने अपने को निःसंकोच भाव से उँडेलने में झिझकते नहीं। लेकिन अपनी
व्यक्तिगत बात किसी के साथ शेयर करना तो दूर वे होंठों तक भी नहीं लाते-अपने
अन्तरंग से अन्तरंग मित्र ( ? ) के सामने भी। मेरी शब्दावली में एक ही शब्द
है इसके लिए ‘धुन्नाघट्ट' जो राजेन्द्र पर भी पूरी तरह लागू होता है। मुझे
सन्देह नहीं बल्कि मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि बाहर से बेहद-बेहद
खिलखिलाते, बोलने-बतियानेवाले इन दोनों व्यक्तियों के भीतर कोई झाँक भी नहीं
सका होगा कभी। पता नहीं क्यों मुझे अक्सर लगता है कि ये
चुटकुलेबाज़ी-हाज़िरजवाबी और बात-बात पर ठहाके लगाना कहीं अपने उस निहायत
‘निजी भीतरी' पर परदा डालने का ही एक आयोजन तो नहीं-एक सफल आयोजन ! अपनी तरफ़
से सात तालों में बन्द मन की उस लौह-कपाटी कन्दरा में कभी कोई छोटे-मोटे
सुराख करके हमने ही कुछ जान-समझ लिया हो तो बात दूसरी है। स्नेहजी तो उस
जाने-समझे को अपने भीतर घोट-घोटकर घुटती रहती थीं। पर मैंने तो उसे दूसरों तक
पहुँचाने का गुनाह (?) भी खूब किया है।
सन् 70 में हुआ परिचय एक बिलकुल दूसरे किस्म की मित्रता में पनपा था शर्मा जी
(सेवाराम शर्मा) और सरयू से। वेसे तो शर्मा जी आई.ए.एस. अधिकारी हैं पर उनकी
साहित्य-पिपासा ही हमें निकट ले आई। वे खूब पढ़ते थे और पढ़े पर बहस करने के
लिए आतुर रहते थे। सरयू को तो लिखने-लिखाने का भी शौक़ था। बाद में तो उसने
बाक़ायदा कहानियाँ लिखना भी शुरू कर दिया और कुछ सालों पहले उसका एक कहानी
संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। बात-बहस चाहे साहित्य की होती हो लेकिन लाइसेन्स
रिन्यू करवाना, राशन-कार्ड बनवाना, फ़्लैट की क़िस्तें जमा करवाना जैसे अनेक
झंझटिया काम मैंने उनके ज़िम्मे कर रखे थे। डी.डी.ए. का यह फ़्लैट जिसमें आज
मैं अपने को बेहद सुरक्षित महसूस करती हूँ उनके ज़िद-भरे आग्रह करने पर ही
मैंने बुक किया था। दो साल बीतते न बीतते राजेन्द्र तो उस परिवार से कुछ ऐसे
जुड़ गए कि सप्ताह में चार या पाँच दिन अक्षर से सीधे उनके यहाँ चले जाते और
फिर रात दस बजे तक ही घर लौटते। उनकी पोस्टिंग मिज़ोरम और अरुणाचल हुई तो उस
परिवार का 'चुम्बकीय आकर्षण' राजेन्द्र को वहाँ भी ले गया। लेकिन कुछ साल
पहले एकाएक शर्मा जी और राजेन्द्र के बीच उभरी किसी गाँठ ने उन्हें काफ़ी हद
तक दूर कर दिया। लेकिन मेरी निकटता उनसे जस की तस बनी रही। केवल इतना ही
नहीं, बीमारी की हालत में सरयू ने मुझे एक सप्ताह तक अपने घर ले जाकर भी रखा।
शर्मा जी उन दिनों प्रोटेस्ट के तौर पर छुट्टी लेकर घर बैठे थे और दोनों ने
ही बड़ी आत्मीयता से मेरी देखभाल की। बच्चे भी दोनों समय प्रणाम करने ज़रूर
आते थे।
धर्मयुग के जिस विशेषांक में मेरी त्रिशंकु कहानी छपी थी उसी में राजी सेठ की
'ग़लत होता पंचतन्त्र भी छपी थी। कहानी पढ़ते ही राजी का नाम मेरे मन में अटक
गया। पर उन दिनों वे अहमदाबाद रहती थीं इसलिए मुलाक़ात नहीं हो सकी। सन् 76
में सेठ साहब ट्रान्सफ़र होकर दिल्ली आए और एक दिन राजी सेट को बिना किसी
ख़बर-सूचना के अचानक अपने घर में पाकर मुझे आश्चर्य हुआ था-एक सुखद आश्चर्य।
उस दिन की वह छोटी-सी मुलाक़ात कब और कैसे एक
अन्तरंग परिचय में बदल गई-कैसे मैं राजी को अपने बहुत निकट पाने लगी मैं खुद
नहीं जानती। जहाँ तक लेखन और लेखकीय दृष्टि का सवाल है हम शायद बहुत भिन्न
धरातल पर खड़े हैं। (वैसे उनके शुरू के दो कहानी-संग्रहअन्धे मोड़ से आगे और
तीसरी हथेली की कहानियों पर मैं मुग्ध हूँ।) लेकिन इसके बावजूद उनके साथ
बैठना, विभिन्न विषयों को समेटती लम्बी-लम्बी बातचीत मुझे हमेशा बहत प्रेरक
और उत्साहवर्द्धक लगती है। घर-परिवार की समस्याओं को (उनके पास जिसका अम्बार
लगा रहता है) एक-दूसरे के सामने उँडेलकर थोड़ा हल्का कर लेते हैं, पर उन
प्रसंगों को जल्दी ही निपटाकर पढ़ने-लिखने की दुनिया में लौट आते हैं। राजी
पूरी तरह लेखिका है-निष्ठावान और समर्पित। लेखकों की बिरादरी को ही उन्होंने
अपनी बिरादरी बना लिया है और मैं पिछले पन्द्रह साल से कुछ भी न लिख पाने के
कारण साहित्य की दुनिया से ही कटती चली गई हूँ। हो सकता है, इसी कारण बहुत
चाहने के बावजूद मुलाक़ातें हमारी बहुत ही कम हो पाती हैं। यूँ फ़ोन को मिलने
का विकल्प बना रखा है पर उसमें वो सन्तोष कहाँ ? जो भी हो, हम चाहे मिलें न
मिलें-अनेक स्तरों पर हमारे लेखकीय धरातल भिन्न हों, पर कहीं कुछ ऐसा है
ज़रूर कि मैं राजी को अपने बहुत निकट पाती हूँ...शायद वह भी, वरना यह सम्बन्ध
इस तरह चलता नहीं। हो सकता है इसके मूल में उनकी वह शालीनता रही हो जिसके
चलते न उन्होंने कभी अपने विचारों को सही और श्रेष्ठ सिद्ध करके मुझ पर लादने
की कोशिश की, न अपने कहे, सोचे, लिखे की श्रेष्ठता के परचम लहराकर मुझे
आतंकित ही किया।
इन मित्रों के साथ बैठकें, गोष्ठियाँ तो होती थीं शाम को पर दिन का समय
गुज़ारती थी मैं अपनी बेटी टिंकू (रचना) के साथ। जब तक वह मेरे साथ रही तब तक
वह मेरी सबसे बड़ी शक्ति थी। आज तो मैं कई बार यह भी सोचती हूँ कि यदि टिंकू
न होती तो मेरी ज़िन्दगी की यह धारा निश्चित रूप से किसी और दिशा में मुड़ गई
होती। चौथी-पाँचवीं कक्षा तक मैं उसकी माँ बनकर रही-उसके बाद उसकी मित्र
बनकर। स्कूल से आने के बाद उसे खिला-पिलाकर हम दोनों पलंग पर गलबहियाँ डालकर
लेट जाते–शर्मा जी ने इस दृश्य को नाम दे रखा था, ‘गायबाजी' -और फिर बड़े
विस्तार से वह मुझे अपने स्कूल की एक-एक बात बताती। मैं उसे दुनिया भर की
कहानियाँ सुनाती, कविता सिखाती। (आजकल यह
काम मैं उसकी तीन साल की बेटी मायरा के साथ करती हूँ। उसके नानी-प्रेम के मूल
में ये कहानियाँ-कविताएँ ही हैं।) लेकिन कॉलेज के दूसरे साल तक आते-आते घर
चाहे यही रहा पर उसकी अपनी एक अलग ही दुनिया होने लगी, अपने मित्र होने लगे,
जो अब केवल उसके अपने होते थे। बहुत स्वाभाविक भी था यह पर फिर भी उसका दूर
होते चले जाना मुझे कहीं बहुत अकेला तो कर ही गया और सन् 84 में दिनेश खन्ना
के साथ शादी करके उसने अपना घर भी बसा लिया। दिनेश-टिंकू दोनों अपने-अपने काम
में बहुत व्यस्त रहते हैं-अब तो अगर हमें जोड़ती है तो मायरा। मायरा के रूप
में मुझे जैसे फिर से टिंक ही मिल गई जो उसकी तरह ही कहानी-कविता सुनते अघाती
नहीं। और अब तो उसमें टिंकू की दूसरी बिटिया माही भी जुड़ गई।
सबसे बाद में परिचय हुआ मैत्रेयी पुष्पा से। चित्रा मुद्गल उसे अपने साथ लेकर
आई थी-परिचय करवाया और जब मालूम हुआ कि उसकी तीनों बेटियाँ और एक दामाद (अब
तो तीनों) डॉक्टर हैं तो मेरे मुँह से अचानक निकला, अरे वाह ! यह तो बहुत
अच्छा हुआ क्योंकि परिचय के दायरे में कोई डॉक्टर तो है ही नहीं और आजकल सबसे
ज़्यादा ज़रूरत उसी की पड़ती है। बाद में अपने कहे पर हँसी आती रही क्योंकि
मैत्रेयी आई थी अपनी लेखकीय आकांक्षाओं के साथ और मैंने उसे डॉक्टरी में
समेटकर रख दिया। चलते समय उसने मुझे अपनी एक किताब दी इस आग्रह के साथ कि
पढ़कर मैं अपनी राय और सुझाव पहुँचा दूँ। किताब पढ़कर मैं चुप्पी साध गई
क्योंकि उसमें प्रतिक्रिया जाहिर करने जैसा कुछ था ही नहीं। फिर उससे कोई
मुलाक़ात नहीं हुई और मैं उज्जैन चली गई। पर दो साल में तो सारा परिदृश्य ही
बदल गया। राजेन्द्र और हंस के माध्यम से उसने साहित्य में जगह ही नहीं बना ली
बल्कि इदन्नमम् जैसा उपन्यास लिखकर कथा-साहित्य में अपने नाम की धूम मचा दी।
उसके बाद तो एक के बाद एक मोटे उपन्यासों का सिलसिला शुरू हो गया।
अक्सर दिल्ली रहने पर मेरी साँस की तकलीफ़ बहुत बढ़ जाया करती थी (जो आज भी
है) और एक रात को मुझे लगा कि जैसे मेरी साँस ही उखड़ जाएगी।
क़रीब बारह बजे मैंने हाँफते-काँपते मैत्रेयी को फोन किया और गोपाल (ड्राइवर)
को उसे लेने के लिए भेज दिया। तुरन्त आकर वह मुझे मेडिकल इंस्टिट्यूट ले गई,
अपने दोनों डॉक्टर दामादों को उसने पहले ही फ़ोन कर दिया था। तबीयत शायद इतनी
ज़्यादा ख़राब नहीं थी जितनी घबराहट थी। दूसरे दिन शाम तक मुझे वहाँ रखकर घर
भेज दिया। ऐसे ही एक बार और डॉक्टर साहब और मैत्रेयी सूचना मिलते ही रात
ग्यारह बजे मुझे देखने आ गए थे।
गप्प-गोष्ठियों और साहित्यिक सूत्रों से जुड़े इन सम्बन्धों से ज़रा अलग हटकर
दो सम्बन्ध और हैं, जिनसे मैं गहरे से जुड़ी हुई हूँ। बरसों पहले अपने
गद्य-गीतों के लिए चर्चित श्रीमती दिनेशनन्दिनी डालमिया जो एक लम्बे अन्तराल
के बाद साहित्य के क्षेत्र में केवल सक्रिय ही नहीं हुईं बल्कि जिन्होंने एक
के बाद एक रचनाओं की झड़ी लगा रखी है-मेरे लिए वे सिर्फ़ बड़ी बहिन हैं।
आश्चर्य की बात है कि मैंने कभी उनसे साहित्य की बात नहीं की...उनकी
साहित्यिक-संस्था 'ऋचा' में भी कभी शिरकत नहीं की...हम तो जब भी मिलते,
घर-परिवार की बात ही करते। कभी उन्होंने मेरे और राजेन्द्र के सम्बन्धों की
तनातनी में बड़ी बहिन की भूमिका अदा की थी...फिर जैसे उसे स्वीकार कर लिया।
मिलना तो दूर कभी-कभी फ़ोन तक करने में लम्बा अन्तराल पड़ जाता था पर मेरी
आश्वस्ति इसी में थी कि वे हैं।
अब वे नहीं...आज तो उनकी याद, उनका स्नेह ही मेरी धरोहर है।
दूसरा सम्बन्ध है डॉ. संयुक्ता कौशल से जो मेरी बिटिया जैसी ही है। यों परिचय
तो हुआ था 1966 में राजेन्द्र के मार्फत, पर नख से शिख तक आभिजात्य में लिपटा
उसका व्यक्तित्व...हाई-फाई तौर-तरीके...देखकर ही मुझे लगा था कि इससे मेरा
मामला जमेगा नहीं। शुरू में राजेन्द्र ही अधिक निकट भी रहे थे उसके पर कब और
कैसे वह सरककर मुझसे इतने घने रूप में जुड़ गई कि मेरी हारी-बीमारी,
डॉक्टर-बाज़ी की सारी ज़िम्मेदारी उसने सँभाल ली थी। दिल्ली के बाहर,
भाई-बहिनों के घर जाने के अलावा मैं बहुत घूमी नहीं हूँ। यह जानकर बाहर
घुमाने की ज़िम्मेदारी भी जैसे इसी ने ले ली। लद्दाख इसका कार्य-क्षेत्र रहा
है बरसों तक, सो एक बार वह मुझे भी ले गई और पन्द्रह दिनों तक अपने साथ रखकर
इतना घुमाया कि थककर फिर मैंने ही विराम लगा दिया। उसके बाद हम शिलांग
गए...यहाँ तक कि हरिद्वार-ऋषिकेश भी मुझे उसी ने दिखाए। अब तो न घूमने का
शौक़ रहा, न चलने की सामर्थ्य, सो घर ही भला लगता है...डॉक्टर-बाज़ी भी
अपेक्षाकृत कम हो गई सो फ़ोन पर ही बातचीत होती रहती है।
1990 में नीरा और आनन्द अपनी दोनों बेटियों के साथ ब्रसल्स से दिल्ली लौट आए।
नीरा...सुशीला की बेटी यानी मेरी बेटी, पर आनन्द के साथ में दामाद वाला
रिश्ता कभी जोड़ ही नहीं पाई क्योंकि यह सम्बन्ध होने से पहले जब वह सेन्ट
स्टीफेन्स कॉलेज में पढ़ता था तब भी वह कभी-कभी घर आया करता था और मैं उससे
बहुत निकटता महसूस करती थी। उसका पढ़ने का शौक़, विभिन्न विषयों की उसकी
जानकारी...मेरे लिए तो उसकी बातें बहुत-बहुत प्रेरक होती थीं। इन लोगों के
दिल्ली आ जाने से मुझे बहुत राहत मिली ! एक तो इनका घर सबसे पास, दूसरे,
आनन्द बीमारियों और दवाइयों की भी काफ़ी जानकारी रखनेवाला ! कई बार तो अपने
ऑफ़िस के बेहद व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद मुझे लेकर उसे डॉक्टर के पास भी
जाना पड़ा। और सबसे बड़ी बात कि मैं आनन्द के साथ अपना सब कुछ शेयर कर सकती
हूँ...किया भी है। कुछ है उसके व्यक्तित्व में ऐसा कि बच्चों से लेकर बूढ़े
तक सब उसे अपने बहुत निकट पाने लगते हैं !
दिल्ली से बाहर रहनेवालों में गिरिराज किशोर-मीरा भाभी और सुधा
अरोड़ा-जितेन्द्र भाटिया। बरसों से गिरिराजजी और भाभी मुझे कानपुर आने के
स्नेह-सने निमन्त्रण देते रहे हैं पर मैं कभी भी उनके निमन्त्रण का मान नहीं
रख पाई इसलिए थोड़ा रुष्ट, या कहूँ कि खिन्न होकर अब उन्होंने कहना ही बन्द
कर दिया, पर उनकी बातों और मुलाक़ातों में मुझे हमेशा एक गहरे सरोकार का
अहसास मिलता रहा है। सुधा अरोड़ा कब मुझसे इतने गहरे से जुड़ गई, पता ही नहीं
चला। यों परिचय तो बरसों पहले कलकत्ते में ही था पर यह जुड़ाव...बम्बई जाकर
पहले दो दिन और बाद में पूरा एक महीना साथ रहने से घनिष्ठता में बदल गया। साथ
रहने के बाद तो जितेन्द्र भाटिया भी बहत निकट लगने लगे। उनकी
स्पष्टवादिता...उनके व्यक्तित्व की साफगोई और लेखन के प्रति उनका समर्पण। मैं
उन्हें व्यक्तिगत रूप से न भी जानती तो भी कथादेश में छपनेवाले उनके स्तम्भ
'सोचो, साथ क्या जाएगा ?' के कारण मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान रहता।
ये ही हैं वे सम्पर्क-सम्बन्ध और जुड़ाव, फिर वे चाहे परिवारवालों से रहे
हों...छात्राओं से रहे हो...मित्रों, परिचितों या सहकर्मियों से रहे हों, जो
मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सम्बल रहे हैं। जुड़ावहीन ज़िन्दगी ने जहाँ-जहाँ
और जब-जब मुझे तोड़ा, इन सम्बलों ने ही मुझे जैसे जोड़े रखा ज़िन्दगी से भी
और लेखन से भी।
मैं अच्छी तरह जानती हूँ...और यह स्वाभाविक भी है कि अपने निकटतम मित्रों पर
की गई बेहद संक्षिप्त पर मात्र प्रशंसात्मक टिप्पणियों के बाद यह आरोप तो
लगेगा ही कि व्यक्तियों को देखने-परखने का इतना सतही नज़रिया या कि सबके बारे
में बहुत बचा-बचाकर लिखा है मैंने। एक लेखक के लिए इस ठकुर-सुहाती का प्रयोजन
? सबकी मुँहदेखी बातें करने की कौन-सी रणनीति है यह ? इसमें कोई सन्देह नहीं
कि अपने मित्रों पर लिखी गई ये चन्द पंक्तियाँ बड़ी आसानी से ‘ठकुर-सुहाती'
की श्रेणी में डाली जा सकती हैं। लेकिन एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि अपने इस
आत्मकथ्य में अपने मित्रों का व्यक्तित्व-विश्लेषण या छिन्द्रान्वेषण करना
मेरा उद्देश्य क़तई नहीं था वरना इतने वर्षों की निकटता, अनेक घटनाओं और
सन्दर्भो की जानकारी से उनके व्यक्तित्व के उजले-धुंधले पक्ष मेरे सामने भी
उजागर तो हुए ही हैं...पर वह सब तो मेरे कच्चे माल के गोदाम की सामग्री है।
यहाँ तो मैंने केवल उन बिन्दुओं, सम्बन्धों के सकारात्मक पहलुओं और
उपलब्धियों के प्रेरक-प्रसंगों को स्पर्श भर किया है, जहाँ से मेरी रचनात्मक
ऊर्जा ने जाने-अनजाने, प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रस ग्रहण किया है। पुनर्जीवित
होने के इस प्रयास में मन की किसी परत पर चिपका मेरे माली का नुस्खा बराबर
मेरा दिशा-निर्देश करता रहा है।
नहीं जानती तीन साल पहले जो और जिस तरह का सहयोग मिला मुझे उसे किस श्रेणी
में रखू मैं ? सन् 96 से दाहिनी आँख के काले मोतियाबिन्द ने परेशान कर रखा
था...दो साल बाद दिल्ली में ही ऑपरेशन हुआ पर कन्ट्रोल में नहीं आया। तब एक
दिन कलकत्ता से बड़े भाई का फ़ोन आया कि शंकर नेत्रालय में अपॉइन्टमेन्ट ले
लिया है...तम मद्रास पहँचो, मैं कलकत्ता से आता हूँ। तीन-चार दिन तक बराबर
देखने के बाद शंकर नेत्रालयवालों ने फैसला सुनाया एक और ऑपरेशन अनिवार्य
है...पर कुछ दिन मद्रास में रहना होगा। समस्या आई कि कहाँ रहूँगी और देखभाल
के लिए मेरे साथ रहेगा कौन ? तभी दीपा पुरंग (सरयू शर्मा की भांजी जो बचपन
में कभी-कभी सरयू के साथ हमारे यहाँ आया करती थीं) ने अपना घर ही नहीं बल्कि
अपना दिल भी खोल दिया मेरे लिए। पूरा एक कमरा और एक आया सौंपने के बावजूद खुद
समय से मेरी आँख में दवाइयाँ डालती थी...नाश्ते-ख़ाने की व्यवस्था भी बिलकुल
फ़िट। सचमुच बिटिया की उम्रवाली दीपा ने माँ बनकर देखभाल की थी मेरी। दीपा से
तो चलिए परिचय का एक झीना-सा सूत्र था भी पर उसके पति प्रवीण
पुरंग...उन्होंने भी तो कोई कमी नहीं रखी थी देखभाल में। बिना किसी मजबूरी या
घनिष्ठता के लम्बे समय तक ऐसा सहयोग महानगरों के सन्दर्भ में अविश्वसनीय-सा
नहीं लगता है ? जब दीपा ने छोटी बच्ची होने के कारण शुरू में ही शंकर
नेत्रालय तक लाने-ले जाने की अपनी असमर्थता बता दी थी तो मदद के लिए आई पहले
बैंगलोर से मेरी भतीजी मंजु भंडारी और बाद में राजुल पद्मनाभन। अपने दोनों
बच्चों को फ़ाइनल इम्तिहान के बीच छोड़कर बेहद मानसिक तनाव की स्थिति में भी
ऑपरेशन के समय मंजु मेरे साथ थी, पर दूसरे दिन ही मैंने उसे वापस भेजा और तब
हर तीसरे दिन शंकर नेत्रालय ले जाने की जिम्मेदारी राजुल ने सँभाली। राजुल
मद्रास की स्पास्टिक सोसाइटी की बेहद कर्मठ, सक्रिय और समर्पित सदस्या
है...उसका यों हर तीसरे-चौथे दिन काम छोड़कर मुझे लेने आना...दिखाकर फिर दीपा
के यहाँ छोड़ना...पूरे आधे दिन की बर्बादी होती थी उसकी। पर उसके चेहरे पर
कभी शिकन तक नहीं देखी मैंने। कृतज्ञता के बोझ से दबी मैं ही जब-तब कुछ कहती
तो डपट देती मुझे-आप ऐसा सोचती भी क्यों हैं...बिलकुल नहीं सोचेंगी इस तरह।
मुझे सोच से मुक्त करने का उसका और दीपा का हर प्रयास मुझे न जाने कितने
प्रकार के सोच से भर देता-
दुनिया आज भी सुन्दर है...रहने योग्य।
बिना प्रतिदान के भी कितना कुछ मिलता रहा है मुझे लोगों से !
अगर तरह-तरह के संकट आए तो सँभालने के लिए हमेशा दस-दस हाथ भी तो प्रस्तुत
रहे।
इसे ईश्वर की अनुकम्पा के सिवाय और क्या कहूँ !
सो बिना किसी के लिए कुछ किए ही परिवार, परिचितों और मित्रों से मुझे बराबर
जितना और जो कुछ मिलता रहा, उसी के सहारे जैसे-तैसे मेरे लिखने का क्रम चलता
रहा।
दुनिया के सुन्दर और रहने योग्य लगने के साथ ही एक छोटी-सी घटना और जुड़ी हुई
है, जो पढ़नेवाले को तो शायद बहुत ही महत्त्वहीन लगेगी पर यह मेरे मन में कुछ
इस तरह अंकित है कि लिखे बिना मुझसे रहा भी नहीं जाएगा।
एक दिन रात को कोई दस-साढ़े दस बजे हम लोग निर्मलाजी के यहाँ से लौट रहे थे।
गाड़ी टिंकू चला रही थी और उसने अपना पर्स सीट और दरवाजे के बीच फँसाकर रख
दिया था। कुछ दूर चलने पर मैंने टिंकू से कहा कि यह खड़-खड़ की आवाज़ क्यों आ
रही है...लगता है तेरा दरवाज़ा ठीक से बन्द नहीं है। गाड़ी चलाते-चलाते ही
उसने दरवाज़ा खोला और झटके से बन्द कर दिया। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया
कि दरवाज़े से सटाकर रखा हुआ पर्स नीचे गिर पड़ा है। घर जाकर पर्स की तलाश
शुरू हुई। सबसे पहले निर्मलाजी के यहाँ फ़ोन किया...वहाँ से नकारात्मक उत्तर
आने पर एकाएक ख्याल आया कि दरवाज़ा खोलते समय ज़रूर पर्स नीचे गिर गया होगा।
रुपए पैसे तो उसमें ज़्यादा थे नहीं पर उसका आइडेन्टिटी-कार्ड,
लाइब्रेरी-कार्ड, बस-पास और एक कॉलेज की छात्रा के पर्स में जितना भी कुछ
अगड़म-बगड़म भरा रहता है, वह सब तो था ही...सो टिंकू तो बेहद परेशान ! उल्टे
पैरों हम लोग वापस लौटे और अन्दाज़ से जहाँ दरवाज़ा खोला था, वहाँ उतरकर
दूर-दूर तक सारी सड़क छान मारी। वह यूनिवर्सिटी-एरिया था, जहाँ रात को बिलकुल
सन्नाटा ही रहता है सो वैसे तो किसी के उठाकर ले जाने की सम्भावना कम ही थी
पर जब पर्स नहीं मिला तो समझ लिया कि ज़रूर हम जैसा कोई और भी इधर से गुज़रा
होगा और सड़क पर लावारिस से पड़े एक पर्स को देखकर उठा लिया होगा। थक-हारकर
लौट आए पर टिंकू तो बेहद परेशान...फिर सारी चीजें बनवाने की भागदौड़...पर
उपाय ?
कोई तीसरे दिन शाम को नीचे से मकान-मालिक के लड़के ने आवाज़ देकर कहा कि
आंटी, ये ऑटोरिक्शावाला रचना को पछ रहा है। टिंक घर में थी नहीं. सो मैं ही
नीचे उतरी। ऑटोरिक्शा चालक के पूछने पर जब मैंने बताया कि मैं ही रचना की माँ
हूँ तो वह जल्दी से मुड़ा और सामने खड़े ऑटोरिक्शा से एक पर्स लाकर मुझे देते
हुए बोला...कोई तीन दिन पहले रात को मौरिस नगर से गुजरते
हुए मुझे यह पर्स मिला था...इसे सँभाल लीजिए। मैं अवाक-सी उसका मुँह देखती रह
गई तो क्षमा याचना के से स्वर में बोला- 'मैं तो बहुत दूर रहता हूँ और इस बीच
इधर की कोई सवारी ही नहीं मिली तो ला नहीं सका और हाँ, मैंने इसे एक बार
खोलकर भी देखा...सिर्फ इसलिए कि कोई पता मिल जाए तो कम-से-कम इसे ठिकाने पर
तो पहुँचा दूँ...अब आप एक बार इसे खोलकर देख लीजिए कि अन्दर सब ठीक तो है न
?'
'कैसी बात करते हैं आप...जो तीन दिन बाद भी पर्स लाकर देगा वह...।' 'आपकी
बेटी भी हिन्दू-कॉलेज में पढ़ती है...मेरा बेटा भी वहीं से पढ़कर निकला था,
उस नाते तो यह भी मेरी बेटी ही हुई। लेकिन पिता बनने के बावजूद उसका यह आग्रह
बना ही रहा... इसे मेरे सामने ही एक बार खोलकर देख तो ज़रूर लीजिए...मेरा मन
हल्का हो जाएगा।'
मैने हाथ जोड़ दिए... ऐसी बात कहकर क्यों मुझे शर्मिन्दा कर रहे हैं आप ? और
अब आपको ऊपर चलकर मेरे साथ एक कप कॉफ़ी तो ज़रूर पीनी होगी।' 'नहीं-नहीं,
मेरी सवारी बैठी हुई है स्कूटर में...वैसे ही देरी हो गई' और जल्दी से वह
अपने रिक्शा की ओर मुड़ गया। जाते-जाते फिर बोल गया...'तीन दिन तक बच्ची
ज़रूर बहुत परेशान रही होगी...इस देरी के लिए आप उससे मेरी तरफ़ से माफ़ी
ज़रूर माँग लीजिए। और वह चला गया ! मैं कुछ देर तक वहीं जस की तस खड़ी रही।
वह तो चला गया पर जब मैं ऊपर चढ़ी तो उसकी बात...बात से ज़्यादा उसका चेहरा
और चेहरे से ज़्यादा उसका भाव, सब कुछ मेरे साथ ज्यों के त्यों चले आए। नहीं
जानती क्यों ऐसी छोटी-छोटी ( ? ) बातें मैं कभी भुला नहीं पाती...केवल इतना
ही नहीं कि भुला नहीं पाती बल्कि ऐसी ही छोटी-छोटी बातें तो हैं जो ज़िन्दगी
के प्रति मेरी आस्था को बढ़ा देती
सन् '70 तक मेरे चार कहानी-संग्रह आ चुके थे और बिना दीवारों के घर नाम "से
एक नाटक भी, सो मन अब रह-रहकर उपन्यास की ओर दौड़ रहा था। तीन परिवारों में
पल रहे बंटी की विभिन्न मानसिक स्थितियाँ (जिनका उल्लेख मैंने बंटी की
जन्म-पत्री में किया है) मुझे केवल अपनी ओर खींच ही नहीं रही थीं बल्कि
लगातार उनका दबाव मुझ पर बढ़ता जा रहा था और बढ़ते-बढ़ते स्थिति यहाँ तक
पहुँच गई कि वे सारे बंटी अपने-अपने परिवार की सीमाओं को तोड़कर एक सामाजिक
समस्या के रूप में खड़े हो गए। हो सकता है कि इस स्थिति तक पहुँचने में
समानान्तर रूप से चलनेवाला मेरी निजी चेतना का एक अतिरिक्त आयाम भी रहा हो।
टिंकू उस समय कुल नौ वर्ष की थी (बंटी की उम्र की) और राजेन्द्र के साथ रहना
मेरे लिए कठिन से कठिनतर होता जा रहा था। पर जब भी मैं अलग होने की बात
सोचती. टिंक का चेहरा बंटी के चेहरों में जा मिलता और मेरा सारा सोच वहीं
ध्वस्त हो जाता...नहीं-नहीं, मैंने जो सहा, सह लिया लेकिन टिंकू को मैं एक
भरी-पूरी ज़िन्दगी से वंचित नहीं करूंगी। टिंकू को मैंने बंटी तो नहीं बनने
दिया पर उसने मुझे उपन्यास लिखने के लिए एक तरह से विवश ही कर दिया और फिर तो
सारे ही बंटी गड्ड-मड्ड होकर एक नया ही आकार लेने लगे। अब इस आकार को
क़लम-बद्ध करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी पर इसे लिखने के लिए
घर-बाहर की ज़िम्मेदारियों से मुक्त, जैसे निर्विघ्न समय और मानसिक शान्ति की
ज़रूरत थी, वह सब घर में मिल पाना सम्भव ही नहीं था सो एक दिन मन पक्का करके
मैंने प्रिंसिपल से हॉस्टल में एक कमरा माँगा...सामान समेटा और चली आई। डॉ.
शैल कुमारी के बग़लवाला कमरा मिला था मुझे और शैल ने ऐसी मेहमाननवाज़ी की
मेरी कि समय-समय पर चाय-कॉफ़ी के अलावा हॉस्टल की बनी बेस्वाद सब्जियों के
बदले अच्छी सब्ज़ियाँ तक बनाकर खिलाई। पूरे एक महीने तक शैल ने इतना ध्यान
रखा मेरा कि घर की कमी अखरने ही नहीं दी। रूटीन कुछ
यों बना मेरा कि कॉलेज के काम से बचा मेरा सारा समय बंटी और शकुन के साथ ही
बीतने लगा। शनिवार की शाम को मैं घर जाती तो ये साथ ही जाते...सोमवार को
सवेरे में इनके साथ ही वापस लौटती। बृहस्पतिवार को नन्हीं (राजेन्द्र की छोटी
बहिन) टिंकू को लेकर हॉस्टल आती तो दो घंटे में सिर्फ़ उसके साथ गुज़ारती।
तभी एक व्यवधान।
टिंकू मुझसे मिलने आई तो देखा कि उसका घुटना छिला हुआ है। मैंने वैसे ही पूछा
तो दोनों बाँहें मेरे गले में डालकर रो पड़ी... “तुम्हें क्या पड़ी है मेरे
चोट लगने से...तुम अपना बैठकर लिखो।” उसके साथ खेलकर, उसे आइसक्रीम खिलाकर
उसकी मनोदशा तो मैंने उस समय बदल दी पर मेरी मनोदशा पर उसके आँसू जैसे चिपके
ही रह गए। जाने कैसा तो धिक्कार उठा भीतर से कि मैं यहाँ इस काल्पनिक बंटी के
सुख-दुख के साथ तो जी-मर रही हूँ और मेरा असली बंटी मेरे बिना उपेक्षित महसूस
कर रहा है। नहीं, अब और नहीं और नीचे उतरकर मैंने राजेन्द्र को फोन किया कि
मैं कल सामान समेटकर आ रही हूँ तो राजेन्द्र ने मुझे केवल समझाया ही नहीं
बल्कि पूरी तरह कन्विन्स भी कर दिया कि इस समय आ गईं तो इससे बड़ी ग़लती और
कोई नहीं होगी ! टिंकू अपने काका-बुआ के साथ खूब मस्त है, उस समय मुझे देखकर
ज़रा इमोशनल हो गई होगी। काका-बुआ से मिले प्यार की वजह से ही मैं उसे छोड़कर
भी आ सकी थी और यह तो मैं भी अच्छी तरह जानती थी कि वह भी उन दोनों से बहुत
जुड़ी हुई है...फिर मेरी अनुपस्थिति में नन्हीं (बुआ) उसकी पूरी तरह देखभाल
करती थी...पर फिर भी उस दिन के आँसुओं ने मुझे कुछ समय के लिए तो बुरी तरह
डिगा ही दिया। बाद में तो मैंने भी महसूस किया कि यदि उस समय मैं घर चली जाती
तो पूरी तरह ग्रिप में आया हुआ यह उपन्यास फिसल जाता और फिर कभी न लिखा जाता।
महिला होने के नाते मुझे बाहर के किसी संकट या व्यवधान का कभी कोई सामना नहीं
करना पड़ा, पर इस आन्तरिक संकट को क्या कहा जाए ? जहाँ तक सोचती हूँ, हर
लेखिका को कभी न कभी, किसी न किसी स्तर पर इस तरह के आन्तरिक संकट से तो
ज़रूर ही गुज़रना पड़ता होगा।
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