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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


अक्षर में जो कुछ घटा उसके पहले कमलेश्वरजी सारिका की सम्पादकी सँभालकर बम्बई चले गए थे, पर इस पूरे प्रसंग के साथ वे पूरी तरह जुड़े हुए ज़रूर थे और जवाहर भाई के साथ केवल उनके सम्पर्क-सम्बन्ध ही नहीं बने हुए थे बल्कि वे समय-समय पर सलाह-सुझाव देकर उनका मार्ग-दर्शन भी करते रहते थे। कमलेश्वरजी और राकेशजी राजेन्द्र के मित्र होने के बावजूद इस पूरे प्रसंग में जवाहर जी के साथ खड़े थे...यह मेरे लिए दुख या आश्चर्य से ज़्यादा शोध का विषय था। क्या है राजेन्द्र के व्यक्तित्व में ऐसा...उनका घुन्नापन...उनके व्यक्तित्व की गाँठे या कुछ और जिसके चलते उनके घनिष्ठ-से-घनिष्ठ मित्र भी एक समय के बाद या तो उनसे बिलकुल अलग हो गए या अलग न भी हुए तो मन में दूरी और खटास तो आ ही गई। ऐसी मित्रताओं का एक पूरा सिलसिला है। राकेशजी, कमलेश्वरजी, राजेन्द्र अवस्थी, शानी, शर्मा जी-कुछ नाम और भी हैं पर मुझे यहाँ उनकी फेहरिस्त नहीं बनानी। और यह भी मैं जानती हूँ कि कुछ-न-कुछ कारण तो दूसरी तरफ़ भी रहते ही होंगे फिर भी राजेन्द्र के अपने व्यक्तित्व में ज़रूर कुछ ऐसा है जो इन टूटती दोस्तियों के लिए जिम्मेदार है। क्या है वह, यह विश्लेषण की माँग करता है। आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि व्यक्ति-विश्लेषण में पारंगत राजेन्द्र ने अपने आत्मकथ्य मुड़-मुड़के देखता हूँ में कई जगह अपना विश्लेषण किया है पर इस प्रसंग को तो छुआ तक नहीं। मुश्किल यह है कि इनकी नज़र प्रेमिकाओं पर से हटती तो ये कुछ और प्रसंग भी समेट पाते ! खैर, छोड़िए इस बात को।

राजेन्द्र और राकेशजी की मित्रता तनाव से गुज़रते हुए कुछ ही सालों में ऐसी कटुता में बदल गई कि आख़िर एक दिन उन्होंने घर आकर (राजेन्द्र के पैर में चोट लगी हुई थी वरना यह मुलाक़ात निश्चित रूप से कहीं बाहर ही होती) अपना यह फैसला सुनाया कि अब उनके लिए राजेन्द्र से दुआ-सलाम का सम्बन्ध रखना भी सम्भव नहीं है। वैसे काफ़ी लम्बी बैठक हुई थी यह लेकिन मुझे कमरे से बाहर करके। बाहर रहकर भी मुझे अनुमान तो था कि दोनों ओर से गिले-शिकवे के, आरोप-प्रत्यारोपों के न जाने कितने खाते खुले होंगे लेकिन मैं उस समय यह नहीं
जान पाई थी कि आखिर वह मूल मुद्दा क्या था जो दोनों की प्रगाढ़ मित्रता को अलगाव के इस बिन्दु तक ले आया था। कमरे से बाहर निकलकर राकेशजी सीधे मेरे पास आए, मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कुछ देर चुप रहे थे, जैसे शब्द टटोल रहे हों। अन्त में कुछ भावुक होते हुए उन्होंने कहा-

"राजेन्द्र और मैं अलग हो गए हैं, असह्य हो गया था यह सब कुछ। अब अगर मैं तुमसे भी मिलूँगा तो यह शायद राजेन्द्र को अच्छा नहीं लगेगा और मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से तुम लोगों के आपसी सम्बन्धों में कोई तनाव आए। मैं तुमसे मिलूँ या न मिलूँ पर तुम कम से कम मुझे कभी गलत नहीं समझोगी। तुम्हारे लिए मेरे मन में हमेशा बहुत स्नेह रहा है और वह हमेशा रहेगा।"

मैंने एक बार भी नहीं पूछा कि क्या है 'वह सब' जो असह्य हो गया है। मैं तो बस गौर से उनका चेहरा देख रही थी-इतनी पुरानी और घनिष्ठ मित्रता के पूरी तरह टूट जाने की तकलीफ़ उनके चेहरे पर थी या कि बेहद कटु हो आए सम्बन्धों से मुक्ति पा लेने की निश्चिन्तता, तय कर पाना मुश्किल था और मैं सोच रही थी कि एक ही क्षेत्र में बराबरी की टक्कर के साहित्यकार क्या दूर रहकर ही पास बने रह सकते हैं ? पास आते ही उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ...उनके अहं का टकराव उन्हें दूर ला पटकता है ! उस समय मेरे भीतर चाहे कुछ भी गुज़र रहा हो, बाहर से सारी बात को हल्का-फुल्का बनाने के उद्देश्य से मैंने हँसकर यही कहा था-

“आप दोनों की कुट्टी हुई है तो हम क्यों नहीं मिलेंगे...हम तो बराबर मिलेंगे। अब राजेन्द्र के मित्रों से मित्रता और शत्रुओं से शत्रुता करती फिरूँ, यह तो मेरे लिए बिलकुल भी संभव नहीं है। मेरा अपना कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है क्या ? और राजेन्द्र भी इतने संकीर्ण नहीं हैं कि उन्हें मेरा आपसे मिलना बुरा लगे।"

हमने हाथ मिलाया था और मैं उन्हें छोड़ने नीचे तक गई थी।

ऊपर लौटी तो एक अजीब-सी खिन्नता...अकेलेपन के एक अजीब-से बोध ने मुझे घेर लिया। शादी करके जब पहली बार दिल्ली आई थी तो तीन-चार लोग ही तो साहित्यिक परिवार के रूप में मिले थे और मुझे लगा था, यही मेरा असली परिवार है...इन्हीं के बीच रहकर मुझे अपनी मनचाही ज़िन्दगी जीनी है। लेकिन यह परिवार तो इतनी जल्दी तितर-बितर हो गया और वह भी इतने मनोमालिन्य के साथ। खैर, मैं उनसे मिलती रही, फ़ोन करके राजेन्द्र की अनुपस्थिति में वे भी दो-चार बार घर आए। वैसे तो मैं ही उनके घर जाती थी पर कभी-कभी हम बाहर भी मिलते थे, फिर भी कुछ अन्तर तो आया ही था। विधा तो मेरी भी वही थी पर सच बात तो यह थी कि मैं इन तीनों की साहित्यिक राजनीति में बराबरी की तो क्या, कच्ची गोटी की हैसियत भी नहीं रखती थी...उनके आदेश निर्देश और महत्त्वाकांक्षी योजनाओं में मेरी उपस्थिति के किसी भी तरह बाधक होने का प्रश्न ही नहीं था, क्या इसीलिए मेरे प्रति उनका स्नेह बराबर बना रहा ? जो भी हो इन तीनों के आपसी सम्बन्धों के ग्राफ़ भले ही जब-तब बनते-बिगड़ते रहे हों, पर इन दोनों से मिला स्नेह...इनकी बातें-बहसें भारी संकट के दिनों में भी मुझे लिखने के लिए बराबर उकसाती-प्रेरित करती रही थीं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारी मुलाक़ातों पर राजेन्द्र के मन में कभी कोई सलवट नहीं पड़ी पर उन दोनों ने अपने-अपने लिए जो लक्ष्मण-रेखा खींच ली थी, उसे कभी नहीं तोड़ा। लेकिन मैं उस दिन की भी गवाह हूँ जिस दिन सवेरे-सवेरे एक आघात की तरह राकेशजी की आकस्मिक मृत्यु का समाचार पढ़कर पलंग पर औंधे लेटकर राजेन्द्र इस तरह फूट-फूटकर रोए थे मानो मन का कोई बहुत ही नाज़ुक-सा तार टूट गया हो। इस तरह तो इन्हें मैंने अपनी माँ और बहिन की मृत्य पर भी रोते नहीं देखा था। कौन-से थे वे तार जिन्होंने इनको कहीं बहुत गहरे से जोड़ रखा था और कौन-से थे वे तनाव जिन्होंने इन दोनों को अलग ले जाकर पटक दिया था ?

उस समय तो अलगाव की स्थितियाँ मेरे सामने बिलकुल स्पष्ट नहीं थी...बस, कुछ अनुमान मात्र था पर समय के साथ-साथ कुछ बातें ज़रूर मेरी जानकारी में आई (या कि उन पर मेरा ध्यान ही बाद में गया) और फिर तो उनकी कड़ियाँ जुड़ती चली गईं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब तक राजेन्द्र और राकेशजी के बीच बाहरी दूरियाँ थीं-यानी कि दोनों अलग-अलग शहरों में रहते थे-इनके मन बेहद जुड़े हुए थे। अपनत्व, आत्मीयता, स्नेह, ऊष्मा क्या कुछ नहीं था दोनों के बीच लेकिन जैसे ही बाहरी दूरियाँ सिमटी, ये एक शहर में रहने लगे तो प्रतिस्पर्धा के थपेड़ों से मन अलग होते चले गए। सन् 64 में हम लोग दिल्ली आए थे और सन् 65 के दिसम्बर में कलकत्ता के उस भव्य कथा-समारोह में इन तीनों ने एक होकर बड़े योजनाबद्ध तरीके से पुरानी पीढ़ी के कथाकारों को ध्वस्त करने का काम किया। उस समय तक तीनों के मन में न कोई मतभेद था, न मनोमालिन्य। हाँ, यह अलग बात है कि वक्तृता-कला में माहिर होने के कारण समारोह में झंडा राकेशजी और कमलेश्वरजी ने ही गाड़ा था। (राजेन्द्र उस समय तक भाषण देने की कला में काफ़ी पिलपिले थे-इसे तो इन्होंने बहुत बाद में साधा और अब तो इसे पूरे दम-खम के साथ साध लिया है। पुरानी पीढ़ी के सामने अपनी पीढ़ी का वर्चस्व सिद्ध करने के बाद बिना शब्दों के...बड़े नामालूम ढंग से प्रतिस्पर्धा शुरू हुई अपना वर्चस्व सिद्ध करने की और तभी से मनों में दरार पड़ने का सिलसिला शुरू हुआ !

राजपाल एंड सन्स ने राजेन्द्र से नए कहानीकारों की श्रेष्ठ कहानियों की एक 'सीरीज़ सम्पादित करने को कहा ! बस, इन्हें जैसे एक अवसर मिल गया। कमलेश्वरजी तो सन् 66 में ही सारिका की सम्पादकी सँभालकर बम्बई चले गए-जिसकी भूमिका उस कथा-समारोह में ही पूरी तरह तैयार कर ली गई थी...दिल्ली में रह गए थे राजेन्द्र और राकेशजी। कोई आश्चर्य नहीं कि कथा-समारोह में राकेशजी के धुआँधार भाषणों ने जहाँ राजेन्द्र के मन में एक हीनता-जनित कुंठा पैदा की हो वहीं राकेशजी अपनी पीढ़ी के साथ-साथ अपना वर्चस्व भी स्वतःसिद्ध मान बैठे हों। लेकिन राजेन्द्र भाषण चाहे न दे पाए हों पर किसी का भी वर्चस्व स्वीकार करना तो इनके अहं को गवारा ही न था। राजेन्द्र ने प्रकट रूप से चाहे राकेशजी का वर्चस्व स्वीकार न किया हो लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी सफलता...दिन-ब-दिन फैलता उनका यश, उनके सम्पर्क-सम्बन्ध और उनके व्यक्तित्व की कुछ विशेषताओं के चलते वे धीरे-धीरे, अनचाहे ही राजेन्द्र का कॉम्पलेक्स बनते चले गए। यह तो हंस की सफलता से मिले यश, सम्मान और प्रतिष्ठा ने इनके व्यक्तित्व की अनेक ऐसी गाँठों को खोला, जिन्होंने इनके व्यक्तित्व के कुछ हिस्सों को जटिल, दुरूह और विकृत बना रखा था। लेकिन उस समय तो इनका कुंठित मन ऐसी ही हरकत कर सकता था, जैसी इन्होंने की। राकेशजी की कहानियों के संकलन की भूमिका में यह स्थापित करने की कोशिश की कि उनकी कहानियों में नया कुछ नहीं है बल्कि उनमें तो पुरानी पीढ़ी की कहानियों का ही निखरा, सँवरा, उत्कृष्टतम रूप देखा जा सकता है। अपनी बात स्पष्ट करने के लिए बेहतर यही होगा कि मैं उस छोटी-सी भूमिका से ही चुनकर कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर दूँ। भूमिका शुरू ही होती है इन पंक्तियों से-

“सुनते हैं पुरानी कहानी के एक सन्त ने यूनानी शाहजहाँ के अन्दाज़ से चादरा कन्धे पर डालकर पूछा- 'बताइए मोहन राकेश की कहानियों को आप कैसे नई कहानी कहते हैं ?' मुझे नहीं मालूम कि श्रोता ने क्या उत्तर दिया लेकिन यह बात सच है कि यशपाल और अश्क की संवेदना का पाठक राकेश की कहानियों को अपने उतना ही निकट पाता है, जितना नई कहानी का पाठक....परम्परागत कहानी के शिल्प और शैली में उसने प्रयोग नहीं, परिमार्जन किए हैं। उसने नया शिल्प, नई भाषा या नया कथ्य कम खोजा है, जो कुछ था, उसे ही नया सँवार (फ़िनिश), नए अर्थ और नई गहराइयाँ दी हैं...वह पात्र और परिस्थिति की सार्थक स्थिति को पकड़कर परफैक्ट-शास्त्रीय दृष्टि से निर्दोष कहानी खड़ी कर देता है और इस सार्थक स्थिति के रेशे युगबोध के गतिशील परिप्रेक्ष्य में दूर तक देखे जा सकते हैं। अपने 'पुरानेपन' के बावजूद वह सजग और समर्थ कथाकार है..."

कहानियों की सारी प्रशंसा के वावजूद उनके पुरानेपन को रेखांकित करने के लिए ही राजेन्द्र ने शायद पुरानेपन शब्द को इनवर्टेड कॉमा में लिखा और कहानियों को शास्त्रीय दृष्टि से निर्दोष माना।

कल्पना कीजिए कि क्या प्रतिक्रिया हुई होगी राकेशजी की इस भूमिका पर। तिलमिलाकर रह गए होंगे। स्वाभाविक भी था। कहाँ तो वे अपने को नई कहानी का प्रमुख स्तम्भ माने बैठे थे और कहाँ राजेन्द्र ने उन्हें वहाँ से उखाड़कर पुराने कहानीकारों के खेमे में ढकेल दिया। इसके मूल में राजेन्द्र की अपनी कुंठा के सिवाय और कुछ नहीं था क्योंकि उन दिनों इनका कुंठित व्यक्तित्व अपने प्रतिद्वन्द्वी के सबसे नाजुक स्थल पर इस तरह के निर्मम प्रहार करने में एक ख़ास तरह का सख और सन्तोष पाता था। वरना उस समय से लेकर आज तक अनेक पाठकों और आलोचकों ने खुले मन से राकेशजी की कहानियों की सराहना ही नहीं की, बल्कि कुछ की तो यह राय भी है कि कहानी-कला की दृष्टि से इस तिकड़ी में राकेशजी की कहानियाँ ही इक्कीस ठहरती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यहाँ मतभेद हो सकते हैं और होंगे भी ज़रूर क्योंकि यह बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहती हूँ कि चाहे विषय की विविधता हो या संवेदना की गहराई या फिर शिल्प की तराश, किस दृष्टि से इन्हें राजेन्द्र की कहानियों से अलगाया जा सकता है ? वैसे तो सभी कहानीकारों की कहानियाँ एक दूसरे से अलग तो होती हैं...होनी भी चाहिए। यहाँ बात है सिर्फ जीवन-दृष्टि और मूल संवेदना की। हाँ, राकेशजी की कहानियों की संख्या ज़रूर राजेन्द्र की कहानियों से कम है...दूसरे जहाँ तक मेरी जानकारी है, उन्होंने कभी भी राजेन्द्र की आरम्भिक कहानियों जैसे भौंडे और बचकाने शिल्पगत प्रयोग नहीं किए। न तो इस तरह के प्रयोग ‘नए' का निकष बन सकते हैं और न ही परिमाण या संख्या श्रेष्ठता की कसौटी। नयापन तो होता है आपके नज़रिए में...आपके मूल्यबोध में...आपकी संवेदना में !

इस बात की पूरी सम्भावना है कि हंस के चलते राजेन्द्र के मित्रों, परिचितों, पाठकों और चहेतों का जो एक बहुत बड़ा समुदाय तैयार हुआ है...उसके गले मेरी बात न उतरे, बहुत स्वाभाविक भी है पर उन्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि हंस की सफलता, उससे मिलनेवाले यश, सम्मान और अर्थ ने राजेन्द्र का पूरी तरह कायाकल्प कर दिया है। बेहद विस्फारित अहं वाले राजेन्द्र एक जमाने में हर उस व्यक्ति पर चोट करने से बाज नहीं आते थे, जिसके अस्तित्वमात्र से ही उनके अहं को चोट लगती थी।

अब राकेशजी को भी इस प्रहार का प्रतिकार तो करना ही था-सो किया, लेकिन न बोलकर न लिखकर पर बेहद सट्ल तरीके से और उपयुक्त अवसर आने पर। राकेशजी के व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं में से एक यह भी थी कि योजनाएँ तो वे भी बनाते थे-अपने को जमाने के लिए तो कभी-कभी दूसरे को उखाड़ने के लिए भी, पर उनको कार्यान्वित बड़ी शालीनता, बड़ी व्यवहारकुशलता के साथ करते थे। उनमें अपने को लेकर न किसी तरह का बड़बोलापन था...न दूसरों पर क़लम या ज़बान से कीचड़ उछालने की वृत्ति, पर अपनी योजना को सफलतापूर्वक उसकी अन्तिम परिणति तक ले जाने का कौशल उनमें गज़ब का था।

दिल्ली आते ही राजेन्द्र ने जवाहरजी के साथ मिलकर अक्षर प्रकाशन की योजना बनाना शुरू कर दिया था और साल बीतते न बीतते उसकी स्थापना भी हो गई। उस समय एक अटूट विश्वास के साथ जवाहरजी और राजेन्द्र साथ-साथ थे और राकेशजी और कमलेश्वरजी अलग-थलग। मैं नहीं जानती कि योजना बनाने के दौरान राजेन्द्र ने किस हद तक इन दोनों को इसमें भागीदार बनाया था (क्योंकि राजेन्द्र के स्वभाव में एक ख़ास तरह का घुन्नापन जो है) पर अक्षर की स्थापना के बाद तो इन दोनों का इसमें कोई महत्त्वपूर्ण वजूद बचा ही नहीं, सिवाय वहाँ शाम को होनेवाली बैठकों में उपस्थित होने के। कोई आश्चर्य नहीं कि बिलकुल अलग-थलग रह जाने की कोई हल्की-सी कचोट इनके मन में तभी से उभरी भी...लेकिन उसे इन्होंने कभी भी व्यक्त नहीं होने दिया...न बातों में, न व्यवहार में। इतना ही नहीं बल्कि दोनों ने अपनी एक-एक किताब पहले ही सेट में छपने को भी दी थी। (हो सकता है कि मेरा यह अनुमान बिलकुल आधारहीन ही हो पर बाद की स्थितियों ने तो इसकी पुष्टि ही की।) देखते ही देखते अक्षर प्रकाशन ने आशा से अधिक ख्याति अर्जित कर ली। पर ऐसी संस्थाएँ ख्याति से नहीं, पैसे से चलती हैं और क्या कहा जाए राजेन्द्र और जवाहरजी की व्यावहारिक और व्यावसायिक बुद्धि को जिन्होंने अपना पहला सेट ही कर्जे से छापा। और एक बार कर्जे का जो यह सिलसिला शुरू हुआ तो फिर वह बढ़ता ही चला गया। किताबों का चुनाव अच्छा था...छपाई और गेट-अप बहुत अच्छा था पर बिक्री का कोई ऐसा नेटवर्क तो तैयार हुआ नहीं था जो किताबें बेचकर तुरन्त पैसा वसूल कर ले...यों भी उसमें तो समय लगता ही है। इधर अक्षर की ख्याति से बेहद प्रफुल्लित जवाहरजी बहुत उत्साह में थे और नए प्रकाशनों के लिए उनकी पैसे की माँग बढ़ती ही जा रही थी, पर इधर राजेन्द्र अपने सारे साधन निचुड़ जाने के कारण उसे पूरा करने में बिलकुल असमर्थ थे। और राजेन्द्र के साधन भी क्या थे...मित्रों, परिचितों से माँग-माँगकर ही तो पैसा इकट्ठा किया था। अपनी माँग पूरी न होने के कारण जवाहरजी के मन में असन्तोष उभरना शुरू हुआ। बस, यही उपयुक्त और अनुकूल अवसर था राकेशजी के लिए अपने पर किए गए प्रहार के प्रतिकार का और उन्होंने बहुत ही कौशल के साथ जवाहरजी के इस असन्तोष को तरह-तरह के सन्देहों और आशंकाओं से भर दिया। ओमप्रकाशजी के राजकमल से बाहर कर दिए जाने की घटना ताजा-ताजा थी, जिसने इस अवसर को अचूक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके मन में यह बात बिठाई जाने लगी कि किसी भी संस्था में वर्चस्व तो हमेशा पैसा लगानेवाले या पैसे का प्रबन्ध करनेवाले व्यक्ति का ही होता है...खून-पसीना बहानेवाले को तो वह जब चाहे निकाल बाहर कर सकता है, जैसे ओमप्रकाशजी को कर दिया गया।

देखते ही देखते यह बात विश्वास बनकर जवाहरजी के मन में बैठ गई और उन्हें लगने लगा कि राजेन्द्र के रहते अक्षर में उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है और फिर तो उनका व्यवहार राजेन्द्र के साथ केवल रूखा ही नहीं बल्कि कभी-कभी बहुत अपमानजनक भी होने लगा। धीरे-धीरे स्थितियाँ बद से बदतर होती चली गईं। अक्षर शुरू करते समय जिस अटूट विश्वास के साथ जवाहरजी राजेन्द्र के साथ खड़े थे, आज वे उसी अटूट विश्वास के साथ राकेशजी और कमलेश्वरजी के साथ खड़े थे और राजेन्द्र अलग-थलग। (वैसे तो कमलेश्वरजी उस समय वम्बई में थे पर वहाँ रहते हुए भी राकेशजी के साथ मिलकर जवाहरजी का मार्गदर्शन कर रहे थे।) कुछ ही सालों बाद लगा कि दोनों का साथ चल पाना अब सम्भव ही नहीं है तो अन्ततः श्री विष्णु प्रभाकर और श्री नेमिचन्द जैन की मध्यस्थता में फैसला हुआ। बातें तो बहुत हुई होंगी-वे सब तो मुझे मालूम भी नहीं पर निर्णय यही निकला कि या तो अब राजेन्द्र पूरी तरह अक्षर ले लें या फिर इसे पूरी तरह जवाहरजी को सौंप दें। इसके साथ ही लेन-देन की बातें भी तय हुई ही होंगी। उम्मीद ही नहीं, पूरा विश्वास था कि अब अक्षर पूरी तरह जवाहरजी के हाथ में आ जाएगा (और यह तो निश्चित था कि उसके बाद इसमें राकेशजी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती) क्योंकि राजेन्द्र किताबें छापें, बेचें, ऑफ़िस की सारी व्यवस्था करें और हिसाब-किताब देखें...यह सब उनके बस की बात हो ही नहीं सकती। ये लोग चाहते भी यही थे और सारी योजना भी इसी हिसाब से बनी थी पर अक्षर को पूरी तरह अपने पास रखने के राजेन्द्र के फैसले ने सारा पासा ही पलट दिया !

पासा भले ही पलट दिया हो पर राजेन्द्र भी कुछ सालों तक कैसे-कैसे संकट से गुज़रे हैं, उस सबकी में साक्षी भी रही हूँ और उसके परिणाम की भोक्ता भी। बिना किसी सहयोग, समझ, अनुभव और रुचि के एक व्यावसायिक संस्थान चलाना...रात-दिन पढ़ने-लिखने की दुनिया में रहनेवाले व्यक्ति के लिए उससे कटकर रहना भी कम तकलीफ़देह तो नहीं था। और आर्थिक संकट ! अक्षर का ढेर सारा क़र्ज़ और हमारी सारी किताबें अक्षर में, जहाँ से रॉयल्टी मिलने का कोई सवाल ही नहीं।

सार-संक्षेप यह कि इन्होंने राकेशजी को नई कहानी से अपदस्थ किया तो उन्होंने इन्हें पढ़ने-लिखने की दुनिया से ही अपदस्थ कर दिया-हिसाब बराबर ! यों तो छोटे-मोटे कारण और भी रहे ही होंगे पर जहाँ तक मेरा ख़याल और जानकारी है, मुख्य रूप से इन दो बातों ने ही इनकी मित्रता को ऐसे बिन्दु पर ला खड़ा किया कि दुआ-सलाम करना भी सम्भव नहीं रहा। जहाँ तक इनको गहरे से जोड़नेवाले तारों की बातें हैं, एक-दूसरे पर निर्भर करने के प्रसंग हैं. वे तो जग-जाहिर हैं। मैंने उन्हें केवल महसूस ही नहीं किया, देखा भी है।

राजेन्द्र के लिए वे काफ़ी संकट के दिन थे। आर्थिक संकट के बीच बिना रुचि और अनुभव के अक्षर को चलाना इनकी मजबूरी थी क्योंकि अलगाव के समय अक्षर को अपने पास रखने का निर्णय इन्होंने खुद लिया था, चाहे एक चुनौती की तरह ही सही, अब उस चनौती का सामना तो करना ही था-इधर कहानी को साहित्य की केन्द्रीय विधा बनानेवाली नई कहानी' स्वयं हाशिये में जा पड़ी थी। यों ‘सचेतन कहानी', 'अकहानी' जैसे छिटपुट आन्दोलन भी चले लेकिन उनका न तो कोई वैचारिक आधार था, न ही उनके झंडे के नीचे ऐसी सर्जनात्मक प्रतिभाएँ थीं जो अपनी और अपने आन्दोलन की विशिष्ट पहचान बना सकतीं। लेकिन तेज़ी से उभर आई नई पीढ़ी के कुछ प्रतिभाशाली कथाकार-बिना किसी आन्दोलन का नाम लिये (जिन्हें साठोत्तरी पीढ़ी के नाम से ही जाना गया) अपनी नई संवेदना, नई भाषा-शैली, नए तेवर और जीवन-जगत को देखने-समझने के नए नज़रिए के कारण कहानी के क्षेत्र में छा गए। इनमें प्रमुख थे ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, विजयमोहन सिंह, दूधनाथ सिंह आदि और फिर तो यह सूची बढ़ती ही चली गई। स्थिति को समझकर राकेशजी तो नाटक के क्षेत्र में चले गए। कुछ वर्ष पूर्व लिखा गया उनका आषाढ़ का एक दिन नाटक ख्याति प्राप्त कर संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हो चुका था, अब वे आधे-अधूरे की रचना में जुट गए थे, जिसके प्रकाशित और मंचित होते ही वे शोहरत के शीर्ष पर जा बैठे।

कमलेश्वरजी सारिका के सम्पादक होकर उसी महत्त्व और प्रतिष्ठा का उपभोग कर रहे थे, जैसी राजेन्द्र बीस-पन्द्रह वर्षों से हंस के सम्पादक होकर भोग रहे हैं। वैसे कमलेश्वरजी ने समानान्तर कहानी का एक सुर्रा भी छोड़ा था, पर वह चल नहीं पाया। भारती जी ने तो काफ़ी पहले से इस पद पर बैठकर धर्मयुग के साथ-साथ अपने नाम के आगे भी चाँद-तारे टाँग लिये थे। लिखने को राजेन्द्र भी कहानी, उपन्यास, सामयिक समस्याओं पर छिटपुट लेख लिखते रहते थे पर असलियत यह थी कि प्रतिष्ठा और शोहरत हो या रचनात्मक योगदान, सभी दृष्टि से अपने को पिछड़ा हुआ महसूस कर रहे थे। अपनी प्रतिभा, क्षमता, योग्यता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त होने के बावजूद इस स्थिति के कारण वे बेहद फ्रस्ट्रेटेड महसूस करते थे और जब-तब इसका दंश मुझे ही झेलना पड़ता था। कारण कुछ भी हो, कहीं भी हो, कठघरे में तो मुझे ही खड़ा किया जाता था और बिना शब्दों के प्रहार करने की कला से मैं चाहे कितनी ही अनभिज्ञ होऊँ, आहत तो होती ही थी। इन्हें कभी घर (जिसे मेरे साथ नत्थी करके इन्होंने अपने को सब प्रकार की ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर रखा था) दमघोंटू लगता था तो कभी विवाहित जीवन से मेरी अपेक्षाएँ जकड़न-भरी, जिसके नीचे इनकी रचनात्मक ऊर्जा सूखती जा रही थी।

इनका तर्क था कि अपनी रचनात्मक ऊर्जा को बचाने-बढ़ाने के लिए यदि किसी लेखक की ‘लेखकीय अनिवार्यताओं' की संख्या बढ़ती है, उसमें इज़ाफ़ा होता है तो वह कहाँ गलत है...क्यों गलत है ? उसे एक सामान्य आदमी की कसौटी पर कसना और उससे वैसी ही अपेक्षाएँ करना क्या उसके साथ ज़्यादती नहीं ? अगर वह समाज का एक विशिष्ट व्यक्ति है तो उसके विचार, उसका सोच और उसकी जीवन-पद्धति भी तो विशिष्ट ही होगी। राजेन्द्र की शिकायत या कहूँ कि तकलीफ़ ही इस बात को लेकर थी कि मैं उन्हें एक सामान्य आदमी के गज़ से नापकर क्यों हमेशा गलत सिद्ध करती रहती हूँ। पर अपने को विशिष्ट माननेवाले राजेन्द्र की धारणा पत्नी की भूमिका के बारे में विशिष्ट ही नहीं, सचमुच चौंकानेवाली थी। इनके हिसाब से पत्नी को एक नर्स की भाँति होना चाहिए जो सिर्फ पति की सेवा करे, बदले में उससे अपेक्षा कुछ न करे। अपनी इस धारणा को राजेन्द्र ने धर्मयुग में प्रकाशित एक परिचर्चा में “पत्नी को एक नर्स की भाँति होना चाहिए' शीर्षक से निःसंकोच भाव से व्यक्त भी किया था। मैं सोचा करती थी कि स्त्री-विमर्श का झंडा उठानेवाले...गला फाड़-फाड़कर उन्हें बराबरी का दर्जा देने की पैरवी करनेवाले पुरुषों का असली रूप यह ? या कि अपनी पत्नी को अपवाद मानकर ही ये सारी गर्जनाएँ-तर्जनाएँ की जाती हैं ? जो भी हो, ऐसे इनकी विशिष्टता की माँग पर मेरा एक ही तर्क था कि व्यक्ति को फिर अपनी ज़िन्दगी का पैटर्न भी विशिष्ट ही रखना चाहिए था। शादी...बच्चा ये तो एक बहुत ही सामान्य आदमी की ज़िन्दगी का पैटर्न है। ग़लती तो इनसे हो गई थी पर अब ये भरसक उसका प्रतिकार करने में लगे हुए थे। प्रतिकार का एक सीधा, सरलऔर ईमानदार रास्ता तो यही था कि ये मुझे छोड़ देते और घर से अलग हो जाते, लेकिन मुश्किल यह थी कि घर से मिलनेवाली सुविधाओं की...जो भी, जैसी भी...इन्हें आदत हो गई थी। और क्योंकि उन सुविधाओं का जुगाड़ तो मैं ही करती थी सो न ये घर से अलग हो पाते थे...न ही मुझे छोड़ पाते थे ! हाँ, प्रतिकार के और जितने भी रास्ते हो सकते थे, वे सब ज़रूर अपना रखे थे।

मेरी बात तो छोड़ दीजिए, मैं खुद मान लेती हूँ कि मेरी कई गलतियाँ होंगी...पर टिंकू तो इन आरोपों से मुक्त थी और उसे ये बहुत प्यार भी करते थे। कोई सात-आठ साल की उम्र में उसे तीसरी बार मीजल्स निकली। मैं परेशान कि इसे बार-बार मीज़ल्स निकल आती है। तब मुझे हमारी मकान-मालकिन ने बताया कि पार्क के दूसरी तरफ़ ही होमियोपैथ डॉक्टर रहता है, उसे दिखाओ। वह ऐसी दवाई देगा कि एक ही बार में सारा रोग बाहर निकल आएगा। टिंकू को लेकर मैं डॉक्टर के पास गई, उन्होंने मात्र एक खुराक दी और कहा कि कल सवेरे तक इसकी सारी छाती और चेहरा दानों से भर जाएगा-घबराना मत। सवेरे दूसरी दवाई ले जाना, वह धीरे-धीरे सब साफ़ कर देगी। दूसरे दिन उसकी जो हालत हुई, उसे देखकर मैं तो सकते में आ गई। ताँबई रंग का उसका सूजा हुआ चेहरा...उसकी बेचेनी। उस हालत में उसे ले जाने का तो प्रश्न ही नहीं, मैं उसे छोड़कर भी नहीं जा सकती थी। नहा-धोकर राजेन्द्र कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। मैंने इनसे कहा कि पहले टिंकू की दवाई दे जाएँ, फिर कहीं जाएँ तो इन्होंने कहा कि साहित्य अकादमी की एक बहुत ही ज़रूरी मीटिंग है, मैं वैसे ही लेट हो गया हूँ, कुसुम स्कूल से आए तो तुम उससे दवाई मँगवा लेना। मैं बुरी तरह भन्ना गई...बच्ची की ऐसी हालत देखकर भी इन्हें न कोई परेशानी हो रही है, न चिन्ता...इन्हें साहित्य अकादमी की मीटिंग ज़्यादा ज़रूरी लग रही है। मैं तो किसी पड़ोसी के बच्चे की भी ऐसी हालत देख लूँ तो पहले डॉक्टर बुलाने चली जाऊँ, सामने ही तो जाना था, कोई दूर भी नहीं। पर राजेन्द्र के लिए अपनी बच्ची से मीटिंग ज़्यादा ज़रूरी थी और वे चले गए। संयोग की बात कि कोई घंटे डेढ़-घंटे बाद राकेशजी का फ़ोन आया-मैंने बता दिया कि राजेन्द्र तो साहित्य अकादमी की मीटिंग में गए हैं। सुनते ही उधर से राकेशजी भन्नाने लगे-“ये हमेशा इसी तरह डिच करता है-जब एक
बार तय हो गया था कि साहित्य अकादमी का बायकॉट करना है तो फिर ये वहाँ क्यों गया ? साथ बैठकर एक फैसला किया और फिर चुपचाप वहाँ पहुँच गया...” और भी जाने क्या-क्या कहते रहे राकेशजी। मैं तो खुद ही परेशान बैठी थी, उनसे क्या कहती ? वैसे भी इन लोगों के ये दंद-फंद मेरी समझ में नहीं आते थे...कब किससे कटते थे...कब किससे जुड़ते थे। मैं तो कुसुमजी का इन्तज़ार कर रही थी और यही चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं बस के कारण उन्हें आने में देर हो गई और डॉक्टर निकल गया तो बच्ची को इसी हालत में सारे दिन छटपटाते रहना पड़ेगा। जैसे ही कुसुमजी आईं उलटे पैरों मैंने उन्हें दौड़ा दिया। लेकिन बात का क्लाइमेक्स तो अभी होना था।

कोई चार-पाँच बजे उषा प्रियंवदा का फ़ोन आया। (तब तक राजेन्द्र ने एक बार भी फ़ोन करके टिंकू की हालत जानने की कोशिश तक नहीं की थी।) वे उन दिनों भारत आई हुई थीं और उन्हें लेकर साहित्यकारों में थोड़ी हलचल तो थी ही। उन्होंने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा-"राजेन्द्र जी ने बताया कि बच्ची की बीमारी की वजह से आप सवेरे राजेन्द्र जी के साथ नहीं आ सकीं-आतीं तो आपसे भी मिलना हो जाता।'' मैं तो अवाक् पर जल्दी ही अपने को सहज बनाकर कहा कि इच्छा तो मेरी भी बहुत थी, पर मजबूरी। राजेन्द्र घर में नहीं हैं, यह सुनकर वे बोलीं कि आने पर कह दीजिए कि गलती से मैंने उन्हें किसी और का पेन दे दिया, उनके लिए जो लाई थी, वह मेरे ही पास रह गया...इस पेन को वे काम में न लें। उषा के साथ तो खैर मैंने बिलकुल सहज-स्वाभाविक ढंग से बात कर ली पर फ़ोन के बाद की मेरी मनोदशा...लाख कोशिश करके भी मैं उसे शब्दों में नहीं बाँध सकूँगी। तो झूठ बोलकर राजेन्द्र उषा से मिलने गए...झूठ तो खैर ये सारी ज़िन्दगी मुझसे बोलते ही रहे हैं पर बच्ची को इस हालत में छोड़कर ? उषा तो अभी कुछ दिन रहनेवाली थीं, फिर कभी मिल लेते। पिता तो बाद की बात है...पहला प्रश्न तो उठा-ये इन्सान भी हैं ? आज जिस टिंकू पर ये इतना निर्भर करते हैं...जो इन्हें अपना एकमात्र सहारा दिखाई देती है, कभी पीछे मुड़कर देखें तो कि उसके जन्म से लेकर उसके पालने-पोसने में क्या किया इन्होंने...कौन-सा संकट झेला ? (पर पीछे मुड़कर देखने में तो इन्हें सिर्फ अपनी प्रेमिकाएँ दिखाई देती हैं...उस दौरान ज़िन्दगी में टिंकू कभी रही हो तो दिखाई दे।) बहरहाल छोड़िए, इस तरह की त्रासद स्थितियों को याद न करना ही बेहतर है।

जब ये लौटे तो मैंने बेहद ठंडी, सर्द आवाज़ में इन्हें उषा का सन्देश दे दिया। उस समय इनका चेहरा देखने लायक था। ठीक इसी तरह नन्ही (राजेन्द्र की सबसे छोटी बहिन) को 106° बखार होने पर इन्होंने जो किया अजितजी गवाह हैं उसके तो। ऐसी घटनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास, पर मुझे इनके ख़िलाफ़ शिकायतों का कोई खरा नहीं खोलना, मुझे तो इनकी 'विशिष्ट' जीवन-पद्धति का एक उदाहरण-भर पेश करना है। पर जब-जब इस तरह की कोई घटना घटती, मैं सोचती-क्या सभी रचनाकार अपने परिवार के प्रति ऐसी ही गैर-ज़िम्मेदाराना, क्रूर हरक़तें करते हैं ? जहाँ तक मैं जानती हूँ ऐसा है नहीं। यह तो राजेन्द्र के मन में मुझे लेकर जितनी कुंठाएँ जमी हुई थीं उसी का परिणाम था जिसे परिवार को भोगना पड़ता था-फिर वह चाहे बेटी हो, चाहे बहिन-मैं तो भोगने के लिए अभिशप्त थी ही और अपने इसी तरह के कुकर्मों को राजेन्द्र विशिष्ट जीवन-पद्धति की आड में...रचनात्मकता की आड में तर्कसंगत ही नहीं जायज भी ठहराते थे। वरना परिवार के बाहर किसी के दख-दर्द, हारी-बीमारी और तकलीफ़-जरूरत में भागीदारी करने को सदैव तत्पर रहते समय यह विशिष्ट जीवन या रचनात्मकता आड़े क्यों नहीं आती ? कितनी विचित्र बात है कि अब मेरे अलग हो जाने के बावजूद मेरे हर संकट के समय हाज़िर हो जाते हैं...कोई मदद चाहिए तो तुरन्त तत्पर। मालूम होता कि अलग होने के बाद इतना ख़याल रखने लगेंगे तो मैं बहुत पहले ही अलग हो जाती। खैर, बहुत लम्बा खिंच गया यह प्रसंग-उद्देश्य और कुछ नहीं, केवल अपने से अलग रखकर, बहुत तटस्थ होकर एक व्यक्ति को समझने का प्रयास भर।

कमलेश्वरजी सारिका की सम्पादकी सँभालकर बम्बई चले गए थे और राकेशजी "के साथ सम्बन्ध तनाव की स्थिति से गुज़रते हुए पूरी तरह समाप्त हो गए थे सो अब गप्प-गोष्ठी और मिल बैठने के लोग भी बदल गए थे और स्थान भी। यों इन सबका सिलसिला शुरू तो पहले से ही हो गया था पर अब तो जैसे ये केन्द्र में ही आ गए। सबसे अधिक दिलचस्प, प्रेरक और उन्मुक्त बहसें होती थीं विश्वविद्यालयी-गढ़ मॉडल टाउन में स्नेहजी-अजितजी के यहाँ, जहाँ कभी उनके साहित्यिक मित्र तो कभी उनके विश्वविद्यालयी मित्र जमे ही रहते थे। लेकिन जब केवल हमारे दल के लोग होते तो न विषय की कोई सीमा होती, न औपचारिकता का कोई अंकुश। मुझे याद नहीं कि यहाँ कभी नई कहानी की तिकड़ी की तरह भविष्य की योजनाएँ बनी हों। यहाँ तो बात-बहस की....जिसमें कभी-कभी गरमा-गरमी भी खूब हो जाती थी..हँसे-खिलखिलाए, खाया-पिया और उठे तो उस दिन की बातों का प्रसंग वहीं समाप्त। कभी-कभी ज़रूर बहसें अगली बैठकों तक भी चालू रहती थीं, लेकिन वे सिर्फ़ बहसें होती थीं, योजनाएँ नहीं। कारण, सबकी विधाएँ अलग-अलग थी...सबके क्षेत्र अलग-अलग...इसलिए न किसी की महत्वाकांक्षा किसी से टकराती थी, न अपना वर्चस्व सिद्ध करने की ललक दूसरे के भीतर प्रतिरोध पैदा करती थी। ऐसा नहीं कि गलतियाँ या गलतफ़हमियाँ होती नहीं थीं पर साथ बैठकर जल्दी ही साफ़-सफ़ाई भी हो जाती थी।

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