जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
कुछ दिन आगरा रहकर 1964 जून में हम लोग दिल्ली आए, जुलाई में मकान मिला और
कॉलेज शुरू करने के एक महीने बाद ही मुझे बच्ची को सुशीला के पास कलकत्ता भेज
देना पड़ा। स्कूल में उसका नाम तो रजिस्टर करवा दिया पर एडमिशन चार वर्ष पूरे
होने पर ही हो सकता था और वह तीन साल की ही थी। कलकत्ते की तरह यहाँ आया का
जुगाड़ ही नहीं हो सका था। यों एक नौकर तो था...उसे अकेले खेलते रहने की आदत
भी थी और वह खेलती भी रहती थी। फिर भी राजेन्द्र को लगता था कि उसकी उपस्थिति
मात्र से उनके काम में व्यवधान पड़ता है। सच पूछा जाए तो व्यवधान तो किसी तरह
का नहीं पड़ता था और अब तो वह बड़ी भी हो गई थी, उसका ऐसा कोई काम भी नहीं
होता था, जो राजेन्द्र को करना पड़ता...पर इनकी तो वही कंठा ! मैं नौकरी करने
जाऊँगी और वे बच्ची को लेकर घर में रहेंगे तो उनके लेखक-मित्र यही तो समझेंगे
कि ये तो बच्ची की आयागिरी कर रहे हैं, जो इन्हें किसी भी...किसी भी सूरत में
बर्दाश्त नहीं था। कई बार मन होता कि पूलूं कि माँ अगर बच्चे को रखे तो माँ
और अगर बाप बच्चे को रखे तो वह बाप न होकर आया कैसे हो गया ? पर जानती थी कि
इनसे कुछ भी कहना, सुनना, पूछना अब बेकार है। बस, इन्हें इस स्थिति से उबारने
का मेरे पास एक ही रास्ता था कि मैं इसे वापस कलकत्ता भेज दूं। सो तीन साल की
उस नन्ही-सी जान को मैंने वापस कलकत्ता भेज दिया और वह चुपचाप चली भी गई।
लेकिन एयरपोर्ट पर सुशीला के देवर की गोद में चढ़े-चढ़े अन्दर जाने से पहले
जब उसने कुछ-कुछ अँसुवाई आँखों से अपने नन्हे-नन्हे हाथ हिलाकर बाय-बाय किया
तो राजेन्द्र वहीं फूटकर रो भी पड़े थे। प्यार तो बहुत था उससे लेकिन प्यार
का एक भार भी होता है, एक दायित्व भी होता है, यह तो राजेन्द्र ने कभी जाना
ही नहीं। जो भी हो, अब तो वह जा चुकी थी और इस बार तो वह लम्बे समय के लिए
चली गई थी।
जन्म से लेकर चार साल की उम्र तक जिस तरह टिंकू की शंटिंग मेरे और सुशीला के
घरों के बीच बराबर होती रही थी-कुछ सालों बाद उसका एक बड़ा ही विचित्र-सा
प्रसंग (नहीं जानती कि इसे महत्त्वपूर्ण कहूँ या मनोरंजक लेकिन यह सच है कि
एक बार तो इसने मेरे मन को-चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही आहत भी ज़रूर किया
था) सामने आया। उस समय टिंकू छठी क्लास में पढ़ रही थी। एक दिन इसकी स्कूल-बस
नियत समय के एक-डेढ़ घंटे बाद तक नहीं आई तो मैं बेहद परेशान हो उठी। बार-बार
स्कूल फ़ोन करती पर छुट्टी हो जाने के बाद ऑफ़िस तो बन्द हो चुका था सो फ़ोन
कौन उठाता। घर के पीछे ही इसकी क्लास की एक लड़की रहती थी ऋतु भटनागर...सो
मैं वहीं चली गई। आश्चर्य हुआ कि मिसेज़ भटनागर तो न चिन्तित, न परेशान !
बड़े निश्चिन्त भाव से बोलीं- “हो गया होगा कुछ, आ जाएगी...आप क्यों परेशान
हो रही हैं इतना ? याद नहीं, अभी कुछ दिन पहले ही स्पोर्ट्स के चक्कर में
स्कूल से ही देर से निकले थे बच्चे ?" उनकी निश्चिन्तता देखकर मैं अपनी
चिन्ता पर शर्मिन्दगी का बोझ और लाद लाई। क्यों मैं ज़रा-ज़रा-सी बात पर इतनी
टेंस हो जाती हूँ...क्यों स्थिति को उसके सहज रूप में नहीं ले पाती। सारी बात
को दिमाग से परे सरकाने के लिए मैंने एक किताब उठा ली पर मन था कि तरह-तरह की
आशंकाओं के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता रहा...केवल आशंकाएँ ही नहीं, उनके
काल्पनिक चित्र भी मँडराते रहे आँखों के सामने। जब एक घंटा और बीत गया तब तो
मेरे सब्र का बाँध ही टूट गया। मैं फिर मिसेज़ भटनागर के पास चली गई कि यदि
उनके पास प्रिंसिपल के घर का नम्बर हो तो उनसे बात की जाए। अगर कुछ अनहोनी
घटी होगी तो उन्हें तो सूचना मिली ही होगी। नम्बर तो नहीं पर इस बार थोड़ी-सी
परेशानी के बावजूद
वे मुझे सान्त्वना ज़रूर देने लगीं-“अच्छा, अब आप इधर ही बैठिए, बातों में
कुछ मन ही बहला रहेगा वरना वहाँ बैठे-बैठे आप चिन्ता करती रहेंगी। और सोचिए,
हम कर ही क्या सकते हैं सिवाय इन्तज़ार करने के।" बात तो ठीक थी पर पता नहीं
क्यों मैं फिर भी सहज नहीं हो पा रही थी। कुछ देर तक परेशानी में लिपटा मेरा
चेहरा देखते रहने के बाद अचानक उन्होंने एक ऐसा प्रश्न पूछा कि मैं तो हतप्रभ
!
“एक बात बताइए मिसेज़ भंडारी। आप तो रचना की इतनी चिन्ता कर रही हैं...इतनी
परेशान हो रही हैं उसे लेकर...पर जब रचना कह देती है कि 'ये मेरी असली ममी
नहीं हैं...मेरी असली ममी तो कलकत्ता रहती हैं तो आपको बुरा तो बहुत लगता
होगा ?"
मैं हैरान...अवाक् ! उस परेशानी के क्षण में भी एक बार तो मुझे हँसी आ गई-
“क्या कहती है टिंकू ? कब कहा ये सब उसने आपसे ?''
उन्होंने बड़े सहज भाव से बताया- “हमने उससे एक बार ऐसे ही पूछा कि तुम हर
गर्मी की छुट्टी में कलकत्ता जाती हो, वहाँ कौन है तुम्हारा ? तभी उसने यह
बात बताई थी कि 'मेरी असली ममी तो कलकत्ता ही रहती हैं, मैं उन्हीं के पास तो
जाती हूँ।''
वे सोच रही थीं कि यह सब सुनकर मैं बहुत दुखी हो जाऊँगी पर मुझे हँसता देखकर
शायद अब उन्हें आश्चर्य हो रहा था। खैर, मैंने उन्हें सारी असलियत
बताई...टिंकू के इस सोच की पृष्ठभूमि भी समझाई। वे कुछ और पूछताछ करती कि तभी
ऋतु ने घर में प्रवेश किया। उसे देखते ही मैं तो घर की ओर भागी। टिंकू को
सही-सलामत देखकर राहत की साँस ली। हाथ-मुँह धुलाकर उसे खाने पर बिठाया। वह
खाती जा रही थी और विस्तार से बस के ख़राब होने का क़िस्सा सुनाती जा रही
थी...उसने यह भी बताया कि उस दौरान लड़कियों ने कितनी मस्ती मारी...कितने
गाने गाए...कितनी...। मेरी उस समय की मानसिक स्थिति से बिलकुल अपरिचित वह
अपनी ही बातें किए जा रही थी...और मैं एकटक उसका चेहरा देख रही थी और सोच रही
थी कि जो कुछ भी अभी सुनकर आई, उस पर कैसे विश्वास कर लूँ ? इसके व्यवहार से
तो कहीं भी ऐसा कुछ नहीं झलक
रहा...फिर जब उसका खाना-पीना-बोलना समाप्त हो गया तो मैंने उससे पूछा-"टिंक,
तुने मिसेज भटनागर से यह कहा कि तेरी असली ममी मैं नहीं. सुशीला है ?"
पूछा तो मैंने हँसकर ही था पर लगा कि सुनकर वह थोड़ी सकपका-सी गई....हो सकता
है कि वह नहीं चाहती हो कि यह बात मुझे मालूम पड़े पर फिर बड़ी लापरवाही से
उसने जवाब दिया-
"तो क्या हुआ...ठीक ही तो कहा ! सुशीला ममी ही तो हमारी असली ममी है।"
"किसने कहा तुझे यह सब ?"
"तुमने नहीं बताया तो क्या हुआ...हमें सब पता है।"
दोनों बाँहों में पकड़कर मैंने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा- “पागल हो गई
है...अरे मैंने जनम दिया है तुझे..मैं हूँ तेरी असली माँ। हाँ, यह सही है कि
चार साल तक सुशीला ने तुझे बहुत रखा है...। बहुत पाला है लेकिन फिर भी ममी तो
मैं ही हूँ तेरी।"
पता नहीं, मेरी आवाज़ में कुछ था या कि मेरे चेहरे पर कि कुछ देर तक तो वह
मुझे एकटक देखती रही फिर झटके से अपने दोनों हाथ छुड़ाकर मेरे कन्धों पर
टिकाए और कुछ आवेश-भरी आवाज़ में पूछने लगी- ''हमे सच-सच बताओ, कौन है हमारी
असली ममी ?"
उसकी परेशानी से बिलकुल अनछुई-सी मने फिर दोहरा दिया...कहा तो कि में हूँ
तेरी असली ममी।
अपनी जानकारी और मेरी बात के बीच में झुलते हुए उसने एक बार फिर आग्रह
किया-"हमें ठीक से बताओ न ममी ?"
एकाएक ही मेरा ध्यान उसकी परेशानी पर गया तो उसे सहज बनाने के लिए मैंने
हँसकर कह दिया-“अरे समझ ले कि दोनों तेरी ममियाँ हैं...कितनी लकी है कि तेरें
दो-दो ममियाँ हैं...दो-दो ममियों का प्यार तुझे मिलता है।" बस इतना सुनते ही
वह तो जैसे एकाएक फट पड़ी। मेरे कन्धे झकझोरते हुए, रुआंसी आवाज़ में वह बस
एक ही बात बार-बार दोहराती रही- “हमको सचसच बताओ...हम किसके बच्चे हैं...कौन
है हमारी असली ममी...प्लीज़ हमको
बताओ...हमको सच-सच बताओ कि हम किसके बच्चे हैं...?" कल मात्र ग्यारह साल की
टिंकू, पर उसकी यह भाव-विह्वलता, उसका यह आवेश ! इस सबने तो जैसे मुझे एक
बिलकुल ही अनजान-से प्रश्न के छोर पर ला खड़ा किया। यह भावना कि हम किसके
हैं...हमारी असली जड़ें कहाँ हैं...हमारे जन्म के तार किसके साथ जुड़े हुए
हैं, क्या सचमुच इतनी प्रबल होती है कि हमारे पूरे वजूद को ही हिलाकर रख दे ?
सिद्धान्त के तौर पर शायद जानती भी होऊँ पर ज़िन्दगी में पहली बार उस दिन इस
भावना की सच्चाई को...इसकी गहराई को मैंने...इसकी सघनता को मैंने इतनी शिद्दत
के साथ महसूस किया था। एकाएक मैं अतिरिक्त रूप से सावधान हो गई ! बहुत प्यार
से, बहुत समझा-बुझाकर, बहुत कुछ कह-सुनकर मैंने उसे शान्त भी किया और असलियत
पर उसका विश्वास भी जमाया। लेकिन रात में जब मैं सोई तो एक प्रश्न ज़रूर मुझे
कचोटने-आहत करने लगा कि क्या मैं टिंकू को वह अपेक्षित प्यार नहीं दे पाई...
उसकी वह अपेक्षित देखभाल नहीं कर पाई जो उसके मन में यह विश्वास जमा पाता कि
मैं ही उसकी असली माँ हूँ। चार साल तक दोनों घरों में होनेवाली शंटिंग के
पीछे मेरी क्या मजबूरी थी, यह सब समझने की तो उसकी उम्र थी नहीं। उसने तो जो
महसूस किया, उसे ही सच समझ लिया। लेकिन जहाँ तक मेरा ख़याल है कि दिल्ली आने
के बाद तीन साल की उम्र में ही जब उसे एक बार फिर कलकत्ता भेज दिया था, सो भी
पूरे दस महीने के लिए, तभी इस भावना ने उसके मन में जड़ जमाई होगी। हालाँकि
इतने वर्षों के उसके सहज-स्वाभाविक व्यवहार....अपने प्रति उसके लगाव को देखते
हुए मैं तो कभी इस बात का अनुमान भी नहीं लगा सकी थी। कारण जो भी रहा हो
लेकिन यह सच है कि उस दिन इस सारी स्थिति ने मुझे बहुत त्रस्त किया
था। सहज-सामान्य स्थिति होने पर ये दो सम्बन्ध ही तो मेरे निकटतम सम्बन्ध
होते-पति और पुत्री...लेकिन एक ने तो मुझे सम्बन्ध शुरू होने के साथ ही
समानान्तर ज़िन्दगी का नुस्खा थमाकर अपने को मुझसे अलग ही कर लिया था...आज
इतने बरसों बाद पता चला कि टिंकू भी मुझे अपनी असली माँ नहीं, पराई माँ ही
माने बैठी है। और इस सच्चाई के सामने आते ही फिर तो मेरा सारा त्रास आँसुओं
में बहने लगा। आज यह सब याद करके भले ही मैं हँसती रहती हूँ...पर उस दिन की
तकलीफ़, उस दिन के आँसू भी तो मैं भूल नहीं पाती।
शुरु के कुछ महीने तो मैं दिल्ली में बहुत उखड़ी-बिखरी रही। बच्ची चली गई
थी...कॉलेज का माहौल भी कलकत्ता से बहुत भिन्न था और बिलकुल रास नहीं आ रहा
था...न वहाँ जैसी ऊष्मा...न वहाँ वालों का अपनत्व। जब-तब राजेन्द्र के दिए
झटकों को झेलने के लिए न किसी का कन्धा, न कोई गोद...लेकिन फिर धीरे-धीरे
यहाँ रचने-बसने लगी। शाम को कॉफ़ी हाउस की बैठकें...वहाँ नहीं जाते तो घरों
में बैठक होती...कभी कमलेश्वरजी के यहाँ तो कभी राकेशजी के यहाँ तो कभी हमारे
यहाँ। पढ़ी-लिखी चीज़ों पर चर्चा होती...भविष्य की योजनाएँ बनाई जातीं। आज भी
मुझे एक घटना अच्छी तरह याद है। 31 दिसम्बर को न्यू-इयर्स-ईव हमारे घर मनाने
का कार्यक्रम बना। ऐन बारह बजे बड़ी मद्धिम रोशनी में कमलेश्वरजी ने अपनी
कहानी तलाश पढ़कर सुनाई (बाद में फिर भी नाम से इस पर फ़िल्म बनी थी-कहानी पर
बलात्कार) और अन्तिम पंक्ति सुनाकर खम ठोककर बोले-“लो मैंने तो नए साल का
झंडा गाड़ दिया...अब इसके मुक़ाबले की कहानी लिखकर दिखाओ।” आधी रात के उस
माहौल में अजीब प्रभाव पड़ा था उस कहानी का। फिर काफ़ी देर तक उस कहानी पर ही
बात होती रही। सारी प्रतिद्वन्द्विता और ईर्ष्या के बावजूद एक दूसरे की
रचनाओं की खुलकर प्रशंसा की जाती थी...हल्की या घटिया होने पर खिंचाई भी
क्योंकि उस समय केन्द्र में रचना रहती थी, व्यक्ति नहीं और दृष्टि बहुत
तटस्थ। गहरे लेखकीय सरोकार थे और वे ही प्रमुख थे। पर बाद में जब इस तिकड़ी
के आपसी सम्बन्धों के समीकरण गड़बड़ाने लगे तो न दृष्टि में वो तटस्थता रही,
न मूल्यांकन में वैसी वस्तुपरकता बल्कि रचनाएँ अब सम्बन्धों की कसौटी पर
आँकी-परखी जाने लगीं। पर शुरू के दिनों में तो अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ भी
सुनाई-सुलझाई जाती थीं। यह बात अलग है कि इन 'व्यक्तिगत' के भी दो हिस्से
होते थे-एक बहुत 'निजी' जिसमें परिवार और आपसी सम्बन्ध ही प्रमुख हुआ करते
थे...लेकिन ये जल्दी ही साझा हो जाती थीं और दूसरी वे व्यक्तिगत जिनका
सम्बन्ध किसी-न-किसी स्तर पर साहित्यिक दुनिया से होता था। ‘साहित्यिक
व्यक्तिगत' को काफ़ी रिज़र्वेशन के साथ ही कहा-सुना-बाँटा जा सकता था और बात
जिस रूप में रखी जाती थी, उसकी असलियत कुछ और ही होती थी, जो अपने निजी स्तर
पर चलती रहती थी, एक-दूसरे की ओट रखकर। ओट के पीछे झाँकना न मेरी आदत थी, न
स्वभाव, न मेरी वैसी समझ थी। राजेन्द्र कभी-कभी उन बातों को समझाते तो मैं
राजेन्द्र पर ही बिगड़ पड़ती कि क्यों हमेशा सबकी बातों के अर्थ तलाशते रहते
हो...सबकी नीयत पर शक करते हो। लिखते हुए मुझे भी कुछ वर्ष हो चुके थे। दो
कहानी-संग्रह छप चुके थे-यश और मान्यता भी मिल चुकी थी लेकिन कलकत्ते में
साहित्यकारों के बीच रहने का अवसर कभी नहीं मिला था। वहाँ तो हमेशा संग-साथ
रहा था परिवारवालों का या ऐसे मित्रों का जिनका व्यक्तित्व बिलकुल
पारदर्शी-जैसे बाहर वैसे भीतर...जो कहें वही उनका असली मन्तव्य भी। यह तो
यहाँ आकर जाना कि साहित्यकार केवल अनेकार्थी भाषा का ही प्रयोग नहीं करते,
उनका सारा आचरण भी अनेकार्थी, अनेक-परतीय होता है। एक छोटे-से उदाहरण से अपनी
बात साफ़ करूँगी।
कलकत्ता छोड़ने से पहले ही राजेन्द्र ने नई कहानी की विशेषताओं और पुरानी से
उसके अलगाव को रेखांकित करते हुए एक विस्तृत लेख लिखा था। नई कहानी के एक-एक
पक्ष को उजागर करता, ऐसा विस्तृत और विश्लेषणात्मक लेख यह पहला ही था
(हालाँकि, इसकी कुछ स्थापनाओं से बाद में मैं भी बिलकुल सहमत नहीं हो पाई
थी)। बाईस कहानीकारों की चुनिन्दा कहानियों की भूमिका के रूप में इसे चस्पा
करके एक दुनिया समानान्तर नाम से राजेन्द्र ने एक संकलन तैयार किया था और
उसके लिए ज्ञानपीठ वालों से बात भी कर ली थी...हो सकता है कि कुछ अग्रिम राशि
भी ली हो। दिल्ली आकर थोड़ा जम जाने के बाद उस लेख को कमलेश्वरजी और राकेशजी
को सुनाया दो बैठकों में। कहानियों के नामों की चटाइयाँ बुननेवाले बचकाने
पैरेग्राफों और कुछ छिटपुट बातों को छोड़कर मोटे तौर पर लेख दोनों को काफी
पसन्द आया और तय हुआ कि इस पर विस्तार से चर्चा बाद में की जाएगी-थोड़ा
सोचने-विचारने के बाद। बात लाज़मी भी थी लेकिन कुछ दिनों बाद एक दिन दोनों
बेहद गम्भीर मुद्रा में आए बल्कि कहूँ कि बेहद परेशान...विचलित से।
प्रसंग-तभी उजागर हुआ टाइम्स ऑफ़ इंडिया का रद्दी बेचनेवाला स्कैंडल (आज की
तरह स्कैंडल की भरमार तो थी नहीं, जिसने आदमी को धीरे-धीरे इन सबके प्रति एक
तरह से इम्यून बना दिया है, दूसरे आज यह तथ्य जाहिर है कि सभी पत्र-पत्रिकाएँ
सरकारी कोटे से मिलनेवाले काग़ज़ का हिस्सा बेचती हैं)। लेखक की
नैतिकता...मूल्यों के लिए खड़े होने का दायित्व और इन
सबके प्रति एक गहरा सरोकार दिखाते हुए उन्होंने यह निर्णय लेने का प्रस्ताव
रखा कि जिस संस्था का इतना बड़ा स्कैंडल उजागर हुआ हो उसके साथ कम-से-कम हम
लोगों को कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। ग़लत का केवल विरोध करने भर से
ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती, उससे असहयोग करना भी ज़रूरी है। उनकी अदा,
हाव-भाव और तेवर ने मुझे शत-प्रतिशत इस निर्णय के पक्ष में खड़ा कर दिया।
बड़ी गम्भीरता से बड़ी देर तक बातें होती रहीं और सारी बातों का तोड़ टूटा इस
बात पर कि “राजेन्द्र, तुम अपना यह लेख ज्ञानपीठ को बिलकुल नहीं दोगे...आख़िर
है तो उसी कन्सर्न की शाखा।” राजेन्द्र हस्बमामूल चुप। दो-चार दिन बाद फिर
वही बात...वही आग्रह, कुछ और अधिक गम्भीरता और गहरे सरोकार के साथ। लेकिन
राजेन्द्र थे कि फिर चुप। राजेन्द्र की यह चुप्पी मुझे शुरू से ही बहुत अखर
रही थी। उनके जाने के बाद मैंने पूछा कि आप कुछ कमिट क्यों नहीं करते ? तो
बात की असली परत खोली राजेन्द्र ने“दोनों के दोनों स्साले फ़्लैट पड़े हैं कि
'नई कहानी' पर पहले-पहल मैंने लिख दिया ऐसा विस्तृत लेख...और कुछ नहीं तो इसी
बहाने लगाओ लंगी।" बात सच भी निकली और बाद में तो छत-फोड़ ठहाकों के बीच
उन्होंने भी क़बूला और हँसी-मज़ाक़ में सारी बात रफा-दफ़ा हो गई। दो साल
बीतते न वीतते सम्बन्ध न रखने पर जोर देनेवाले कमलेश्वरजी सारिका की सम्पादकी
सँभालकर बम्बई जा पहुँचे। राकेशजी भी धर्मयुग और सारिका में बराबर छपते रहे।
हाँ, राजेन्द्र ने ज़रूर वह संकलन कुछ समय बाद खोले अपने अक्षर प्रकाशन से
छपवाया, पर इसके पीछे सम्बन्ध न रखनेवाली बात कहीं नहीं थी।
सन् '65 के दिसम्बर में कलकत्ते में एक बड़े ही भव्य कथा-समारोह का आयोजन
"किया गया जिसमें कथा-साहित्य की तीनों पीड़ियों ने शिरकत की थी। इसमें कोई
सन्देह नहीं कि ऐसा समारोह न पहले कभी कहीं हुआ था, न शायद बाद में। आज तो
में बिना किसी संकोच के कह सकती हूँ कि बड़े योजनाबद्ध तरीक़ से पुरानी पीढ़ी
को ध्वस्त करने का काम बीचवाली पीढ़ी (जिसमें प्रमुख थे राकेश, गजेन्द्र और
कमलेश्वर) ने किया था। मैं कुछ कौतूहल से...कुछ अचरज से देखा-सुना करती थी यह
सब। साहित्य में भी राजनीति। विश्वविद्यालय का
हिन्दी-विभाग तो राजनीति का गढ़ था ही, जिसकी झलक कभी सामने रहनेवाले डॉ.
ओमप्रकाश जी, जब-तब घर में प्रकट होकर अपना आक्रोश उगलनेवाले डॉ. उदयभानुसिंह
जी और बाद में बहुत घनिष्ठ हो आईं डॉ. निर्मला जैन से मिलती रहती थी और मुझे
लगता कि संसद-भवन की राजनीति जैसे छनकर दिल्ली के हर क्षेत्र में फैल गई
है-साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं रहे। तब एक मित्र की
टिप्पणी अक्सर याद आती। आज़ादी के बाद छोटे-बड़े हर क्षेत्र में तेजी से
फैलती राजनीति को देखकर उन्होंने कहा था- “नेहरू जी के आह्वान का परिणाम है
यह। आजादी के बाद उन्होंने तो देश के नव-निर्माण और विकास को दृष्टि में रखकर
कहा था कि राजनीति से दूर होकर अब आप सब लोग पूरी लगन और निष्ठा के साथ
अपने-अपने क्षेत्रों में काम करें...सो बड़ी राजनीति से कटकर सब लोग बड़ी लगन
और निष्ठा के साथ अपने-अपने क्षेत्र की राजनीति के साथ जुड़ गए।” बहरहाल समय
के साथ-साथ ये छक्के-पंजे मुझे भी समझ में आने लगे। साहित्य के क्षेत्र में
मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा न हो ऐसी बात तो नहीं थी लेकिन पता नहीं क्यों मुझे
हमेशा लगता रहता था कि मैंने जितना सोचा और चाहा उससे कहीं अधिक मुझे पहले ही
मिल गया। हो सकता है मन की किन्हीं अदृश्य परतों में जमी हीनभावना के कारण
ऐसा लगता हो लेकिन जो भी हो इस हीनभावना ने मुझे हमेशा सीमा में ही रखा।
अच्छा किया, मुझे बेकार की उठापटक, लपक-झपक और हाय-हत्या से बचा लिया। इसी के
चलते न कभी बेकार के दन्द-फन्द में पड़ना पड़ा और न ही जब-तब उपहारों के
पैकेट्स लोगों के पास पहुँचाने पड़े, न अपना पी.आर. फ़िट रखने, पुरस्कारों की
जोड़-तोड़ बिठाने के लिए चाहे-अनचाहे लोगों के पीछे भाग-भागकर अपनी शालीनता
को दाँव पर लगाना पड़ा। अपना प्राप्य न मिलने की शिकायत को लेकर शायद ही कभी
किसी ने मुझे चीखते-चिल्लाते या आँसू बहाते देखा हो।
मित्रों से साधन जुटाकर राजेन्द्र ने जवाहर चौधरी के साथ मिलकर सन् '65 में
अक्षर प्रकाशन की स्थापना की। जवाहर जी को प्रकाशन का पूरा अनुभव था सो यह
ज़िम्मेदारी उन्होंने सँभाली। पैसों की व्यवस्था, लेखकों से सम्पर्क, रचनाओं
का चुनाव राजेन्द्र के जिम्मे रहा, उम्मीद थी कि अपना प्रकाशन होगा तो सब
मित्रों की पुस्तकें वहीं से छपेंगी...प्रकाशकों के चंगुल से मुक्ति मिलेगी
और दिल्ली में जिस स्थायी आर्थिक आधार की ज़रूरत और तलाश राजेन्द्र को कभी से
थी, वह भी बनेगा। पहले सेट में ही प्रमुख रचनाकारों की रचनाएँ और उनका
बेहतरीन प्रोडक्शन...दूसरे और तीसरे सेट भी ऐसे ही निकले और अपने शुरुआत के
दिनों में ही ऐसी धाक जमी अक्षर प्रकाशन की कि हर लेखक कामना करने लगा कि
उसकी पुस्तक वहीं से छपे। राकेशजी, कमलेश्वरजी के साथ घरों या कॉफ़ी हाउस में
होनेवाली गोष्ठियाँ धीरे-धीरे अक्षर में स्थानान्तरित हो गईं और मैं उन सबसे
कटती चली गई। वहाँ तो दिल्ली और दिल्ली के बाहर के लेखक भी आकर जमते और
बहस-मुबाहिसा, गपशप और स्कैंडलबाजी, सब कुछ होता।
अक्षर प्रकाशन की ख्याति-अपना एक निजी ऑफ़िस होने का अहसास, अपनी निजी
वस्तुएँ...पत्र, डायरियाँ सुरक्षित रखने की सुविधा...बिना किसी हिचक और संकोच
के मित्रों-लेखकों से मिलने के अवसर-छोटी-मोटी कठिनाइयों के बावजूद आरम्भ के
दो वर्ष राजेन्द्र के लिए बड़े सन्तोष के वर्ष थे पर यह सिलसिला ज़्यादा दिन
नहीं चला। चलना सम्भव भी नहीं था। जो थोड़ी-सी जमा-पूँजी इकट्ठी की थी,
क्योंकि अधिक की तो सामर्थ्य ही नहीं थी, आरम्भिक ख़र्चों और शुरू की टीम-टाम
में ही ख़र्च हो गई। इसलिए पहला सेट छापने में ही क़र्जा लेना पड़ा और कर्जे
का यह सिलसिला जो शुरू हुआ तो बढ़ता ही चला गया। निरन्तर बढ़ते हुए क़र्ज़ का
जो हश्र होना था आख़िर वही हुआ-दिन-ब-दिन बढ़ता आर्थिक संकट और अर्थ की छुरी
से पारस्परिक सद्भावना और सम्बन्धों के रेशों के कटते चले
जाने का अनवरत सिलसिला, अक्षर शुरू करने से पहले जो आस्था, जो अटूट विश्वास
राजेन्द्र और जवाहरजी के मन में एक-दूसरे के लिए था...देखते ही देखते वह
सन्देह और आशंकाओं से भरता चला गया। और क्योंकि अर्थ की अधिकतर व्यवस्था
राजेन्द्र ने ही की थी इसलिए वहत सम्भव है कि जवाहरजी के मन में अपनी स्थिति
को लेकर एक असुरक्षा की भावना घर करने लगी हो। इस भावना को पुख्ता करने के
लिए राजकमल से ओमप्रकाशजी को अलग कर दिए जानेवाली घटना तो सामने थी ही ! फिर
तो इस अनहोनी से बचने के लिए जवाहर जी की ओर से जैसी अतिरिक्त सतर्कता बरती
जाने लगी, राजेन्द्र के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाने लगा उसने अन्ततः
उसी अनहोनी के गड्ढे में ला पटका। परिणाम यह हुआ कि बैंक में मुश्किल से सौ
रुपए और ढेर सारा क़ज़ा-अक्षर की इस स्थिति में जवाहर जी और राजेन्द्र जी अलग
हो गए।
यह एक लम्बी कहानी है और इसमें किसकी क्या-क्या भूमिका रही, इसका अपना एक अलग
ही इतिहास है। बस मेरे लिए तो इस सारे प्रसंग की निपट-नंगी सच्चाई कंवल इतनी
थी कि सबको जोड़ने और एक आर्थिक आधार तैयार करने के उद्देश्य से खोले गए
अक्षर प्रकाशन ने सबके बीच दरारें डाल दी और आर्थिक संकट...जब दूसरों को
रॉयल्टी देने की स्थिति न हो तो अपने लेने का तो सवाल ही नहीं उठता। रॉयल्टी
की आमदनी का एक अनिश्चित ही सही, आधार तो था ही, अब वह भी बन्द।
केवल इतना ही नहीं, सहयोग देने के लिए राजेन्द्र ने अपने सबसे छोटे भाई
हेमेन्द्र को बुला लिया। वे उन दिनों नौकरी की तलाश में ही थे सो आ भी गए।
कुछ समय बाद कुसुमजी की मृत्यु हो जाने के कारण सबसे छोटी बहिन नन्हीं को भी
हॉस्टल से घर ही लाना पड़ा क्योंकि उसके हॉस्टल का खर्चा कुसुम जी ही दिया
करती थीं। उनके जाने के बाद हमारे लिए तो यह सम्भव ही नहीं था...और उसकी
पढ़ाई छुड़ा देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। राजेन्द्र अक्षर से निकालकर
वर-ख़र्च के लिए मुझे थोड़ा-बहुत देते तो थे पर दिल्ली में पाँच प्राणियों के
परिवार को चलाने की सारी ज़िम्मेदारी तो मेरे ऊपर ही थी। में भी करती तो आखिर
क्या करती...अन्ततः मुझे छुट्टियों में क्लास पढ़ाने का काम लेना पड़ा।
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राइवेट पढ़ाई करनेवालों के लिए छुट्टियों
के दिनों में कक्षा की व्यवस्था है। सो होता क्या कि कॉलेज में छुट्टी होती
तो वहाँ पढ़ाने जाती। लिहाज़ा मुझे कभी कोई छुट्टी ही नहीं मिलती। इसके
अतिरिक्त टी.वी. के जितने भी प्रोग्राम मिलते, करती (इधर तो मैंने बरसों से
टी.वी. में जाना ही छोड़ रखा है)। उन दिनों टी.वी. में यहाँ सई परांजपे थीं
और वे मुझे बहुत कार्यक्रम भी देती थीं-यहाँ तक कि एक बार तो कोई राजस्थानी
सब्जी बनाने की विधि का कार्यक्रम भी मैंने किया। आज वह सब याद आने पर भी
हँसी आती है पर उस समय वह मेरी जरूरत थी। बस, एक ही उम्मीद थी कि एक बार
अक्षर अच्छी तरह जम जाएगा तो इस संकट से मुक्ति मिलेगी।
अक्षर की स्थिति यह थी कि लेखकों से सम्पर्क...पुस्तकों का चुनाव तो
राजेन्द्र बखूबी कर लेते थे-छपवाने का काम भी हो जाता था पर असली बात तो थी
उन्हें बेचना...बिक्री का एक ऐसा नेटवर्क तैयार करना जो राजेन्द्र नहीं कर पा
रहे थे। जो किताबें बिकतीं उनका पैसा वसूल करना और भी टेढ़ी खीर था। सो हआ यह
कि लेखकों को रॉयल्टी देने का सिलसिला ही नहीं शुरू हो पाया और फिर आरोपों की
झड़ी। लेखक अपनी जगह बिलकुल सही थे और उनके आरोप बिलकुल जायज़। लेखकों को
प्रकाशकों के चंगुल से-बल्कि कहूँ कि शोषण से मुक्त करने के लिए ही तो अक्षर
खोला था और अब अक्षर ख़ुद क्या कर रहा है ? लेकिन अक्षर के बारे में जो भी
मैं थोड़ा-बहुत जानती थी-क्योंकि राजेन्द्र तो कभी कुछ बताते ही नहीं थे-उससे
यही लगता था कि राजेन्द्र भी आख़िर करें तो क्या करें ? थोक खरीद के लिए या
किताबों को कोर्स में लगवाने के लिए लोगों की खुशामद करना या खिलाना-पिलाना
राजेन्द्र के तो बस का था नहीं...काउंटर-सेल हिन्दी की किताबों की होती नहीं,
तब ? लेकिन प्रकाशक के संकट तो लेखक के दायरे में आते नहीं...उनका सरोकार तो
केवल इतने भर से है कि उनकी किताब छापी...बेची तो उन्हें रॉयल्टी दी जाए ! यह
तो ग़नीमत थी कि अनेक लेखक राजेन्द्र के मित्र थे सो रॉयल्टी की माँग कभी
आग्रह में नहीं बदली। कुछ लेखक ऐसे भी थे जो रॉयल्टी से ज़्यादा इस बात से ही
प्रसन्न थे कि उनकी किताब अक्षर प्रकाशन से छपी क्योंकि आर्थिक पक्ष चाहे
जैसा भी रहा हो पर किताबों का चुनाव और उनकी आकर्षक छपाई के कारण अक्षर ने
अपनी साख तो बना ही ली थी। बहरहाल अक्षर लेने के बाद के कुछ वर्ष सभी दृष्टि
से काफ़ी संकटपूर्ण थे और
उसके आर्थिक पक्ष को प्रत्यक्ष रूप से और दूसरी बातों को परोक्ष रूप से भोगना
तो मुझे ही पड़ता था।
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