जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
उस रात शरीर से कहीं अधिक मन की तकलीफ़ से मैं छटपटाती रही। इसी तरह बच्ची
होने में कुल दो माह रह गए थे, तब भी ये मुझे सुशीला के यहाँ छोड़कर रानीखेत
चले गए। बच्चे के जन्म से सम्बन्धित व्यवस्था ये नहीं कर सकते थे-मैं उसकी
अपेक्षा भी नहीं करती थी, लेकिन पहले बच्चे को लेकर एक उत्साह, एक अपनत्व-भरे
सरोकार की अपेक्षा तो मैं करती ही थी, लेकिन बच्चे के जन्म को ये मेरा काम और
सुशीला की ज़िम्मेदारी समझकर मात्र तटस्थ ही नहीं रहे, बल्कि इस सबसे उदासीन
भी रहे। मेरी डिलीवरी में कुछ परेशानी हो रही थी सो सारे भाई-बहिन परेशान।
आख़िर रात आठ बजे डॉक्टर ने एक इंजेक्शन दिया कि यदि इसके चार घंटे बाद भी
बच्चा पैदा नहीं होता तो फिर सवेरे ऑपरेशन करके बच्चा निकाला जाएगा। उन दिनों
ऑपरेशन आज की तरह आम बात नहीं थी सो वे चार घंटे मेरे परिवारवालों ने बरामदे
में चक्कर लगा-लगाकर ही काटे। लेकिन राजेन्द्र इस सारी स्थिति से एकदम तटस्थ
वहीं पड़ी एक बैच पर खर्राटे भरते रहे। रात ठीक बारह बजकर छह मिनट पर टिंकू
ने सहज-सामान्य ढंग से जन्म ले लिया तो चैन की साँस लेकर सुशीला ने कन्धा
झकझोरकर इन्हें भी उठाया-'अरे बेटी के बाप बन गए हो, अब तो उठो।' (ये सारी
बातें बाद में सुशीला ने ही मुझे बताई थी...आरोप के रूप में नहीं, बल्कि
हँस-हँसकर मज़ाक़िया लहजे में) मेरा बड़ा मन करता था कि कभी तो राजेन्द्र
मेरे पास अकेले में आकर बैठे...बच्ची को देखें, पर नहीं, ये तो मिलने के
निर्धारित समय पर भीड़ के साथ आते थे और भीड़ के साथ ही लौट भी जाते थे। हो
सकता है कि यह तटस्थता...यह उदासीनता भी इनके
तथाकथित ‘आधुनिक-जीवन' के पैटर्न का हिस्सा ही हो। जो भी हो; मेरे लिए तो यह
सारी स्थिति केवल अकल्पनीय ही नहीं, बेहद-बेहद तकलीफ़देह भी थी।
बहरहाल मैं न तो आधुनिक ज़िन्दगी के इस पैटर्न से सहमत हो सकती थी, न ही इस
बँटवारे से। इनके अधिकार-क्षेत्र में हस्तक्षेप तो मैं चाहकर भी नहीं कर पाती
थी पर उसमें झाँकने की हर चेष्टा ज़रूर करती थी जो उन्हें नागवार गुज़रती थी।
प्रतिरोध का तो मेरे पास एक ही हथियार था-मेरी जुबान और आज इसे क़बूल करने
में मुझे कोई संकोच भी नहीं कि उसमें छुरी-काँटे उग आए थे। मैं गुस्से में
भरकर कहनी-अनकहनी सब सुनाती थी, जिसे बिना प्रतिवाद किए राजेन्द्र चुपचाप
सुनते रहते थे। हो सकता है, उस समय वे अपने को एक ऐसे कवच में ढक लेते हों
जिसके परे न मेरा क्रोध पहुँचता था, न मेरी कहनी-अनकहनी बातें। यह भी सम्भव
है कि सारे पैनेपन के बावजूद मेरी बातों की सच्चाई को वे भी महसूस करते हों,
वैसे इसकी सम्भावना कम ही है क्योंकि अपने पक्ष-सही या ग़लत-पर अड़े रहने का
दुराग्रह-भरा हठ राजेन्द्र में तब से लेकर आज तक बराबर देखा जा सकता है-फिर
वे चाहे विचार हों, आचरण हो या ज़िन्दगी का पैटर्न।
तब बार-बार मन में यही उठता था कि क्यों नहीं मैं ही इन समानान्तर
ज़िन्दगियों की छतें भी समानान्तर करके पहलेवाली ज़िन्दगी में लौट जाऊँ ? पर
अपने प्रति हज़ार-हज़ार धिक्कार उठने के बावजूद मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं ले
पाई। क्या मेरी जिन रगों में एक समय खून की जगह लावा बहा करता था, अब पानी
बहने लगा है ? या कि दो वर्ष की मित्रता में मैं राजेन्द्र से इतने गहरे तक
जुड़ गई थी कि उनको नकार देना मुझे अपने आपको नकार देने जैसा लगने लगा
था...या कि पिताजी की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से की हुई इस शादी को मैं
किसी भी कीमत पर असफल नहीं होने देना चाहती थी-चुनौती ही थी यह मेरे लिए एक
तरह से, वरना मेरा उदाहरण दे-देकर शुरू की गई एक सही स्वस्थ परम्परा को ग़लत
सिद्ध करने की कोशिश तो की ही जाती। या यह भी हो सकता है कि मुझे उम्मीद थी
कि मेरा समर्पण एक न एक दिन राजेन्द्र को ज़रूर बदल देगा और बाद में तो टिंकू
भी एक बहुत बड़ा कारण हो गई थी। मैं नहीं जानती कि क्या कारण था...शायद सभी
का मिला-जुला रूप रहा होगा, लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि राजेन्द्र ने
भी अलग होने की दिशा में कभी कोई प्रयास
नहीं किया बल्कि एक-दो बार तो कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं कि स्थिति मेरी सहन-शक्ति
के बाहर हो गई और मैंने अलग होने का निर्णय ले भी लिया तो आँसू भर-भरकर
राजेन्द्र ने अपने को ऐसा कातर बना लिया कि मेरा सारा आक्रोश, सारा संकल्प
उसी में बह गया। अपनी ओर से तो उन्होंने ऐसा क़दम उठाने का कभी संकेत तक नहीं
दिया। इस सारे सन्दर्भ में राजेन्द्र का भी अपना एक पक्ष तो होगा ही...अगर वे
कभी लिखें तो जानती हूँ कि मैं ही अपने को कटघरे में खड़ा पाऊँगी, पर वे शायद
कभी नहीं लिखेंगे। कथाकार को सीधे-सीधे ये बातें लिखनी भी नहीं चाहिए, उसे तो
उनका रचनात्मक उपयोग ही करना चाहिए। पत्नी की लानत-मलामत करके, राजेन्द्र ने
अपनी कुछ कहानियों में किया भी है। इस प्रसंग का स्पर्श तक करने के लिए मुझे
भी कितने ऊहापोह, जद्दोजहद, द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष से गुज़रना पड़ा है, यह
मैं ही जानती हूँ और इसी चक्कर में 1992 में शुरू किया यह आत्मकथ्य
साल-दर-साल स्थगित होता रहा।
बहरहाल ये सब कचोटें, तकलीफें, तनातनी अपनी जगह चल रहे थे और ज़िन्दगी अपनी
जगह-बाहर से सबकुछ सहज-सामान्य दिखाने के प्रयास के साथ। हाँ, लिखने-पढ़ने की
इतनी सुविधाओं के बावजूद इन मानसिक तनावों और भावनात्मक झटकों के कारण मैं
उनका भरपूर उपयोग नहीं कर पा रही थी क्योंकि थोड़ी-सी निश्चिन्तता, थोड़ा-सा
लगाव और सरोकार-भरा सहयोग, थोड़ा-सा तनावमुक्त और बेफिक्की भरा समय तो मुझे
भी अपने लिए चाहिए ही था आख़िर ! फिर भी लिखना उन दिनों मेरे लिए बाद के
दिनों की तरह कष्टसाध्य नहीं था और कम-से-कम इस दिशा में तो राजेन्द्र ज़रूर
प्रोत्साहित करते थे, इसलिए थोड़ा-बहुत लेखन चलता ही रहा, जो भी जैसा भी। और
यह लेखन ही था जो सारे संकटों में भी मुझे थामे रहा।
ज्ञानोदय (कलकत्ता) में धारावाहिक रूप से एक प्रयोगात्मक उपन्यास छपा
"था-ग्यारह सपनों का देश। आरम्भ और समापन एक ही लेखक ने किया था। (जहाँ) तक
मेरा खयाल है, भारतीजी ने) बाक़ी नौ अध्याय अलग-अलग शहरों में रहनेवाले नौ
लेखकों ने लिखे थे। यह प्रयोग बुरी तरह असफल रहा था। विभिन्न लेखकों में कोई
आपसी तालमेल तो था नहीं, इसलिए हर लेखक ने अपने अध्याय में कथानक को मनमाने
ढंग से तोड़ा, मरोड़ा, बढ़ाया। ऐसे प्रयोग का जो हश्र होना था, वही हुआ !
अपने इस प्रयोग की असफलता से श्री लक्ष्मीचन्द जी जैन शायद काफ़ी खिन्न थे,
पर उनके मन में ऐसा ही एक सफल प्रयोग करने की इच्छा ज़रूर कुलबुला रही थी।
बहुत सम्भव है कि इसके चलते ही उनकी नज़र हम दोनों पर टिक गई हो। एक दिन घर
आकर बातों ही बातों में जैन साहब ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न हमलोग मिलकर इस
तरह का एक प्रयोग करें ? साथ रहनेवाले दोनों लेखक यदि कहानी की एक मोटी
रूपरेखा पहले ही तय कर लेंगे तो न तो कथानक को मनमाने ढंग से तोड़ने-मरोड़ने
की गुंजाइश रहेगी, न ही पात्रों को मनमाने ढंग से बनाने-बदलने की...फिर देखिए
कैसा होता है यह प्रयोग ! वे सारी बातचीत में जितने गम्भीर थे उससे कहीं
ज़्यादा उत्सुक कि हम इस प्रस्ताव को स्वीकृत कर लें। थोड़ी-सी बातचीत के बाद
राजेन्द्र तो तैयार भी हो गए...दुविधा थी तो मेरे मन में। घर में तीसरे
प्राणी के आने की सम्भावना के चलते मैं साल भर की यह जिम्मेदारी नहीं ले सकती
थी, सो चुप मार गई। उनके जाते ही राजेन्द्र मेरे पीछे पड़ गए। “इस पर तो बस,
काम शुरू करते हैं...बहुत दिलचस्प रहेगा यह प्रयोग। इस बहाने कम से कम कुछ
लिखना ही शुरू हो जाएगा।” मेरी दुविधा के जवाब में बोले-“अभी तो छह महीने
बाकी हैं...हम इस दौरान ही बारह अध्याय लिख डालेंगे, जिससे इस योजना में कोई
व्यवधान ही न पड़े।"
राजेन्द्र के इस उत्साह के आगे मैंने भी हथियार डाल दिए और तैयार हो गई। यह
आकर्षण तो मेरे मन में भी था ही कि चलो, इस बहाने लिखना शुरू हो जाएगा। अब
समस्या आई कि थीम कौन-सी उठाई जाए ? दो दिन तक हम तरह-तरह की थीम्स पर बात
करते रहे, पर थोड़ी देर तक बहस करने के बाद ये उसे परे सरका देते। मेरी
बताई-सुझाई कहानी राजेन्द्र को पसन्द ही नहीं आती और अपनी ओर से जो थीम
सुझाते उसके साथ यह और जोड़ देते कि “यह थीम है तो बहुत अच्छी पर थोड़ी
पेचदार है, तुम इसका निर्वाह नहीं कर सकोगी। थीम तो हमें ऐसी ही लेनी चाहिए
जिस पर हम दोनों समान रूप से, साधिकार काम कर सकें" और फिर एकाएक जैसे उन्हें
कोई बात अचानक क्लिक की हो... उछलकर बोले-“अरे, तुम्हारा वह अधूरा उपन्यास ले
लेते हैं। इस बहाने एक अच्छी-ख़ासी थीम का उपयोग भी हो जाएगा और तुम इसे
अच्छी तरह सँभाल भी लोगी। मैं इस कहानी को ऐसा नया आयाम दूँगा कि ए-वन
उपन्यास बन जाएगा। (आज तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि राजेन्द्र के दिमाग
में ज़रूर यह बात शुरू से ही रही होगी और इसीलिए वे इस प्रस्ताव के लिए एकदम
तैयार भी हो गए थे) राजेन्द्र की बात सुनते ही मैं तो एकदम बिफ़र गई, “वाह !
यह मेरा अपना उपन्यास है, इसे मैं क्यों दूँगी ?''
“ठीक है मत दो ! पर इतना जान लो कि ठीक-ठाक करके तुम तो इसे फिर से लिखने से
रही...बस इस चक्कर में एक अच्छी-खासी थीम ज़रूर बर्बाद हो जाएगी।"
चेहरे पर लिपटी उनकी आक्रोश-भरी आतुरता ! कुछ देर तक मैं उनका चेहरा देखती
रही। फिर कुछ सोचकर मैंने अपना विरोध समेट लिया। कौन जाने राजेन्द्र का
अनुमान ही सही हो और मैं इसका पुनर्लेखन कर ही न पाऊँ ! मेरी स्वीकृति मिलते
ही राजेन्द्र ने अपना अध्याय भी लिखना शुरू कर दिया। यह हम लोगों के बीच तय
हुआ था कि उपन्यास की शुरुआत राजेन्द्र करेंगे।
और इस तरह एक जनवरी, 1961 से हम दोनों का सहयोगी उपन्यास एक इंच मुस्कान छपना
शुरू हुआ। दूसरा अध्याय मेरा छपा और उसके कुछ दिनों बाद शरद देवड़ा (ज्ञानोदय
के सम्पादक) कुछ पत्र लेकर आए और बोले-“क्या बताऊँ राजेन्द्रजी, पहले अध्याय
पर तो कोई पत्र आए ही नहीं...सिवाय इस प्रयोग को लेकर, अब देखिए, मन्नूजी के
अध्याय पर कितने प्रशंसात्मक पत्र आए हैं," और उन्होंने कुछ पत्र फैला दिए।
मैं तो फूलकर कुप्पा...ज़ोर-ज़ोर से पढ़कर राजेन्द्र को भी सुनाए वे पत्र।
उनके जाने के बाद राजेन्द्र पर भी खूब रौब गाँठा। अब देवड़ाजी का तो यह
स्थायी कार्यक्रम हो गया। वे छाँट-छाँटकर मेरी प्रशंसावाले पत्र लाकर
राजेन्द्र के सामने फैला देते...कुछ छाप भी देते। उनकी इस 'शैतानी' पर
राजेन्द्र जब कुछ प्रतिवाद करते तो बड़ी गम्भीरता से कहते... “अब आप ही बताइए
राजेन्द्रजी, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ...मैंने तो इन्हें लिखा नहीं,
पाठकों के पत्र हैं ये तो।" तब राजेन्द्र भी उतनी ही गम्भीरता से कहते...
“देखो देवड़ा, एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मेरे लेखन में गम्भीरता है, गहराई
है, चिन्तन है...तुम क्या सोचते हो...” बात बीच में ही कहकर देवड़ा
कहते-“देखिए राजेन्द्रजी, सम्पादक हूँ मैं सो मेरा एक ही अनुरोध है आपसे कि
आपका यह चिन्तन पाठकों की चिन्ता न बन जाए कहीं।" और फिर तो एक समवेत ठहाके
में ही इस वार्तालाप का समापन होता !
इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जानने-समझने के बावजूद कि कई लेखक-मित्रों और
सम्पादकों ने राजेन्द्र को छेड़ने का यह एक स्थायी तरीक़ा अपना रखा था...उस
समय तो मैं अपनी प्रशंसा में खूब प्रसन्न होती थी।
असली संकट तो था समय से अध्याय पूरे करने का। सोचा तो यह था कि छह महीने में
ही बारह अध्याय लिखकर रख देंगे, पर स्थिति यह हुई कि देवड़ा की दी हुई तारीख़
भी निकल जाती और अध्याय अधूरा। देवड़ाजी फ़ोन पर फ़ोन करते, घर का चक्कर
लगाते, बाहर निकलने पर जाने कहाँ से प्रकट होकर ऐसे धर-दबोचते कि उन दिनों
हमने उनका नाम ही रख छोड़ा था-पठान ! सचमुच एक पठान की तरह ही वह हमसे अपने
अध्याय वसूलते थे।
बच्चा आगमन से पहले ही बारह अध्याय लिखने का संकल्प जो ध्वस्त हुआ तो अब इस
क्रम को तो बीच में टूटना ही था...सो टूट गया। उस महीने मेरा अध्याय जाना था
पर बच्ची के जन्म के कारण पूरे पृष्ठ पर बधाई के साथ यह सूचना छपी कि एक नई
रचना के जनम के कारण इस बार मन्नूजी की रचना नहीं जा रही है। अपने आप ही
बच्ची का नामकरण सा हो गया-रचना !
वैसे तो ये सारी बातें उपन्यास की भूमिका में सविस्तार लिखी हुई हैं,
पर साल पहले छपे उपन्यास की बातें किसे याद होंगी, और फिर इस उपन्यास
का प्रसंग आया तो लिखना ज़रूरी लगा। साथ ही यह भी...कहना है कि राजेन्द्र और
मेरी भाषा-शैली, नज़रिया और स्तर सब कुछ बिलकुल भिन्न होने के बावजूद यह
प्रयोग काफ़ी सफल रहा और 45 साल बाद भी इसकी रॉयल्टी के चेक बताते हैं कि आज
तक इसकी बिक्री ठीक-ठाक हो रही है।
बच्ची के जन्म से बढ़ी ज़िम्मेदारियों ने, जिसका सारा बोझ भी मुझ पर आ पड़ा
था, पहले बच्चे के जन्म की सारी खुशियों को ही सोख लिया। तभी रानी बिड़ला
कॉलेज नया-नया खुला था और उन्होंने बहुत आग्रह करके मुझे हिन्दी पढ़ाने के
लिए बुलाया। मिस बोस और बालीगंज शिक्षा सदन को छोड़ना...कैसे भावनात्मक
उद्वेलन से गुज़री थी मैं ! फिर भी गई क्योंकि परिस्थितियों के दबाव ने मुझे
मजबूर कर दिया था। बाद में वहाँ का तीन साल का अनुभव ही मिरांडा हाउस की
नियुक्ति में बहुत बड़ा आधार सिद्ध हुआ। लेकिन वे दिन ! नौ साल तक स्कूल में
पढ़ाने के बाद कॉलेज में पढ़ाना...मुझे ठीक उसी तरह तैयारी करनी पड़ती थी,
जैसे एम.ए. करने के समय किया करती थी। पर उससे भी बड़ा संकट था कि आया जब-तब
नागा कर जाती तो समझ ही नहीं आता था कि दो महीने की बच्ची का मैं क्या करूँ ?
उसे देखना न राजेन्द्र के बस का काम था और न ही वे उसके लिए तैयार थे,
क्योंकि उनके मन की असली गाँठ तो यह थी कि मेरे कॉलेज जाने के पीछे अगर
उन्होंने बच्ची को देखा तो वे उसकी आया बनकर रह जाएँगे और उनका अहं उन्हें इस
बात की अनुमति नहीं देता था। हर बार की तरह आख़िर इस संकट से भी सुशीला ने ही
उबारा, पर परिणाम यह हुआ कि तीन साल तक दोनों घरों के बीच लगातार बच्ची की
शंटिंग होती रही।
अजीब संकट के दिन थे। पर सबसे बड़ा संकट था राजेन्द्र के व्यक्तित्व में अपने
अहं की अतिरिक्त चेतना के कारण उभर आई उन गाँठों का, जिसने जीवन की सहज गति
को छेककर रख दिया था। कब किस बात से वे आहत हो जाएँगे, पता ही नहीं चलता।
हँसी-मज़ाक़ में मेरी या दूसरों की कही गई साधारण-सी बातें भी जब-तब उन्हें
अपने आत्मसम्मान पर चोट करती-सी लगतीं और बात बहुत
सोच-समझकर बोलना न मेरा स्वभाव था, न आदत। आज भी नहीं है। अपना गुस्सा या
तकलीफ़ बोलकर व्यक्त करते तो वे भी हल्के होते और मेरे लिए भी स्थिति सहज
होती लेकिन राजेन्द्र तो एकदम गुम्म ! हाँ, उनका चेहरा और उससे भी ज़्यादा
उनका आचरण ज़रूर सब कुछ व्यक्त कर देता और मैं गुमसुम रहनेवाले इस राजेन्द्र
यादव में शादी के पहलेवाले राजेन्द्र को ढूँढ़ती रहती। आज के हँसते-खिलखिलाते
राजेन्द्र को देखकर कोई विश्वास कर सकेगा कि इनकी ज़िन्दगी में ऐसे दौर भी
गुज़रे हैं ? अन्तरंग परिचय से बिलकुल अपरिचय की दुनिया में लौट जाने की यह
तकलीफ़ मेरे लिए बिलकुल असह्य हो उठी थी। सामन्ती संस्कारों से ओत-प्रोत इस
पौरुषीय अहं की कचोट मैं समझती नहीं होऊँ, यह बात नहीं थी, पर उसका निराकरण
मेरे पास नहीं, राजेन्द्र के अपने पास था। लेकिन उस दिशा में उन्होंने कभी
कोई कदम नहीं बढ़ाया और मैं उन्हें मजबूर करना तो क्या, किसी तरह का दबाव भी
नहीं डालना चाहती थी। वरना ज़िन्दगी शुरू करने से पहले ही जब मैं कलकत्ता से
और राजेन्द्र दिल्ली से इलाहाबाद आए थे अश्कजी के बड़े बेटे की शादी में तो
एक अवसर तो थाली में परोसकर उसी समय इनके सामने आया भी था ! सुमित्रानन्दन
पन्त ने इनके पास मौखिक प्रस्ताव भिजवाया था कि उस साल रेडियो में कुछ
नियुक्तियाँ होनी थीं और यदि राजेन्द्र इसके लिए अपनी स्वीकृति देंगे तो
उन्हें अच्छा लगेगा। अश्कजी, राकेशजी सभी ने सलाह दी कि राजेन्द्र को यह काम
ले लेना चाहिए क्योंकि गृहस्थी चलाने के लिए एक नियमित आय होना ज़रूरी है।
कलकत्ता आकर इसी सिलसिले में इन्हें शायद पन्तजी का एक व्यक्तिगत पत्र भी
मिला था, पर अड़चन थी तो केवल इतनी कि इन नियुक्तियों के लिए एक लिखित
परीक्षा देनी होती थी। उसके लिए भी पन्तजी ने इलाहाबाद में ही कह दिया था कि
बस, हॉल में आपकी उपस्थिति लग जाए...बाक़ी कॉपियाँ तो मेरे पास ही आएँगी और
परीक्षा भी आपको कलकत्ता में ही देनी होगी। लेकिन राजेन्द्र को इस उम्र
में...साहित्य के क्षेत्र में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लेने के बाद
यों छात्रों की तरह परीक्षा देना बेहद-बेहद नागवार गुज़र रहा था। फिर भी
परीक्षा के दिन वे सवेरे-सवेरे तैयार हुए। मैं स्कूल जाने लगी तो देखा कि
बेहद अनमने...बेहद खिन्न मन से कुर्सी पर बैठे हैं। पता नहीं किस ऊहापोह की
स्थिति से उस समय गुज़र रहे होंगे। न इन्होंने मुझसे कुछ
कहा और न मैंने और मैं चुपचाप स्कूल के लिए निकल गई। पर पता नहीं क्यों मुझे
लग गया था कि अन्ततः ये नहीं जाएँगे और मेरा अनुमान ठीक ही निकला। मुझे इनके
नौकरी न करने से न कोई शिकायत थी...न तकलीफ़। तकलीफ़ थी तो केवल इस बात से कि
जब आप नौकरी कर ही नहीं सकते...करना ही नहीं चाहते तो कम-से-कम फिर मेरे
नौकरी करने और घर चलाने पर इतनी-इतनी कुंठाएँ पालकर मेरा और अपना जीवन तो
इतना असहज और तकलीफ़देह मत बनाइए। पर अपने अहं और सामन्ती संस्कारों से लाचार
राजेन्द्र करें भी तो क्या करें ? बस, मैं ही अपनी दखती रगों और खाली कोनों
को अपने लेखन से परा करने की कोशिश करती रहती थी। पर सहज-साध्य होने के
बावजूद लिखना भी छुट-पुट कहानियों के अतिरिक्त कुछ विशेष तो हो ही नहीं पा
रहा था। लेकिन हर कहानी के छपने पर पाठकों की जैसी प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएँ
मिलतीं, मेरी हौसला-अफ़जाई के लिए वही काफ़ी था।
भैरवप्रसाद गुप्त ने राजकमल से निकलनेवाली पत्रिका नई कहानियाँ की 'सम्पादकी
छोड़ दी। ओमप्रकाश जी का (राजकमल तब ओमप्रकाश जी के पास था) एक पत्र मुझे
मिला जिसका भाव यह था कि जब तक उन्हें कोई योग्य और सक्षम सम्पादक नहीं मिल
जाता तब तक वे दो-तीन अंक अतिथि सम्पादक से सम्पादित करवाएँगे और उनका अनुरोध
था कि पहले अंक का सम्पादन मैं करूँ।
हस्बमामूल पहली प्रतिक्रिया-नहीं-नहीं, सम्पादन मैं कैसे करूँगी...सम्पादन
मुझसे नहीं होगा...और राजेन्द्र की फटकार-“बिना सोचे ही हाथ झटक देना...रखा
क्या है सम्पादन में ? सब कहानीकारों को कहानी भेजने के लिए पत्र लिखो,
रिमाइंडर भेजो, कहानियाँ आने पर...छोटा-सा सम्पादकीय लिख दो।” और मुझे लगा कि
अरे, बहुत आसान काम है यह तो...पत्र ही तो लिखने हैं लेखकों को। और फिर वही
आत्मधिक्कार में लिपटा आत्ममंथन ! कैसे इस आत्मविश्वास-हीनता से मुक्ति
पाऊँ...कहाँ जड़ें जमी बैठी हैं इसकी..क्यों नहीं उखाड़ फेंक पाती मैं इन्हें
? फिर हर बार की तरह भविष्य में झूठा पड़ जानेवाला यह खोखला संकल्प-नहीं अब
कभी किसी काम के लिए मना नहीं करूँगी...जब-जब जो-जो किया, उसमें सफलता ही तो
मिली...नाम ही तो मिला...फिर ?
मन से नकार झटकारा...पत्र लिखे और जब आधे से अधिक लोगों ने कहानियाँ और कुछ
ने आश्वासन के पत्र भेजे तो लगा यह मेरे पत्र की स्वीकृति नहीं...मेरी
स्वीकृति थी...मेरा मान रखा गया था और मन एक संवेगपूर्ण आह्लाद से भर गया।
मुझे आज भी याद है कि उस अंक में सभी कहानियाँ काफ़ी अच्छे स्तर की थीं। अपनी
औक़ात के हिसाब से मैंने एक छोटा-मोटा सम्पादकीय भी लिख दिया...जो शायद
ठीक-ठाक ही बन गया था। हाँ, पांडुलिपि तैयार करते समय राजेन्द्र ने एक सुझाव
ज़रूर दिया कि क्रम तय करते समय लेखकों के नाम अकार से रख देना। सुझाव मुझे
भी ठीक ही लगा और स्वाभाविक भी, सो मैंने यह जानने
की कोशिश भी नहीं की कि इस सुझाव के पीछे उनका एक विशेष प्रयोजन था।
पांडुलिपि भेजी...ओमप्रकाश जी की प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया मिली तो मैं
निश्चिन्त, और फिर प्रतीक्षारत कि छपने पर सबकी कैसी प्रतिक्रिया मिलती है ?
पत्रिका के निकलने की तारीख़ आई पर पत्रिका नहीं निकली...मैं हैरान-परेशान !
मैंने तो सामग्री समय से बहुत पहले ही भेज दी थी, फिर ? दो-तीन दिन बाद ही
पूजा की छुट्टियों में हम लोग दिल्ली गए और मैं देरी की कैफ़ियत तलब करने
सीधी राजकमल के ऑफ़िस। मुझे देखते ही ओम जी ने दोनों हथेलियों में माथा थाम
लिया और बोले-“क्या बताऊँ, कवर फिर से छापना पड़ रहा है।” “क्यों, कुछ ग़लत
हो गया था ?” मेरे चेहरे पर पत आए प्रश्नवाचक को दूर करते हुए उन्होंने बताया
कि अंक देखते ही राकेश भड़क गया कि अन्दर मन्नू ने चाहे मेरा नाम बीच में कर
दिया पर कवर के ऊपर मेरा नाम पहला होगा...इसीलिए कवर फिर से छपवाइए।
कमलेश्वरजी ने संडे मेल में छपनेवाले अपने संस्मरणों के स्तम्भ 'आधारशिला'
में इस सारे प्रसंग में राकेशजी के साथ राजेन्द्र का नाम भी लपेटते हुए इसे
बिलकुल ग़लत ढंग से प्रस्तुत किया है। राजेन्द्र के मन में अपने नाम को लेकर
ऐसा आग्रह होता तो लेखकों का क्रम अकार से रखने का सुझाव ही क्यों देते ?
क्योंकि इससे तो उनका नाम सबसे पीछे चला गया था। मैं नहीं जानती, राजेन्द्र
का नाम लपेटने के मूल में कमलेश्वरजी का अपना कोई द्वेष था या राकेशजी की इस
दम्भ-भरी हरक़त को तर्कसंगत ठहराने का झूठ में सना एक थोथा प्रयास !
राकेशजी और ओमप्रकाश के सम्बन्ध शायद लेखक-प्रकाशक के सम्बन्धों से कहीं अधिक
थे। इसीलिए वे ऐसा आग्रह कर सकते थे, पर इस सारी बात की मुझ पर क्या
प्रतिक्रिया हुई ?-वितृष्णा भरा आश्चर्य, गुस्सा, दुख...नहीं बता सकूँगी, पर
यह बात मुझे ज़रूर झकझोरती रही कि लेखक तो मूल्यों की वकालत करता है।
स्वाभिमान की सुरक्षा करनेवाले अहं की बात तो समझ में आती है पर स्वयं अपने
को श्रेष्ठ घोषित करने के इस अहंकार को क्या कहा जाएगा ? नाम पहले होने से
क्या कहानी भी पहले नम्बर की हो जाएगी या कहानी के क्षेत्र में आप पहले नम्बर
के हो जाएँगे ? यह भी एक विचित्र संयोग ही था कि राजेन्द्र की 'टूटना' कहानी
उस अंक की ही नहीं बल्कि मेरे हिसाब से तो राजेन्द्र की
सर्वश्रेष्ठ कहानी है। अब सबसे अन्त में छपने से क्या वह सबसे निकृष्ट कहानी
हो जाती ? राजेन्द्र के सुझाव का अर्थ भी अब मेरी समझ में आया वरना कलकत्ता
में लेखकों की दुनिया से दूर रहने के कारण मेरे मोटे भेजे में तो यही समाया
हुआ था कि लेखक की रचनाएँ ही उसका स्थान तय करती हैं...नाम पहले छपवाने का
दुराग्रह भरा हठ नहीं। और फिर रचना का क्षेत्र कोई रेसकोर्स तो है नहीं जहाँ
घुड़दौड़ या बच्चों की दौड़ होती हो और पहला, दूसरा, तीसरा स्थान तय होता हो।
रचना के क्षेत्र में तो पाठक-आलोचक अपनी-अपनी रुचि और अपने-अपने मानदंड के
हिसाब से लेखकों की कोटियाँ बनाते रहते हैं...बदलते रहते हैं। खैर, इस तरह की
बातें मुझे कलकत्ता में ही परेशान करती रहती थीं-दिल्ली आकर तो वो-वो जलवे
देखे कि लेखकों की महानता के मेरे सारे भ्रम टूट गए।
छुट्टियाँ समाप्त कर हम कलकत्ता लौटे और तभी हुआ चीनी आक्रमण। आज़ादी के बाद
देश पर आया पहला संकट। आक्रमण भी उनकी ओर से जिनके साथ भाईचारे के नारे कुछ
समय पहले ही तो कलकत्ता की सड़कों पर गूंजते रहते थे। कुछ ही साल पहले चाऊ
एन. लाई भारत आए थे...कैसा भव्य स्वागत हुआ था उनका कलकत्ता में...वे सारे
दृश्य मुझे आज भी याद हैं और फिर हिन्दी-चीनी भाई-भाई की घोषणाएँ हुई थीं-सो
आघात दुहरा था। जो भी हो, संकट के इस समय में सारा देश एकजुट हो गया था।
जिससे जो बन पड़ रहा था, दे रहा था...जिससे जो बन पड़ रहा था, कर रहा था।
औरतों की एक मीटिंग में बड़ी बहिन सुशीला ने अपनी चारों सोने की चूड़ियाँ
उतारकर दे दी। घर आने पर जीजाजी ने बड़े सहज भाव से ऐसे ही कह दिया कि अरे,
एक दे देती, चारों देने की क्या ज़रूरत थी ? इतना भर सुनना था कि उसने कान,
गले की चीजें भी उतारी और पटकते हुए बोली- “क़सम है जो आज के बाद कभी सोने को
हाथ भी लगाऊँ।” और सच है उसके बाद उसने सोना कभी छुआ तक नहीं। रोज़ कमाकर
रोज़ खानेवाले हाथ-रिक्शावालों ने अपनी पूरे दिन की कमाई फंड में दे दी थी तो
बच्चों ने अपना जेबखर्च ! ये ख़बरें अख़बारों में छपतीं तो मन अपने
देशवासियों पर निहाल हो-हो जाता। महिलाएँ रात-दिन जवानों के लिए स्वेटर बुनती
रहतीं।
ऐसे में राजेन्द्र का विवादी स्वर...देश के उस माहौल से बिलकुल तटस्थ...अनछुए
से बर्दैड रसल की किसी एक किताब का हवाला दे-देकर कहते कि चीन का क्लेम
बिलकुल सही है। चीन की पक्षधरता पर उस समय मेरे आग लग जाती...भभककर मैं जाने
क्या-क्या कहती। सन्तई मुद्रा में ये इतना ही कहते- “तुम कुछ समझती तो हो
नहीं।” हो सकता है कि मैं नहीं ही समझती होऊँ...और राजेन्द्र के नज़रिए से तो
मैं समझना भी नहीं चाहती थी। वामपंथियों का शायद यही स्टैंड रहा था...पर इस
बार सन् 42 की तरह मुखर नहीं था उनका विरोध। जो भी हो, मुझे लगता राजेन्द्र
के साथ निजी जीवन की दूरी अब विचारों में भी फैलती जा रही है। यह सच है कि
मैं किसी पंथ से न तब जुड़ी थी, न बाद में...मेरा जुड़ाव अगर रहा है तो अपने
देश से...चारों ओर फैली-बिखरी ज़िन्दगी से जिसे मैंने नंगी आँखों से ही देखा
है, बिना किसी वाद का चश्मा लगाए और मेरी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं।
1962 में राकेशजी सारिका की सम्पादकी छोड़कर अपने एक मित्र के पास जमशेदपुर
गए थे और वहीं से दो-तीन दिन के लिए कलकत्ता आए थे। मेरी अनुपस्थिति में
उन्होंने राजेन्द्र को सारिका छोड़ने के बारे में अपने नज़रिए' से बहुत कुछ
बताया भी था शायद। वे अब दिल्ली जाकर बसनेवाले थे और उनका आग्रह था कि हम
लोगों को भी अब जल्दी-से-जल्दी दिल्ली पहुँच जाना चाहिए। हिन्दी की साहित्यिक
गतिविधियों के लिए तो वैसे भी कलकत्ता में कोई भविष्य नहीं है। राकेशजी के
जाने के बाद कुंथा जी और जैन साहब श्रीमती रमा जैन का आग्रह लेकर दो दिन तक
राजेन्द्र का घेराव करते रहे-बड़े भाई की हैसियत से अपनी ओर से भी बहुत
समझाया कि अब राजेन्द्र को बम्बई जाकर सारिका सँभाल लेनी चाहिए। ज़िन्दगी में
पहली और अन्तिम बार जीजाजी ने भी समझाया-बच्ची के साथ मेरे नौकरी करने के
संकट (जिसका बहुत-सा हिस्सा उन्हें भी झेलना पड़ता था) का हवाला देते हुए
आग्रह किया कि राजेन्द्र को यह काम ले लेना चाहिए-उनकी रुचि का ही तो काम है।
सिर्फ़ मैं जानती थी कि जो काम राकेशजी छोड़कर आए हैं उसे राजेन्द्र कभी नहीं
सँभालेंगे। राकेशजी की अगुवाई' चाहे राजेन्द्र ने कभी स्वीकार न की हो, कर भी
नहीं सकते थे लेकिन यह तो सच है और आज तो मुझे इस बात को उजागर करने में भी
कोई संकोच नहीं कि उस ज़माने में राकेशजी राजेन्द्र का बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स
थे। जो राजेन्द्र उस समय अश्कजी की इस बात का उल्लेख करने मात्र से बुरी तरह
भन्ना जाते थे वही राजेन्द्र आज सफलता, यश, सम्मान, प्रतिष्ठा के शीर्ष पर
बैठकर किस सहजता से स्वीकार कर लेते हैं कि “हाँ, वह था-राकेश का कॉम्पलेक्स
अज्ञेय थे और मेरा राकेश।” योग्यता, प्रतिभा, क्षमता के बावजूद, हाशिए में
पड़ा (कुछ समय के लिए ही सही) आदमी सारे प्रयत्न करके भी पिछड़ जाने के दंश
से उपजी अपनी जिन गाँठों को नहीं खोल पाता, सफलता का स्पर्श कैसे अनायास ही
उन्हें खोलता चलता
है...केवल खोलता ही नहीं चलता अपनी उन कुंठाओं के स्वीकार का वह साहस, वह
सहजता भी देता है जो सामान्य स्थिति में सम्भव ही नहीं। बहरहाल एक ओर सबका
आग्रह था, आर्थिक परिस्थितियों का दबाव था और दूसरी ओर अहं से उपजा राजेन्द्र
का अपना संकट, जिसे मैं अच्छी तरह जानती-समझती थी और इसीलिए आग्रह करना तो
दूर उन्हें आश्वस्त करते हुए यही कहा था कि “निकाल फेंकिए इस नौकरी की बात को
दिमाग से दूर, जैसे-तैसे चल ही तो रही है ज़िन्दगी।” पता नहीं, मेरी इस
आश्वस्ति को उन्होंने कभी अपने मन में दर्ज भी किया या नहीं।
राकेशजी और कमलेश्वरजी अब दिल्ली से बराबर दबाव बनाए हुए थे कि जैसे भी हो
हमें अब जल्दी-से-जल्दी दिल्ली पहुँच जाना चाहिए। आगरा में बाई (सास) की
मृत्यु के बाद भी दिल्ली रहना ज़रूरी हो गया था। राजेन्द्र तो शुरू से ही
दिल्ली जाने के पक्ष में थे। बस, मुझे ही दिल्ली जाने के नाम से दहशत होती
थी। कैसे बिना सुशीला और अपने कलकतिया मित्रों के वहाँ ज़िन्दगी चलेगी ?
लेकिन परिस्थितियों के दबाव और मिरांडा हाउस में नियुक्ति हो जाने के बाद
(राजेन्द्र तो नौकरी कर नहीं सकते थे...वह तो मुझे ही करनी थी चाहे कलकत्ता
हो, चाहे दिल्ली) हमें भी दिल्ली जाने का निर्णय लेना ही पड़ा। अपने फ़्लैट
के मालिक से बात करके उसे मैंने अपनी एक मित्र को दिलवा दिया-फ़र्नीचर भी
उन्होंने ही ख़रीद लिया सो किताबें, कपड़े और बरतन-भाँडे बाँधकर रवाना होने
के दो दिन पहले हम लोग सुशीला के यहाँ शिफ्ट हो गए, मित्रों के यहाँ विदाई की
दावतें खाने के लिए। लेकिन दूसरे दिन ही वज्रपात की तरह नेहरू जी की मृत्यु
का समाचार मिला और सारा कलकत्ता शोकग्रस्त होकर जैसे आँसुओं में डूब गया। हम
लोग सारे दिन रेडियो से चिपके डिमैलो की कमेन्ट्री सुनते रहे और रोते रहे।
उसकी कमेन्ट्री क्या थी जैसे दृश्य आँखों के आगे साकार होते चलते थे। उस दिन
घर में न खाना बना, न किसी की खाने की इच्छा हुई। शाम को श्यामानन्द जालान का
फ़ोन आया तो राजेन्द्र उठे और चले गए...वे तब तक शायद काफ़ी ऊब चुके थे। रात
क़रीब दस बजे घंटी बजी तो मैं ही दरवाज़ा खोलने गई-सामने राजेन्द्र खड़े थे
और उनके मुँह से बुरी तरह शराब की बदबू आ रही थी। आज की तरह उन दिनों शराब
ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा नहीं बनी हुई थी कि खाने के साथ
शराब-खुशी का मौक़ा हो तो शराब-ग़म ग़लत करना हो तो शराब। अपवाद की तरह ही
इक्का-दुक्का कोई टी-टोटलर मिलता होगा आज तो। पर उन दिनों तो छठे-छमासे कोई
खुशी का मौक़ा हुआ तो दोस्त लोग मिल-बैठकर पी लेते थे। पीकर राजेन्द्र आए थे
पर चढ़ वह मेरे दिमाग में गई। गुस्से का चूंट पीकर कहा तो मैंने केवल इतना
ही- “पीकर आए हैं ? बहुत खुशी का मौक़ा है न जो जश्न मनाकर आ रहे हैं।” दुख,
गुस्सा या नफ़रत क्या था मेरी आवाज़ में, नहीं जानती, पर एक प्रश्न ज़रूर
हथौड़े की तरह चोट कर रहा था-क्या हो गया है राजेन्द्र की संवेदना को...क्या
अब इन्हें कोई दुख नहीं व्यापता ? लाख वैचारिक मतभेद हों नेहरूजी से...बहुतों
के थे लेकिन उनकी मृत्यु के दुख से अछूता रह सका था कोई ?
पर नहीं, दुख व्यापा था, केवल दुख ही नहीं अपने को लेकर शायद एक गहरी
वितृष्णा भी जागी थी जिसके चलते ही कुछ समय बाद राजेन्द्र ने एक अच्छी कहानी
लिखी थी-'मरनेवाले का नाम'।
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