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जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6103
आईएसबीएन :978-81-8361-106

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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...


साफ़गोई की माँग है कि यह बात लिखी तो इतना उल्लेख और कर दूं कि साक्षात्कार के लिए आए एक साहब ने अबोधपने की इस बात पर अच्छी-खासी खिंचाई की थी मेरी। उनका कहना था कि जिसकी पहली ही दो कहानियाँ मैं हार गई और श्मशान सचेत शिल्प के नमूने हों, वह अबोधता का यह नाटक क्यों करे ? उस ज़माने के हिसाब से तो अच्छे-खासे प्रयोग थे ये और जिसका सिलसिला आगे की कुछ कहानियों में भी ढूँढ़ा जा सकता है। उन्होंने मुझे निरुत्तर तो कर दिया, क्योंकि यह तो नहीं कह सकती थी कि प्रयोग ने अपने आपको करवा लिया मुझसे, लेकिन जो कहना चाहिए था, वह न तब कहा, न आज ही कहूँगी, क्योंकि उसमें भी 'नाटक' लगने की पूरी सम्भावना है।

सात-आठ कहानियाँ लिख लेने के बाद राजेन्द्र से परिचय हुआ। यों मैं उनकी रचनाओं से ही नहीं, उनके चेहरे से भी परिचित तो थी, क्योंकि दो-चार बार क़ॉफी-हाउस में उन्हें देखा था, पर औपचारिक परिचय हुआ बालीगंज शिक्षा सदन के पुस्तकालय के लिए पुस्तकों की सूची बनवाने के सिलसिले में। दो-चार मुलाक़ातों के बाद ही यह परिचय मित्रता में बदल गया, जिसका मुख्य आधार था लेखन। राजेन्द्र का उपन्यास उखड़े हुए लोग छपकर थोड़ी ख्याति अर्जित कर चुका था और यह ख्याति ग़रूर बनकर तो नहीं, सुरूर बनकर ज़रूर राजेन्द्र के चेहरे से छलकती रहती थी। यह तो बाद में मालूम हुआ कि इस सुरूर के उपादान कहीं और भी थे। वे मेरी कहानियों को सुनते, उन पर सलाह-सुझाव भी देते। कुछ बातें ज़रूर मेरे गले उतरतीं, पर अधिकतर को पचा पाना मेरे बूते के बाहर था। मेरी कहानियाँ होती थीं-सीधी, सहज और पारदर्शी (चाहें तो सपाट और बचकानी के खाने में भी डाल सकते हैं, पर पाठकों की व्यापक प्रतिक्रिया और स्वीकृति मुझे बराबर मिलती रही और मेरा सन्तोष उसी के साथ जुड़ा हुआ था) और राजेन्द्र के सुझाव होते थे बड़े पेचदार और गुट्ठल-उनके व्यक्तित्व की तरह ही। मेरे लिए तो बस यही बड़े सुख-सन्तोष की बात थी कि एक लेखक-स्थापित, यशस्वी और पूरी तरह लेखक-मेरे मित्र हैं।

सन् 57 में अमृतरायजी ने कुछ और लेखकों के सहयोग से इलाहाबाद में बहुत बड़े स्तर पर प्रगतिशील लेखकों का एक सम्मेलन आयोजित किया था-जिसमें सभी पीढ़ियों के साहित्यकारों ने शिरकत की थी। उसका निमन्त्रण पाकर मैं तो बेहद पुलकित और उत्साहित, पर हाँ, राजेन्द्र का साथ न मिलता तो अकेले जाने का साहस मैं शायद ही जुटा पाती। कहानियाँ लिखने, छपने और एक संग्रह आ जाने के बावजूद अपने को कहानीकारों में सम्मिलित कर सकूँ...साहित्यकारों के ऐसे सम्मेलन में भाग ले सकूँ, ऐसा हौसला तो बिलकुल नहीं था। वहाँ पहली बार मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, अमरकान्त और नामवरजी से मुलाक़ात हुई थी। कमलेश्वरजी को उस आयोजन में भूत की तरह काम करते देखा था। महादेवी जी और हजारीप्रसादजी के अद्भुत, अविस्मरणीय भाषण सुने। प्रगतिशील और परिमलियों के भेद भी कुछ-कुछ समझ में आए...इन सब लोगों का जोश-खरोश देखा, अलग-अलग गोष्ठियों में इनकी बातें-बहसें सुनीं। लौटने के कुछ समय बाद राकेशजी, कमलेश्वरजी से पत्र-व्यवहार शुरू हो गया था। कमलेश्वरजी ने अपने नए-नए खोले श्रमजीवी प्रकाशन के लिए पुस्तक माँगी तो तुरन्त उन्हें अपने दूसरे संकलन तीन निगाहों की एक तस्वीर की पांडुलिपि सौंप दी और उसके साथ ही मुझे लगने लगा कि मैं इन लोगों की जमात में शामिल हो गई हूँ। मेरे भीतर एक नई दुनिया आकार लेने लगी, जिसके सन्दर्भ और सरोकार दूर-दूर तक फैले थे।

अब धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि शीर्षक से लेकर जो कुछ कहना है, वहाँ तक की यात्रा, स्थितियों के अनेक पहलुओं और पात्रों के व्यक्तित्व की अनेक परतों को, उनकी सारी बारीकियों के साथ पकड़कर उतने ही संयत, सन्तुलित और सांकेतिक ढंग से उजागर करना ही कहानी लिखना है। लेकिन इस समझ के साथ ही सारे संकट भी आ खड़े हुए। पहले पात्र मेरे साथ-साथ चलते थे, पर बाद में तो सामने आ खड़े होते-चुनौती देते...ललकारते-से कि पकड़ो, मेरे व्यक्तित्व के किन पक्षों और पहलुओं को पकड़ सकती हो। पहले घटनाएँ अपने-आप क्रम से जुड़ती चलती थीं...एक के बाद एक-सहज, अनायास, पर आज ! एक परत पकड़ो तो चार परतें और आ उघड़ती हैं-नई संवेदना, नई समझ, नए विश्लेषण की माँग करती हुईं। अब इकहरे पात्रों की जगह अन्तर्द्वन्द्व में जीते पात्र ही आकर्षित करने लगे-विचारों और संस्कारों के द्वन्द्व के बीच अधर में लटकी 'त्रिशंकु' की माँ हो या मातृत्व और स्त्रीत्व के द्वन्द्व के त्रास को झेलती आपका बंटी की शकुन। आदर्श और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता के बीच टूटती-चरमराती क्षय की कुन्ती हो या तीसरा हिस्सा के शेरा बाबू। ऐसे पात्रों के व्यक्तित्व को बिना भावुक हुए, तटस्थ भाव से चित्रित करना अब केवल आकर्षक ही नहीं, चुनौतीपूर्ण भी लगने लगा। लेकिन साथ ही कभी-कभी यह भी लगता, बल्कि शिद्दत के साथ महसूस होता कि सहज रचनात्मकता के लिए एक नौसिखियापन, एक ख़ास तरह की अबोधता सहायक ही होती है, शायद ज़रूरी भी। हालाँकि मेरे पास तो आज के धुरंधर बुद्धिजीवियों जैसा बोध भी नहीं है पर जो, जितना भी थोड़ा-बहुत है, उसने ही मेरी रचनात्मक क्षमता पर ढेर-ढेर प्रश्नचिह्न लगाकर लेखन को एक कष्टसाध्य कर्म तो बना ही दिया।

जो भी हो, लिखने का सिलसिला चल पड़ा था और कुछ कहानियाँ लिखने-छपने के बाद एकाएक मेरा ध्यान गया कि कलकत्ता रहते हुए सात-आठ साल होने के बावजूद मेरी आरम्भिक कहानियों के सारे पात्र, सारी घटनाएँ अजमेर से जुड़ी हुई हैं। ‘अकेली' कहानी की सोमा बुआ, 'नशा' की आनन्दी, ‘मजबूरी' की दादी जैसे करुण पात्र हों या फिर दीवार, बच्चे और बारिश की विद्रोही तेवरवाली नायिका, सब ब्रहमपुरी के ही जीते-जागते लोग हैं...जिन्हें मात्र देखा-भर ही नहीं था, बल्कि जिनके साथ मैं कहीं गहरे से जुड़ी हुई भी थी। लिखने का सिलसिला शुरू होते ही कैसे ये सब अपनी पूरी जीवन्तता के साथ मेरे इर्द-गिर्द मँडराने लगे ! सोफ़िया कॉलेज की एक सुनी हुई घटना कि कैसे एक ‘नन' ने क्लास में कीट्स की कोई कविता पढ़ाते हुए एक लड़की को बाँहों में भरकर चूम लिया, ईसा के घर इंसान में बदल गई थी तो पड़ोस में रहनेवाले कवि सरस वियोगी की रस ले-लेकर सुनाई गई अपनी ही कथा ‘कील और कसक' में। स्वयं एक सफल जीवन जीने और सारे बच्चों को सही ढर्रे से लगा देने की परम तृप्ति से ओतप्रोत 'छत बनानेवाले' के ताऊजी मेरे अविवाहित जीवन पर तरस खाते और पिताजी की जीवन-पद्धति की धज्जियाँ बिखेरते उसी रौबदाब और तेवर के साथ मेरे सामने आ खड़े हुए थे।

घटना और रचना के बीच अन्तराल का यह सिलसिला आगे भी चलता रहा और बाद में तो जैसे मेरे लेखन की अनिवार्यता बन गया। कोई भी घटना, पात्र, स्थिति या 'आइडिया' क्लिक करते ही डायरी के पन्ने के साथ-साथ मन के किसी पन्ने पर भी अँक जाता है। थोड़ा समय गुज़रने के बाद 'रॉ-मैटीरियल' के इस गोदामघर में से बहुत कुछ तो धुल-पुंछ जाता है, अप्रासंगिक और निरर्थक लगता है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो समय के साथ-साथ भीतर और भीतर उतरता चलता है और उसमें पता नहीं कौन-से रसायन मिलते रहते हैं कि यह बाहरी 'वह' धीरे-धीरे 'मैं' में तब्दील होने लगता है और फिर यह भीतरी 'मैं' बाहर के न जाने कितने और 'मैं' के साथ जुड़ता चलता है...। ये सारे बाहरी 'मैं' उस भीतरी 'मैं' में निरन्तर कुछ-न-कुछ जोड़ते-घटाते चलते हैं। बाहर-भीतर की यह यात्रा...'मैं' और 'वह' के एक-दूसरे में तब्दील होने की यह प्रक्रिया कब और कैसे घटित होती है, इसका कोई स्पष्ट बोध तो मुझे भी नहीं रहता। बोध तो उस समय होता है, जब अनेक 'मैं' का यह बोझ मेरी रचनात्मकता को बुरी तरह कुरेद-उकसाकर एक रचना को जन्म देता है। यह तैयार रचना अपने मूल रूप से (जिसका आधार कोई वास्तविक घटना या व्यक्ति ही होता है) इतनी भिन्न हो चुकी होती है कि कभी-कभी तो मेरे अपने लिए भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। मूल घटना तो अक्सर ‘स्टार्टिंग-पाइंट' भर का काम करती है।

समय के अन्तराल की यह अनिवार्यता एक स्तर पर मेरी सीमा भी हो सकती है। कानपुर में पंखे से लटककर तीन बहिनों ने आत्महत्या कर ली... “कैसी दिल दहला देनेवाली घटना और महिला होने के बावजूद तुम्हारी क़लम से एक कहानी तक नहीं फूटी...बिलकुल असंवेदनशील हो तुम।” ...किसी ने बड़ी भर्त्सना की थी। आए दिन दिल दहला देनेवाली घटनाओं से अख़बार भरे रहते हैं...बहुत कुछ तो आँखों के नीचे भी होता रहता है, फिर भी कहानी नहीं लिखी जाती तो क्या यह मेरी सीमा नहीं है...? शायद हो। लेकिन कहानी को अख़बारी ख़बरों से अलगाकर रखना मेरी मजबूरी भी तो हो सकती है।

अपनी इस रचना-प्रक्रिया के दौरान कुछ बातें अनायास ही मेरे सामने उजागर होकर उभरीं। अपने भीतरी 'मैं' के अनेक-अनेक बाहरी 'मैं' के साथ जुड़ते चले जाने की चाहना में मुझे कुछ हद तक इस प्रश्न का उत्तर भी मिला कि मैं क्यों लिखती हूँ ? जब से लिखना आरम्भ किया, तब से न जाने कितनी बार इस प्रश्न का सामना हआ, पर कभी भी कोई सन्तोषजनक उत्तर मैं अपने को नहीं दे पाई तो दूसरों को क्या देती ? इस सारी प्रक्रिया ने मुझे उत्तर के जिस सिरे पर ला खड़ा किया, वही एकमात्र या अन्तिम है, ऐसा दावा तो मैं आज भी नहीं कर सकती, लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण पहलू तो है ही। किसी भी रचना के छपते ही इस इच्छा का जगना कि अधिक-से-अधिक लोग इसे पढ़ें, केवल पढ़ें ही नहीं, बल्कि इससे जुड़ें भी-संवेदना के स्तर पर उसके भागीदार भी बनें यानी कि एक की कथा-व्यथा अनेक की बन सके, बने। केवल मेरे ही क्यों, अधिकांश लेखकों के लिखने के मूल में क्या एक और अनेक के बीच सेतु बनने की यह कामना ही निहित नहीं रहती ? हालाँकि यह भी जानती हूँ कि यह पाठक-पिपासा आपको आसानी से ‘लोकप्रिय साहित्य', चाहें तो व्यावसायिक भी कह लें, के विवादास्पद मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर सकती है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पाठक-निरपेक्ष लेखकों का एक वर्ग है हमारे यहाँ, जिसकी मान्यता है कि पाठकों की सीमित संख्या ही रचना की उत्कृष्टता का पैमाना है...हल्की और चलताऊ रचनाओं को ही बड़ा पाठक वर्ग मिलता है। इस दृष्टि से तो प्रेमचन्द की रचनाओं को सबसे पहले ख़ारिज कर देना चाहिए। उनकी लोकप्रियता, दूर-दराज़ गाँवों तक फैला-पसरा उनका व्यापक पाठक वर्ग, हर पीढ़ी के कथाकारों के एक बड़े समुदाय की उनके साथ जुड़ने की ललक...ये सब किस बात के सूचक हैं ? मैं नहीं सोचती कि लोकप्रियता कभी भी रचना का मानक बन सकती है। असली मानक तो होता है रचनाकार का दायित्व-बोध, उसके सरोकार, उसकी जीवन-दृष्टि और उसकी कलात्मक निपुणता। यहाँ कलात्मक निपुणता को मैं पूरे बलाघात के साथ ज़रूर रेखांकित करना चाहूँगी, क्योंकि यही आपके गहरे-से-गहरे यथार्थ-बोध को संवेदना के धरातल तक ले जाती है...आपके अनुभव को एक रचना में...एक कला-कृति में ढाल देती है। जो भी हो, मेरे अपने लिए पाठक की बहुत अहमियत है। वो पाठक कौन है, कैसा है, कहाँ है, इसका कोई अहसास रचना करते समय मुझे नहीं होता, न ही अदृश्य पाठक मेरे लेखन की दिशा निर्धारित करता है-बिलकुल नहीं। उसकी भूमिका तो रचना छपने के बाद शुरू होती है। उसने रचना को कैसे ग्रहण किया...मेरे पात्रों के साथ, उनकी संवेदना के साथ उसकी संवेदना एकमेक हुई या नहीं, जिन स्थितियों और समस्याओं को मैंने उठाया, उन्होंने उसे झकझोरा या नहीं...कुछ सोचने को मजबूर किया या नहीं...इसे ही कसौटी मानती हूँ मैं अपनी रचना की सफलता-सार्थकता की।

गजेन्द्र की मित्रता अब धीरे-धीरे दूसरी दिशा की ओर मुड़ चली...और यह "परिवर्तन एकतरफ़ा तो था नहीं, उसमें मेरी बराबरी की सहमति ही नहीं, सहयोग भी था। परिणाम यह हुआ कि मेरे लेखकीय उत्साह-उमंग में रोमानी रंग भी भरने लगे, जिसे ठाकुर साहब (मनमोहन ठाकौर), भाभीजी, सुशीला और सेंगरजी अपनी चुटीली फ़ब्तियों से और चटकीला बनाते रहते थे। अजीब-से दिन थे वे भी-मैं यथार्थ के धरातल पर कहानियाँ लिखती थी और सपनों की दुनिया में जीती थी। हम दोनों ने अपने-अपने अतीत के कुछ निजी पन्ने एक-दूसरे के सामने खोले थे और फिर ईमानदारी के साथ 'उस सबके' पूरी तरह अतीत हो जाने का आश्वासन देकर भविष्य की योजनाएँ बनाई थीं। राजेन्द्र का आग्रह था कि मित्रता को सम्बन्ध तक ले जाने के लिए वे पहले अपना एक आर्थिक आधार तैयार करेंगे, क्योंकि लेखन की अनिश्चित आमदनी के भरोसे गृहस्थी नहीं चलाई जा सकती। अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए भी उन्हें दिल्ली ज़्यादा अनुकूल और प्रेरक जगह लगती थी-थी भी, इसलिए मेरी तरफ़ से भी आपत्ति का कोई प्रश्न नहीं उठा और वे दिल्ली चले गए। हाँ, जाने से पहले उन्होंने सुशीला के सामने मेरा हाथ पकड़कर कहा- “सुशीलाजी, आप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज में न तो मेरा कोई खास विश्वास है, न दिलचस्पी...बट वी आर मैरिड ! जैसे ही मेरे काम का कोई इन्तज़ाम हो जाएगा हम लोग...” इससे अधिक और किस आश्वासन की हम लोग आशा करते। मेरी तो दुनिया ही एकदम जगमगा उठी।

उनके जाने के थोड़े दिन बाद ही मैंने मुश्किल से बीस-बाईस दिन लगाकर एक उपन्यास लिख डाला। स्कूल का काम और दूसरी गतिविधियाँ अपनी जगह चलती रहीं और लेखन अपनी जगह-बिना किसी मशक्क़त, उठा-पटक और सिर-धुनाई के...बिलकुल अनायास और सहज गति से। आज तो यह बिलकुल अकल्पनीय लगता है कि ऐसे भी लिखा जा सकता है। पर कभी यह मेरी ज़िन्दगी की हक़ीक़त रहा है। उपन्यास भी काफ़ी ठीक-ठाक ही था। राजेन्द्र के पास सुझाव
के लिए भेजा तो राजेन्द्र भी चकित थे मेरी लिखने की गति पर। उन्होंने उसे माँजने-सँवारने के दौरान उसमें काटने-जोड़ने के लिए कुछ सुझाव भी भेजे थे, पर दूसरा ड्राफ़्ट बना ही नहीं। सोचा था कि कुछ अन्तराल के बाद पूरी तरह तटस्थ होकर उसे फिर से पढ़ंगी और देखूगी कि अब उसमें क्या कुछ संशोधन-सुधार किए जा सकते हैं। पर उस अन्तराल में और बहुत कुछ घट गया।

आर्थिक आधार तो तैयार नहीं हुआ और एक बहुत बड़ी दुविधा की स्थिति में राजेन्द्र कलकत्ता आए तो ठाकुर साहब ने उन्हें शादी की दिशा में ठेल ही दिया। मैं उस समय इन्दौर गई हुई थी...मुझे तुरन्त बुलाया गया और लौटते ही सुशीला ने शादी के लिए 22 नवम्बर की तारीख तय कर दी-मुहूर्त देखकर नहीं, बस यह देखकर कि इतवार है तो लोगों को आने में सुविधा होगी। ठाकुर साहब-भाभीजी जुटे हुए थे राजेन्द्र की ओर से, क्योंकि राजेन्द्र ने अपने घरवालों को आने के लिए बिलकुल मना कर दिया था। सुशीला-जीजाजी, भाई-भाभी, मित्र और सहकर्मियों की एक पूरी टोली जुटी हुई थी मेरी ओर से। प्रतिभा बहिनजी, नारायण साहब, प्रतिभा अग्रवाल, मदन बाबू, जसपाल, कैलाश आनन्द-सबमें ऐसा उत्साह था मानो यह सबका साझा कार्यक्रम हो। मिसेज आनन्द से तो मैंने इस अवसर पर एक मंगलसूत्र ही झटक लिया। हुआ यूँ कि पूजा की छुट्टियाँ शुरू होने से पहले वे एक नया खूबसूरत-सा मंगलसूत्र पहनकर आईं। मैंने तारीफ़ की तो बोलीं- “तू अवसर तो पैदा कर तुझे भी ऐसा ही मंगलसूत्र दूंगी।” छुट्टियाँ समाप्त होते ही यह अवसर पैदा हो जाएगा, ऐसा उन्होंने शायद सोचा भी नहीं होगा पर जब हो ही गया तो बड़ी खुशी-खुशी उन्होंने आकर मेरे गले में मंगलसूत्र पहनाया।

बस विवादी स्वर था तो केवल एक-इस शादी को रोक देने का आदेश देते आख़िरी दिन तक आनेवाले पिताजी के तार, जिसकी भनक तक जीजाजी ने उस समय मुझे नहीं लगने दी।

गोविन्दजी कनोड़िया के लॉन में विवाह के रजिस्टर पर हम लोगों ने दस्तख़त किए थे, मालाएँ बदली थीं। ठाकुर साहब ने राजेन्द्र के पिता की और मेरे स्कूल के प्रेसिडेंट श्री भगवतीप्रसाद खेतान ने मेरे पिता की भूमिका अदा की थी। उसी लॉन में शाम को 'रिसेप्शन' हमारी ओर से हुआ था, जिसका ‘मेन्यू' मदन बाबू, प्रतिभा अग्रवाल ने बनाया था। रात का खाना गोविन्दजी की ओर से हुआ था और हमने पहली रात भँवरमलजी सिंघी के घर में बिताई थी। इस तरह शुद्ध पंचायती शादी हुई थी हम लोगों की। हाँ, आगरा (राजेन्द्र के घर) में बहुत उल्लास के साथ सारे रस्मो-रिवाज किए गए थे और फिर दिल्ली में स्टेशन पर ही राकेशजी ने हम दोनों को बाँहों में भरकर बड़ी गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। सत्येन्द्र दा (सत्येन्द्र शरत) और उषा भाभी ने बड़े प्रेम से दावत खिलाई थी और मैंने जाना-समझा ही नहीं, बल्कि बहुत गहरे से महसूस किया था कि अब से यही मेरा परिवार है, इन्हीं के बीच रहकर मुझे अपना जीवन गुज़ारना है, और अपने लक्ष्य की ओर क़दम बढाने हैं। राजेन्द्र अपने आर्थिक आधार के उसी आग्रह को लेकर दिल्ली रुक गए और चार-पाँच दिन बाद मैं अकेली ही कलकत्ता लौट आई, लेकिन अकेलापन तब कभी लगा ही नहीं, क्योंकि उठते-बैठते, सोते-जागते मैं हमेशा अपने भीतर राजेन्द्र की उपस्थिति महसूस करती थी।

चार महीने तक यही कशमकश चलती रही कि मैं दिल्ली जाऊँ या राजेन्द्र कलकत्ता आएँ। क्योंकि दिल्ली में तो राजेन्द्र अपना कोई आर्थिक आधार तैयार नहीं कर सके थे...कलकत्ता में मेरे पास एक नौकरी तो थी, जिससे खींच-तानकर गृहस्थी की गाड़ी सरकाई जा सकती थी। बहुत ऐश-आराम की चाहना मैंने कभी नहीं की, लेकिन मात्र रॉयल्टी की अनिश्चित आय के आधार पर दिल्ली जाने की हिम्मत भी मैं नहीं जुटा पा रही थी। मैं नहीं चाहती थी कि आर्थिक संकट ज़िन्दगी की शुरुआत का सारा रंग-रस ही निचोड़ ले। आख़िर राजेन्द्र ही कलकत्ता आने को तैयार हुए और उनकी स्वीकृति मिलते ही मैंने मकान के लिए भागदौड़ शुरू कर दी।

अजीब अनुभव था वह भी। जीजाजी, दलाल और मैं रोज़ चार-पाँच मकान देख डालते। पाँच मकान देखते तो एक पसन्द आता और यदि उसका किराया भी अपनी औक़ात के भीतर होता तो मैं राहत की साँस लेती। क़रीब-करीब सारी बातें तय हो जाने के बाद जैसे ही मकान-मालिक पूछते कि ‘पति क्या करते हैं तो मैं तो बड़े गर्व से कहती कि लेखक हैं, लेकिन यह सुनते ही उसके तो तेवर ही बदल जाते और फिर कोई ऐसा टालू-सा जवाब पकड़ा दिया जाता कि मैं अवाक् ! संगीत, कला और साहित्य का गढ़ समझे जानेवाले कलकत्ते में लेखक की ऐसी बेक़द्री। लेखकों, कलाकारों का सम्मान क्या केवल मंच तक ही सीमित है...रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उन्हें क्या ऐसी ही अपमानजनक स्थितियों से गुज़रना पड़ता है ? और केवल कलकत्ते में ही क्यों, सभी जगह यही स्थिति नहीं है ?...आज भी तो इस स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है।

एक महीने की भाग-दौड़ के बाद आख़िर सी.आई.टी. रोड पर एक मकान मिला, छोटा, खूबसूरत और मन लायक़ फ़्लैट। एक परिचित की सिफ़ारिश ने उसे हमारे लिए सुलभ भी बना दिया। बड़े मन और जतन से मैंने उसे सजाया और अप्रैल में हमने साथ-साथ अपनी गृहस्थी में क़दम रखा। बहुत सपने देखे थे इस ज़िन्दगी को लेकर, बहुत उमंग भी थी, लेकिन जल्दी ही राजेन्द्र की ‘लेखकीय अनिवार्यताओं' और इस जीवन से मेरी अपेक्षाओं का टकराव शुरू हो गया जो फिर कभी सम पर आया ही नहीं। सब लोग सोचते थे और मुझे भी लगता था कि एक ही रुचि...एक ही पेशा...कितना सुगम रहेगा जीवन ! मुझे अपने लिखने के लिए तो जैसे राजमार्ग मिल जाएगा, लेकिन एक ही पेशे के दो लोगों का साथ जहाँ कई सुविधाएँ जुटाता है, वहीं दिक़्क़तों का अम्बार भी लगा देता है- कम-से-कम मेरा यही अनुभव रहा।

पुस्तकें, पत्रिकाएँ-लिखे-पढ़े पर बात-बहस, साहित्यकारों से मेल-मिलाप-लिखने के लिए एक अनुकूल वातावरण तो मिला इस घर में, पर उस वातावरण का भरपूर फ़ायदा उठा सकूँ, वैसी सुविधा बिलकुल नहीं। अभी तक घर की किसी तरह की कोई ज़िम्मेदारी मैंने भी नहीं उठाई थी, लेकिन मानसिक रूप से मैं उसके लिए पूरी तरह तैयार होकर आई थी...केवल तैयार ही नहीं, भरपूर उमंग-उत्साह भी था...साथ ही यह उम्मीद और आश्वासन भी कि सह-जीवन के सुख-दुख और ज़िम्मेदारियाँ भी मिल-बाँटकर ही उठाएँगे।

पर ज़िन्दगी शुरू करने के साथ ही लेखकीय अनिवार्यता के नाम पर राजेन्द्र ने 'समानान्तर ज़िन्दगी' का आधुनिकतम पैटर्न थमाते हुए जब कहा कि 'देखो, छत ज़रूर हमारी एक होगी लेकिन ज़िन्दगियाँ अपनी-अपनी होंगी-बिना एक-दूसरे की ज़िन्दगी में हस्तक्षेप किए बिलकुल स्वतन्त्र, मुक्त और अलग', तो मैं तो बिलकुल अवाक् ! आधुनिकतम जीवन के इस पैटर्न से मेरा कोई परिचय नहीं था, परिचय तो क्या, दूर-दूर तक इसकी कोई कल्पना तक मेरे मन में नहीं थी। राजेन्द्र ने भी मित्रता के दौरान तो ऐसी किसी बात का कभी कोई संकेत तक नहीं किया था। मैं तो साथ आई थी सब तरह के अलगाव को दूर करके एक हो जाने के लिए, पूरी तरह घुल-मिल जाने के लिए। यह सब सुनकर तो मुझे लगा कि सिर पर छत का आश्वासन देकर जैसे पैर के नीचे की ज़मीन ही खींच ली हो। एक ही प्रश्न मेरे मन पर हथौड़े की तरह चोट करता रहा कि फिर इस छत की भी क्या ज़रूरत थी ? क्या प्रयोजन था ? छत तो राजेन्द्र के सिर पर भी थी और मेरे सिर पर भी सो इतना तो समझ में आ गया कि राजेन्द्र के दिमाग में एकाएक समानान्तर ज़िन्दगी की जो यह अवधारणा पैदा हुई है, निश्चित ही उसके सूत्र कहीं और ही हैं। पर असलियत को ईमानदारी से स्वीकार करने का साहस तो राजेन्द्र में कभी रहा ही नहीं (कम-से-कम मेरे सन्दर्भ में) इसलिए अपने हर झूठ, अपनी हर ज़िद, बल्कि कहूँ कि अपनी हर नाजायज़ हरक़त को ढंकने के लिए आदत से मजबूर राजेन्द्र हमेशा कोई-न-कोई ऐसा सूत्र ढूँढ़ ही लेते हैं-कभी आधुनिकता के नाम पर तो कभी लेखन के नाम पर तो कभी कोई और फ़लसफ़ा गढ़कर जो उन्हें सही सिद्ध कर दे। उस समय उन्हें समानान्तर शब्द बहुत माकूल नज़र आ रहा था और उसे एक व्यापक सन्दर्भ देने के लिए उन्होंने अपने कहानी-संकलन (सम्पादित) का नाम भी एक दुनिया समानान्तर रख लिया। बहरहाल स्थिति यह बनी कि हमारा सहजीवन समारम्भ (विवाह के निमन्त्रण-पत्र में राजेन्द्र ने यही छपवाया था) एक बड़े ही अजीब क़िस्म के अलगाव के साथ हुआ।

अपनी-अपनी ज़िन्दगी का जो बँटवारा हुआ उसमें घर की सारी ज़िम्मेदारियाँ और समस्याएँ-आर्थिक से लेकर दूसरी तरह की-मेरे ज़िम्मे थीं, जिसमें मुझे राजेन्द्र की दिलचस्पी की ही नहीं, सहयोग की भी ज़रूरत रहती थी लेकिन उसे तो राजेन्द्र ने मेरा अधिकार-क्षेत्र घोषित कर रखा था। मेरे अधिकार-क्षेत्र में कभी भी न झाँकने की, न किसी तरह की दिलचस्पी लेने की और न ही कोई हस्तक्षेप करने की बेहद उदारवादी मुद्रा ओढ़कर एक बड़ी ‘वाजिब और तर्क-संगत' अपेक्षा ये करते थे कि मैं भी इनके अधिकार-क्षेत्र में न कभी झाँकूँ, न किसी तरह की दिलचस्पी लूँ। इनके अधिकार-क्षेत्र में थे इनके 'निजी सम्बन्ध' और सरोकार, जब-तब, जहाँ-तहाँ घूमने-फिरने की और जब मन हुआ, बिना पीछे की ज़रा भी चिन्ता किए कलकत्ता से भाग निकलने की छूट। 'लिखना है' का तुरुप का पत्ता तो हमेशा उनके हाथ में रहता ही था, जिसके सामने प्रतिरोध का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।

इतना ही नहीं, मेरे सन्दर्भ में तो इन्होंने सामान्य-सी इंसानियत को भी दरकिनार कर रखा था। आज भी याद है कि साथ रहने के कुछ महीने बाद मेरे मुँह में ऊपर के तालू पर एक छाला हो गया...कोई अठन्नी के बराबर। तीन दिन बीतते-न-बीतते वह तो अच्छे-खासे घाव में बदल गया। खाना तो दूर पानी भी पीना भारी संकट से गुज़रना था। मैं बिस्तर पर पड़ी थी, इस उम्मीद में कि ये मुझे किसी डॉक्टर के यहाँ ले जाएँगे। पर राजेन्द्र सारी स्थिति से एकदम तटस्थ शाम को चार बजे के करीब हमेशा की तरह तैयार होकर काफ़ी-हाउस जाने लगे तो मैंने ही जैसे-तैसे कहा कि मुझे डॉक्टर को तो दिखा दीजिए। मेरे अनुरोध पर ये खुद तो नहीं रुके, बस नौकर को आदेश देकर चले गए कि वह पास की डिस्पेन्सरी से डॉक्टर को बुला लाए। नौकर गया तो डॉक्टर तो नहीं, कम्पाउंडर साथ चला आया। उसने मुझे अच्छी तरह देखा और कहा कि इसके लिए तो आपको बहुत करके पेनिसिलिन का इंजेक्शन ही लेना होगा और वह तो मैं आपको डॉक्टर की उपस्थिति में ही दे सकता हूँ। इसके लिए आपको खुद डिस्पेन्सरी तक आना होगा। अकेले वहाँ तक जाने की न मेरी हिम्मत थी न हालत। निराश-हताश मैं राजेन्द्र की प्रतीक्षा करने लगी कि किसी तरह ये नौ बजे के पहले आ जाएँ तो डॉक्टर के निकलने के पहले मैं वहाँ चली जाऊँगी। संयोग से कोई आठ, साढ़े आठ बजे प्रतिभा बहिन जी और नारायण साहब मुझे देखने आ गए। सारी स्थिति जानकर उन्होंने पकड़कर तुरन्त मुझे नीचे उतारा-गाड़ी में डाला और डॉक्टर के यहाँ से इन्जेक्शन लगवाकर लाए। पर वे गए नहीं और इन्तज़ार करते रहे राजेन्द्र का। नारायण साहब का चेहरा ही उनके क्रोध को प्रकट कर रहा था। करीब साढ़े दस बजे राजेन्द्र आए तो उन्होंने बड़े व्यंग्य से कहा, 'कहिए, कहाँ से तफ़रीह करके लौट रहे हैं ?'

उनके व्यंग्य की तरफ़ ध्यान दिए बिना, राजेन्द्र अपनी ही रौ में बताने लगे (स्वर में खीज का काफ़ी पुट था)।

'अरे, आज भाभीजी (ठाकौर साहब की पत्नी) का जन्मदिन था सो मैं कॉफ़ी-हाउस से उठकर सीधा उन्हें विश करने चला गया। वहाँ जाकर देखा कि चन्दर तो उन लोगों को डिनर पर ले गया है...और वे चले भी गए! जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि मैं चाहे कहीं भी होऊँ...उनकी सालगिरह पर ज़रूर उनके पास जाता हूँ...बस इन्हें तो कोई भी खाना खिलाने या मौज कराने ले जाए ये फिर...'

गुस्से में राजेन्द्र ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया। (उनके गुस्से का कारण ही यही था और इसे लेकर राजेन्द्र और ठाकौर साहब में कुछ तल्ख से पत्रों का आदान-प्रदान भी हुआ था।) एकाएक इन लोगों का ख़याल आते ही पूछा-

आप लोगों को आए क्या बहुत देर हुई ? असल में मैं कुछ देर तक उनके लौटने का इन्तज़ार करता रहा पर जब वे लोग दस बजे तक भी नहीं आए तो लौट आया !' उसके बाद तो नारायण साहब ने ऐसा फटकारा कि बस।

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