जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि-15 अगस्त, 1947।
कितना मन था कि दिल्ली जाकर किसी तरह सत्ता का हस्तान्तरण देखने को मिले
क्योंकि लगता था कि जैसे इस उपलब्धि में हमारा भी योगदान है। पर यह सम्भव
नहीं था सो अजमेर की सड़कों पर ही जश्न देखा। अजमेर शहर में वैसी दीवाली न
पहले कभी मनी होगी, न बाद में। आज़ादी के साथ जुड़ा विभाजन और उसकी भयंकर
त्रासदी...सूचना के स्तर पर तो हमें यह सब मालूम हुआ पर संवेदना के स्तर पर
उस समय हमने उसकी आँच महसूस ही नहीं की थी। टी.वी. तो उन दिनों थे नहीं जो
शरणार्थियों के उन क़ाफ़िलों को देखते जो केवल लूट-पिटकर ही नहीं...अपना सारा
अतीत भी अपनी सरहदों की मिट्टी में दफ़नाकर...खाली हाथ, खाली जेब लिये आतंक
से थरथराते हुए अनिश्चित भविष्य और अनजान सरहदों में प्रवेश करने के लिए
अभिशप्त थे। अपनी मिट्टी, अपनी सरहदों के मोह का थोड़ा-सा अहसास यदि हुआ तो,
एक छोटी-सी घटना से।
एक मुसलमान रँगरेज़ था। मोहल्ले की लड़कियाँ उसे बाबा कहती थीं। हम लोग उसे
कभी हल्के-हल्के रंग रँगने, तो कभी बन्धेज के डिज़ाइन बनाने को पाड़ियाँ देती
थीं। हमारे मन लायक़ डिज़ाइन बन जाता तो हमसे ज़्यादा प्रसन्नता उसे होती थी।
वह हफ़्ते में एक दिन आता था और रँगरेज़ के 'रे' को खींचकर एक ख़ास अन्दाज़
में आवाज़ लगाता था। रँगरेऽऽऽज ! अचानक बाबा का आना बन्द हो गया। हम लोग
हैरान-परेशान। कुछ दिनों बाद मालूम पड़ा कि वो पाकिस्तान चले गए। पर क्यों ?
अजमेर में मुसलमानों की संख्या भी ख़ासी थी-दरगाह तो है ही, फिर कोई ऐसे
भयंकर दंगे भी नहीं हुए थे कि कोई शहर छोड़कर चला जाए। क्या तकलीफ़ थी बाबा
को...किससे डर था ? खैर, मैं भी अजमेर छोड़कर कलकत्ता चली गई थी सो बात आई-गई
हो गई। कलकत्ता में मैंने कॉलेज तो ज्वॉइन किया नहीं था सो कुछ महीने कलकत्ता
और कुछ महीने अजमेर रहती थी। कोई ढाई-तीन साल बाद की बात है, मैं अजमेर में
थी और एक दिन अचानक सुना-रँगरेऽऽज। मैं चौंकी, फिर सोचा यह भ्रम है कि तभी उस
आवाज़ की पुनरावृत्ति। दौड़कर मैं ही बाहर नहीं आई, अड़ोस-पड़ोस की दो-चार
लड़कियाँ-भाभियाँ और निकल आईं। हम सबसे घिरा, दोनों हथेलियों में माथा टिकाए
ज़मीन पर गुमसुम बैठा बाबा और प्रश्नों की झड़ी लगाती हम सब लोग–'कहाँ चले
गए...क्यों चले गए थे...तुम्हें क्या ज़रूरत थी जाने की...'
अचानक बाबा फफककर रो पड़ा और बार-बार ज़मीन से मिट्टी उठाउठाकर माथे से लगाने
लगा। अनवरत आँसुओं और हिचकियों के बीच बस एक ही वाक्य उसके मुँह से निकलता जा
रहा था-"अपनी मिट्टी को छोड़कर कोई रह सकता है क्या...अपनी माँ को छोड़कर कोई
रह सकता है क्या ?"
राजस्थानी भाषा में वह यही वाक्य बार-बार दोहराए जा रहा था। वहाँ के सभी
रँगरेज़ और अनेक मुसलमान ठेठ राजस्थानी ही बोलते हैं जैसे बंगाल के मुसलमान
बँगला बोलते हैं। उस दिन पहली बार समझ में आया कि यह मात्र भाषा-प्रेम नहीं
है, यह तो उस जगह का...उस मिट्टी का प्रेम है, भाषा जिसका अविच्छिन्न हिस्सा
है।
पता नहीं क्यों, बरसों तक यह दृश्य मेरे अन्दर खुदा रह गया था। उसके बाद तो
जब भी सरहदों के बँटवारे की बात या विस्थापन की बात पढ़ती-सुनती...यह दृश्य
फिर सजीव हो उठता। सिर पर बैठे हुक्मरान सनक में लिपटे अपने अहं की तुष्टि के
लिए सरहदों को जब जोड़ते-तोड़ते...घटाते-बढ़ाते रहते हैं तो क्या एक बार भी
उन्हें अपनी ज़मीन से जुड़े...अपनी ज़मीन को जान से भी ज़्यादा प्यार
करनेवाले लोगों का ध्यान नहीं आता ?
खैर, यह एक अवान्तर प्रसंग है जो आज तो एक भावुकता-भरा प्रलाप भी लग सकता
है...शायद लगेगा भी, पर नहीं जानती, आज़ादी और विभाजन की बात के साथ मेरे मन
में बाबा क्यों जुड़े बैठे हैं और आज़ादी की बात आई तो बाबा को तो आना ही था।
शीलाजी के दिल्ली के आई.पी. कॉलेज में चले जाने के बाद अब मेरे लिए भी अजमेर
रहने का कोई आकर्षण नहीं रह गया था इसलिए मैं भी अजमेर छोड़कर कलकत्ता चली गई
अपने बड़े भाई-बहिनों के पास ! चली तो गई पर यह भी नहीं सोचा कि इससे पढ़ाई
का नियमित सिलसिला टूट जाएगा। वह टूटा और बिना किसी की मदद के कलकत्ता से
बी.ए. और बनारस से एम.ए. किया, लेकिन प्राइवेटली। पर यह मात्र डिग्री पाने का
आयोजन-भर था, असली शिक्षा नहीं। उन दिनों कॉलेज और यूनिवर्सिटी में आज की तरह
सिर्फ पढ़ाया भर नहीं जाता था...आपके पूरे व्यक्तित्व को सँवारा जाता था और
मैं उससे वंचित ही रही। इस कॉम्पलेक्स ने भी मुझे बाद में बहुत मथा और आज भी
मैं उसकी चुभन जब-तब महसूस करती हूँ, बल्कि कह सकती हूँ कि बचपन की उस हीनभाव
की ग्रन्थि पर (शीला अग्रवाल ने जिससे बहत कुछ उबारा था) एक परत और चढ़ाई इस
कॉम्पलेक्स ने।
आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि शीला नाम के साथ कैसा तो संयोग है मेरा।
पन्द्रह वर्ष से सत्रह वर्ष की कच्ची उम्र में शीलाजी ने साहस और आत्मविश्वास
से भरकर उस समय चलने के लिए एक दिशा दी थी-जीवन को अर्थ दिया था। मेरी भीतरी
शक्ति और व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को उजागर किया था...तो कलकत्ता
में सुशीला (बड़ी बहिन) ने तो जब-तब मेरे अस्तित्व को ही बचाया। अपने सारे
दुख-दर्द, हारी-बीमारी, नौकरी के साथ बच्ची को पालने के संकट, नसें चटका
देनेवाले मानसिक आघात और भावनात्मक झटके, तब से लेकर आज तक, मैं उसी के सहारे
झेलती आई हूँ। यों तो अपने सभी बड़े भाई-बहिनों का अगाध स्नेह-सहयोग मुझे
हमेशा ही मिलता रहा है...बड़े जीजाजी ने तो मुझे हमेशा अपनी बिटिया ही समझा।
जीवन में मिली अनेक नियामतों में से एक है घने रूप से जुड़ा-गुँथा मेरा यह
परिवार, जिसमें सगे-चचेरे का कभी कोई भेद ही नहीं रहा-एक के संकट को सबने
अपना संकट माना तो एक की खुशी सबको पुलकित करती चली गई। बहुत बड़ी शक्ति रही
है यह मेरी, पाँव के नीचे की ठोस ज़मीन।
कलकत्ता जाने के बाद पुस्तकें पढ़ने का जो क्रम टूटा था, उसे जोड़ा कोमल
कोठारी ने। काफ़ी कुछ पढ़वाया था उन्होंने भी-केवल पढ़वाया ही नहीं,
बहस-चर्चा भी करते थे। मैं तो उनका पढ़ा कूपन देखकर ही दंग थी, फिर कई बातों
में उनका नया दृष्टिकोण। आज भी याद है जब मेरी समझ से भक्ति रंग में रँगी हुई
मीरा (जैसा कि हम पढ़ते आए थे) का क्रान्तिकारी रूप उन्होंने मेरे सामने रखा
था तो मैं सचमुच चकित रह गई थी। सच ही तो है, राजस्थान के राजमहलों में, जहाँ
स्त्री की उँगली तक दिखना वर्जित है-वहाँ साधु-सन्तों के बीच बैठकर मँजीरे
बजाती, नाचती-गाती मीरा से भी अधिक कोई क्रान्तिकारी हो सकता है भला ? आज
स्त्री-विमर्श की जद्दोजहद के ढोल-ढमाके तो देखने-सुनने को बहुत मिले लेकिन
ऐसा क्रान्तिकारी चरित्र तो शायद ही कहीं देखने में आया हो। और इसके साथ ही
रचनाओं को, पात्रों को नए ढंग से देखने-परखने का सिलसिला शुरू हुआ। आज चाहे
ये बातें बहुत बचकानी लगती हों पर उस समय मेरे लिए ऐसी छोटी-छोटी बातों की भी
बहुत अहमियत थी।
कोमल कोठारी तो जल्दी ही कलकत्ता छोड़कर चले गए और उनके जाते ही उस तरह पढ़ने
और पढ़े पर चर्चा करने का सिलसिला भी टूट गया। मैंने भी अपने को सब ओर से
समेटकर एम.ए. की तैयारी में लगाया। 'हिन्दी में एम.ए. करना है तो बनारस से
करो' के सुझाव ने एक वर्ष का अन्तराल तो और बढ़ा ही दिया, पर असली संकट था कि
इन्टर के बाद हिन्दी से सम्बन्ध केवल हिन्दी उपन्यासों की सरस दुनिया तक ही
रह गया था-इसके चलते कहीं एम.ए. किया जा सकता था भला ? बिना किसी साथी-सहयोगी
और दिशा-निर्देश के भाषाविज्ञान और काव्यशास्त्र जैसे ठस और ठोस विषयों में
डुबकी लगाना काफ़ी कठिन लग रहा था। खैर, जैसे-तैसे वह वैतरणी भी पार की और
1952 में मैंने एम.ए. पास कर लिया। डिग्री तो मिल गई, लेकिन साहित्य का
अकादमीय पक्ष कमज़ोर ही रहा और इसे स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म-संकोच या
झिझक न पहले कभी थी, न आज है कि ज़िन्दगी भर पढ़ाने के बावजूद आज भी वह काफ़ी
कमज़ोर ही है। हाँ, अपना विषय पढ़ाने में मुझे कभी कोई परेशानी नहीं रही और न
ही मेरी छात्राओं को कभी किसी तरह की शिकायत हुई। छात्राओं के बीच मिली
लोकप्रियता और उनके प्रति अपने दायित्व को पूरी लगन और निष्ठा के साथ निभाने
के सुख-सन्तोष को मैं अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानती हूँ।
कलकत्ता में उस ज़माने में शायद हिन्दी पढ़ानेवालों की बहुत कमी रही होगी,
'इसलिए एम.ए. करते ही बालीगंज शिक्षा सदनवालों ने आग्रह करके मुझे अपने यहाँ
रख लिया ! मैंने भी तुरन्त अपनी स्वीकृति दे दी, बिना यह सोचे कि स्कूल से
अपना कॅरियर शुरू करना भविष्य के लिए कैसा रहेगा ? सच बात तो यह है कि उस समय
मैं उत्साह से भरी हुई थी और वर्तमान ही मेरे लिए सब कुछ था। भविष्य की बात
तो दूर-दूर तक कहीं दिमाग में थी ही नहीं।
बालीगंज शिक्षा सदन-एक नए परिवार में प्रवेश। भाई-बहिनों के परिवार से बहुत
भिन्न था यह परिवार-भिन्न और व्यापक, पर ऊष्मा वैसी ही। पुष्पमयी बोस मुखिया
थीं उस परिवार की। छात्रों के प्रति बेहद ममतामयी, लेकिन उतनी ही
अनुशासनप्रिय भी। विचारों से वे मार्क्सवादी थीं, हो सकता है कभी
पार्टी-मेम्बर भी रही हों। शुरू के दिनों में वे ज़रूर इधर-उधर के और कामों
से भी जुड़ी हुई थीं, पर धीरे-धीरे उनके सारे सरोकार और गतिविधियों का
केन्द्र बालीगंज शिक्षा सदन ही होता चला गया था। दिल्ली आने के बाद जब भी मैं
कलकत्ता जाती, उनसे मिलने स्कूल ज़रूर जाती। मैंने देखा कि बढ़ती उम्र के साथ
स्कूल के प्रति उनका लगाव मोह में बदलता जा रहा है, मानो स्कूल ही उनकी गति
है, उनकी नियति। निकट भविष्य में स्कूल से मुक्त होने की सम्भावना मात्र से
और अधिक चिपककर रहने लगीं वे स्कूल से, यहाँ तक कि 'मैनेजिंग कमेटी' वालों के
लिए समस्या बन गईं। बहुत सम्मान था सबके मन में उनके लिए और उसी की बिना पर
तीन-चार साल और काट भी दिए उन्होंने, लेकिन आख़िर रिटायर तो होना ही था और
मैंने सुना कि रिटायर होने के बाद भी एक अलग कुर्सी डलवाकर वे अपने ऑफ़िस के
कमरे में ही बैठती हैं।
अगली बार जब मैं कलकत्ता गई तो उनसे मिलने उनके घर नहीं, स्कूल ही गई।
विचित्र दृश्य देखा। ऑफ़िस के कमरे में उनकी कुर्सी पर बैठी थीं 'प्रमोट'
होकर प्रिंसिपल बनी एक सीनियर टीचर (मंजु नाग) और उनके सामने की कुर्सी पर
बैठी थीं वे। उन दोनों के चेहरे। एक चेहरे पर बरसों से पुते सम्मान को छेककर
झलकती हुई एक बेबस-सी खीज और दूसरे के चेहरे पर ? हमेशा गरिमा में लिपटे
रौबदाब के भीतर से झाँकती एक अनकही-सी कातरता। मुझे देखते ही वे पुलक उठीं,
उसी सहज भाव से हालचाल पूछा और मुझे लेकर बाहर निकल आईं। “देखो, कितना
‘एक्सटेंशन' करवा लिया मैंने स्कूल का"-और वे मुझे स्कूल के उस हिस्से में
पहुँचकर सब कुछ दिखाने लगी..."ये देखो...ये देखो...इधर देखो" पर मैं उनका
चेहरा देख रही थी...क्या ये सचमुच मुझे दिखा रही हैं या कि खुद ही मुग्ध भाव
से अपने बनाए को देख रही हैं। ज़रा-सा आगे जाकर एक बरामदा-सा था। बिना किसी
हिचक-संकोच के उसके बीचोंबीच ज़मीन पर बैठकर काले पत्थर के बने एक फूल पर हाथ
फेर-फेरकर वे बताने लगीं-“देखो, कैसा बना है ये...मैंने खुद ड्रा करके दिया
था यह डिज़ाइन, अपने हाथ से। अच्छा बना है न ?” ये वही मिस बोस हैं ?
देखते-ही-देखते मेरे मन का सारा सम्मान पिघलकर एक ऐसी करुणा में बदलने लगा,
जिसे सँभाल पाना मेरे अपने लिए मुश्किल हो गया। मैं जल्दी से स्टाफ़-रूम में
चली गई। चार-छह लोगों को छोड़कर सभी नए चेहरे। उनकी नज़रों में झक्की और
सिनिक हो आईं मिस बोस के लिए उपहास था...केवल उपहास।
घर लौटकर रात में अपनी डायरी में, जिसमें मैं सम्भावित कहानियों के कथ्य और
आइडियाज़ बीज रूप में आँकती रहती हूँ, उन पर मैंने दो पृष्ठ लिखे कि कभी इन
पर कहानी लिखूगी। कितने वर्ष हो गए इस बात को, पर कभी कहानी नहीं लिख पाई।
उनकी मृत्यु की सूचना के बाद भी नहीं। अपनी निष्ठा, लगन और समर्पण की अति में
हास्यास्पद हो आए इस चरित्र की करुणा में जैसा सन्तुलन और सधाव अपेक्षित है,
लगा मैं शायद वैसा निभा नहीं पाऊँगी...और ज़रा-सा भी सन्तुलन बिगड़ा तो या तो
भावुकता में लिथड़े आँसू-बहाऊ किसी निहायत ही दयनीय-से चरित्र की सृष्टि हो
जाएगी या फिर किसी सचमुच के झक्की. सिनिक-से हास्यास्पद पात्र की। और उन मिस
बोस के व्यक्तित्व की एक भी रेखा के आड़े-तिरछे हो जाने के अपराध को मैं कभी
माफ़ नहीं कर सकती, जिन्होंने नौ वर्ष तक मुझे बहुत स्नेह ही नहीं दिया,
जाने-अनजाने मेरे व्यक्तित्व को बनाया-सँवारा भी।
आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है कि भयंकर चर्म-रोग से पीड़ित होने के बाद जब
स्थिति थोड़े से सुधार की ओर थी तो एक दिन अचानक वे मुझे देखने घर चली आईं।
मैं बैठी-बैठी कभी इस हाथ को देखती तो कभी उस हाथ को...मुझे इस हालत में
देखकर उन्होंने तुरन्त आदेश दिया कि कल से तुम स्कूल आओगी...पढ़ाने के लिए
नहीं, केवल स्टाफ़-रूम में बैठकर सबके साथ बोलने-बतियाने के लिए। सबके बीच
रहोगी तो मन थोड़ा बदलेगा-बहलेगा वरना सारे समय अपने शरीर को देख-देखकर दुखी
होती रहोगी। मैं इस हालत में स्कूल जाने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी तो
उन्होंने ठोक-ठोककर सुशीला से कहा कि कल जैसे भी हो इसे स्कूल भेज देना।
दूसरे दिन इच्छा न रहने पर भी हिम्मत जुटाकर टैक्सी लेकर मैं गई। संयोग कुछ
ऐसा हुआ कि उन्होंने मुझे टैक्सी से उतरते हुए देख लिया और फिर वही दुलार-भरी
फटकार...टैक्सी में आई हो ? अरे, बीमारी में पहले ही इतना खर्च हो रहा होगा,
ऊपर से टैक्सी ? कल से स्कूल की बस तुम्हें लेने आएगी ! और दूसरे दिन से मुझे
लाने-ले जाने का काम स्कूल-बस ने ही किया।
वे अपने स्कूल के लॉन में कभी किसी सामाजिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम की
अनुमति नहीं देती थीं...छुट्टी के दिनों में भी नहीं...भरपूर पैसे मिलने पर
भी नहीं लेकिन जब मेरी शादी का आयोजन गोविन्दजी कनोडिया की कोठी के लॉन में
सम्पन्न हुआ तो बाद में उन्होंने मुझसे शिकायत करते हुए कहा था...मन्नू,
तुम्हें मुझे बताना चाहिए था...हम स्कूल से तुम्हारी शादी करते...इतना अधिकार
तो है तुम्हारा इस स्कूल पर या कि स्कूल का तुम पर। उनकी इस स्नेह और अपनत्व
भरी शिकायत का मैं क्या जवाब देती..बस, उनके आगे नतमस्तक होकर रह गई। बाद में
कई बार सोचा...कहाँ थे इस स्नेह के सूत्र ? पर न तो इन्हें खोज पाने की
सामर्थ्य मुझमें थी...न ही परिभाषित करने की भाषा। और शायद यही कारण है कि
मिस बोस पर मैं कभी कहानी नहीं लिख पाई। हाँ, एक बात ज़रूर मन की किसी
अनजानी-सी परत पर अंकित होकर बैठ गई कि लगन जब किसी उन्मादी लगाव में बदल जाए
और निष्ठा और समर्पण अन्धे मोह में, तो कैसे आपका पूरा व्यक्तित्व या तो बेहद
कंठित और दयनीय बन जाता है या फिर हास्यास्पद। दोनों ही स्थितियाँ आपके
व्यक्तित्व को ज़र्रा-ज़र्रा बिखेरने के लिए काफ़ी हैं। इसलिए जैसे भी हो
इनसे मुक्त हो जाना चाहिए, फिर वह मोह चाहे किसी संस्था से हो, काम से हो,
व्यक्ति से हो या सम्बन्ध से।
हो सकता है ऐसा ही कोई कारण शीला अग्रवाल पर न लिख पाने के पीछे भी रहा हो ?
उन्होंने भी तो मेरे व्यक्तित्व को बहुत सहेजा-सँवारा था। दिल्ली चले जाने के
बाद भी उनसे पत्र-व्यवहार बराबर चलता रहा...खूब पढ़ने के...ज़िन्दगी में कुछ
बनने के आदेश-निर्देश उनसे बराबर मिलते रहते थे। वे बराबर अपने पास आने का
निमन्त्रण भी देती रहती थीं सो एम.ए. की परीक्षा देने के बाद बनारस से लौटते
समय दो दिन उनके पास जाकर रही थी। इसके बाद एक बार वे भी मुझसे मिलने कलकत्ता
आई थीं। मिलने पर बातों का सिलसिला जैसे ख़त्म ही नहीं होता था। कुछ वर्षों
बाद वे ही शीला अग्रवाल अचानक विनोबाजी के आश्रम में चली गईं। जाना-सुना तो
मैं अवाक्-स्तम्भित। उस ज़माने में यू.पी. के एक साधारण से मध्यवर्गीय परिवार
की चौबीस-पच्चीस साल की एक लड़की जो अपने क्रान्तिकारी तेवर के कारण नौकरी तक
से निकाल दी गई...चौंतीस-पैंतीस की उम्र तक आते-आते क्यों एकाएक विनोबाजी के
आश्रम में चली गई ? कुछ वर्षों तक वहाँ से लिखे उनके पत्रों का स्वर और भाव
सब कुछ कैसे इतना बदल गया ? कोई भावनात्मक झटका...कोई मोहभंग ? ये सारे
प्रश्न...ये सारी बातें मुझे लिखने के लिए उकसाते तो बहुत थे पर कभी लिख नहीं
पाई ! उनके लिए मन में जो एक लगाव-भरा सम्मान था, वह शायद मुझे कभी तटस्थ
नहीं रहने देता और बिना तटस्थता के क़लम उठाना लेखकीय कर्म के प्रति बेईमानी
होती !
छात्राओं की बात किए बिना बालीगंज शिक्षा सदन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा।
वहाँ की छात्राओं से कितना स्नेह, कितना सम्मान मिला और वह मेरी कितनी बड़ी
शक्ति था, इसका अहसास तो मुझे बाद में हुआ। अपने पहले प्रेम की असफलता की
टूटन जो मेरे शरीर के रोम-रोम से चर्म-रोग के रूप में फूटी थी, मैंने इन
छात्राओं के बीच ही झेली थी। वे सम्बन्ध मात्र छात्रा और अध्यापिका के ही
नहीं थे, बल्कि उससे कहीं अधिक प्रगाढ़, कहीं अधिक आत्मीय थे। इसमें कोई
सन्देह नहीं कि उस समय मैं उनका आदर्श थी और वे मेरी पहली ज़िम्मेदारी, मेरा
पहला सरोकार। छात्राओं के मामले में मैं हमेशा अपने भीतर शीला अग्रवाल की
उपस्थिति महसूस करती थी। मुझे भी लगता था कि मुझे इन्हें केवल कोर्स भर नहीं
पढ़ाना है और भी बहुत कुछ पढ़ाना है और इसीलिए मैंने कुछ सालों बाद मिस बोस
से आग्रह करके टाइम-टेबिल में एक अतिरिक्त पीरियड की माँग की। पहले तो वे
हैरान-सी मेरा चेहरा देखती रहीं पर जब मक़सद बताया तो बेहद प्रसन्न। वे खुद
चाहती थीं कि छात्राओं में कोर्स के अलावा पढ़ने की मात्र आदत ही नहीं बल्कि
व्यसन पैदा किया जाए और इसीलिए उन्होंने मुझे लायब्रेरी की ज़िम्मेदारी सौंप
दी और उसे अप-टु-डेट बनाने के लिए पुस्तकों की एक लम्बी सूची तैयार करने को
भी कहा। पुस्तकालय के लिए धन मुहय्या करने का दायित्व लिया स्कूल के
प्रेसिडेंट श्री भगवती प्रसाद खेतान ने और सूची तैयार करवाने के लिए उन्होंने
ही राजेन्द्र यादव को स्कूल भेजा था। राजेन्द्र से मेरी पहली औपचारिक
मुलाक़ात इसी तरह हुई थी।
अपनी छात्राओं के साथ सम्बन्ध बनाते समय मैं हमेशा अपने भीतर शीलाजी की
उपस्थिति महसूस करती थी। उन्हीं की तरह मैं भी अपनी छात्राओं को किताबें
पढ़ने को कहती और अतिरिक्त पीरियड में हम लोग उन पर चर्चा करते। मात्र एक
पीरियड में होनेवाली चर्चा से मन नहीं भरता तो वे घर आ जातीं। मेरी शादी के
बाद भी यह सिलसिला चलता रहा और फिर तो राजेन्द्र भी इसमें भागीदारी करने लगे।
स्कूल के स्तर पर ही उनकी पढ़ने की रुचि देखकर आज तो आश्चर्य होता है क्योंकि
पढ़ने की वैसी रुचि तो मैंने दिल्ली में कॉलेज की छात्राओं में भी कभी नहीं
पाई। वहाँ की प्रभा खेतान ने तो इस क्षेत्र में अपने योगदान से काफ़ी ख्याति
भी अर्जित की है। बालीगंज शिक्षा सदन में गुज़ारे नौ वर्ष मेरी ज़िन्दगी के
बहुत महत्त्वपूर्ण वर्ष रहे हैं। ज़िन्दगी के सभी महत्त्वपूर्ण मोड़ यहीं तो
आए। यहीं मैंने अपनी पहली कहानी लिखी और साहित्य के क्षेत्र में क़दम
रखा...इसी स्कूल की लाइब्रेरी के लिए किताबें मँगवाने के सिलसिले में
राजेन्द्र से परिचय हुआ...विवाह हुआ और गृहस्थी में प्रवेश किया। यहीं काम
करते हुए बिटिया का जन्म हुआ। ज़िन्दगी के सभी महत्त्वपूर्ण मोड़ यहीं आए।
स्कूल के अतिरिक्त उन दिनों मैं कुछ समय के लिए 'अनामिका' की गतिविधियों से
भी जुड़ी थी। दोनों बहिनों या भाई में से जिसके भी घर रही, वहाँ सुविधाएँ तो
सब उपलब्ध थीं, ज़िम्मेदारी कोई नहीं, इसलिए मन हमेशा कुछ-न-कुछ करने को
छटपटाया करता था। कलकत्ता में बंगला रंगमंच तो बहुत ही विकसित स्थिति में
था...कई प्रसिद्ध नाट्य-संस्थाएँ भी थीं। वहाँ न नाटकों का अभाव था, न ही
अभिनेताओं का। पर सबसे बड़ी बात जो थी वह थी-सामान्य लोगों में नाटक देखने का
संस्कार। साधारण से साधारण हैसियतवाले परिवार भी जैसे-तैसे पैसा बचाकर अच्छा
नाटक होने पर देखने ज़रूर जाते थे और इसीलिए अच्छे नाटक वहाँ महीनों तक चलते
रहते थे। दो नाटकों का तो मुझे आज भी याद है, सेतु और अंगार, जो शायद साल से
ऊपर ही चले थे। उस समय तक मेरा अपना तो नाटक देखने का कोई संस्कार ही नहीं था
इसलिए बंगला मंच की विकसित तकनीक ने जिसमें तापस सेन ने बिजली के प्रभाव से
कोयला-खदान में धीरे-धीरे पानी भरते हुए दिखाया था-मुझे तो चमत्कृत कर दिया।
उसके बरक्स हिन्दी का न कोई स्थायी मंच था, न नाट्य-संस्था और न ही लोगों में
नाटक देखने का संस्कार। श्यामानन्द जालान और प्रतिभा अग्रवाल के प्रयास से
छुट-पुट नाटक होते रहते थे। अन्ततः श्यामानन्द जालान ने प्रतिभा अग्रवाल और
कुछ और लोगों के सहयोग से 'अनामिका' नामक नाट्य-संस्था की स्थापना की। मुझे
आज भी याद है कि इसकी पहली मीटिंग सुशीला के घर में ही हुई थी। प्रतिभा के
साथ सुशीला भी मंच के साथ जुड़ी हुई थी और छोटे-मोटे रोल किया करती थी।
धीरे-धीरे तो फिर इसमें कई और लोग भी जुड़ते चले गए। आरम्भ के दिनों में इसी
अनामिका के साथ सक्रिय रूप से मैं भी जुड़ी तो ज़रूर पर मंच न कभी मेरा
क्षेत्र था...न ही कभी बन पाया। हाँ, बाक़ी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी मैंने
ज़रूर उठाई। अनामिका में केवल नाटक ही नहीं होते थे वरन् नृत्य-संगीत के
कार्यक्रम भी बराबर होते रहते थे। वर्षा के दिनों में वर्षा-मंगल, होली पर
फाग...सरस्वती-पूजा पर बसन्त के नृत्य-गीतों से हॉल गूंज उठता था। हाँ, नाटक
के क्षेत्र में हिन्दी के मौलिक नाटकों की कमी सबसे बड़ा संकट थी, इसलिए
जब-तब अनूदित नाटकों के मंचन से इसकी पूर्ति की जाती थी। देखते-ही-देखते
अनामिका हिन्दी भाषा-भाषी लोगों के बीच एक बहुत ही लोकप्रिय सांस्कृतिक
संस्था हो गई और केवल इसके सदस्यों की संख्या में ही भारी इज़ाफ़ा नहीं हुआ
बल्कि अभिनय, नृत्य, संगीत के क्षेत्र की नई-नई प्रतिभाएँ भी उभरकर सामने आने
लगीं।
मेरे कलकत्ता जाने से काफ़ी पहले से श्री भंवरमलजी सिंघी के नेतृत्व में
मारवाड़ियों के बीच समाज-सुधार का एक बड़ा क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हुआ था,
जिसमें सुशीला काफ़ी ख्याति अर्जित कर चुकी थी। उसकी विभिन्न गतिविधियाँ अभी
भी चलती रहती थीं, यानी कि पूरे माहौल में एक जीवन्तता...कुछ विशिष्ट करने की
ललक-भरी सक्रियता। अगर कुछ नहीं थी तो साहित्यिक आबोहवा। यों पढ़ने का शौक़
घर में और मित्रों में सबको था...खूब पढ़ते भी थे, बहस-चर्चा भी होती थी, पर
कुल मिलाकर वह मन-बहलाव और समय-गुज़ारू पढ़ाई होती थी। ऐसे में बिना किसी की
प्रेरणा और प्रोत्साहन के मैंने अपनी पहली कहानी, 'मैं हार गई' कैसे लिखी,
मैं खुद नहीं जानती। लिख तो ली पर समझ ही नहीं आया कि किससे इस पर सलाह-सुझाव
माँगूं। परिचय के दायरे में कोई था ही नहीं। सेंगरजी (मोहनसिंह सेंगर) उस समय
नया समाज का सम्पादन कर रहे थे और सप्ताह में तीन-चार दिन शाम को
बहिनजी-जीजाजी के पास आते थे, फिर ये लोग बाहर जाकर शाम साथ ही गुज़ारते थे।
लेकिन जाने कैसा संकोच और दुविधा थी कि इस पर कभी बात करने की हिम्मत ही नहीं
हुई। लेकिन लिखी हुई कहानी चैन भी नहीं लेने दे रही थी। आख़िर सारे संकोच को
दूर कर मैंने उसे कहानी पत्रिका में भेज दिया श्यामू संन्यासी के पास और साँस
रोककर, बिना किसी को बताए प्रतीक्षा करने लगी। दिन सप्ताह में और सप्ताह
महीने में बदल गए पर उत्तर नहीं आया तो समझ लिया कि ज़रूर उसे उठाकर कूड़े की
टोकरी में फेंक दिया होगा इसीलिए रिमाइंडर भेजने की हिम्मत भी नहीं हुई। बस,
धीरे-धीरे इस बात को भूलने की कोशिश करने लगी...केवल भूलने की कोशिश ही नहीं
बल्कि इस बात को ठोक-ठोककर मन में जमाने की कोशिश भी करने लगी कि यह क्षेत्र
मेरा है ही नहीं...मुझे अब इस दिशा में झाँकना भी नहीं है।
आज सोचती हूँ तो लगता है कि कितनी पस्त-हिम्मत थी मैं (वैसे वह तो मैं आज भी
हूँ) कि एक रचना का केवल उत्तर नहीं आया (लौटी तो वह भी नहीं थी) और मैं
हाथ-पैर पूरी तरह ढीले करके...उस दिशा से पूरी तरह मुँह मोड़ने का संकल्प
लेकर बैठ गई। अरे, लोगों की कई-कई रचनाएँ लौट तक आती हैं, फिर भी वे लगातार
कोशिश करते रहते हैं...और-और गहरे संकल्प के साथ। पर उस समय तक तो लेखन और
लेखन के क्षेत्र का ककहरा तक नहीं जानती थी, सो यह सब कैसे जान पाती ? फिर
कहानी भेजते समय किसी को बताया भी तो नहीं था कि कोई थोड़ी-सी हौसला-अफ़ज़ाई
ही कर देता...कम-से-कम एक रिमाइंडर ही भिजवा देता। खैर, यह तो मैं क़िस्मत की
धनी निकली (संकल्प के मामले में तो मैं दरिद्र ही नहीं, महादरिद्र हूँ आज तक,
पर क़िस्मत इतनी बुरी नहीं) कि एक दिन अचानक भैरव प्रसाद गुप्त का पत्र
मिला...पत्र क्या, कहानी की स्वीकृति ही मिली और मात्र स्वीकृति ही नहीं
बल्कि प्रशंसा में लिपटी, प्रोत्साहित करती स्वीकृति मिली। बार-बार मैं उस
पत्र को पढ़ती थी और मन होता था कि जाकर सबको बता आऊँ कि देखो मेरी पहली ही
कहानी स्वीकृत हो गई है। और फिर तो मैं साँस रोककर पत्रिका की प्रतीक्षा करने
लगी।
अपनी पहली कहानी को पत्रिका में छपा हुआ देखना भीतर तक थरथरा देनेवाले
रोमांचक अनुभव से गुज़रना था। वैसा थ्रिल, वैसा रोमांच तो उसके बाद मैंने फिर
कभी महसूस ही नहीं किया, जबकि कई बड़े-बड़े और महत्त्वपूर्ण अवसर आए। अपनी
कहानी पर बनी फ़िल्म ‘रजनीगन्धा', उसके 'सिल्वर जुबिली' समारोह में
शिरकत...धर्मयुग में धारावाहिक रूप में छपते समय अपने उपन्यास आपका बंटी पर
पाठकों की गुदगुदाती व्यापक प्रतिक्रियाएँ...महाभोज का अविस्मरणीय मंचन और
सभी अख़बारों में उसकी रिव्यूज़...लेकिन नहीं, वैसा अनुभव फिर कभी नहीं हुआ।
आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे कहानी जब तक पन्नों पर लिखी हुई थी,
न जाने कितने अगर-मगर, दुविधा-संकोच, झिझक मन को घेरे रहे थे... विश्वास नहीं
होता था कि जो कुछ लिखा है, वह किसी लायक़ भी है, लेकिन छपकर आते ही मन
आत्मविश्वास से भर उठा। मुझे लगने लगा जैसे मेरी कहानी ही नहीं, मैं स्वीकृत
हुई हूँ, मेरा अपना वजूद स्वीकृत हुआ है-अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान बनाता
हुआ वजूद।
स्वीकृति की सान पर चढ़कर ही शायद आत्मविश्वास को ऐसी धार मिलती है।
कई बार ख़याल आता है कि यदि मेरी पहली कहानी बिना छपे ही लौट आती "तो क्या
लिखने का यह सिलसिला जारी रहता या वहीं समाप्त हो जाता...क्योंकि पीछे मुड़कर
देखती हूँ तो याद नहीं आता कि उस समय लिखने को लेकर बहुत जोश, बेचैनी या
बेताबी जैसा कुछ था। जोश का सिलसिला तो शुरू हुआ था कहानी के छपने, भैरवजी के
प्रोत्साहन और पाठकों की प्रतिक्रिया से। पर वह भी मात्र जोश था...मन में
घुमड़ती बातों को व्यक्त करने...कहानी में पिरोने की ललक से भरा हुआ। उसके
पीछे कोई गम्भीर सोच, वैचारिकता या दायित्व-बोध जैसा शायद ही कुछ था। यह मैं
अच्छी तरह जानती और मानती हूँ कि आज इस क्षेत्र में प्रवेश करनेवाले रचनाकार
अधिक सचेत और समर्थ होते हैं, फिर भी कभी-कभी मात्र दो-तीन कहानियाँ लिखने के
बाद ही कुछ कहानीकारों के बौद्धिकता में पगे और गहरे दायित्व-बोध के बोझ से
बोझिल वक्तव्यों को पढ़ती हूँ तो हैरत होती है। नक़ल की बिना पर टिकी
बौद्धिकता के बोझ को झेलने में असमर्थ उनकी रचनाओं को देखकर तो और भी तरस आता
है।
आज जब अवसर आया है तो यहाँ मैं भैरवजी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज़रूर व्यक्त
करना चाहूँगी, जिसे बरसों से मैं अपने साथ ही लिये घूमती रही हूँ। मैंने जब
इस दिशा में अपना पहला ही क़दम रखा था तो उन्होंने मुझे केवल प्रोत्साहित ही
नहीं किया था वरन मेरा मार्ग-दर्शन भी किया था। आज भी याद है, जब मैंने अपनी
तीसरी कहानी 'अभिनेता' उनके पास भेजी (बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ कहानियाँ
लिखने का नशा जो चढ़ा हुआ था उन दिनों) तो तुरन्त उनका उत्तर आया-‘कोशिश तो
यही करनी चाहिए कि कहानी का ग्राफ़ बराबर ऊपर की ओर चढ़ता रहे पर ऊपर की ओर न
भी चढ़े तो कम-से-कम उस स्तर पर तो ज़रूर ही बना रहे, जहाँ से शुरू किया
था...पर तुम्हारी यह कहानी तो ग्राफ़ के नीचे की ओर सरकने का संकेत कर रही
है। ध्यान रहे आगे से ऐसा न हो।' मैं भैरवजी से कभी मिली नहीं...बरसों तक
उन्हें देख भी नहीं पाई थी, न ही उन्होंने कभी मेरी भेजी हुई किसी कहानी की
स्क्रिप्ट को कभी संशोधित-परिवर्तित करके भेजा। (हो सकता है, कभी इसकी ज़रूरत
ही न पड़ी हो।) इस कहानी को भी उन्होंने जस का तस छाप तो दिया पर उनकी इस एक
चेतावनी ने ही मुझे अपने लेखन के प्रति पूरी तरह सचेत ज़रूर कर दिया ! इसी
सन्दर्भ में एक बात और याद आई तो उसका उल्लेख भी कर ही दूँ। मेरी शादी के बाद
भैरवजी ने बड़े हल्के-फुल्के मूड में कभी किसी से कहा था-'मन्नू भंडारी मेरी
खोज है और राजेन्द्र यादव की प्राप्ति।' अब यह अलग बात है कि इस प्राप्ति (?)
को राजेन्द्र जब तक मैंने उन्हें अपने से पूरी तरह मुक्त नहीं कर दिया, शायद
एक नुक़सान की तरह ही ढोते, भुगतते रहे। पर आश्चर्य तो इस बात का है कि
उन्होंने कभी भी अपने को इस नुक़सान से मुक्त करने की कोशिश तक नहीं की।
बिना किसी व्यवधान के कुछ कहानियाँ छपने और पाठकों की व्यापक प्रतिक्रिया
(अधिकतर प्रशंसात्मक ही) मिलने का परिणाम यह हुआ कि अब बिना किसी झिझक-संकोच
के और थोड़े आत्मविश्वास के साथ कहानियाँ लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। यहाँ
एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि कहानी पत्रिका में छपी शुरू की दो कहानियों के
साथ मेरा चित्र नहीं छपा था और नाम स्पष्ट रूप से लिंग-बोधक नहीं था सो
अधिकतर पत्र तो 'प्रिय भाई' सम्बोधन से ही आए...खूब हँसी आई, पर एक सन्तोष भी
हुआ कि यह प्रशंसा लड़की होने के नाते रिआयती बिलकुल नहीं है... (उस समय इसका
भी बड़ा चलन था) विशुद्ध कहानी की है। चित्र छपने पर ही यह ग़लतफ़हमी दूर हुई
थी। तब एक-एक बैठक में कहानियाँ लिखी थीं, बिलकुल सहज भाव से। कलात्मकता,
शिल्प, बिम्ब, प्रतीक, तराश-ये सारी बातें मेरी समझ के दायरे के बाहर
थीं...दायरे में था तो उल्लास-भरा वह उत्साह और गहरी पहचानवाले वे पात्र,
जिनके जीवन की व्यथा-विडम्बना मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती थी और जिसे
कहानी में पिरोकर उड़ेल देने को मैं व्यग्र रहती थी। शुरू की कहानियाँ इसी
आवेश में लिखी गई हैं, बल्कि कहूँ कि उगली गई हैं।
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