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नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...

द्वितीय अंक

 

[उदास मन से विदूषक का प्रवेश]


विदूषक : (लम्बी सांस भरता हुआ) बस देख लिया। इस मृगयाप्रिय राजा की मित्रता से तो मेरा जी घबराने लगा है। भरी दुपहरी में जबकि विश्राम करने का समय होता है, इसके साथ रहने पर एक वन-से-दूसरे वन में भटकते हुए ऐसे जंगली प्रदेशों से चलना पड़ता है जहां गर्मी के कारण पेड़ों में पत्ते भी नहीं रहे, इसलिए कहीं आराम के लिए छाया भी नहीं मिलती।

उसके ऊपर से दिन-रात यही हल्ला कान फाड़े डालता है- देखो, यह मृग आया, वह सूअर निकल गया, वह देखो, वह रहा सिंह।
फिर सड़े हुए पत्तों से मिले हुए जल वाली नदियों का कसैला और कड़ुवा पानी पीना पड़ता है। अबेर-सबेर लोहे की सीखों पर भुना हुआ मांस खाने को मिलता है। घोड़ों के पीछे दौड़ते-दौड़ते  शरीर के जोड़-जोड़ ऐसे ढीले पड़ गये हैं कि रात में ठीक प्रकार से नींद भी नहीं आती। उस  पर ये दासी पुत्र, चिड़ीमार सवेरे-सवेरे चलो वन को, चलो वन को, चिल्ला-चिल्लाकर ऐसा  हल्ला मचाते हैं कि आई-अवाई नींद उचट जाती है।

अभी वह विपत्ति टली नहीं थी कि उधर फोड़े के ऊपर फुंसी के समान दूसरी विपत्ति आ धमकी है। सुनते हैं कि हम लोगों का साथ छूट जाने पर मृग का पीछा करते-करते राजा भी  तपस्वियों के आश्रम में जा पहुंचे। और मेरे दुर्भाग्य से वहां उनको मुनि कन्या शकुन्तला  दिखाई दे गई। अब किसी भी प्रकार उनका मन नगर को लौटने के लिए करता ही नहीं है।  आज भी रातभर उसी की चिन्ता में जागते हुए उनकी आंखों ने सवेरा कर दिया क्या करूं?  चलूं, वे नित्य कर्म कर चुके हों तो उनसे दो बातें करुं।

(घूमकर और देखकर)

अरे, मेरे मित्र तो इधर ही चले आ रहे हैं और उनके साथ ही हाथ में धनुष बाण लिये और गले में जंगली फूलों की मालाएं डाले हुए बहुत-सी यवनी सेविकायें भी चली आ रही हैं।

अच्छी बात है, मैं भी अंग-भंग विकल की भांति लुंज-पुंज-सा होकर यहीं खड़ा रहता हूं। कदाचित् इस प्रकार ही कुछ विश्राम मिल जाय।

[लाठी टेक कर खड़ा हो जाता है।]

[जैसे विदूषक ने कहा था, उस प्रकार की सेविकाओं के साथ राजा का प्रवेश।]

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